यह बताने की जरूरत शायद नहीं है कि हमारे समाज में शरीर से बौने लोगों के साथ क्या बर्ताव किया जाता है। अक्सर तो उन्हें उपहास का लक्ष्य बनाया जाता है या फिर कभी-कभी उन्हें बेचारगी की दृष्टि से भी देखा जाता है। शादी, ब्याह या जन्मदिन की आलीशान पार्टियों में कई बार बौने लोगों को अतिथियों का मनोरंजन करने के लिए दरवाजे पर खड़ा कर देते हैं। सर्कसों में तो इसी लिहाज से उनकी उपस्थिति कोई सौ साल से चली आ रही होगी। इधर यदा-कदा उन्हें फिल्मों में भी जोकर का रोल मिलने लगा है। यद्यपि कुछ समय पहले जेम्स बांड की एक फिल्म में एक बौने को खलनायक के जरखरीद क्रूर हत्यारे के रूप में भी चित्रित किया गया था। फिल्म के अंत में जेम्स बांड उसे किसी पेटी में बंद कर देता है। कुल मिलाकर बौने व्यक्ति की देहयष्टि ही उसके लिए अभिशाप बन जाती है और यह जानने की कोशिश कोई नहीं करता कि उसकी मानसिक क्षमता कितनी है।
यह हमारे समय की विडम्बना है कि एक तरफ यह नजारा है तो दूसरी तरफ बड़ी संख्या में ऐसे लोग जो बुध्दि विवेक में बौने हैं, आए दिन किसी न किसी रूप में सम्मानित, पुरस्कृत और अलंकृत होते रहते हैं। उन्हें सर-आंखों पर बैठाते समय कोई भी यह सवाल नहीं पूछता कि उनका बौध्दिक स्तर क्या है। बौध्दिक स्तर से आशय यहां सिर्फ कॉलेज या विश्वविद्यालय की डिग्री से नहीं है। ऐसा व्यक्ति विवेक सम्पन्न है या नहीं, उसमें सिध्दांतों पर टिके रहने की जिद है या नहीं, वह बौध्दिक रूप से कितना ईमानदार है- इन बातों की तरफ शायद ही किसी की तवज्जो जाती हो। इस अनदेखी का ही परिणाम है कि देश की जनतांत्रिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण और निर्णयकारी स्थानों पर ऐसे-ऐसे लोग काबिज हो चुके हैं जो कि उसके सर्वथा अयोग्य थे और इस गफलत की भारी कीमत हमें सामूहिक रूप से चुकाना पड़ रही है।
ये बौने लोग सत्ता के शिखरों पर पहुंचने के बाद जिस तरह का गर्हित आचरण कर रहे हैं उसकी बानगी आए दिन देखने मिल रही है। अभी चार दिन पहले महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने आन्दोलनकारी जनता के प्रति जिस अभद्र शब्दावली का उपयोग किया, वह इसका एक प्रमाण है। ये वही पवार हैं जिन्हें सिंचाई घोटाले में नाम आने के कारण कुछ माह पूर्व अपना पद छोड़ना पड़ा था। फिर ऐसी क्या मजबूरी हुई कि उन्हें ससम्मान उसी पद पर वापिस ले आया गया। महाराष्ट्र की जनता चुपचाप और शायद हताशा के भाव से यह खेल देखती रही। अजीत पवार ने भाषण के दौरान जो हाव-भाव दिखाए जिसकी झलकी टीवी पर देखने मिली, उससे उनका बौध्दिक बौनापन ही प्रकट हुआ। महाकवि रहीम ने ऐसे लोगों के लिए ही पांच सौ साल पहले कहा था- 'प्यादा सो फरजी भयो टेढ़ो-टेढ़ो जाए।'
अजित पवार का यह उदाहरण ताजा-ताजा है, लेकिन एक दिन भी नहीं जाता जब कहीं न कहीं से इस तरह की ओछी बातें सुनने न मिलती हों। अगर काश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है तो कहना पड़ेगा कि ऐसा टुच्चापन हर प्रदेश में देखने मिल रहा है। महाराष्ट्र अपवाद नहीं है। बाकी प्रदेशों में और बाकी पार्टियों में भी यही सब रोज हो रहा है। और तो और, जिन तथाकथित साधु संतों के प्रवचन सुन लोग अपना परलोक सुधारने में लगे रहते हैं वे भी विचारों से बौने होने का परिचय आए दिन देते रहते हैं। संत (?) आसाराम के हाल के वक्तव्यों को देख लें। निर्भया कांड में उन्होंने जैसी टीका की वह मानो पर्याप्त नहीं थी। इसके बाद होली के अवसर पर भी पानी की बर्बादी का प्रश्न उठने पर उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया में शब्दों पर संयम नहीं रखा।
यह बौनापन सिर्फ व्याख्यानों और वक्तव्यों तक सीमित नहीं है। इसका प्रदर्शन और भी बहुत रूपों में हो सकता है और होता है। मिसाल के तौर पर मुकेश अंबानी के सत्ताइस मंजिला महल को ही लें। सुना है कि कई अरब की लागत से बने इस भव्य प्रासाद में कोई वास्तुदोष निकल जाने के कारण अंबानी परिवार यहां रहने अभी तक नहीं आया है। संभव है कि कोई वास्तुपंडित कोई टोटका करके यह दोष खत्म कर दे, लेकिन हमें तो सत्ताइस मंजिल की इस मीनार को देखकर भारत की सबसे बड़े धनकुबेर की सोच के बौनेपन का ही अनुमान होता है। एक समय था जब राजा-महाराजाओं ने अपने लिए बड़े-बड़े महल बनवाए; उनके सामने शायद इतिहास के दृष्टांत नहीं थे, लेकिन आज जब कई हजार साल के इतिहास की सूचनाएं उपलब्ध हैं तब भी उससे कोई सबक न लेने में कौन सी बुध्दिमानी है।
देश में जो हजारों पुरस्कार बांटे जाते हैं उनमें भी यही बौध्दिक कंगाली परिलक्षित होती है। ऐसी सैकड़ों गैर-सरकारी संस्थाएं हैं जिनकी स्थापना सिर्फ फर्जी अलंकरण देने के लिए ही की गई है। इन संस्थाओं के सूत्रधार किसी भूतपूर्व रायपाल, भूतपूर्व राजदूत या ऐसे किसी व्यक्ति को अपना अध्यक्ष बना लेते हैं और फिर उसके नाम का उपयोग कर पुरस्कार अभिलाषी लोग से सहयोग राशि इकट्ठी कर उसी से उनको कोई आकर्षक नाम वाला पुरस्कार दे देते हैं। 'जिसका जूता उसी का सिर'। जो सूत्रधार हैं उसके लिए तो यह कमाई का जरिया है, लेकिन जो महानुभाव उसे अपने नाम का इस्तेमाल करने देते हैं उनकी बुध्दि के बारे में क्या कहा जाए! अपने जीवन में बड़े-बड़े पदों पर रह चुके लोग यदि इस तरह के फर्जीवाड़े में शामिल होते हैं तो वे अपनी अपूर्ण, तुच्छ आकांक्षा को ही प्रदर्शित करते हैं। हमारे साहित्यकार और कलाकार तो पुरस्कार और प्रसिध्दि के लिए जैसे पागल हुए जाते हैं। उनका सारा समय इसी जोड़-तोड़ में लगा रहता है कि कब कौन बुलाकर माला पहना दें और बन सके तो एकाध लिफाफा भी थमा दे। कुछेक संस्थाएं इसी उद्देश्य से स्थापित होती हैं कि उसके माध्यम से रायपाल, मुख्यमंत्री या ऐसे प्रभावशाली लोगों में मेलजोल बढ़ाया जा सके। बहुत से लोग इन फर्जी संस्थाओं के कार्यकमों में शामिल भी इसीलिए होते हैं कि मंत्री-मुख्यमंत्री उनके ऊपर एक अनुग्रह भरी दृष्टि डाल दें। अभी पच्चीस-तीस साल पहले तक संत कवि कुंभनदास को साक्षी रखकर लेखक कहता था- संतन को कहा सीकरी सौ काम, लेकिन अब तो ऐसा लगता है कि सारे के सारे संत न सिर्फ सीकरी में बस गए हैं, बल्कि राजसत्ता की गोद में बैठने के लिए मचल रहे हैं और एक दूसरे से झगड़ रहे हैं।
यही स्थिति टीवी पर अवतरित होने वाले विशेषज्ञों की भी है। अधिकतर का लक्ष्य यही होता है कि वे जो बात कर रहे हैं उसके चलते उन्हें या तो रायसभा की मेम्बरी मिल जाएगी या फिर लाभ देने वाला ऐसा ही कोई अन्य पद। इस तरह से तमाम बौने लोग हमारे सामाजिक जीवन पर टिड्डियों की तरह छा गए हैं- कोई निर्वाचित प्रतिनिधि बनकर, कोई रायसभा सदस्य बनकर, कोई पद्म अलंकरण पाकर, कोई विश्वविद्यालय से मानद उपाधि लेकर, कोई किसी संगठन में किसी पद पर, तो कोई स्वयं को लेखक या विचारक के रूप में स्थापित करके। यह पाने के लिए पैसा खर्च करना पड़े, साष्टांग दण्डवत करना पड़े, कोई भी मक्कारी करना पड़े, सब कुछ क्षम्य है। बुध्दि विवेक के इन बौनों से तो सर्कस के वे जोकर अच्छे जो अपनी मेहनत की रोटी खाते हैं।
देशबंधु में 11 अप्रैल 2013 को प्रकाशित
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