Tuesday, 18 July 2017

दलित हिंदी कविता: मर्मान्तक वेदना और प्रखर चेतना

           

 दलित हिन्दी कविता का वैचारिक पक्ष  लेखक श्यामबाबू शर्मा की नवीनतम पुस्तक है। स्वाभाविक ही विषय पर चर्चा करते हुए लेखक ने प्रारंभ से अंत तक अनेक कविताओं के उद्धरण सामने रखकर अपनी बात की है। इनमें कुछ कविताएं पूरी हैं, कुछ के अंश लिए गए हैं, लेकिन एक जगह पर इतनी सारी कविताओं को पाना, उन्हें पढऩा और उनसे गुजरना एक भीषण अनुभव है। जैसे कि बस्ती में आग लगी हो और उसकी लपटें झुलसा रहीं हों। इन कविताओं में कांटे हैं जो कदम-कदम पर चुभते हैं, गर्म हवा के थपेड़े हैं जो मर्म तक बेचैन कर देते हैं। भारत की विराट सामाजिक संरचना में दलित समुदाय कहां, कैसे, किन परिस्थितियों में जी रहा है, उसका बयान करतीं ये कविताएं सच पूछिए तो किसी व्याख्या की मांग नहीं करतीं। जिन्होंने अपनी आंखें बंद कर रखी हों, उनकी बात करने से क्या लाभ; लेकिन जिनके हृदय की संवेदनाएं मरी नहीं हैं, वे उन दारुण सच्चाइयों का प्रतिबिंब इन कविताओं में पाएंगे जिन्हें वे दिन-प्रतिदिन देख रहे हैं और जिनसे व्यथित होते हैं। यह पुस्तक ऐसे समय आई है जब स्थितियां सुधरने के बजाय अधिक विकराल हो रही हैं; तब दलित हिन्दी कविता का कथ्य और लेखक द्वारा उसके वैचारिक पक्ष की विवेचना पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक, कहीं अधिक महत्वपूर्ण और कहीं अधिक आवश्यक हो जाती है। 

हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में दलित शोधार्थी रोहित वेमुला की आत्महत्या एक ऐसा प्रकरण था जिसने पूरे देश के संवेदी समाज को हिलाकर रख दिया था। सत्ताधीशों द्वारा इस त्रासदी को छोटा करने के लिए जितने भी उपक्रम किए गए उनसे उन्हीं का बौनापन उजागर हुआ। गुजरात में दलितों पर अत्याचार और उसके प्रतिकार में जिग्नेश मेवाणी के नेतृत्व में एक नए आंदोलन का उदय, सहारनपुर में दलित बस्तियों में घर जलाने और उन्हें प्रताडि़त करने की घटनाएं, उसके प्रत्युत्तर में नौजवान चंद्रशेखर आज़ाद की अगुवाई में आंदोलन- ये सारे प्रसंग हाल-हाल के हैं। इनसे पता चलता है कि वर्चस्ववादी समाज अपनी पुरानी खोखली और सड़ चुकी मान्यताओं और परिपाटियों को छोडऩे के लिए तैयार नहीं है; वहीं दूसरी ओर वंचित, शोषित, दलित समाज में नई चेतना का उदय हो रहा है, अब वह यथास्थिति को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है, वह प्रतिकार कर रहा है। उसने देशज परंपरा में ही अपने आदर्श पाए हैं जिनसे वह प्रेरणा पाकर एक नए जोश के साथ बेहतर स्थितियों की तलाश में आगे बढ़ रहा है। 

आधुनिक समय में दया पवार की मूल मराठी में लिखी गई आत्मकथा अछूत  संभवत: पहली पुस्तक थी, जिसने साहित्य जगत का ध्यान दलित समुदायों की विवश नारकीय जीवन परिस्थितियों की ओर खींचा था। उसके बाद तो मराठी से अनूदित होकर अनेक दलित लेखकों की आत्मकथाएं पाठकों के सामने आईं। नारायण सुर्वे और नामदेव ढसाल ने अपनी कविताओं से ध्यान आकृष्ट किया, सतीश कलसीकर ने दलित चिंतक के रूप में पहचान कायम की। मराठी के दलित साहित्य आंदोलन का असर अन्य भाषा-भाषी प्रांतों में भी हुआ। पंजाबी, उडिय़ा, तेलगु, गुजराती सभी भाषाओं में दलित साहित्य ने स्थान बनाया। हिन्दी में डॉ. धर्मवीर, ओमप्रकाश वाल्मीकि, सूरजपाल चौहान, मोहनदास नेमिश्यराय, कंवल भारती इत्यादि लेखकों ने मुख्यत: जो आत्मकथ्य लिखे उन्होंने साहित्य के कितने ही प्रतिमान बदल दिए। बजरंगबली तिवारी जैसे विद्वानों ने हिन्दी साहित्य सहित तमाम भारतीय भाषाओं में लिखे गए और लिखे जा रहे दलित साहित्य पर विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। रमणिका गुप्ता युद्धरत आम आदमी पत्रिका  का प्रकाशन करती हैं जिसमें हाशिए के लोगों को केन्द्र में रखी गई रचनाएं छपती हैं। राजेन्द्र यादव को यह श्रेय जाता ही है कि उन्होंने हंस में दलित विमर्श को अपनी पत्रिका का स्थायी भाव बनाकर उस दिशा में सोचने पर पाठकों को मजबूर किया। इस बीच दलित समुदाय की सामाजिक स्थितियों और दलित साहित्य रचना को लेकर काफी गंभीर काम हुआ है। श्यामबाबू शर्मा की नई पुस्तक इस शृंखला में एक महत्वपूर्ण कड़ी है, जिसमें विषय विवेचन की दृष्टि से एक नयापन है और बहुत से अनछुए पहलुओं पर चर्चा की गई है। 

लेखक ने लगभग दो सौ पृष्ठ की किताब को ग्यारह अध्याय में बांटा है। पहले अध्याय का ही शीर्षक है विमर्श: अनछुए पहलू। यहां से प्रारंभ कर लेखक वैश्वीकरण के दौर में सामाजिक संबंधों की परीक्षा करता है और अंत तक पहुंचते हुए उसे अर्थयुग : अर्थहीन विश्वबंधुत्व  निरुपित करता है। श्यामबाबू के साहित्य संबंधी विचार स्पष्ट हैं। उनका मानना है कि साहित्य के प्रयोजन में मानवीय चिंताएं और संवेदना की शीतलता सर्वोपरि होना चाहिए। उदात्त मूल्यों से रहित और सामाजिक सरोकारों से इतर रचा गया साहित्य या तो बौद्धिक जुगाली है या फिर बौद्धिक प्रलाप। अपने कथन के समर्थन में वे टालस्टाय को उद्धृत करते हैं। वे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा दी गई साहित्य की परिभाषा में जोड़ते हुए दलित साहित्य की व्याख्या करते हैं कि वह समाज का दर्पण मात्र नहीं है, बल्कि उसे प्रेरणा और दिशा भी देता है। श्यामबाबू का मानना है कि दलितों ने अपने दर्द और अनुभवों को अभिव्यक्ति करने के लिए स्वयं हाथ में कलम ली तथा जीवन के हर पहलू पर उसके अंतर्गत विचार किया। लेखक पंडित नेहरू के सदाशय का उल्लेख करता है कि किसी दिन वैकल्पिक सामाजिक संगठन का उदय होगा जो हिन्दू जाति को जाति व्यवस्था से मुक्त कर उसका स्थान लेगा; लेकिन उसका अनुभवजन्य विश्वास है कि भारतीय समाज की वर्ण व्यवस्था का ढांचा ऐसे किसी प्रगतिशील संगठन के उद्भव की प्रक्रिया तक को सहन नहीं करता। इसका विकल्प एक ही था कि दलित साहित्य समतामय समाज की सजग मानवीय धारा का निर्माण करे। 

लेखक कबीर और रैदास की पदावलियों से उद्धरण देते हुए आगे बढ़ता है। इसके पहले वह सवाल उठाता है कि आदि कवि क्रौंचवध की पीड़ा से आहत हुए, किन्तु उन्हें शंबूक की हत्या दिखाई नहीं दी। वह मध्यकाल में रचे गए अधिकतर भक्ति साहित्य को इसी आधार पर खारिज करता है। कबीर और रैदास की परंपरा में बीसवीं सदी में स्वामी अछूतानंद और हीरा डोम जैसे कवि आते हैं। यहां लेखक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को एक लोकमंगलवादी संत की उपाधि देता है, जिन्होंने सरस्वती  में पहले-पहल हीरा डोम की कविता छापी। यह कविता खड़ी बोली में न होकर भोजपुरी में थी तथा लेखक के अनुसार इस कविता में जो टीस है वह हृदय को चीर देती है। वह स्वामी अछूतानंद की कविता मनु जी तैने वर्ण बनाए चार  को उद्धृत करते हुए बतलाता है कि ऐसी कविताओं के माध्यम से दलितों की पीड़ा को कैसे वाणी मिली। अछूतानंद जी ने बाबा साहब अम्बेडकर से मुलाकात की थी और उन्हें अपना नेता माना था। बाबा साहब ने निश्चित ही दलित समाज में राजनीतिक चेतना उत्पन्न करने का बड़ा काम किया जिसकी शुरूआत महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले ने कर दी थी।

दलित विमर्श के अनछुए पहलुओं से अपनी बात प्रारंभ करते हुए श्यामबाबू सरहपाद का उल्लेख करते हैं जिन्होंने लगभग एक हजार वर्ष पूर्व कहा था कि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए थे, जब हुए थे तब हुए थे, इस समय तो वे भी दूसरे लोग जैसा पैदा होते हैं वैसे ही पैदा हुए हैं, फिर ब्राह्मणत्व की बात ही कहां उठती है। पहले अध्याय में लेखक ने यूरोप और भारत के अनेक बौद्धिकों के उन विचारों का उल्लेख किया है जिनसे उत्तर आधुनिकता की अवधारणा का जन्म हुआ और फिर कैसे उत्तर आधुनिकता ने विश्व समाज को प्रभावित किया। श्यामबाबू का मानना है कि उत्तर आधुनिकतावाद के विचार ने ही नवपूंजीवाद और नवसाम्राज्यवाद को जन्म दिया है, लेकिन इसके साथ-साथ सामाजिक विमर्श केन्द्रीयकृत न होकर परिधि पर विस्तृत हुआ है जिसके कारण हाशिए के लोगों को अपनी आवाज उठाने का अवसर मिला है। यद्यपि इससे दलितजन की स्थिति में कोई खास फर्क नहीं पड़ा। 

इस पुस्तक को विभिन्न अध्यायों में विभाजित कर लेखक ने प्रयत्न किया है कि दलित समाज की परिस्थितियां और उसके समक्ष उपस्थित नई-पुरानी चुनौतियों का प्रतिबिंब दलित कविता पर जिस प्रकार पड़ा उसे सिलसिलेवार प्रस्तुत किया जाए। लेखक की अपनी कोशिश है, किन्तु एक पाठक के नाते मुझे लगता है कि यह पुस्तक एक अतिदीर्घ निबंध है, जिसे सुविधा के लिए भले अध्यायों में बांट दिया गया हो, किन्तु विचारों का तीव्र प्रवाह अध्यायों की सीमा में बंधने से इंकार करता है। हर अध्याय की शीर्षक के अनुरूप पृथक भावभूमि तो है, लेकिन वहीं तक सीमित नहीं है। कहना आवश्यक है कि इससे विषय की गंभीरता कहीं भी प्रभावित नहीं होती और न विचारक्रम ही कहीं टूटता है। तीसरे अध्याय का शीर्षक है- स्वानुभूति बनाम सहानुभूति का रचना संसार । इसमें लेखक इस बहस में शामिल होता है कि क्या दलित साहित्य वही है जो सिर्फ दलित लिखे अथवा गैरदलित लेखकों को भी यह अधिकार है। बात यहां कभी प्रचलित जुमले भोगा हुआ यथार्थ की है। श्यामबाबू अनेक दलित रचनाकारों से सहमत नज़र आते हैं कि दलितों द्वारा रचित ही दलित साहित्य है। यद्यपि अनेक स्थानों पर लेखक ने गैरदलित लेखकों और विचारकों के कथ्यों को दलित के पक्ष के समर्थन में खड़ा किया है। 

इस पुस्तक का शायद सबसे महत्वपूर्ण और सबसे उल्लेखनीय अध्याय है दलित स्त्री का अरण्य रोदन । इसमें लेखक ऐतिहासिक साक्ष्य सामने रखता है कि विश्व समाज में स्त्री का स्थान पुरुष की अपेक्षा हमेशा निम्नतर रहा है। बात जब दलित समुदाय पर आती है तो स्थितियां अधिक निर्मम व कठोर रूप में सामने आती है। अध्याय में मोहनदास नेमिश्यराय का कथन उद्धृत है कि दलित महिलाओं का संघर्ष दोहरा है क्योंकि उनका दोहरा शोषण हो रहा है। उन्हें एक गाल पर ब्राह्मणवाद का तो दूसरे गाल पर पितृसत्ता का थप्पड़ खाना पड़ता है। यह क्रूर वास्तविकता है और इससे कौन सहमत न होगा! यहां जो कवितांश दिए गए हैं मर्मांतक हैं और झकझोर कर रख देते हैं। 

अन्य अध्यायों में एक में लेखक ने नस्लवाद का प्रश्न उठाया है। इसमें हिटलर की जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका का रंगभेद, अमेरिका में रंगभेद इत्यादि का उल्लेख किया गया है। लेखक का मानना है कि भारत के दलित समुदाय की स्थिति इनसे बहुत भिन्न नहीं है। विगत कुछ दशकों में राजनीति में जो चारित्रिक गिरावट आई है उसका भी संज्ञान लेखक ने लिया है। विचारहीन, स्वार्थकेन्द्रित राजनीति ने लोकतांत्रिक सिद्धांतों को परे ढकेल दिया है जिसका खामियाजा दलित शोषित समाज को भुगतना पड़ रहा है। लेखक का एक कथन गौरतलब है- मंत्रणा-यंत्रणा से उर्वरित दलितों की प्रताडऩा ब्राह्मणवादी वैचारिकता का सामंती गठबंधन है। एक अन्य अध्याय में बाजार की मृगमरीचिका ने वंचितजनों को किस तरह छला है उसका विस्तारपूर्वक उल्लेख है। लेखक का साफ कहना है कि पूंजीवाद छलावा है, मृगमरीचिका है जिसमें जनता के अधिकार स्खलित हुए हैं। वह कहता है कि हाशिएकृतजन केन्द्र में आ ही रहे थे कि नवपूंजीवाद ने उन्हें गुमराह कर दिया। बाजार के जादू से इनकी खोपड़ी भन्नाई हुई है। 

एक अध्याय का शीर्षक है- पहाड़ तुम कब बदलोगे । लगता है मानो किसी कविता का शीर्षक है। लेकिन लेखक का आशय यहां उस सुखजीवी वर्ग से है जो पहाड़ की तरह अविचलित है। वह बस मसनद लगाए बैठा है, बिना कुछ किए सब कुछ पा लेने का लालच उसे है, अपने अलावा उसे किसी से कोई मतलब नहीं है। ऐसा नहीं कि लेखक सिर्फ सवर्ण अभिजात वर्ग की ही भर्त्सना कर रहा है। वह अगले अध्याय में दलित समाज में आई अभिजात मानसिकता का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करते हुए उनकी आलोचना करने से भी पीछे नहीं हटता। कहने की आवश्यकता नहीं कि हर अध्याय में दर्जनों कविताओं के उद्धरण दिए गए हैं। ये कविताएं अपने आप में दलित साहित्य के वैचारिक पक्ष को बहुत मजबूती, गहरे मानसिक उद्वेग और सच्चाई के साथ प्रस्तुत करती हैं। युवा लेखक श्यामबाबू शर्मा को मैं उनकी इस पुस्तक के लिए बधाई देता हूं। मैं यहां उल्लेख करना आवश्यक समझता हूं कि श्यामबाबू भले ही हिंदी साहित्य के डॉक्टर हों, लेकिन वे केंद्र सरकार के किसी ऐसे विभाग में नौकरी कर रहे हैं जिसका साहित्य पढऩे-लिखने से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। यह लेखक का अपना जीवट व अध्यवसाय है जिसने उसे निरंतर लेखन हेतु प्रेरित किया है। हमें उनसे आगे भी बहुत उम्मीद है।
अक्षर पर्व जुलाई 2017 अंक की प्रस्तावना 
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पुस्तक- दलित हिन्दी कविता का वैचारिक पक्ष
लेखक- श्याम बाबू शर्मा
प्रकाशक- अनुज्ञा बुक्स, 1/10206, वेस्ट गोरख पार्क शाहदरा- दिल्ली-110032
मो. 09350809192
पृष्ठ- 200
मूल्य- 200 रुपए मात्र

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