Wednesday, 19 July 2017

स्वास्थ्य सेवाओं की दुर्गति-1


 
केन्द्र सरकार को एक नीतिगत निर्णय लेकर शहरी क्षेत्र में निजी अस्पताल खोलने के लिए बैंक ऋण देने पर पाबंदी लगा देना चाहिए; इस निर्णय का दूसरा पहलू यह होगा कि जो डॉक्टर दूरस्थ अंचलों में जाकर अस्पताल स्थापित करना चाहते हैं उन्हें बैंकों से रियायती दर पर कर्ज उपलब्ध कराया जाए। यह संभवत: एक दु:साहसिक निर्णय माना जाएगा। लेकिन इस कदम से देश के दूरस्थ ग्रामीण अंचलों में स्वास्थ्य सेवाओं की जो बदहाली है उस पर किसी हद तक रोक लग सकेगी। विचार करें तो यह प्रस्ताव पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की 'पुरा' अवधारणा के काफी करीब है। 'पुरा' याने ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाओं का विस्तार। यह सबके सामने है कि ग्रामीण क्षेत्रों में डॉक्टरों का बेहद अभाव है। शहर और गांव के बीच जनसंख्या के अनुपात में डॉक्टरों की उपलब्धता में बहुत बड़ा फर्क है। आए दिन खबरें सुनने मिलती हैं कि अस्पताल है तो डॉक्टर नहीं, डॉक्टर है तो नर्स या अन्य सहायक नहीं, वे हैं तो दवाईयां नहीं। हाल-हाल में तो इस बारे में बेहद दर्दनाक समाचार सुनने मिले।
कहीं कोई खेतिहर मजदूर अपनी मृत पत्नी का शव कंधे पर ढोकर पन्द्रह-बीस किलोमीटर पैदल गांव की ओर जा रहा है, तो कोई हाथ ठेले में लाश ले जाने पर मजबूर है; किसी गर्भवती स्त्री को अस्पताल लाना हो तो एक नहीं, अनेक अड़चनें सामने आ जाती हैं। ऐसे ही प्रसंग के चलते दशरथ मांझी पर फिल्म बन गई और उसके नाम की चर्चा विदेशों तक हो गई। ग्रामीण इलाकों से बार-बार सुनने में आता है कि वहां महिला चिकित्सकों की पदस्थापना ही नहीं होती और यदि होती है तो कोई वहां रहना नहीं चाहता है। यह स्थिति सिर्फ एलोपैथिक डॉक्टरों की नहीं है, ग्रामीण इलाकों के आयुर्वेदिक अस्पताल भी, अगर कहीं भगवान है तो उसके भरोसे हैं। कुछ वर्ष पूर्व आदिवासी ग्राम दुगली में (जहां राजीव गांधी एक बार स्वयं पधारे थे।) आयुर्वेदिक अस्पताल का सूना भवन मैंने देखा था। छह बिस्तर का अस्पताल, औषधि कक्ष, निरीक्षण कक्ष, डॉक्टर का निवास, सब कुछ योजनाबद्ध तरीके से निर्मित, लेकिन वहां न डॉक्टर था, न कम्पाउंडर और न ड्रेसर। धमतरी से एक कम्पाउंडर बीच-बीच में आकर सेवाएं देता था।
ऐसे प्रसंग देश के हर जिले में आपको मिल जाएंगे, बहुत ढूंढने की जरूरत नहीं होगी। काफी पहले मध्यप्रदेश में नियम था कि मेडिकल कॉलेज से निकले हर डॉक्टर को ग्रामीण अंचल में दो साल सेवा देनी होती थी। उनसे बाँड भरवाया जाता था। अगर गांव नहीं गए तो बाँड की रकम जब्त हो जाती थी। शुरू में यह रकम भारी लगती होगी, लेकिन रुपए के अवमूल्यन के साथ इसका कोई मोल नहीं रहा और डॉक्टर खुशी-खुशी बाँड की रकम जब्त करवाने लगे। उनका एक तर्क है और वह सही प्रतीत होता है कि अगर गांव में अस्पताल का भवन नहीं है, बिजली-पानी नहीं है, रहने की व्यवस्था नहीं है तो ऐसे में वहां जाकर करेंगे भी क्या? यही तर्क सरकारी स्कूलों के शिक्षक भी देते हैं, लेकिन किसी तहसीलदार, डिप्टी कलेक्टर या कलेक्टर को हमने कभी ऐसे किसी तर्क का सहारा लेते नहीं देखा। विगत वर्षों में देश में बहुत छोटे-छोटे जिले बन गए हैं जहां नाममात्र की सुविधाएं हैं, इसके बाद भी कलेक्टर अपने अमले के साथ वहां रहकर काम करते हैं।
पाठकों ने कुछ दिन पहले समाचार पढ़ा होगा कि छत्तीसगढ़ के आदिवासी जिले बलरामपुर के युवा जिलाधीश अवनीश शरण ने अपनी बेटी का दाखिला वहीं के सरकारी स्कूल में करवाया है। दूसरी ओर हम यह भी जानते हैं कि देश के नक्सल प्रभावित इलाकों में पहले मलकानगिरी के जिलाधीश विनील कृष्ण और बाद में छत्तीसगढ़ में सुकमा के जिलाधीश अलेक्स पाल मेनन का नक्सलियों ने अपहरण किया। इन प्रसंगों का जिक्र मैं एक वृहत्तर परिदृश्य को सामने रखने के लिए कर रहा हूं। अगर अभिजात वर्ग के माने जाने वाले आईएएस अधिकारी कठिनाइयों के बीच रह सकते हैं तो डॉक्टर, अध्यापक या इंजीनियर क्यों नहीं? हां! वे ये मांग अवश्य कर सकते हैं कि जहां उनकी पदस्थापना की जा रही है वहां न्यूनतम सुविधाओं वाला निवास स्थान तो उन्हें मुहैया करवाया जाए। लेकिन फिर मुझे याद आता है कि मैंने बैंक मैनेजरों को सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में काम करते देखा है जहां सुविधा के नाम पर कुछ भी न था और इंजीनियरों के बारे में तो कहा ही जाता है कि वे किसी परियोजना में काम करते हुए तिरपाल वाले टेंट में ही रातें बिताते रहे हैं। बस्तर में जब डीबीके रेलवे लाइन बिछ रही थी तब इंजीनियरों को तंबुओं में रहते हुए मैंने देखा है।
मैं आज के समय में ऐसी घनघोर आदर्शवादी स्थिति की वकालत नहीं करना चाहता। लेकिन सरकार ध्यान दे तो एक अवधारणा को अवश्य अंजाम दिया जा सकता है। इसके लिए शायद कलाम साहब की पुरा योजना को थोड़ा संशोधित करना पड़ेगा। छत्तीसगढ़ में लगभग हर विकासखंड को तहसील का दर्जा मिल गया है। हर तहसील के अंतर्गत कुछ उपतहसीलें भी हैं। क्या यह संभव नहीं है कि उपतहसील वाले कस्बे में शासकीय कर्मचारियों  की एक आवासीय कालोनी बना दी जाए जिसमें शिक्षक, डॉक्टर, राजस्व अधिकारी, इंजीनियर, नर्स इत्यादि सब रहें? वे वहां से अपने स्कूल या अस्पताल तक आना-जाना करें और कोई आपात स्थिति हो तो कुछ ही मिनटों में सहायता उपलब्ध कराई जा सके। यह मोबाइल का जमाना है। गांव-गांव में संचार सुविधा उपलब्ध है। अगर ऐसे संकुलों का निर्माण होता है तो मेरी समझ में ग्रामीण समाज को विशेषकर शिक्षा व स्वास्थ्य संबंधी हर आवश्यक सुविधा अपेक्षाकृत आसानी से उपलब्ध हो सकेगी।
स्वास्थ्य सुविधाओं के संबंध में मेरा दूसरा  सुझाव है कि शासकीय चिकित्सकों की पदस्थापना एक पूर्व-निर्धारित रोस्टर के अनुरूप की जाए और उसमें कोई अपवाद न हो। एक डॉक्टर की पहली पोस्टिंग कम से कम तीन साल के लिए दूरस्थ इलाके में हो। तीन साल बाद उसे किसी अपेक्षाकृत बड़े स्थान पर पोस्टिंग की जाए। जैसे-जैसे उसकी निजी आवश्यकताएं और पारिवारिक जिम्मेदारियां बढ़ें वैसे-वैसे उसकी पदस्थापना उस जगह पर हो जहां पहले के मुकाबले बेहतर सुविधाएं मिल सके। इसे यूं समझें कि एक अविवाहित डॉक्टर भले गांव में रह ले, लेकिन जब उसके बच्चों के कॉलेज जाने का समय आए तो वह ऐसी जगह पर रह सके जहां संतान की पढ़ाई मनमाफिक हो सके। यह रोस्टर फार्मूला अन्य सेवाओं में भी लागू किया जा सकता है। अगर मैं गलत नहीं हूं तो आईएएस और आईपीएस अधिकारियों की पदस्थापनाएं कुछ इसी तरह के फार्मूले के तहत होती हैं। रोस्टर प्रथा को सही रूप से लागू करने में एक अड़चन अवश्य है और वह है राजनैतिक हस्तक्षेप की जो कि बर्दाश्त नहीं होना चाहिए।
हमें इसके साथ बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं देने के लिए एक आधारगत संरचना की आवश्यकता है। देखने में यह आया है कि निर्णयकर्ताओं की मुख्य रुचि निर्माण कार्यों में होती है। इतने करोड़ की यह योजना, उतने करोड़ की वह योजना, इसी का झांसा जनता को बार-बार दिया जाता है। इसका प्रतिकार तो जनता को ही करना है, लेकिन जिन्हें देश-प्रदेश की जिम्मेदारियां संभालने के लिए चुना गया है उन्हें भी तात्कालिक स्वार्थ से हटकर इस बारे में सोचना ही पड़ेगा। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान याने एम्स से लेकर मेडिकल कॉलेज व डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल होते हुए उपस्वास्थ्य केन्द्र तक एक श्रृंखला कायम हो जाए तो बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं देना संभव हो जाएगा। अधिकतर बीमारियां मौसमी और छोटी-मोटी होती हैं, जिनका इलाज उपस्वास्थ्य केन्द्र में संभव है। मर्ज गंभीर हो तो मरीज को शहर या राजधानी के अस्पताल लाने की आवश्यकता पड़ेगी। इसके पूर्व उपकेंद्र का डॉक्टर वीडियो-वार्ता के माध्यम से प्राथमिक उपचार कर सके आज यह भी संभव है। आशय यह कि चिकित्सा तंत्र व्यवस्थित हो तो डॉक्टर भी बेहतर सेवा करने में समर्थ होगा।
फिलहाल मेरी आखिरी बात निजी और सरकारी क्षेत्र को लेकर है। मेरा मानना है कि सरकारी अस्पतालों को सुदृढ़ करना आवश्यक है। यह सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी है। एसडीजी (सतत विकास लक्ष्य) के अंतर्गत चिकित्सा सेवा पर जीडीपी का तीन प्रतिशत खर्च होना चाहिए। भारत सरकार उसके लिए प्रतिश्रुत है, लेकिन वास्तविकता यह है कि सरकारी क्षेत्र में चिकित्सा सुविधा बदतर हो रही है और निजी क्षेत्र फल-फूल रहा है। उसके अनेक कारण हैं। सरकार को ऐसी युक्ति अपनाना ही होगी जिसमें डॉक्टर ग्रामीण अंचल में जाकर सेवा करने के लिए प्रस्तुत हों। जो डॉक्टर अद्र्ध शहरी या कस्बाई केन्द्रों में निजी अस्पताल खोल कर बैठे हैं वे बता सकते हैं कि वे किसी भी तरह से घाटे में नहीं हैं। मरीज से उन्हें फीस तो मिलती ही है, उन्हें ताजी सब्जियां, अनाज, शहद जैसे उपहार भी कृतज्ञतास्वरूप प्राप्त होते हैं। अर्थात यहां गेंद डॉक्टरों के पाले में है।
देशबंधु में 20 जुलाई 2017 को प्रकाशित 

Tuesday, 18 July 2017

दलित हिंदी कविता: मर्मान्तक वेदना और प्रखर चेतना

           

 दलित हिन्दी कविता का वैचारिक पक्ष  लेखक श्यामबाबू शर्मा की नवीनतम पुस्तक है। स्वाभाविक ही विषय पर चर्चा करते हुए लेखक ने प्रारंभ से अंत तक अनेक कविताओं के उद्धरण सामने रखकर अपनी बात की है। इनमें कुछ कविताएं पूरी हैं, कुछ के अंश लिए गए हैं, लेकिन एक जगह पर इतनी सारी कविताओं को पाना, उन्हें पढऩा और उनसे गुजरना एक भीषण अनुभव है। जैसे कि बस्ती में आग लगी हो और उसकी लपटें झुलसा रहीं हों। इन कविताओं में कांटे हैं जो कदम-कदम पर चुभते हैं, गर्म हवा के थपेड़े हैं जो मर्म तक बेचैन कर देते हैं। भारत की विराट सामाजिक संरचना में दलित समुदाय कहां, कैसे, किन परिस्थितियों में जी रहा है, उसका बयान करतीं ये कविताएं सच पूछिए तो किसी व्याख्या की मांग नहीं करतीं। जिन्होंने अपनी आंखें बंद कर रखी हों, उनकी बात करने से क्या लाभ; लेकिन जिनके हृदय की संवेदनाएं मरी नहीं हैं, वे उन दारुण सच्चाइयों का प्रतिबिंब इन कविताओं में पाएंगे जिन्हें वे दिन-प्रतिदिन देख रहे हैं और जिनसे व्यथित होते हैं। यह पुस्तक ऐसे समय आई है जब स्थितियां सुधरने के बजाय अधिक विकराल हो रही हैं; तब दलित हिन्दी कविता का कथ्य और लेखक द्वारा उसके वैचारिक पक्ष की विवेचना पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक, कहीं अधिक महत्वपूर्ण और कहीं अधिक आवश्यक हो जाती है। 

हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में दलित शोधार्थी रोहित वेमुला की आत्महत्या एक ऐसा प्रकरण था जिसने पूरे देश के संवेदी समाज को हिलाकर रख दिया था। सत्ताधीशों द्वारा इस त्रासदी को छोटा करने के लिए जितने भी उपक्रम किए गए उनसे उन्हीं का बौनापन उजागर हुआ। गुजरात में दलितों पर अत्याचार और उसके प्रतिकार में जिग्नेश मेवाणी के नेतृत्व में एक नए आंदोलन का उदय, सहारनपुर में दलित बस्तियों में घर जलाने और उन्हें प्रताडि़त करने की घटनाएं, उसके प्रत्युत्तर में नौजवान चंद्रशेखर आज़ाद की अगुवाई में आंदोलन- ये सारे प्रसंग हाल-हाल के हैं। इनसे पता चलता है कि वर्चस्ववादी समाज अपनी पुरानी खोखली और सड़ चुकी मान्यताओं और परिपाटियों को छोडऩे के लिए तैयार नहीं है; वहीं दूसरी ओर वंचित, शोषित, दलित समाज में नई चेतना का उदय हो रहा है, अब वह यथास्थिति को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है, वह प्रतिकार कर रहा है। उसने देशज परंपरा में ही अपने आदर्श पाए हैं जिनसे वह प्रेरणा पाकर एक नए जोश के साथ बेहतर स्थितियों की तलाश में आगे बढ़ रहा है। 

आधुनिक समय में दया पवार की मूल मराठी में लिखी गई आत्मकथा अछूत  संभवत: पहली पुस्तक थी, जिसने साहित्य जगत का ध्यान दलित समुदायों की विवश नारकीय जीवन परिस्थितियों की ओर खींचा था। उसके बाद तो मराठी से अनूदित होकर अनेक दलित लेखकों की आत्मकथाएं पाठकों के सामने आईं। नारायण सुर्वे और नामदेव ढसाल ने अपनी कविताओं से ध्यान आकृष्ट किया, सतीश कलसीकर ने दलित चिंतक के रूप में पहचान कायम की। मराठी के दलित साहित्य आंदोलन का असर अन्य भाषा-भाषी प्रांतों में भी हुआ। पंजाबी, उडिय़ा, तेलगु, गुजराती सभी भाषाओं में दलित साहित्य ने स्थान बनाया। हिन्दी में डॉ. धर्मवीर, ओमप्रकाश वाल्मीकि, सूरजपाल चौहान, मोहनदास नेमिश्यराय, कंवल भारती इत्यादि लेखकों ने मुख्यत: जो आत्मकथ्य लिखे उन्होंने साहित्य के कितने ही प्रतिमान बदल दिए। बजरंगबली तिवारी जैसे विद्वानों ने हिन्दी साहित्य सहित तमाम भारतीय भाषाओं में लिखे गए और लिखे जा रहे दलित साहित्य पर विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। रमणिका गुप्ता युद्धरत आम आदमी पत्रिका  का प्रकाशन करती हैं जिसमें हाशिए के लोगों को केन्द्र में रखी गई रचनाएं छपती हैं। राजेन्द्र यादव को यह श्रेय जाता ही है कि उन्होंने हंस में दलित विमर्श को अपनी पत्रिका का स्थायी भाव बनाकर उस दिशा में सोचने पर पाठकों को मजबूर किया। इस बीच दलित समुदाय की सामाजिक स्थितियों और दलित साहित्य रचना को लेकर काफी गंभीर काम हुआ है। श्यामबाबू शर्मा की नई पुस्तक इस शृंखला में एक महत्वपूर्ण कड़ी है, जिसमें विषय विवेचन की दृष्टि से एक नयापन है और बहुत से अनछुए पहलुओं पर चर्चा की गई है। 

लेखक ने लगभग दो सौ पृष्ठ की किताब को ग्यारह अध्याय में बांटा है। पहले अध्याय का ही शीर्षक है विमर्श: अनछुए पहलू। यहां से प्रारंभ कर लेखक वैश्वीकरण के दौर में सामाजिक संबंधों की परीक्षा करता है और अंत तक पहुंचते हुए उसे अर्थयुग : अर्थहीन विश्वबंधुत्व  निरुपित करता है। श्यामबाबू के साहित्य संबंधी विचार स्पष्ट हैं। उनका मानना है कि साहित्य के प्रयोजन में मानवीय चिंताएं और संवेदना की शीतलता सर्वोपरि होना चाहिए। उदात्त मूल्यों से रहित और सामाजिक सरोकारों से इतर रचा गया साहित्य या तो बौद्धिक जुगाली है या फिर बौद्धिक प्रलाप। अपने कथन के समर्थन में वे टालस्टाय को उद्धृत करते हैं। वे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा दी गई साहित्य की परिभाषा में जोड़ते हुए दलित साहित्य की व्याख्या करते हैं कि वह समाज का दर्पण मात्र नहीं है, बल्कि उसे प्रेरणा और दिशा भी देता है। श्यामबाबू का मानना है कि दलितों ने अपने दर्द और अनुभवों को अभिव्यक्ति करने के लिए स्वयं हाथ में कलम ली तथा जीवन के हर पहलू पर उसके अंतर्गत विचार किया। लेखक पंडित नेहरू के सदाशय का उल्लेख करता है कि किसी दिन वैकल्पिक सामाजिक संगठन का उदय होगा जो हिन्दू जाति को जाति व्यवस्था से मुक्त कर उसका स्थान लेगा; लेकिन उसका अनुभवजन्य विश्वास है कि भारतीय समाज की वर्ण व्यवस्था का ढांचा ऐसे किसी प्रगतिशील संगठन के उद्भव की प्रक्रिया तक को सहन नहीं करता। इसका विकल्प एक ही था कि दलित साहित्य समतामय समाज की सजग मानवीय धारा का निर्माण करे। 

लेखक कबीर और रैदास की पदावलियों से उद्धरण देते हुए आगे बढ़ता है। इसके पहले वह सवाल उठाता है कि आदि कवि क्रौंचवध की पीड़ा से आहत हुए, किन्तु उन्हें शंबूक की हत्या दिखाई नहीं दी। वह मध्यकाल में रचे गए अधिकतर भक्ति साहित्य को इसी आधार पर खारिज करता है। कबीर और रैदास की परंपरा में बीसवीं सदी में स्वामी अछूतानंद और हीरा डोम जैसे कवि आते हैं। यहां लेखक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को एक लोकमंगलवादी संत की उपाधि देता है, जिन्होंने सरस्वती  में पहले-पहल हीरा डोम की कविता छापी। यह कविता खड़ी बोली में न होकर भोजपुरी में थी तथा लेखक के अनुसार इस कविता में जो टीस है वह हृदय को चीर देती है। वह स्वामी अछूतानंद की कविता मनु जी तैने वर्ण बनाए चार  को उद्धृत करते हुए बतलाता है कि ऐसी कविताओं के माध्यम से दलितों की पीड़ा को कैसे वाणी मिली। अछूतानंद जी ने बाबा साहब अम्बेडकर से मुलाकात की थी और उन्हें अपना नेता माना था। बाबा साहब ने निश्चित ही दलित समाज में राजनीतिक चेतना उत्पन्न करने का बड़ा काम किया जिसकी शुरूआत महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले ने कर दी थी।

दलित विमर्श के अनछुए पहलुओं से अपनी बात प्रारंभ करते हुए श्यामबाबू सरहपाद का उल्लेख करते हैं जिन्होंने लगभग एक हजार वर्ष पूर्व कहा था कि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए थे, जब हुए थे तब हुए थे, इस समय तो वे भी दूसरे लोग जैसा पैदा होते हैं वैसे ही पैदा हुए हैं, फिर ब्राह्मणत्व की बात ही कहां उठती है। पहले अध्याय में लेखक ने यूरोप और भारत के अनेक बौद्धिकों के उन विचारों का उल्लेख किया है जिनसे उत्तर आधुनिकता की अवधारणा का जन्म हुआ और फिर कैसे उत्तर आधुनिकता ने विश्व समाज को प्रभावित किया। श्यामबाबू का मानना है कि उत्तर आधुनिकतावाद के विचार ने ही नवपूंजीवाद और नवसाम्राज्यवाद को जन्म दिया है, लेकिन इसके साथ-साथ सामाजिक विमर्श केन्द्रीयकृत न होकर परिधि पर विस्तृत हुआ है जिसके कारण हाशिए के लोगों को अपनी आवाज उठाने का अवसर मिला है। यद्यपि इससे दलितजन की स्थिति में कोई खास फर्क नहीं पड़ा। 

इस पुस्तक को विभिन्न अध्यायों में विभाजित कर लेखक ने प्रयत्न किया है कि दलित समाज की परिस्थितियां और उसके समक्ष उपस्थित नई-पुरानी चुनौतियों का प्रतिबिंब दलित कविता पर जिस प्रकार पड़ा उसे सिलसिलेवार प्रस्तुत किया जाए। लेखक की अपनी कोशिश है, किन्तु एक पाठक के नाते मुझे लगता है कि यह पुस्तक एक अतिदीर्घ निबंध है, जिसे सुविधा के लिए भले अध्यायों में बांट दिया गया हो, किन्तु विचारों का तीव्र प्रवाह अध्यायों की सीमा में बंधने से इंकार करता है। हर अध्याय की शीर्षक के अनुरूप पृथक भावभूमि तो है, लेकिन वहीं तक सीमित नहीं है। कहना आवश्यक है कि इससे विषय की गंभीरता कहीं भी प्रभावित नहीं होती और न विचारक्रम ही कहीं टूटता है। तीसरे अध्याय का शीर्षक है- स्वानुभूति बनाम सहानुभूति का रचना संसार । इसमें लेखक इस बहस में शामिल होता है कि क्या दलित साहित्य वही है जो सिर्फ दलित लिखे अथवा गैरदलित लेखकों को भी यह अधिकार है। बात यहां कभी प्रचलित जुमले भोगा हुआ यथार्थ की है। श्यामबाबू अनेक दलित रचनाकारों से सहमत नज़र आते हैं कि दलितों द्वारा रचित ही दलित साहित्य है। यद्यपि अनेक स्थानों पर लेखक ने गैरदलित लेखकों और विचारकों के कथ्यों को दलित के पक्ष के समर्थन में खड़ा किया है। 

इस पुस्तक का शायद सबसे महत्वपूर्ण और सबसे उल्लेखनीय अध्याय है दलित स्त्री का अरण्य रोदन । इसमें लेखक ऐतिहासिक साक्ष्य सामने रखता है कि विश्व समाज में स्त्री का स्थान पुरुष की अपेक्षा हमेशा निम्नतर रहा है। बात जब दलित समुदाय पर आती है तो स्थितियां अधिक निर्मम व कठोर रूप में सामने आती है। अध्याय में मोहनदास नेमिश्यराय का कथन उद्धृत है कि दलित महिलाओं का संघर्ष दोहरा है क्योंकि उनका दोहरा शोषण हो रहा है। उन्हें एक गाल पर ब्राह्मणवाद का तो दूसरे गाल पर पितृसत्ता का थप्पड़ खाना पड़ता है। यह क्रूर वास्तविकता है और इससे कौन सहमत न होगा! यहां जो कवितांश दिए गए हैं मर्मांतक हैं और झकझोर कर रख देते हैं। 

अन्य अध्यायों में एक में लेखक ने नस्लवाद का प्रश्न उठाया है। इसमें हिटलर की जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका का रंगभेद, अमेरिका में रंगभेद इत्यादि का उल्लेख किया गया है। लेखक का मानना है कि भारत के दलित समुदाय की स्थिति इनसे बहुत भिन्न नहीं है। विगत कुछ दशकों में राजनीति में जो चारित्रिक गिरावट आई है उसका भी संज्ञान लेखक ने लिया है। विचारहीन, स्वार्थकेन्द्रित राजनीति ने लोकतांत्रिक सिद्धांतों को परे ढकेल दिया है जिसका खामियाजा दलित शोषित समाज को भुगतना पड़ रहा है। लेखक का एक कथन गौरतलब है- मंत्रणा-यंत्रणा से उर्वरित दलितों की प्रताडऩा ब्राह्मणवादी वैचारिकता का सामंती गठबंधन है। एक अन्य अध्याय में बाजार की मृगमरीचिका ने वंचितजनों को किस तरह छला है उसका विस्तारपूर्वक उल्लेख है। लेखक का साफ कहना है कि पूंजीवाद छलावा है, मृगमरीचिका है जिसमें जनता के अधिकार स्खलित हुए हैं। वह कहता है कि हाशिएकृतजन केन्द्र में आ ही रहे थे कि नवपूंजीवाद ने उन्हें गुमराह कर दिया। बाजार के जादू से इनकी खोपड़ी भन्नाई हुई है। 

एक अध्याय का शीर्षक है- पहाड़ तुम कब बदलोगे । लगता है मानो किसी कविता का शीर्षक है। लेकिन लेखक का आशय यहां उस सुखजीवी वर्ग से है जो पहाड़ की तरह अविचलित है। वह बस मसनद लगाए बैठा है, बिना कुछ किए सब कुछ पा लेने का लालच उसे है, अपने अलावा उसे किसी से कोई मतलब नहीं है। ऐसा नहीं कि लेखक सिर्फ सवर्ण अभिजात वर्ग की ही भर्त्सना कर रहा है। वह अगले अध्याय में दलित समाज में आई अभिजात मानसिकता का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करते हुए उनकी आलोचना करने से भी पीछे नहीं हटता। कहने की आवश्यकता नहीं कि हर अध्याय में दर्जनों कविताओं के उद्धरण दिए गए हैं। ये कविताएं अपने आप में दलित साहित्य के वैचारिक पक्ष को बहुत मजबूती, गहरे मानसिक उद्वेग और सच्चाई के साथ प्रस्तुत करती हैं। युवा लेखक श्यामबाबू शर्मा को मैं उनकी इस पुस्तक के लिए बधाई देता हूं। मैं यहां उल्लेख करना आवश्यक समझता हूं कि श्यामबाबू भले ही हिंदी साहित्य के डॉक्टर हों, लेकिन वे केंद्र सरकार के किसी ऐसे विभाग में नौकरी कर रहे हैं जिसका साहित्य पढऩे-लिखने से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। यह लेखक का अपना जीवट व अध्यवसाय है जिसने उसे निरंतर लेखन हेतु प्रेरित किया है। हमें उनसे आगे भी बहुत उम्मीद है।
अक्षर पर्व जुलाई 2017 अंक की प्रस्तावना 
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पुस्तक- दलित हिन्दी कविता का वैचारिक पक्ष
लेखक- श्याम बाबू शर्मा
प्रकाशक- अनुज्ञा बुक्स, 1/10206, वेस्ट गोरख पार्क शाहदरा- दिल्ली-110032
मो. 09350809192
पृष्ठ- 200
मूल्य- 200 रुपए मात्र

Wednesday, 12 July 2017

जीएसटी : परेशानियों का अंबार




1 जुलाई 2017 से हर कीमत पर जीएसटी लागू करने के फैसले ने सरकार के सामने परेशानियों का अंबार लगा दिया है। अरुण जेटली और उनके अधिकारी अपने फैसले पर खुद की पीठ लाख थपथपा लें, अंतत: इन परेशानियों को दूर करने की जिम्मेदारी उनकी ही है। सवाल सिर्फ इतना नहीं है कि नई कर व्यवस्था से व्यापारियों और ग्राहकों को क्या नफा-नुकसान हो रहा है। प्रश्न यह भी है कि इस व्यवस्था से जो लाभ सरकार उठाना चाहती है, वह उसे एक निश्चित समयावधि में मिल पाएगा या नहीं और यदि व्यवस्था ठीक करने में अपेक्षा से अधिक विलंब हुआ तो उसके प्रतिकूल प्रभाव क्या होंगे? अभी जो खबरें आ रही हैं वे सबको भ्रम में डाल रही है.  आम जनता तो यह समझने में बिल्कुल असमर्थ है कि जीएसटी को लागू ही क्यों किया हैजिस व्यापारी वर्ग ने नरेन्द्र मोदी पर विश्वास करते हुए भाजपा को प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाने का मौका दिया थावह अपने को छला गया महसूस कर रहा है। उसे लगने लगा है कि नरेन्द्र मोदी वोट बैंक की राजनीति कर रहे हैं और इस फेर में उन्होंने भाजपा के परंपरागत समर्थकों, सहयोगियों और संरक्षकों के हितों की अनदेखी कर दी है।
लंदन से प्रकाशित  इकानॉमिस्ट विश्व की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका मानी जाती है। यह पत्रिका पूंजीवादी आर्थिक नीति और राजनीति का समर्थन करती है। इसे नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से बहुत उम्मीदें थीं कि भारत की अर्थव्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन आएगा। नरसिंह राव-मनमोहन सिंह के कार्यकाल में तथाकथित आर्थिक सुधारों का पहला चरण पूरा हुआ था। द इकानॉमिस्ट जिस विचार समूह से ताल्लुक रखती है उसे मोदी जी के कार्यकाल में आर्थिक सुधारों का दूसरा चरण लागू होने की पूरी-पूरी उम्मीद थी।इसमें शक नहीं कि रेलवे सेवाओं का निजीकरण, रक्षा क्षेत्र में निजी क्षेत्र को प्रवेश, एयर इंडिया को कंगाल बनाकर बेचने की तैयारी कुछ ऐसे ही कदम रहे हैं। लेकिन यही पत्रिका 24 जून के अपने अंक में मुख पृष्ठ पर नरेन्द्र मोदी का कार्टून छापते हुए शीर्षक देती है- मोदीज़ इंडिया :  इल्यूज़न ऑफ रिफॉर्म अर्थात मोदी का भारतसुधारों की मृगमरीचिका । पत्रिका के अग्रलेख का भी शीर्षक है कि मोदी वैसे सुधारवादी नहीं हैं जैसे दिखाई देते हैं।
मैं इस पत्रिका को इसलिए उद्धृत कर रहा हूं कि कारपोरेट विश्व में इसकी टिप्पणियों को गंभीरता के साथ लिया जाता है। द इकॉनामिस्ट के इस अंक में भारत के वर्तमान परिदृश्य पर तीन लेख हैं। एक लेख में कहा गया है कि जीएसटी का स्वागत है, किन्तु यह अनावश्यक रूप से जटिल और लालफीताशाही से ग्रस्त है जिसके कारण इसकी उपादेयता बहुत घट गई है। पत्रिका यह भी कहती है कि प्रधानमंत्री मोदी ने भले ही जोरदार प्रचार के साथ बहुत सी योजनाएं प्रारंभ कर दी हों, लेकिन इनमें से अनेक तो पहले से चली आ रही थीं। जीएसटी का प्रस्ताव भी पुराना था। पत्रिका नोट करती है कि अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए जिस व्यवस्थित रूप में कार्य होना चाहिए उसे नरेन्द्र मोदी करने में समर्थ प्रतीत नहीं होते। जीएसटी की चर्चा करते हुए द इकानॉमिस्ट का कहना है कि अब पहले के मुकाबले कई गुना ज्यादा फार्म भरना पड़ेंगे। इसके अलावा जीएसटी वाले अन्य देशों में जहां टैक्स की सिर्फ एक दर है वहां भारत में शून्य से लेकर अठ्ठाइस तक दरें तय की गई हैं। इसके चलते सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में जो दो प्रतिशत की वृद्धि अनुमानित की गई थी वह अब शायद एक प्रतिशत भी न बढ़ पाए।
भारत के पूर्व वित्तमंत्री, भाजपा के वरिष्ठ नेता व मार्गदर्शक मंडल के सदस्य यशवंत सिन्हा ने पिछले दिनों जीएसटी पर दिए एक साक्षात्कार में जो कहा है वह भी सरकार की आशा-अपेक्षा के विपरीत है। यशवंत सिन्हा कहते हैं कि जीएसटी की अवधारणा तो उनके समय की है, लेकिन इसे जिस रूप में लागू किया गया है वह अपने मूलरूप से एकदम भिन्न है और इसमें बहुत खामियां हैं।श्री सिन्हा बतलाते हैं कि एक नीतिगत निर्णय के तहत उन्होंने सेंट्रल एक्साइज की ढेर सारी दरों को घटाकर मात्र तीन दरों पर ला दिया था। उद्देश्य यह था कि जीएसटी लागू होने के साथ तीन दरें भी समाप्त होकर मात्र एक दर रह जाएगी, लेकिन हुआ इसके उल्टा है। तीन की बजाय अब छह दरें हो गई हैं तथा सर्विस टैक्स जिसकी सिर्फ एक दर थी, वह अनेक दरों में बिखर गया है। सिन्हा तो यहां तक कहते हैं कि डॉ. मनमोहन सिंह का वित्त मंत्री के रूप में 1991 का बजट देश का सबसे बड़ा आर्थिक सुधार था, जबकि जीएसटी एक अप्रत्यक्ष कर सुधार से अधिक कुछ नहीं है।
प्रतीत होता है कि मोदी सरकार पर इन आलोचनाओं का कोई असर नहीं है। वित्तमंत्री ने इस बीच दो विचित्र वक्तव्य दिए हैं। एक में उन्होंने कहा कि जीएसटी बहुत आसानी से लागू हो गया, कि उसमें कोई कठिनाई देश में नहीं आई। शब्द अलग हो सकते हैं, भाव यही था। दूसरे में उन्होंने कहा कि टैक्स तो ग्राहक चुकाता है व्यापारी इसका विरोध क्यों कर रहे हैंजेटली साहब बहुत बड़े वकील हैं। उनके तर्कों का जवाब देना सामान्यत: मुश्किल होता है, लेकिन ऐसा लगता है कि दो बड़े विभागों की जिम्मेदारी संभालते हुए, साथ-साथ प्रधानमंत्री की गैरमौजूदगी में सरकार का दायित्व संभालने के कारण वे शायद थक जाते हैं और अपने तर्क तैयार करने के लिए उन्हें मानसिक अवकाश नहीं मिल पा रहा है। अन्यथा कौन नहीं जानता कि सरकार को जीएसटी लागू करने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े हैं। उन्होंने व्यापारी वर्ग की आलोचना तो कर दी किन्तु इस हकीकत पर ध्यान नहीं दिया कि जटिल कर प्रणाली में व्यापारी को ग्राहक से टैक्स की राशि लेने, जमा करने और उसके रिटर्न आदि भरने में कितनी मुश्किलें पेश आ सकती हैं।
जो कारपोरेट व्यवसायी हैं उन्हें संभवत: जीएसटी से कोई परेशानी नहीं है। उनके पास साधन-सुविधाएं हैं कि टैक्स के मामले संभालने के लिए जितनी आवश्यकता हो उतने कर्मचारी नियुक्त कर लें, चार्टर्ड एकाउंटेंट और कंपनी सेक्रेटरियों की सेवाएं ले लें; कहीं कुछ कोर-कसर रह जाए और कानूनी कार्रवाई की नौबत आए तो उससे निपटने के लिए भी श्री जेटली जैसे बड़े वकीलों की सेवाएं उन्हें उपलब्ध हो सकती हैं। हमने देखा है कि आयकर विभाग के बड़े-बड़े छापे पड़ते हैं और बाद में सब बच जाते हैं। छोटे और मझोले व्यापारियों को ये सुविधाएं प्राप्त नहीं हैं। अभी इतना जरूर हुआ है कि अंतरराज्यीय नाके खत्म हो गए हैं, लेकिन फ्लांइग स्क्वॉड का भय तो पहले से अधिक बढ़ गया है। व्यापारी वर्ग गुहार लगा रहा है कि इंस्पेक्टर राज वापिस आ गया है। उन्हें डर लग रहा है कि छोटी सी गलती हो जाने पर भी गिरफ्तारी हो सकती है। उनका यह भय निराधार नहीं है। व्यवस्था पहले उसी पर प्रहार करती है जो अपेक्षाकृत कमजोर होता है।
यह आम जनता की सिफत है कि तकलीफों के बीच भी वह मुस्कुराने के लिए अवसर ढूंढ लेती है। अभी एक चुटकुला चल रहा है कि बेटी को सुखी रख सके ऐसा दामाद चाहिए तो चार्टर्ड एकाउंटेंट ढूंढ लो, क्योंकि आने वाले दिनों में उसी का धंधा जोरों से चलने वाला है। इस चुटकुले में सच्चाई निहित है। अभी देश भर के जितने सीए हैं किसी को सिर उठाने की भी फुर्सत नहीं है। जीएसटी के प्रावधानों में ऐसे-ऐसे पेंच हैं कि सीए उनको समझने में परेशान हो रहे हैं। एक दूसरा चुटकुला भी आजकल में देखा। एक पत्रकार ने टिप्पणी की- काजू पर पांच प्रतिशत जीएसटी लेकिन बादाम पर बारह प्रतिशत। दोनों सूखे मेवे हैं फिर ऐसी विसंगति क्यों? दूसरे पत्रकार ने जवाब दिया- बादाम खाने से दिमाग तेज होता है यह हम बचपन से सुनते आए हैं। सरकार चाहती है कि हमारे लोगों का दिमाग तेज न हो, वे बुद्धू बने रहें इसलिए बादाम पर ज्यादा कर लगाया है।यह तो चुटकुलों की बात हुई, लेकिन ये चुटकुले हकीकत बयान करते हैं। 
30 जून और 1 जुलाई की मध्यरात्रि से जीएसटी लागू हुआलेकिन सरकार ने इस बीच क्या किया? 30 जून की शाम रासायनिक खाद पर जीएसटी की दर बारह प्रतिशत से घटाकर पांच प्रतिशत कर दी। उसे यह ख्याल नहीं आया कि कीटनाशक पर टैक्स की दर भी उसी तरह कम कर देते जबकि दोनों का अंतिम उपयोग एक ही है। दूसरा प्रकरण है मध्यरात्रि के बाद का। जीएसटी लागू होने के एक घंटे बाद मोबाइल फोन पर दस प्रतिशत अतिरिक्त कस्टम ड्यूटी लगा दी गई। इसका कारण मुझे समझ नहीं आया। यह देखकर भी आश्चर्य हुआ कि टीवी, फ्रिज जैसी सामग्री पर टैक्स की दर बढ़ा दी गई, जबकि कार की कीमतें कम हो गईं। जिस देश में सार्वजनिक परिवहन को बढ़ाने की आवश्यकता है, वहां निजी वाहन को प्रोत्साहन देना समझ नहीं आता। तब तो और भी नहीं जब कृषि उपयोगी ट्रैक्टर पर कार के मुकाबले ज्यादा कर लगे। इन सबसे जो मुश्किलें सरकार के सामने पेश आएंगी, देखना होगा कि सरकार उनसे कैसे निपटती है।
देशबंधु में 13 जुलाई 2017 को प्रकाशित 

Wednesday, 5 July 2017

जीएसटी : संघीय ढाँचे पर प्रहार?


 यह पहेली आम जनता तो क्या, अच्छे-अच्छे पंडित भी नहीं सुलझा पा रहे हैं कि केन्द्र सरकार ने जीएसटी लागू करने में हठीलेपन और किसी हद तक जल्दबाजी का सहारा क्यों लिया। सर्वविदित है कि जीएसटी की अवधारणा अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में सामने आ चुकी थी। मनमोहन सिंह सरकार में इसे अमलीजामा पहनाने की कोशिशें शुरु हुईं। चूंकि इस केन्द्रीय कानून को बनाने के लिए राज्य सरकारों की सहमति आवश्यक थी इसलिए स्वाभाविक तौर पर प्रक्रिया धीरे चली। अधिकतर राज्य जीएसटी तंत्र लाने के लिए सहमत हो गए थे, लेकिन दो राज्यों ने इसका पुरजोर विरोध किया था, जिनमें एक था गुजरात और दूसरा मध्यप्रदेश। इन दोनों प्रदेशों के तत्कालीन मुख्यमंत्री उस वक्त तक प्रधानमंत्री बनने के लिए अपना अभियान भी शुरू कर चुके थे। दोनों शायद चाहते थे कि जब प्रधानमंत्री बनें तभी यह कानून लागू हो और उसका श्रेय लेकर वे इतिहास में अपना नाम अमर कर सकें! नरेन्द्र मोदी के तब के और अब के वक्तव्यों में जो उत्तर और दक्षिण ध्रुव का फासला दिखाई देता है उसका कारण शायद इस मनोभाव में ढूंढा जा सकता है!
बहरहाल कानून तो लागू हो गया है। मेरी अल्पबुद्धि कहती है कि मोदीजी ने दो कारणों से अपने पुराने रुख को छोड़ कर जीएसटी कानून बनाने की पहल की। एक तो शायद उनकी यह मंशा है कि देश का संघीय ढांचा खत्म होकर उसकी जगह पर एक केन्द्रवर्ती और केन्द्र-निर्भर शासन व्यवस्था पर देश चलने लगे। दूसरा कारण संभवत: यह है कि मोदीजी विश्वग्राम के चातुर्देशिक अर्थतंत्र के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था की सगाई मुकम्मल करना चाहते हैं। उचित होगा कि हम पहले बिन्दु को यहां स्पष्ट कर लें। पाठकों को यह स्मरण कराने की आवश्यकता नहीं है कि श्री मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के साथ सहकारी संघवाद का नारा उछाल दिया था। यह सहकारी संघवाद क्या है, यह समझना बहुत कठिन है, कुछ उसी तरह जैसे एकात्म मानवतावाद को भी आम जनता नहीं समझ पाती। बस एक लुभावनी संज्ञा है जिसके फेर में लोग पड़ जाते हैं। यह विचार भारतीय जनता पार्टी और उसकी पितृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों के अनुकूल है कि देश में एक केन्द्रीय सत्ता स्थापित हो।
भारत का संविधान अपने देश की कल्पना एक संघीय गणराज्य के रूप में करता है। ऐसा देश जिसमें एक केन्द्रीय सरकार तो हो, लेकिन जिसमें राज्यों को पर्याप्त अधिकार दिए गए हों। संविधान ने राजकाज के विषयों की तीन सूचियां स्पष्ट निर्देशित की हैं- केन्द्रीय सूची, राज्यों की सूची और तीसरी समवर्ती सूची जिसमें केन्द्र और राज्य को मिलजुल कर या परस्पर सहमति से निर्णय लेना है। नरेन्द्र मोदी भारत के संविधान को अपने तईं सबसे पवित्र पुस्तक घोषित कर चुके हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि संविधान में जो लिखा है उस पर उनका अटूट भरोसा है। तब फिर संविधान में लिखी बात को एक किनारे कर अर्थात संघीय गणराज्य की अवधारणा को नकार कर सहकारी संघवाद कहने से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है? इसे सुनकर तो यही अनुमान होता है कि वे देश का एक नया राजनीतिक ढांचा तैयार करने के उपक्रम में जुटे हैं जिसमें जीएसटी कानून मददगार हो सकता है; ठीक वैसे ही जैसे विमुद्रीकरण से नेहरूवादी आमराय को खत्म करने का प्रयास किया गया (देखें विक्रम सिंघल का तारीख 12 जून का इसी पृष्ठ पर लेख)।
यहां एक पुराने दृष्टांत की चर्चा करने से बात और स्पष्ट होगी। श्रीमती इंदिरा गांधी के कार्यकाल में शहरी चुंगीकर समाप्त करने का प्रस्ताव कांग्रेस सरकार ने दिया था। इसमें फैसले लेने का जिम्मा राज्य सरकारों पर छोड़ा गया था। मध्यप्रदेश पहला राज्य था जहां मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल ने 1976 में चुंगी कर या ऑक्ट्रॉय खत्म कर दिया था। इससे जनता को थोड़ी राहत तो मिली कि वे नगरपालिका के चुंगी कर्मियों द्वारा की जा रही अवैध वसूली से निजात पा गए, किन्तु दीर्घकालीन परिणाम अच्छा नहीं रहा। प्रदेश सरकार ने तय किया था कि नगरीय निकायों को चुंगी क्षतिपूर्ति राशि दी जाएगी। यह व्यवस्था चालीस साल से चल रही है। दुष्परिणाम यह हुआ है कि नगरीय निकाय अपनी आर्थिक सेहत के लिए राज्य सरकार के मोहताज हो गए। रायपुर की एक कांग्रेसी महापौर किरणमयी नायक को सरसंघचालक पर पुष्पवर्षा करने के लिए विवश होना पड़ा था। आज वर्तमान महापौर प्रमोद दुबे भी सरकारी दबाव के आगे नतमस्तक नज़र आते हैं।

आज स्थिति ये है कि रायपुर सहित सभी नगर निगमों के स्कूल सरकार के अधीन कर दिए गए हैं। रायपुर का बूढ़ा तालाब मुंबई की किसी निजी कंपनी को सौंप दिया गया है। स्मार्ट सिटी के नाम पर अरबों रुपए का कर्ज लिया जा रहा है जिसमें नगर के मात्र दो-ढाई वर्ग किलोमीटर क्षेत्र का कथित विकास होगा और शहरवासियों की अगली पीढिय़ां कर्ज चुकाएंगी। रायपुर में ईएसी कालोनी के मकान ध्वस्त कर वहां बगीचा बन रहा है और रामसागरपारा के खाली पड़े मैदान में शॉपिंग काम्पलेक्स के टेंडर निकल रहे हैं। जो रायपुर का, वही हाल अन्य नगरों का भी। इतने विस्तार से यह बात इसलिए कहना पड़ी कि आने वाले वर्षों में राज्य अपनी आर्थिक स्थिति संभालने के लिए पूरी तरह केन्द्र पर निर्भर हो जाएंगे। जीएसटी प्रावधान के तहत राज्यों को पांच साल तक वाणिज्य कर इत्यादि की क्षतिपूर्ति मिलेगी, लेकिन उसके बाद क्या होगा? जब केन्द्र सरकार ही सारी टैक्स वसूली करेगी तो राज्य अपने लिए संसाधन कहां से जुटाएंगे? इसमें तो यह भी होगा कि भाजपा के मुख्यमंत्री भी केन्द्रीय सत्ता के सामने चूं-चपड़ नहीं कर पाएंगे। मैं नहीं जानता कि कितनी राज्य सरकारों ने इस बिन्दु पर गंभीरता से विचार किया है।
केन्द्र सरकार के जीएसटी के प्रति उत्साह का दूसरा बिन्दु ध्यानयोग्य है। यह तो सरकार स्वयं कह रही है कि दुनिया के एकसौ साठ से अधिक देशों में जीएसटी लागू है। इसलिए हमें भी यह रास्ता अपनाना था। एक तरह से बात ठीक है। यह नवसाम्राज्यवाद का दौर है और नवपूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत सारा व्यापार संचालित हो रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां, बल्कि राष्ट्रों की सीमा का अतिक्रमण कर व्यवसाय करने वाली कंपनियां (सुप्रा नेशनल कार्पोरेशन अथवा सीएनसी और ट्रांस नेशनल कार्पोरेशन अथवा टीएनसी) व्यापार में सुगमता के मानदंड पर किसी देश में व्यापार करती हैं। वे देखती हैं कि किस देश में उन्हें कितनी ज्यादा सहूलियतें हैं। भारत का बाज़ार बहुत बड़ा है, यहां विनिर्माण क्षेत्र कमजोर है, इन दो वजहों से ये कार्पोरेट भारत में व्यापार तो करना चाहती हैं, लेकिन सुगमता का वातावरण (ईज़ ऑफ बिजनेस) न होने से बिदक जाते हैं।
पाठकों को याद होगा कि कुछ वर्ष पूर्व मोबाइल सेवाप्रदाता वोडाफोन को आयकर संबंधी किसी बड़ी पेचीदगी में फंसना पड़ा था। यह अभी कुछ दिन पहले की खबर है कि जनरल मोटर्स ने भारत में अपना काम समेटा तो नहीं है पर सीमित कर लिया है। हमने जो अमेरिका इत्यादि के साथ आणविक करार किए हैं उनमें भी मुआवजे को लेकर देश में काफी हो-हल्ला हो चुका है। ऐसे सारे प्रकरण भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में बाधक बनते हैं जबकि विदेशी निवेशकों का अधिकतर पैसा यहां संस्थागत निवेश के नाम पर सट्टेबाजी के लिए आता है। व्यापार में सुगमता के मुद्दे पर एक दूसरी बाधा भ्रष्टाचार के रूप में विद्यमान है। ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल नामक संस्था भ्रष्टाचार का रिपोर्ट कार्ड बनाती है उसमें भी भारत की स्थिति अच्छी नहीं है। यह संस्था भी जहां तक मेरा अनुमान है वैश्विक पूंजी घरानों के द्वारा ही संचालित हैं। इस स्थिति में भारत में विदेशी पूंजी आए तो कैसे आए? जीएसटी बिल व्यापार सुगमता में सहायक हो सकता है, इससे कार्पोरेट घराने भी खुश होंगे और वे ताकतें भी जो देश को मिश्रित अर्थव्यवस्था से मुक्त कर पूरी तरह से पूंजीवादी व्यवस्था लाना चाहेंगी।
यह तो भविष्य ही बताएगा कि मेरा सोचना किस हद तक सही है, लेकिन जीएसटी बिल पारित होने के तमाम घटनाचक्र में मुझे कुछ बातें अटपटी और अस्वीकार्य लगीं। प्रथमत: जीएसटी को मनी बिल के रूप में लाया जाना संसदीय परिपाटी के विपरीत था। ऐसा करके सरकार ने राज्यसभा के बहुमत का तिरस्कार किया। दूसरे 30 जून की अर्धरात्रि को संसद के सेंट्रल हॉल में एक विशेष आयोजन करना और उसके लिए संसद भवन को रोशनी में नहलाने का कोई औचित्य नहीं था। जीएसटी यदि स्वागत योग्य है तो भी वह आर्थिक सुधार के एक बड़े कदम से बढ़कर कुछ नहीं है। उसे देश की आर्थिक आज़ादी की संज्ञा देना अतिशयोक्ति का भी अपमान है। यह सरकार नेहरू और गांधी को तो झूठा ठहराने पर तुली हुई है, क्या वह 1947 को मिली आज़ादी को भी झूठा साबित करना चाहती है?
देशबंधु में 06 जुलाई 2017 को प्रकाशित