Friday, 5 April 2013

यात्रा वृत्तांत : एक अनूठे गाँव की कहानी



गो दरगावां। बिहार के बेगूसराय जिले का एक छोटा सा गांव। इतना छोटा कि गोदरगावां सहित चार गांवों को मिलाकर एक ग्राम पंचायत बनी है। सर्वे ऑफ इंडिया के रोड एटलस याने सड़क मानचित्र में इस गांव को एक बिन्दु भर जगह भी नहीं मिल पाई है। फिर भी यह एक ऐसा गांव है, जिसे हिन्दी जगत में साहित्य तीर्थ की मान्यता मिली हुई है। नामवर सिंह, कमलेश्वर, विश्वनाथ त्रिपाठी, अशोक वाजपेयी- कौन नहीं आया यहां! तो ऐसा क्या खास है इस जगह में!

मैं खुद पिछले कई सालों से गोदरगावां जाने का कार्यक्रम बना रहा था, लेकिन किसी न किसी कारण से यात्रा टल जाती थी। लगभग दस साल की इच्छा अब जाकर पूरी हुई। जिन मित्रों को पता था कि मैं वहां जा रहा हूं उनमें से कुछ ने कहा- बेगूसराय बिहार का लेनिनग्राड है। यह उपमा मैंने पहले भी सुन रखी थी। पटना से गोदरगावां पहुंचा तो वहां भी नए-पुराने दोस्तों से बार-बार सुनने मिला कि आप लेनिनग्राड आ गए। यह इसलिए कि स्वाधीनता संग्राम में इस जिले ने तो देश के बाकी हिस्सों की तरह बढ़-चढ़ कर भाग लिया ही, हिन्दी भाषी क्षेत्र में यहीं कम्युनिस्ट पार्टी को एक मजबूत जमीन मिली और यहां के खेतों में समाजवाद के विचार बीज बोए गए।

पटना से गंगा के दक्षिणी किनारे के साथ-साथ पूरब की दिशा में चलते हुए सेमरिया घाट पर राजेन्द्र सेतु पार कर कोई तीन घंटे में हम बेगूसराय पहुंचे।  यहां निकट ही बरोनी में इंडियन ऑयल का तेलशोधन संयंत्र है और जो बिहार में औद्योगिक विकास का एकमात्र उदाहरण है। बेगूसराय में राष्ट्रीय राजमार्ग पर ही महाकवि दिनकर की विशालकाय प्रतिमा स्थापित है। थोड़ा आगे बढ़कर गांव की तरफ रास्ता मुड़ता है। तीस-पैंतीस मिनट बाद गोदरगावां पहुंचते हैं। प्रवेश करते साथ ही चन्द्रशेखर आजाद की आदमकद मूर्ति लगी है। गांव के ही एक किसान ने अपने स्वर्गवासी अनुज की स्मृति में इस प्रतिमा की स्थापना की है। देश में ऐसे उदाहरण कम ही होंगे जहां प्रियजन की स्मृति को अक्षुण्ण रखने के लिए एक महान क्रांतिवीर की प्रतिमा लगाई जाए। यहां एक ओर निजी स्मृतियों को संजोए रखने की भावुकता थी, तो दूसरी ओर समाज को बदलने का अधूरा सपना वास्तविकता में बदलने का एक मौन संकल्प भी। 


बहरहाल, गोदरगावां को जो पहचान मिली है वह इसके अस्सी साल पुराने विप्लवी पुस्तकालय के चलते है। 1991 में गांव के लोगों ने महावीर पुस्तकालय की स्थापना की थी। कालांतर में इसका नाम बदलकर विप्लवी पुस्तकालय कर दिया गया। एक छोटे से गांव में जनता के सहयोग से एक पुस्तकालय की स्थापना हो सकती है, वह अस्सी साल तक चल सकता है, उसका अपना सुनियोजित भवन हो सकता है- इन सारी बातों की कल्पना कम से कम रायपुर में बैठकर तो नहीं की जा सकती; जहां पहले से चले आ रहे पुस्तकालय बंद हो गए हैं, जहां स्वाधीनता संग्राम का केन्द्र आनंद समाज पुस्तकालय मरणशय्या पर है और जिसकी तरफ देखने की किसी को फुरसत नहीं है।


विप्लवी पुस्तकालय का अपना दोमंजिला भवन है। इसमें नीचे एक वाचनालय है जहां बिहार के सारे अखबार और देश की तमाम महत्वपूर्ण पत्रिकाएं आती हैं। लाइब्रेरी में बाइस हजार पुस्तकों का भंडार है जिनमें अंग्रेजी की भी कुछ पुस्तकें हैं। इस विशाल भंडार में कविता, कहानी, उपन्यास, यात्रा वृत्तांत आदि तो हैं ही, धर्म, दर्शन, इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र आदि पर भी पर्याप्त पुस्तकें हैं। सारी पुस्तकें तरतीबवार रखी गई हैं और उनका सूचीकरण भी विधिवत् किया गया है। अंदाज लगाइए, मुझे कितनी खुशी हुई होगी जब 2003 में प्रकाशित मेरा निबंध  संकलन ''समय के साखी'' लाइब्रेरियन महोदय ने मेरे सामने लाकर रख दिया। पुस्तकालय के प्रवेश द्वार पर ही शहीदे आजम भगत सिंह की प्रतिमा जनसहयोग से ही स्थापित की गई है, जिससे पुस्तकालय के नाम को सार्थकता मिलती है। 


पुस्तकालय के सामने सड़क पार एक तिमंजिला भवन भी लगभग दस साल पहले बनाया गया है, जिसमें अभी हाल तक निर्माण कार्य चलते रहा है। यहां देवी वैदेही सभागार है, जिसका निर्माण गांव के ही एक अन्य सेवाभावी सान ने अपनी स्वर्गीया पत्नी की स्मृति में करवाया है। इस सभागार की क्षमता साढ़े तीन सौ व्यक्तियों की है। मंच पर फिल्म आदि प्रदर्शन के लिए एक बड़ा परदा लगाया गया है। ऐसा सुंदर हाल, एक बार फिर कहूं कि रायपुर में भी नहीं है। इस प्रेक्षागृह के भवन में ही अनेक अतिथि कक्ष व बैठक कक्ष आदि बनाए गए हैं। जिनके नामकरण में साहित्यिक अभिरुचि का परिचय मिलता है- रंगभूमि, कर्मभूमि, सेवा सदन, प्रेमाश्रम आदि, याने प्रेमचंद की प्रसिध्द कृतियों का स्मरण। अभी हाल में राहुल सांकृत्यायन के सुप्रसिध्द उपन्यास सिंह सेनापति के नाम पर एक कक्ष का नामकरण किया गया है। एक छत को नाम दिया गया है- कैफी आामी संस्कृति विहार। एक और छत है जो विवेकानंद वाटिका के नाम से पुकारी जाती है।


इस भवन के सामने की दीवार पर मीराबाई की आदमकद प्रतिमा उकेरी गई है। प्रवेश द्वार के एक तरफ प्रेमचंद की प्रतिमा स्थापित है तो दूसरी ओर कबीर की। जनवरी 1931 में शहीद पांच देशभक्तों का एक भित्तिचित्र भी सामने ही लगा है। दोनों भवनों में जगह-जगह पर देश के महान साहित्यकारों के चित्र दीवारों पर लगाए गए हैं। इनमें आप महावीर प्रसाद द्विवेदी, बालकृष्ण भट्ट और प्रतापनारायण मिश्र से लेकर गजानन माधव मुक्तिबोध, हरिशंकर परसाई व मन्नू भंडारी तक के चित्र देख सकते हैं। यहां शेक्सपीयर, मार्क्स तथा लेनिन भी मौजूद हैं तथा गालिब, फौ, मााज व कैफी आामी भी। यहां जो भोजनकक्ष है उसे कबीर चौका नाम दिया गया है। अपने साहित्य मनीषियों के प्रति ऐसा समादर उनकी स्मृति को जीवित रखने का ऐसा प्रयत्न, और इस सबमें सरकार की नहीं, बल्कि जनता की भागीदारी और कहां देखने मिलेगी?


विप्लवी पुस्तकालय में हर साल 23 मार्च को भगतसिंह का बलिदान दिवस बहुत शिद्दत के साथ मनाया जाता है। आयोजनकर्ता देश के जाने-माने साहित्यकारों को मनुहार करके बुलाते हैं। हर साल की तरह इस साल भी 23 मार्च को 12 बजे भगतसिंह प्रतिमा से एक जुलूस निकला जो एक किलोमीटर दूर चन्द्रशेखर आजाद की प्रतिमा तक जाकर लौटा। इस जुलूस में कोई ढाई-तीन हजार लोग शामिल थे। वहां से लौटे नहीं कि ''नवसाम्राज्यवाद और प्रगतिशील आंदोलन की चुनौतियां''- इस विषय पर वैदेही सभागार में संगोष्ठी प्रारंभ हो गई। साढ़े तीन सौ लोग कुर्सियों पर, सौ-एक लोग अतिरिक्त कुर्सियों पर अथवा बालकनी की सीढ़ियों पर, गलियारे में और सौ लोग, फिर बाहर खुले मैदान में पंडाल के नीचे लाउड स्पीकर से चर्चा सुनते पांच सौ से ज्यादा। इस तरह एक हजार लोगों की उपस्थिति में यह पहली संगोष्ठी हुई जो एक बजे से साढ़े चार बजे तक साढ़े तीन घंटे निरंतर चलते रही। बाहर से आए वक्ता भूख से बेहाल थे, लेकिन श्रोता बराबर जगह पर जमे हुए थे। उस शाम हम लोगों को पांच बजे दिन का भोजन नसीब हुआ।


शाम सात बजे से इप्टा लखनऊ द्वारा ब्रैख्त के नाटक का मंचन था। गांव के लोग, खासकर महिलाएं अपना काम-काज निपटा कर आईं। सो आठ-सवा आठ बजे से शुरु होकर ग्यारह बजे तक सांस्कृतिक कार्यक्रम चलता रहा, उसमें भी ढाई हजार की भीड़। अगले दिन 11 बजे दूसरी विचार गोष्ठी प्रारंभ हुई वह भी दो बजे तक चली। इसमें श्रोताओं की संख्या पिछले दिन के मुकाबले कम, लेकिन चार सौ के आसपास थी। चार बजे अंतिम कार्यक्रम के रूप में जनसभा का आयोजन किया गया। इसमें भी खासे उत्साह के साथ ग्रामवासियों ने भाग लिया। 


कुल मिलाकर गोदरगावां की यात्रा एक नायाब अनुभव था। इस गांव के निवासी और बिहार में तीन बार विधायक रह चुके लेखक मित्र राजेन्द्र राजन पुस्तकालय व इस कार्यक्रम के प्रमुख सूत्रधार हैं। उनके साथ हमउम्रों के अलावा युवा सहयोगियों की एक समर्पित टीम है। इनके बल पर ही 2008 में इस छोटे से गांव में प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम का आयोजन सम्पन्न हो सका था। एक आखिरी बात। 23 तारीख की शाम मैं ठेलेनुमा दूकान पर बिस्किट खरीदने गया तो पहले तो दूकानदार ने पैसे लेने से मना कर दिया। वहां खड़े अन्य लोगों ने भी कहा कि आप हमारे अतिथि हैं, हम पैसा नहीं लेंगे। मैं बहुत मुश्किल से उस युवा दूकानदार को कीमत अदा कर सका।


देशबंधु में 4 अप्रैल 2013  को प्रकाशित

No comments:

Post a Comment