मध्यप्रदेश के सबसे बड़े शहर तथा वाणिज्यिक राजधानी इंदौर को लंबे अरसे से 'लिटिल बॉम्बे’ के विशेषण से नवाजा जाता रहा है। इंदौर की समृद्धि के सामने मध्यप्रदेश के बाकी नगर फीके पड़ते थे। यद्यपि विगत पच्चीस-तीस वर्षों में यहां जो तथाकथित विकास अंधाधुंध रफ्तार से हुआ है उसके चलते मुझे इंदौर एक भीड़ और चीख-चिल्लाहट से भरा शहर लगने लगा था। लेकिन अभी दस दिन पहले इंदौर गया तो नगर का एक नया रूप देखने मिला। इंदौर के नागरिक प्रशासन और नागरिक समाज दोनों ने मिलकर एक बेहतरीन काम किया है कि आज इंदौर की गिनती देश के सबसे स्वच्छ नगरों में होने लगी है। आप कहीं भी निकल जाइए, कचरे का कहीं नामोनिशान नहीं दिखता, सड़कों पर आवारा मवेशी बिल्कुल नज़र नहीं आते, सड़क पर बैठी गाय-भैंस आपका रास्ता नहीं रोकतीं, सड़कों के किनारे अनेक स्थानों पर शौचालय बना दिए गए हैं जो इस्तेमाल में आते हैं। नगरवासी गर्व के साथ बताते हैं कि उनके शहर को स्वच्छ भारत अभियान में प्रधानमंत्री से प्रथम पुरस्कार मिला है। मैं समझता हूं कि उनका यह गर्व उचित है।
इंदौर को पश्चिमी मध्यप्रदेश अर्थात मालवा की राजधानी भी कहा जा सकता है। 1956 में बने नए मध्यप्रदेश की राजनीति में इंदौर का वर्चस्व लंबे समय तक रहा। मुख्यमंत्री किसी भी क्षेत्र का रहा हो उसके लिए इंदौर की उपेक्षा करना संभव नहीं था। वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह भी उसी परिपाटी का पालन कर रहे हैं। उन्होंने अपनी तरफ से इंदौर का ध्यान रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। शायद इसलिए स्वच्छता में प्रथम आने की बात हो या अन्य किसी विकास योजना की, आम जनता से मुख्यमंत्री की तारीफ ही सुनने मिलती है। इंदौर में सत्तारूढ़ दल के जो प्रमुख नेता हैं उनके प्रति जनता की भावना कुछ अलग है। यहीं पर एक पेंच आ गया है। मध्यप्रदेश में भाजपा के पहले तीन मुख्यमंत्री मालवा से ही थे। सुश्री उमा भारती बुंदेलखंड और बाबूलाल गौर भोपाल का प्रतिनिधित्व करते थे किन्तु उनका कार्यकाल लंबा नहीं चला अत: उनकी भूमिका भी उल्लेखनीय नहीं रही। अब शिवराज सिंह को कुर्सी पर बैठे ग्यारह साल हो गए हैं तो मालवा के कद्दावर नेताओं की आंख की किरकिरी बन गए हैं। विधानसभा चुनावों के लिए मात्र डेढ़ साल का वक्त बाकी है; अभी कुर्सी मिल जाए तो ठीक वरना कौन जाने आगे मौका मिलेगा या नहीं।
हमें इंदौर एक दिन रुककर उज्जैन जाना था। मित्रों ने प्रसन्नता के साथ सूचित किया- कोई परेशानी नहीं, बस पचास किलोमीटर तो है, एक घंटे में पहुंच जाएंगे। कोई हड़बड़ी मत कीजिए। हमने उनकी बात मान ली। शहर से निकलकर हाईवे तक आने में जो भी समय लगा हो, उसके बाद तो चालीस-पैंतालीस मिनट में सफर तय हो गया। शहर के भीतर एक एक्सप्रेस-वे है इस पर टोल टैक्स का नाका पड़ता है। हमारे टैक्सी ड्राइवर ने टोल नहीं पटाया। उसने बताया कि यह नाका अवैध रूप से चल रहा है। सरकार इसे बंद कर चुकी है। इंदौर वाले इस बात को जानते हैं, लेकिन बाहर की नंबर प्लेट देखकर नाकेदार वसूली कर लेते हैं। उसने भाजपा के एक बड़े स्थानीय नेता का नाम लिया कि अवैध वसूली में चालीस परसेंट हिस्सा उनको जाता है। उन नेता की शहर में और कहां-कहां हिस्सेदारी है, क्या-क्या जमीन-जायदाद हैं, यह रहस्योद्घाटन भी उसने किया। एक तरफ इंदौर की सड़कों की स्वच्छता, दूसरी तरफ राजनीति की मलीनता, दो विरोधाभासी तथ्य उजागर हुए। लेकिन टैक्सी ड्राइवर ने जो बात बताई वह तो आज की कड़वी सच्चाई है और सर्वव्यापी है। इसकी सफाई कैसे होगी, पता नहीं।
इंदौर से आगे बढऩे पर उज्जैन जैसे-जैसे पास आते जाता है राजमार्ग के दोनों किनारे नए-नए बने होटल और रिसोर्ट नज़र आने लगते हैं। एक-एक रिसोर्ट कई-कई एकड़ में फैला और अल्प प्रवास के लिए आवश्यक सारी सुविधाएं एसी कमरे, बड़े-बड़े हाल, रेस्तोरां, लॉन, सौ गाडिय़ां खड़ी हो जाएं इतनी बड़ी पार्किंग और हां, स्वीमिंग पूल भी। इनमें से अधिकतर का निर्माण सिंहस्थ-2016 को ध्यान में रखकर किया गया था। मध्यप्रदेश सरकार बारह साल में एक बार पड़ने वाले इस पर्व को अभूतपूर्व रूप से मनाने की तैयारी में जुटी हुई थी। मुख्यमंत्री स्वयं हर दूसरे-तीसरे दिन उज्जैन पहुंच जाते थे। इन होटलों का निर्माण जाहिर है कि विशिष्ट तीर्थयात्रियों को ध्यान में रखकर किया होगा। सिंहस्थ पर्व समाप्त होने के बाद भारी निवेश से निर्मित संपत्ति का क्या होता तो ये होटल या रिसोर्ट अब शादी-ब्याह के प्रयोजन में काम आ रहे हैं। इंदौर के आसपास जो विवाह घर तथा मैरिज लॉन आदि हैं वे बहुत महंगे हैं। इंदौर के परिवार भी इसलिए अब यहां आकर पारिवारिक समारोह आयोजित करने लगे हैं।
हम भी परिवार में एक विवाह के सिलसिले में उज्जैन गए थे। इन्हीं में से किसी एक रिसोर्ट में ठहराए गए थे। यहां ठहरने के दो लाभ मिले। एक तो शहर के शोरशराबे और भागमभाग से मुक्ति मिली तो विवाह में आए पारिवारिक सदस्यों के साथ मिलने का, बात करने का पर्याप्त से अधिक अवसर मिल गया। दूसरे उज्जैन नगर कुछ किलोमीटर की ही दूरी पर था तो तीर्थ यात्रा का पुण्य कमाने का योग भी बन गया। उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर में सुबह चार या पांच बजे भस्म आरती होती है। आधी रात को किसी ताजी चिता की भस्म लाकर ज्योतिर्लिंग का लेपन होता है और फिर आरती। इस दुर्लभ दर्शन के लिए लिए रात बारह बजे से श्रद्धालु कतार में लग जाते हैं और चार-पांच घंटे खड़े रहकर अपनी बारी आने की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करते हैं। हमारे बीच भी ऐसे उत्साही धर्मप्रवण सदस्यों की कमी नहीं थी जो आधी रात को उज्जैन गए और सुबह दर्शन करके लौटे। उन्हें इस अनुभव से जो आत्मिक शांति मिली होगी वह उनके प्रफुल्लित मुखानन पर साफ देखी जा सकती थी। मुझ जैसे सांसारिक प्राणी को यह कष्ट उठाना गवारा न था।
मुझे यहां बिलासपुर की दिवंगत कथा लेखिका सुश्री शशि तिवारी की एक कहानी का स्मरण हो आया है। उन्होंने लिखा था कि महाकाल के दर्शन एक बार में पूरे नहीं होते। वे अपने धाम में तीन बार बुलाते हैं। यह तो लोक मान्यता हुई। मैं शायद पांचवीं-छठवीं बार उज्जैन जा रहा था। महाकाल के पहले पहल दर्शन 1957 में बाबूजी के साथ किए थे। उसके बाद संयोग नहीं बना। इस बार दर्शन के लिए पहुंचा तो मेरे लिए सब कुछ नया ही था। तीर्थयात्रियों की हर साल बढ़ती हुई संख्या को ध्यान में रखकर मंदिर परिसर का विस्तार और साथ-साथ नवनिर्माण भी हुआ है। दर्शन करने के लिए लगभग आधा किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है और बाहर आने में भी उतनी ही दूरी तय करना पड़ती है। पहले गर्भगृह तक जा सकते थे, अब कुछ मीटर दूरी से दर्शन करना पड़ते हैं। दर्शन पथ में मंदिर का इतिहास कहीं-कहीं उत्कीर्ण है। एक प्रस्तर फलक पर उज्जैन के अनन्य विद्वान पंडित सूर्यनारायण व्यास के हवाले से उल्लेख है कि इस मंदिर का अकबर, जहांगीर, शाहजहां और औरंगजेब सबने राजकोष से पोषण किया और जागीरें दीं। जहांगीर ने तो एक दिन में यहां साढ़े तीन हजार स्वर्ण मुद्राएं लुटाईं। यह इतिहास का वह पृष्ठ है जिसे हम संकीर्ण मतवाद के चलते जान-बूझ कर भूल जाना चाहते हैं।
उज्जैन यूं तो महाकाल की नगरी के रूप में प्रसिद्ध है, किन्तु सच पूछा जाए तो यह नगर ही मंदिरों का है। किसी समय वेगवती क्षिप्रा इस नगर की सीमा पर से बहती थी, वह लगभग सूख चुकी है और नर्मदा से पानी लाकर क्षिप्रा की प्यास बुझाई जा रही है। इसी तरह यहां पुरातात्विक महत्व के अनेक प्राचीन मंदिर हैं किन्तु उनका मूल स्वरूप भी क्षिप्रा की जलधारा की तरह खो चुका है। महाकालेश्वर हो या अन्य मंदिर, सबमें संरक्षण या सुविधाएं जुटाने के नाम पर जो परिवर्तन किए गए हैं उनके नीचे मंदिरों का प्राचीन सौंदर्य दब गया है। राजा विक्रमादित्य की कुलदेवी हरसिद्धि के मंदिर में एक प्राचीन बावली है, जिसे लोहे के दरवाजे में बंद कर सामने बड़ा सा ताला लगा दिया गया है। मराठाकालीन दो भव्य दीप स्तंभ ही एक तरह से मंदिर की प्राचीनता का परिचय देते हैं।
एक मंदिर दुर्गा के स्वरूप गढ़कालिका का है, जो महाकवि कालिदास की आराध्य देवी थीं। यहां परिक्रमापथ में तीन सुंदर प्रस्तर फलक हैं, जिनमें कुछ कथाएं उत्कीर्ण हैं। ये फलक निश्चित रूप से हजार-आठ सौ साल पुराने होंगे किन्तु सिंदूर पोतकर इनकी सुंदरता नष्ट कर दी गई है। उज्जैन में ही सांदिपनी आश्रम है, किन्तु प्राचीन युग के उस गुरुकुल का कोई भी अवशेष वहां नहीं है। श्रद्धालुओं के लिए यही जानना पर्याप्त है कि कृष्ण-बलराम और सुदामा यहां पढ़े थे। भर्तृहरि की गुफा अपनी जगह पर सुरक्षित है, लेकिन वह नाथ संप्रदाय के नवनिर्मित मठ के घेरे में आ गई है। मंदिरों के इस विशाल समुच्चय में कालभैरव का अलग ही स्थान है। कालभैरव को महाकाल का सेनापति माना जाता है। यहां रोचक तथ्य है कि देवप्रतिमा को मदिरा का भोग लगाया जाता है। भक्तजन अपनी पसंद की मदिरा की बोतल लेकर आते हैं, पुजारी उसमें से कुछ हिस्सा निकालकर बोतल वापिस कर देते हैं जिसका आचमन भक्त बाद में करते होंगे! अगर मंदिर पाटलिपुत्र में होता तो क्या होता।
देशबंधु में 29 जून 2017 को प्रकाशित