मैंने कहा- चलिए छोड़िए, मैं नहीं समझ पाया, आप ही बता दीजिए कि उनका प्रयोजन क्या है। वे बोले- देखिए, आप एक नागरिक हैं, अच्छे शहरी हैं इसलिए वे आपसे मिलना चाहते हैं। मैंने कहा- तो इसके लिए उन्हें यहां आने की जरूरत क्या है। वे जब चाहें, जहां चाहें बुला भेजें। मैं हाजिर हो जाऊंगा। वैसे भी उनकी कोठी, बंगला या निवास, जो कुछ भी हो पर सुबह से मुझ जैसे नागरिकों की लाइन लगी रहती है। आप कहेंगे तो मैं उस लाइन में खड़े होकर उनसे मिलने का इंतजार कर लूंगा।
अरे नहीं भाई, कुछ समझा करो, बात इतनी सीधी नहीं है। लाइन में तो वे लोग खड़े होते हैं जिन्हें अपना कोई काम होता है और लाइन सिर्फ सुबह नहीं बल्कि दिन भर लगा करती है। कितने ही लोग तो रात के एक-एक बजे तक उनसे मिलने के लिए बैठे रहते हैं। इन दिनों वे थोड़ा जल्दी सो जाते हैं, फिर भी ग्यारह बजे तक तो दर्शनार्थियों का रेला लगा रहता है।
मैंने कहा- अच्छा। तो क्या इन तमाम लोगों के लिए वहां कुछ चाय-पानी की व्यवस्था होती है!
अरे! आपने भी कहां की लगाई। तीन-चार-पांच बैरिकैड्स के बाहर पुलिस वाले लोगों को खड़े रहने की अनुमति दे देते हैं, यही क्या कम है। हां, कभी-कभी कुछ लोगों के साथ वे फोटो खिंचवा लेते हैं, जिससे पता चलता है कि उनके मन में आम लोगों के प्रति कितना दयाभाव है। आपको इस जहमत में न पड़ना पडे ऌसलिए वे ही आपसे मिलने आना चाहते हैं।
-यह सब मैं समझ गया, लेकिन यह बिन मौसम बरसात कैसी?
- लगता है कि आप सठियाने लगे हैं। मौसम तो आ गया है और आप कह रहे हैं कि आपको पता नहीं। जनाब कैसे भूले जा रहे हैं कि आम चुनाव में अब यादा वक्त नहीं है।
- हां, यह तो मैं जानता हूं कि चुनाव निकट है, लेकिन इसका उनके मिलने आने से क्या ताल्लुक?
- फिर वही बात। आप पत्रकार हैं इसलिए वे चुनाव पूर्व आपसे कुछ जरूरी मंत्रणा करना चाहते हैं।
- मैं पत्रकार हूं तो क्या हुआ? मेरे पास तो सिर्फ अपना एक वोट है। पत्नी भी किसे वोट देगी, मैं नहीं जानता। ऐसे में मैं उनका कीमती वक्त जाया करने का अपराधी क्यों बनूं? बेहतर हो कि वे अपना समय मतदाताओं से सम्पर्क साधने में बिताएं।
- आपको समझाना बहुत कठिन हैं। वे आपका वोट मांगने नहीं आ रहे हैं। उन्हें आपसे इस मौके पर आपसे कुछ और सहयोग की आवश्यकता है। रही बात मतदाताओं की, तो वे जिस दिन से राजनीति में आए हैं उस दिन से मतदाताओं का दिल जीतने में ही तो लगे रहे हैं, चुनाव हो या कोई और मौका।
- जब मतदाताओं से उनका इतना निरंतर सम्पर्क है, तो फिर चिंता की क्या बात है। मेरा जहां तक सवाल है, मैं तो एक छोटे से शहर का छोटा सा पत्रकार हूं। मुझसे उन्हें क्या हासिल होगा।
- नहीं ऐसा नहीं है। वे आपकी बहुत इात करते हैं। आप इतने पुराने पत्रकार हैं। उन्हें तब से जानते हैं जब वे राजनीति में पहला कदम रख रहे थे। आपकी राय से उन्हें कुछ न कुछ लाभ जरूर होगा।
- आप कह रहे हैं तो ठीक ही कह रहे होंगे, लेकिन भारतवर्ष में बहुत बड़े-बड़े पत्रकार हैं। मैं तो समझता था कि वे उनके ज्यादा काम के हैं। देखिए न, एक को उन्होंने राज्यसभा में भेजा, दूसरे को फैक्ट्री का लाइसेंस दिया, तीसरे को खदान का पट्टा, चौथे को सरकारी जमीनों पर बेजा कब्जा करने की इजाजत, पांचवें को चिटफंड चलाने दिया, छठवें को कलेक्टर-एसपी के ट्रांसफर-पोस्टिंग करवाने से मालामाल किया, सातवें से पुलिस में मुखबिरी करवाई, आठवें को राजदूत बनाया, नौवें को अपना प्रेस सलाहकार, दसवें को पार्टी प्रवक्ता नियुक्त किया, ग्यारहवें को पद्मश्री। कहिए और कितना गिनाऊं।
-यही तो रोना है। जिन पत्तों पर तकिया था, वे पत्ते हवा देने लगे। जो उनकी शान में कल तक कशीदे काढ़ रहे थे वे अब और कुछ न मिलने की उम्मीद देखकर किनाराकशी करने लगे हैं। उनके पास तो अब ऐसी रिपोटर्ें आ रही हैं कि जो उनके सामने उनके हितैषी बनते थे वे ही रात के अंधेरे में उनके विरोधियों से हाथ मिला रहे हैं।
- तो भाई! इसमें मैं क्या कर सकता हूं। मैं तो कहीं आता-जाता नहीं। घर बैठे जितना पढ़-सुन लेता हूं उतना ही मेरा ज्ञान है। चुनावों में क्या होगा ये मैं कैसे जानूं? हां, इतना जरूर जानता हूं कि अपने कई बरसों के राज में उन्होंने जो दर्जनों क्या सैकड़ों जनहितैषी योजनाएं लागू कीं, वे अगर ठीक चली होंगी तो उसका फायदा उन्हें जरूर मिलेगा।
- अब आप आए मुद्दे पर। वे आपसे मिलकर शायद यही जानना चाहेंगे कि उनकी घोषणाओं, योजनाओं, कार्यक्रमों का जनता को कितना लाभ मिला और जनता उनसे कितनी खुश है। इस बारे में आप उन्हें सही-सही तस्वीर बतला सकेंगे।
- नहीं बंधु! मेरी इतनी क्षमता नहीं है। मैं इतना कह सकता हूं कि सिर्फ योजनाएं लागू करना काफी नहीं है। यह तो सरकार का काम है, लेकिन जनता इसके अलावा और भी कुछ चाहती है।
- अच्छा ऐसा है। इस बात का थोड़ा खुलासा कीजिए।
भाई, खुलासा तो उस बात का हो जो छिपी हो। यहां तो जाहिर है कि जनता आपको काम करने के लिए चुनती है। आपकी इात भी करती है, लेकिन जब आप अहंकार में आ जाते हैं, भ्रष्टाचार करते समय आगा-पीछा नहीं सोचते, आम आदमी से दुर्व्यवहार करने लगते हैं, आपकी लालबत्ती उसे डराने लगती है, आपके काफिले को रास्ता देने के लिए उसे दुबकना पड़ता है, आपके मीठे आश्वासन जब झूठे हो जाते हैं, जब आप अवसरवादियों और खुशामदखोरों के चक्कर में पड़ जाते हैं, जब आप मोटा चंदा देने वालों के चंगुल में फंस जाते हैं, जब आप जनता को अधिकार नहीं, दया का पात्र मान बैठते हैं, तब ऊपर से जनता भले ही खामोश रहे, भीतर-भीतर वह तड़पती रहती है और सबक सिखाने के लिए मौके का इंतजार करती है।
- बाबा रे बाबा! आप ऐसी बात सोच रहे हैं। वे जब आपसे मिलेंगे तब क्या यही बातें कहेंगे?
- हां भाई! मिलूंगा तो यही कहूंगा। आप कहें तो आपके साथ चलकर वे दिल्ली, भोपाल, जयपुर, रायपुर जहां भी रहते हों उनसे सामने-सामने यह बात कर सकता हूं।
- ऐसा कहकर तो आप मेरी नौकरी खा जाएंगे। बेहतर है कि आप उनसे ना ही मिलें।
- यही तो मैं शुरू से ही कह रहा था कि मेरे जैसा आम आदमी उनके काम का नहीं है।
देशबंधु में 25 अप्रैल 2013 को प्रकाशित