Wednesday, 23 April 2014
Wednesday, 16 April 2014
नक्सल समस्या : हल क्या है?
Wednesday, 9 April 2014
आम चुनाव और एन.जी.ओ.
यह हर कोई जानता है कि जनतंत्र के तीन स्तंभ होते हैं-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। इन तीनों की अपनी-अपनी स्वायत्त भूमिकाएं हैं और इनके बीच इस तरह से शक्ति संतुलन होने की अपेक्षा की जाती है कि जनतंत्र की इमारत में दरार न पड़ने पाए। इस व्यवस्था में एक नया आयाम पत्रकारिता के विकास के साथ आ जुड़ा और मीडिया को जनता के बीच चौथे स्तंभ के रूप में मान्यता मिल गई। ऐसी सामान्य धारणा बन गई कि व्यवस्था के औपचारिक ढांचे में अगर कहीं कोई कमजोरी आएगी तो मीडिया एक सजग प्रहरी के तौर पर उसकी ओर ध्यान आकर्षित करेगा ताकि यथासमय उस कमजोरी को दूर किया जा सके। मैं समझता हूं कि पूरी दुनिया में एक दौर में अखबारों ने इस रोल को पूरी गंभीरता के साथ स्वीकार किया, आज की वास्तविकता भले ही कुछ और हो। यह याद रखना चाहिए कि औपचारिक रूप से स्थापित स्तंभों और जनमान्यता वाले चौथे स्तंभ के बीच कभी बहुत मधुर संबंध या नैकटय नहीं रहा और जब ऐसा होने लगा तो उसकी साख में कमी आने लगी।
इधर हमने देखा है कि इस संरचना में सिविल सोसायटी के नाम से एक पांचवां स्तंभ खड़ा हो गया है। इस नए स्तंभ के निर्माण के पीछे दो मुख्य कारण दिखाई देते हैं। एक तो जनतांत्रिक व्यवस्था की आधारभूत तासीर ही ऐसी है कि उसमें असहमति व मतवैभिन्न्य की गुंजाइश सदा बनी रहती है। दूसरे जनतंत्र का लक्ष्य लोककल्याण होता है और उसके लक्ष्यों को पाने के लिए प्रशासन की औपचारिक सरणियां कभी पर्याप्त नहीं होतीं याने कार्यक्रम लागू करने के लिए एक बंधे-बंधाएं ढांचे से बाहर निकलकर समाज के विभिन्न वर्गों का सहयोग लेना होता है। इस तरह सिविल सोसायटी में एक तरफ वे संस्थाएं हैं जो नीतियों और मुद्दों पर प्रश्न उठाती हैं, जनतांत्रिक सरकार को कटघरे में खडा करती हैं व उससे जवाबदेही की मांग करती हैं। दूसरी तरफ वे संस्थाएं हैं, जो कल्याणकारी कार्यक्रमों को लागू करने में व्यवस्था के साथ सहयोग करती हैं। इन दोनों श्रेणियों के बीच कोई अनिवार्य विरोधाभास नहीं है बल्कि ऐसी अनेक संस्थाएं हैं जो दोनों मोर्चों पर समान रूप से काम करती हैं।
यूं तो सिविल सोसायटी संज्ञा का दायरा बहुत बड़ा है। उसमें छात्रसंघ, ट्रेड यूनियन, चेम्बर ऑफ कामर्स, महिला मंडल- सब आ जाते हैं, लेकिन अभी हम सिविल सोसायटी के उस बड़े और प्रमुख अंग की बात करने जा रहे हैं जिसे एन.जी.ओ. (गैर सरकारी संगठन) कहा जाता है। इसका रूप इतना वृहद हो चुका है कि अब उसे सेक्टर कहा जाने लगा है। संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर विभिन्न देशों की सरकारें इस क्षेत्र को मान्यता देती हैं व उनके साथ संवाद करती हैं। ऐसा माना जाता है कि ये गैर सरकारी संगठन जमीनी स्तर पर काम करते हैं, और उनके साथ सलाह-मशविरा करते रहने से लोकहितैषी नीतियों व कार्यक्रमों को बेहतर तरीके से लागू करने में मदद मिल सकती है। कुल मिला कर एन.जी.ओ. सेक्टर को जनतंत्र के पांचवां स्तंभ के रूप में मान्यता मिल गई है।
भारत जैसे देश में जहां अभी समग्र व समावेशी विकास के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है स्वाभाविक रूप से एन.जी.ओ. सेक्टर व्यापक स्तर पर अपनी भूमिका निभा रहा है। यह दिलचस्प तथ्य है कि देश के अनेकानेक राजनेताओं ने, भले ही वे किसी भी पार्टी से संबंध रखते हाें, अपनी पहल पर ऐसे कई संगठन स्थापित कर लिए हैं। इस मामले में सरकारी अधिकारी भी पीछे नहीं हैं। इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि अपने एन.जी.ओ. के माध्यम से ये लोग ''इस हाथ दे उस हाथ ले'' की उक्ति को चरितार्थ कर रहे हों। हम ऐसे कई फर्जी एन.जी.ओ. के बारे में जानते हैं जो सत्ताधीशों द्वारा स्थापित किए गए हैं और सरकार से किसी न किसी कार्यक्रम के नाम पर भरपूर मदद ले लेते हैं। यह एक अलग किस्सा है। अभी तो हमारी दिलचस्पी यह जानने में है कि व्यवस्था के औपचारिक ढांचे से बाहर पांचवें खंभे के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले एन.जी.ओ. कार्यकर्ता एकाएक पहला खंभा बनने के लिए बेताब क्यों हो उठे हैं याने वे चुनावी मैदान में क्यों कूद पड़े हैं?
एन.जी.ओ. के साथी भी इस देश के ही नागरिक हैं और उन्हें वही सारे अधिकार उपलब्ध हैं जो आपको-हमको हैं, इसलिए उनके निर्णय पर प्रश्नचिन्ह तो नहीं लगा सकते लेकिन यह जिज्ञासा मन में अवश्य उठती है कि इनकी सोच में ऐसा क्रांतिकारी परिवर्तन क्यों आ गया है! एन.जी.ओ. सेक्टर के एक प्रमुख अभिनेता अरविंद केजरीवाल तो अब पूरी तरह से राजनेता बन ही चुके हैं, लेकिन उनके समानांतर चलने वाले या उनका अनुसरण करने वाले एन.जी.ओ. नेताओं की अब कोई कमी नहीं दिखाई देती। उदाहरण के लिए एक नाम है- जयप्रकाश नारायण का। आंध्रनिवासी श्री नारायण पूर्व आई.ए.एस. अधिकारी हैं। स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर वे पिछले कई वर्षों से एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम कर रहे थे। उन्होंने लोकसत्ता नाम से एक संस्था बनाई जिसके मंच से वे चुनाव सुधाराें की वकालत करते रहे हैं।
श्री नारायण ने अब लोकसत्ता को एक राजनैतिक पार्टी में तब्दील कर दिया है। वे पहिले तो भाजपा के साथ गठजोड़ करने की जुगत भिड़ाते रहे। बात नहीं बनी तो अब अकेले अपने दम पर चुनाव लड़ रहे हैं। मेधा पाटकर का जिक्र मैंने पिछले हफ्ते किया ही था। उनके साथ 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' में बहुत से जुझारू कार्यकर्ता भी विभिन्न स्थानों से चुनाव लड़ रहे हैं। इस तरह एन.जी.ओ. क्षेत्र में काम करने वाले ऐसे अनेक जन हैं जो राजनीति के औपचारिक मंच पर अपनी भूमिका तलाश रहे हैं। इनमें से किसे कितनी सफलता मिलती है यह तो आगे चलकर पता लगेगा, लेकिन यह बात कम से कम मेरी समझ में नहीं आती कि इनका राजनीति में आने का मकसद क्या है।
एक सरल उत्तर शायद यह हो सकता है कि वे जिन मूल्यों और आदर्शों के लिए अब तक संघर्षरत रहे उन्हें प्रभावी ढंग से अमल में लाने के लिए लोकसभा में बैठना जरूरी है। अगर ऐसा है तो मैं कहूंगा कि उन्होंने अपने जीवन का एक लम्बा समय यूं ही जाया किया। मेधा पाटकर, अरविंद केजरीवाल, जयप्रकाश नारायण- ये सब नेतृत्व क्षमता के धनी लोग हैं बल्कि इनमें नेतृत्व करने की नैसर्गिक प्रतिभा है। ये अगर बीस या पच्चीस साल पहले चुनाव लड़कर लोकसभा में आए होते तो बड़े बांधों का विरोध, सूचना का अधिकार, चुनाव सुधार जैसे मुद्दाें पर अपने तर्क प्रभावी ढंग से सदन में रख सकते थे और उससे शायद कुछ निश्चित नतीजे भी मिलते। लेकिन हो सकता है कि यह मेरी खामख्याली हो!
मेरे मन में एक और प्रश्न उठता है कि आज देश का जो राजनैतिक वातावरण है उसमें ये कहां हैं? आम चुनावों के बाद जिस भी पार्टी की सरकार बनेगी या जो पार्टी किसी संभावित गठजोड़ में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरेगी वह अपनी घोषित नीतियों और कार्यक्रमों के अनुसार सरकार चलाना चाहेगी। स्पष्ट है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों के आर्थिक कार्यक्रम लगभग एक जैसे हैं। यह उम्मीद फिलहाल दोनों से नहीं करना चाहिए कि वे वैश्विक पूंजीवाद के एजेंडे से हटकर काम कर पाएंगे। इन दोनों पार्टियों में अगर कोई फर्क है तो यह कि कांग्रेस बहुलतावाद में अनिवार्य रूप से विश्वास रखती है जबकि भाजपा बहुसंख्यकतावाद में। लेकिन क्या एन.जी.ओ. से जीतकर आने वालों की संख्या इतनी होगी कि वे अपने बलबूते सरकार बना सकें या गठबंधन को प्रभावित कर सकें? अगर ऐसा न हुआ तो क्या वे दो बड़ी पार्टियों के बीच कोई नया रास्ता निकालेंगे या फिर किसी एक तरफ झुक जाएंगे? उसका दीर्घकालीन परिणाम देश की राजनीति में किस रूप में सामने आएगा?
Wednesday, 2 April 2014
'आप' की पॉलिटिक्स क्या है?
हिन्दी साहित्य में जिनकी थोड़ी बहुत भी रुचि है वे जानते हैं कि मुक्तिबोधजी अपने से पहली बार मिलने वाले हर व्यक्ति से पूछते थे- ''पार्टनर, आपकी पॉलिटिक्स क्या है?'' आज यही सवाल अरविंद केजरीवाल और उनकी बनाई आम आदमी पार्टी से पूछने का मन हो रहा है। हम जानते हैं कि कांग्रेस, भाजपा, भाकपा, माकपा, बसपा इत्यादि दलों की पॉलिटिक्स क्या है। हमें यह भी पता है कि इस चुनावी मौसम में जो लोग अभूतपूर्व तेजी के साथ दलबदल में लगे हैं उनके लिए राजनीति क्या मायने रखती है। कांग्रेस और भाजपा अपनी किन नीतियों पर दृढ़ हैं और किन पर समझौता अथवा समर्पण कर चुके हैं यह भी अध्येता जान-समझ रहे हैं। क्षेत्रीय दलों की राजनीतिक धरती क्या है व उनकी महत्वाकांक्षाओं का विस्तार कहां तक है यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। हमें चेतन भगत, एम.जे. अकबर और रामचंद्र गुहा जैसे चर्चित बुध्दिजीवियों की राजनीति के बारे में भी कुछ अनुमान तो है ही, लेकिन इस प्रश्न का समुचित उत्तर अभी ढूंढा ही जा रहा है कि अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक दिशा क्या है!
'आप' ने दिल्ली की सात सीटों में से एक (पूर्वी दिल्ली) पर राजमोहन गांधी को अपना उम्मीदवार बनाया है। श्री गांधी को हम देश के अग्रणी बुध्दिजीवी के रूप में जानते हैं। यह सबको पता है वे महात्मा गांधी के पौत्र हैं। उन्होंने अपने दादा पर ''मोहनदास'' शीर्षक से जो जीवनी लिखी वह एक अनुपम कृति है। इसे लिखने में श्री गांधी ने जिस वस्तुपरकता व तटस्थता का परिचय दिया है उसकी कोई मिसाल मुझे तो याद नहीं आती। उनकी अन्य पुस्तकें भी भारत और उपमहाद्वीप के राजनैतिक इतिहास को समझने के लिए जैसे अनिवार्य है। राजमोहनजी की राजनीति में दिलचस्पी प्रारंभ से रही है। वे एक बार जबलपुर और फिर रायबरेली से लोकसभा चुनाव हार भी चुके हैं। इसके बाद वे लगभग पूरा समय पुस्तक लेखन को ही देते रहे। वे 78 वर्ष की परिपक्व आयु में चुनावी राजनीति में लौटेंगे इसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी, लेकिन वे मैदान में हैं यह एक सच्चाई है। मैं समझना चाहता हूं कि 'आप' के एजेंडा में ऐसी कौन सी बात थी जिसने उन्हें इस हद तक आकर्षित किया!
उधर मुंबई उत्तर-पूर्व से मेधा पाटकर 'आप' की ओर से मैदान में हैं। मेधाजी ने अपना पूरा जीवन जनसंघर्षों में बिता दिया। 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' में उन्होंने जो भूमिका निभाई उसने इस देश में अनगिन लोगों को अन्याय व शोषण के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने बड़े बांधों के खिलाफ लड़ाई लड़ी, विस्थापितों के हक के लिए बरसों बरस तकलीफें उठाईं, कितनी बार धरनों पर बैठीं, कितनी बार जेल गईं- इसका कोई हिसाब ही नहीं। वे नर्मदा पर बनने वाले बड़े बांधों को तो नहीं रोक सकीं, लेकिन यह संदेश तो उन्होंने जन-जन तक पहुंचाया ही कि बिना लड़ाई के हक नहीं मिला करते। कहने का आशय यह कि स्थापित राजनीति से हटकर उन्होंने समानान्तर राजनीति की और उसकी बदौलत जनता का, विशेषकर वंचित समाजों का प्यार और विश्वास हासिल किया। इसके बाद ऐसी क्या वजह थी जिसके चलते वे चुनाव के मैदान में उतरीं? इसके पहले पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी की राजनीति को समर्थन देने का परिणाम क्या निकला, इस पर गौर करने का मौका शायद उन्हें नहीं मिला!
आप कहेंगे कि अगर ऐसे अच्छे लोग राजनीति में आते हैं तो इसमें गलत क्या है। मेरा कहना है कि गलत कुछ नहीं है, लेकिन यदि राजमोहनजी और मेधाजी किन्हीं आदर्शों को पूरा करने की इच्छा लेकर चुनावी राजनीति में आए हैं तो आगे चलकर उन्हें कहीं निराशा न हो! एक तरफ ऐसे लोग हैं तो दूसरी तरफ मीरा सान्याल व कुमार विश्वास जैसे भी 'आप' के परचम तले चुनावी मैदान में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। मीरा सान्याल ने मुंबई दक्षिण से ही 2009 में चुनाव लड़ा था और वे हार गई थीं। वे जिस रॉयल बैंक ऑफ स्कॉटलैंड की भारत में मुख्य अधिकारी थीं, वह बैंक उन दिनों विवादों के घेरे में था। जो विश्वव्यापी मंदी आई थी उसमें इस बैंक की भी भूमिका बताई गई थी। सुश्री सान्याल चुनाव लड़ें उसमें हमें क्या आपत्ति होने चली, लेकिन यह शंका तो मन में उठती ही है कि मेधा पाटकर और मीरा सान्याल दोनों एक मंच पर क्यों और कैसे हैं, जबकि उनका राजनीतिक दर्शन जुदा-जुदा है।
इसी तरह राजमोहन गांधी के साथ-साथ कुमार विश्वास को देखकर कुछ अचरज होता है। यह मेरा सौभाग्य या दुर्भाग्य था कि रायपुर के एक कार्यक्रम में कुछ माह पूर्व मुझे श्री विश्वास का प्रवचन व तथाकथित कविताएं सुनने मिलीं। मुझे उनके विचारों में गंभीरता नहीं, बल्कि उथलापन नज़र आया। उन्होंने जो चुटकुलेबाजी की उससे पता चला कि यह व्यक्ति नस्लवादी, पुरुषसत्तावादी, किसी हद तक यथास्थितिवादी होने के साथ स्त्री-विरोधी है और अहिंसा में विश्वास नहीं रखता। अब इस विरोधाभास का समाधान क्या है कि एक तरफ राजमोहन गांधी हैं, जो ताउम्र अहिंसा और समन्वय की बात करते रहे तथा दूसरी तरफ कुमार विश्वास हैं जो पड़ोसी देश को हथियारों का डर दिखा रहे हैं। सवाल उठता है कि श्री केजरीवाल व उनकी पार्टी के अन्य कर्णधार इस तरह के समीकरण कुछ सोच-समझकर बैठा रहे हैं, क्या इसके पीछे कोई रणनीति है या फिर सब कुछ अनजाने में होता चल रहा है? क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई ही इनका एकमात्र मकसद है या ये इसके परे कुछ और हासिल करना चाहते हैं?
अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ने मिलकर तीन साल पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेड़ी थी। उन्होंने दावा किया था कि यदि उनके बताए अनुसार जनलोकपाल नामक संस्था का ढांचा खड़ा दिया जाए तो देश से भ्रष्टाचार जड़मूल से समाप्त हो जाएगा। उस समय मीडिया ने इनके आंदोलन को 24x7 कवरेज दिया था और बड़ी संख्या में जनसमर्थन मिला था। इसमें नौजवान ज्यादा थे। लेकिन फिर क्या हुआ? आज अन्ना हजारे के बारे में स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि वे भाजपा का एजेंडा बढ़ाने का काम कर रहे हैं। उधर केजरीवाल एक ऐसे सिध्दहस्त कलाकार के रूप में आए जो कभी आंदोलनकारी की भूमिका निभाता है, तो कभी राजनेता की। बल्कि ये दोनों भूमिकाएं इस तरह गड्ड-मड्ड हो गई हैं कि समझना कठिन हो जाता है कि श्री केजरीवाल आखिरकार किस रास्ते पर चल रहे हैं। वे जब भ्रष्टाचार के खिलाफ बात करते हैं, अंबानी-अडानी पर सीधे-सीधे आरोप लगाते हैं, तो सुनकर अच्छा लगता है, लेकिन इन पर अंकुश लगाने के लिए उनके पास क्या योजना है इसका कोई जवाब नहीं मिलता।
यदि आम आदमी पार्टी के रूप में भारतीय राजनीति में एक तीसरी शक्ति का उदय होता है अथवा वैकल्पिक राजनीति का नया मंच बनता है, तो यह अच्छा ही होगा। लेकिन इसके लिए अरविंद केजरीवाल को अपनी नीतियों का खुलासा तो करना ही होगा। सिर्फ भ्रष्टाचार-विरोधी जुमले उछालने से दूर तक राजनीति नहीं की जा सकती, ऐसा हमारा मानना है। श्री केजरीवाल यदि विभिन्न मतों के प्रबुध्दजनों को एक मंच पर ला सकते हैं तो हम इसका भी स्वागत करेंगे, किन्तु क्या ये सब मिलकर देश को आगे ले जाने के लिए कोई नक्शा दे सकते हैं? दूसरे शब्दों में कहें तो विभिन्न विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करने वाले इन गुणीजनों के पास क्या कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम है या ये भी नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी की तर्ज पर सिर्फ भावनाएं उभारने का खेल खेल रहे हैं?
श्री केजरीवाल को दिल्ली में एक मौका मिला था कि वे अपने घोषित संकल्पों के अनुरूप स्वच्छ व पारदर्शी सरकार चला सकें, लेकिन उन्होंने स्वयं ऐसी परिस्थितियां निर्मित कीं कि वे इस जिम्मेदारी से पलायन कर सकें। हम उसके विस्तार में फिलहाल नहीं जाना चाहते, लेकिन श्री केजरीवाल से यह अवश्य पूछना चाहते हैं कि यदि हम 'आप' का समर्थन करें तो किस बिना पर? कोई भी सरकार हो, भ्रष्टाचार रोकना उसके अनेक कामों में से एक काम हो सकता है पर मुद्दे इसके अलावा और भी बहुत से हैं- आपकी आर्थिक नीति क्या होगी, विदेश नीति क्या होगी, रक्षा नीति क्या होगी, लैंगिक नीति क्या होगी, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में आप क्या करेंगे इत्यादि। ढेरों प्रश्नों पर क्या आप अपने बीच एक राय कायम कर सकेंगे? जब मीरा सान्याल बड़े बांधों के लिए ऋण देंगी और मेधा पाटकर उसका विरोध करेंगी तब क्या होगा? जब कुमार विश्वास पाकिस्तान पर आक्रमण करने की वकालत करेंगे और राजमोहन गांधी पड़ोसी मुल्क के साथ मैत्री की बात करेंगे तब क्या होगा? हम समझते हैं कि 'आप' के समर्थकों को अपनी पार्टी से इन सवालों के जवाब मांगना चाहिए।
'आप' की पॉलिटिक्स का जहां तक सवाल है, मेरा अनुमान है कि यह उन लोगों का मंच है जो नेहरूवादी नीतियों के घोर विरोधी हैं, और अपने-अपने कारणों से साथ आ गए हैं, ऊपरी तौर पर भले ही वे कुछ भी दावा करें।
देशबंधु में 03 अप्रैल 2014 को प्रकाशित
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