Saturday, 31 March 2018

आम जनता पर इंटरनेट की खुफिया निगाह



यह संचार प्रौद्योगिकी का युग है। तेजी के साथ एक के बाद एक नए उपकरण सामने आ रहे हैं। जैसे कोई जादूगर अपने हैट में से निकालकर नई-नई चीजें दर्शकों की ओर फेंक रहा हो। जादू का खेल देखते हुए जैसे दर्शक अचरज से भर जाते हैं वैसे ही आज पूरा समाज नई प्रौद्योगिकी के नए-नए उपकरण देखकर आश्चर्य विमुग्ध है। कम्प्यूटर को आए अभी कितने साल हुए हैं! उसके लगातार नए और उन्नत मॉडल लगभग हर माह बाजार में आ जाते हैं। इंटरनेट को भी तो लगभग दो दशक का समय हुआ है। उसमें भी नित नए परिवर्तन और संवर्द्धन उपभोक्ताओं को पेश किए जा रहे हैं। मोबाइल फोन का तो कहना ही क्या! एक समय अनेक लोगों ने कुछ अनिच्छा से, कुछ कौतुक से इस खिलौने को अपनाया था। नोकिया का बेसिक टेलीफोनी वाला बाबा आदम के जमाने का वह फोन न जाने कहां खो गया जो हथेली में समा जाता था! आज स्मार्टफोन हाथों में है। उसके एक से बढ़कर एक मॉडल हैं, एप्स हैं, और हैं संवाद के नए-नए मंच, नए-नए प्लेटफार्म।
विगत सप्ताह कैम्ब्रिज एनालिटिका का जो स्कैण्डल सामने आया है उसके बाद से स्कूल के दिनों में निबंध लिखने का एक प्रचलित विषय बारंबार याद आ रहा है। विज्ञान वरदान है या अभिशाप। यह कैसे कहें कि विज्ञान अभिशाप है! मनुष्य सभ्यता की हजारों वर्ष की यात्रा आखिरकार विज्ञान की ही तो देन है। अगर आदिमानव ने अग्नि का आविष्कार न किया होता, अगर उसके बाद चक्के का आविष्कार न हुआ होता तो क्या हम वहां पहुंच पाते जहां आज हैं? छपाई मशीन, टेलीफोन, बिजली, भाप का इंजन, एक्स-रे- ये तमाम वैज्ञानिक आविष्कार ही तो हैं जिन्होंने मनुष्य जीवन को सुखद बनाने में भूमिका निभाई। ऐसे में यही कहना पड़ता है कि आविष्कार तो मूल्यनिरपेक्ष है। उसका अच्छा या बुरा होना, वरदान या अभिशाप होना उपयोगकर्ता पर निर्भर करता है। जिस माचिस की तीली से रोटी पकाने के लिए चूल्हा जलता है उसी से घर भी जलाया जा सकता है। यही बात चाकू से लेकर नाभिकीय ऊर्जा तक पर लागू होती है।
कैम्बिज एनालिटिका ने जो घनघोर अपराध किया है उसे इस पृष्ठभूमि में एक सीमा तक समझा जा सकता है। लेकिन सूचना प्रौद्योगिकी और संचार प्रौद्योगिकी की प्रगति का एक सौ-सौ परतों के नीचे दबा हुआ, आम जनता की आंखों से ओझल और खतरनाक पक्ष भी है जिस पर भी आज चर्चा होना चाहिए। इसमें कोई रहस्य नहीं है कि मीडिया के परपंरागत रूपों का उपयोग सत्ताधीश और श्रेष्ठिवर्ग अपने एजेंडे के मुताबिक करते आए हैं। अखबारों का प्रकाशन जब शुरू हुआ तब से उन्होंने सामंतों और पूंजीपतियों का हित संरक्षण किया हैं। यद्यपि भारत में स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा निकाले गए अखबार इसका अपवाद थे, जिसकी कीमत भी उन्हें चुकाना पड़ी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब विश्व में जनतांत्रिक शक्तियों का उदय हुआ तब भी अखबारों ने जनहितैषी भूमिका निभाने की ओर ध्यान दिया। वैसे पूंजीवादी जनतंत्र में जनता को आश्वस्त करने और भुलावे में रखने की दृष्टि से भी मीडिया पर अंकुश लगाने से काफी हद तक बचा जाता है। इसे ही हम प्रेस की स्वाधीनता कहते हैं।
पारंपरिक मीडिया अर्थात अखबार, रेडियो और टीवी की कोई तुलना नए मीडिया याने इंटरनेट माध्यमों से नहीं की जा सकती। इस नए मीडिया के आम जनता के लिए लाभ कम नहीं है, लेकिन वे तभी तक हैं जब तक जनता पूंजीवादी जनतंत्र की सीमाओं से बंधी हुई है। मैंने जिस गोपन पक्ष का उल्लेख किया है उसकी बात यहां उठती है। ध्यानयोग्य है कि इंटरनेट का आविष्कार और विकास अमेरिका के सैन्य-पूंजी गठजोड़ की हिफाजत और उसके उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए हुआ है। यदि कोई व्यक्ति या समूह इस एजेंडा के दाएं-बाएं जाने की कोशिश करेगा तो उसके बारे में इंटरनेट के माध्यम से संकलित सूचनाओं का उपयोग उसी पर चट्टान पटक देने जैसी कार्रवाई में किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में जिनका इंटरनेट पर नियंत्रण है वे आपके बारे में राई-रत्ती खबर रखते हैं। आपने यदि व्यवस्था का विरोध किया तो एक सीमा तक ही आपकी हरकतें बर्दाश्त की जाएंगी।
मानवाधिकारों के लिए सचेष्ट अनेक समूह पिछले कुछ वर्षों में इस बारे में चिंता प्रकट करते रहे हैं। क्योंकि इंटरनेट और उसके उपकरण मनुष्य की निजता का, उसके गोपनीयता के अधिकार का अतिक्रमण और हनन करते हैं। ट्विटर या फेसबुक पर की गई एक लापरवाह पोस्ट किसी व्यक्ति को आनन-फानन में जेल के सींखचों के पीछे पहुंचा सकती है। भारत में ही उदाहरण है कि राजनेता का कार्टून बनाने पर या हल्के ढंग से की गई टिप्पणी पर किसी फेसबुक उपयोगकर्ता को गिरफ्तार कर लिया गया। व्यक्ति अपनी सफाई देता रहे, बाद में भले ही निर्दोष सिद्ध हो जाए, लेकिन जब उसे प्रताड़ित किया जाता है, तो शेष समाज में भय का संचार होना स्वाभाविक हो जाता है। कहने का आशय यह है कि सूचना प्रौद्योगिकी को लेकर व्यक्ति को कोई रूमानी धारणाएं नहीं पालनी चाहिए। इसमें डाकिया डाक लाया या चिट्ठी आई है जैसे गाना गाने की गुंजाइश नहीं है।
यह तो एक पक्ष हुआ। कैम्ब्रिज एनालिटिका ने जो किया उससे तस्वीर का दूसरा रूप सामने आता है। अभी तक मिली खबरों के अनुसार इस कंपनी ने फेसबुक से पांच करोड़ अमेरिकी मतदाताओं के प्रोफाइल याने निजी जानकारियां हासिल कीं।  जुआघरों के खरबपति मालिक डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति चुने जाने की मुहिम में उनका उपयोग किया। कंपनी ने चुने हुए मतदाताओं को ऐसी सूचनाएं प्रसारित कीं जिनके प्रभाव में आकर वे ट्रंप के पक्ष में आ जाएं। हमें याद है कि एक और खरबपति जार्ज बुश जूनियर ने फ्लोरिडा के अपने गवर्नर भाई और फिर अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट की मदद से अल गोर को राष्ट्रपति चुनाव में पराजित किया था। उसमें सीधे-सीधे धोखाधड़ी थी, न्यायपालिका का पक्षपात था, लेकिन पूंजीतंत्र के आगे किसी की नहीं चली थी। बराक ओबामा को राष्ट्रपति बनाने में मुद्रा बाजार के सट्टेबाज खरबपति जार्ज सोरोस ने मदद की थी। लेकिन ट्रंप का किस्सा इन सबसे अलग है।
कैम्ब्रिज एनालिटिका ने फेसबुक उपयोगकर्ताओं की निजी जानकारियों को अवैध रूप से हासिल कर उनका अवैध उपयोग किया। इस कंपनी ने इंग्लैण्ड के ब्रेक्सिट से अलग होने के प्रसंग में भी मतदाताओं को प्रभावित किया। खबरें ये भी हैं कि इस कंपनी और इसकी सहयोगी कंपनियों ने भारत में भी ऐसी कार्रवाईयों को अंजाम दिया। इन्होंने 2010 में नीतीश-भाजपा गठबंधन को जीतने में मदद की, इसके बाद उसने 2014 के चुनावों के पहले कांग्रेस में घुसपैठ कर, उसे ध्वस्त करने की योजना बनाई और भाजपा का सहयोग किया। भारत के निर्वाचन आयोग ने फेसबुक के साथ मतदाताओं का प्रोफाइल साझा करने के लिए बाकायदा समझौता भी किया, लेकिन मतदाताओं से उसकी अनुमति नहीं ली। अब कनाडा, अमेरिका, इंग्लैण्ड, भारत सब जगह फेसबुक और कैम्ब्रिज एनालिटिका दोनों के खिलाफ जांच शुरू हो गई है। व्हाट्सअप और ट्विटर ने फेसबुक की निंदा की है; उसके शेयर के भाव टूट गए हैं; टेस्ला के मालिक उद्योगपति एलोन मस्क ने अपना फेसबुक खाता बंद कर दिया है। आगे क्या होता है, देखना बाकी है।
हमारे लिए गहरी चिंता का विषय है कि नया मीडिया या सोशल मीडिया का यह दुरुपयोग मनुष्य जाति के लिए कितना घातक होगा। अगर इस पर अंकुश नहीं लगाया गया, तो वह दिन शायद बहुत दूर नहीं होगा जब पूंजीवादी जनतंत्र कभी भी अधिनायक तंत्र में बदल सकता है। जब आप उपग्रह से, ड्रोन से, स्मार्टफोन से हर व्यक्ति के क्रियाकलाप पर, उसकी दैनंदिन गतिविधियों पर निगाह रखे हुए है तो इसका अर्थ यह है कि वह चौबीस घंटे आपके निशाने पर है। उसे आप कभी भी जेल में डाल सकते हैं। यहां तक कि उसकी हत्या भी कर सकते हैं।  हॉलीवुड की अनेक रोमांचकारी फिल्मों में इस तरह के चित्रण हुए हैं। ये कल्पनाएं सच साबित हो रही हैं। आज हमें उसी का सबसे ज्यादा डर है। सोशल मीडिया के दुरुपयोग के दीगर आयाम भी हैं। उन पर कभी अलग से चर्चा होगी। 
देशबंधु में 29 मार्च 2018 को प्रकाशित 

Tuesday, 27 March 2018

हिंदी साहित्य के डिजिटल संग्रहण की आवश्यकता

                   
 
काग भुशुंडि गरुड़ से बोले, आओ हो लें दो-दो चोंचे।
चलो किसी मंदिर में चलकर, प्रतिमा का सिंदूर खरोंचे।।
मैंने अपने बचपन में सुनी एक बहुचर्चित कविता से उपरोक्त पंक्तियां उद्धृत की है। इनको सुनकर या पढ़कर किसी भी साहित्यप्रेमी को लग सकता है कि हो न हो यह बाबा नागार्जुन की कविता है। उनकी अनेक कविताओं के तेवर इसी ढब के हैं। मसलन, बहुत दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास या फिर शासन के सत्य कुछ और हैं, जनता के कुछ और परवर्ती काल में लिखी कविता इंदु जी, इंदु जी क्या हुआ आपको अथवा खिचड़ी विप्लव देखा हमने जैसी कविताओं में भी ऐसी ही वाक्विद्ग्धता है। इसलिए अगर कोई पाठक ऊपर उद्धृत कविता को भी नागार्जुन रचित माने तो इसमें आश्चर्य क्या? दरअसल हुआ भी ऐसा ही। अक्टूबर-नवंबर में फेसबुक पर यह कविता एकाएक प्रकट हुई; इसके लिखने का श्रेय बाबा नागार्जुन को दिया गया; और जब कहीं प्रतिवाद हुआ कि यह किसी और की रचना है तो उस बात को एक सिरे से नकार दिया गया। कुल मिलाकर एक रोचक विवाद खड़ा हो गया। रोचक इसलिए कहूंगा क्योंकि कुल मिलाकर बातों का ही जमाखर्च था। वादी-प्रतिवादी दोनों कुछ समय बाद इस प्रकरण को भूल भी गए।
मैंने जब फेसबुक पर कविता पढ़ी और नागार्जुन का नाम देखा तो विस्मयपूर्वक प्रश्न किया कि क्या यह कविता सचमुच नागार्जुन की है? मैं जानता था कि यह उनकी कविता नहीं है, लेकिन जिन्होंने कविता पोस्ट की थी उनसे टकराव मोल लेने के बजाय चाहता था कि मेरा प्रश्न पढ़कर वे स्वयं इस बारे में आश्वस्त हो लें। बहरहाल, इसके बाद मैंने अपने कई मित्रों को फोन किया, उनको कविता की आधी पंक्ति सुनाकर ही पूछा कि इसका लेखक कौन है? सारे मित्रों का उत्तर वही था जो मुझे पता था। इसके बाद भी लिखित प्रमाण की आवश्यकता थी ताकि फेसबुक पर कविता के असली लेखक का परिचय दे सकूं। इधर-उधर खोजा। अंत में सागर में प्रोफेसर कांतिकुमार को फोन किया, उन्होंने आश्वस्त किया कि ढूंढकर बताऊंगा। यहां उनकी सहधर्मिणी श्रीमती साधना जैन ने सहायता की। उन्हें कुछ याद आया, अपनी हजारों पुस्तकों वाली लाइब्रेरी से उन्होंने वह पुस्तक निकाली जिसमें यह कविता छपी थी और यह कृपा भी की कि पूरी पुस्तक ही मुझे पंजीकृत डाक से भेज दी।
आपके इतना पढऩे तक प्लॉट अगर गहरा गया हो और आप रहस्य से परदा उठाकर कवि का नाम जानने व्यग्र हों तो मैं अधिक प्रतीक्षा करवाए बिना बताऊं कि यह कविता मध्यप्रदेश के कवि जीवन लाल वर्मा विद्रोही की है। जिस काव्य संग्रह में मुझे यह प्राप्त हुई उसका शीर्षक है- जबलपुर की काव्यधारा।  पंडित कुंजीलाल दुबे स्मारक समिति जबलपुर ने 1999 में इसका प्रकाशन किया। इसमें जबलपुर से संबंध रखने वाले पचहत्तर कवियों की कविताएं, उनके जीवन परिचय के साथ प्रकाशित हैं। छह सौ पृष्ठ के इस काव्य संकलन का संपादक जबलपुर के ही प्रोफेसर हरिकृष्ण त्रिपाठी ने किया। जबलपुर की अपने समय की सुप्रसिद्ध साहित्य संस्था मिलन ने भी इसी तरह का एक संकलन नर्मदा के स्वर शीर्षक से कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित किया था। इतनी जानकारी यह सोचकर दी कि शायद साहित्यिक इतिहास के पाठकों को इसमें रुचि हो!
जीवनलाल वर्मा विद्रोही नागार्जुन और मुक्तिबोध के समवयस्क और समकालीन थे। उनकी एक लंबी कविता चरवाहा अपने समय में अत्यन्त लोकप्रिय हुई थी। 1915 में जबलपुर में जन्मे विद्रोही जी पत्रकार, बाद में मध्यप्रदेश जनसंपर्क में अधिकारी थे। पहले नागपुर, फिर भोपाल में उनका वास रहा। 1989 में भोपाल में ही उनका निधन हुआ। वे फक्कड़ स्वभाव और विद्रोही तेवर के कवि थे। अपना उपनाम उन्होंने सोच-समझकर ही रखा था। साहित्य जगत के बाहर भी वे अपने चुटीलेपन के लिए जाने जाते थे। मेरा अभिनंदन शीर्षक से उन्होंने कविता लिखी जिसमें वे कहते हैं:-
जिस दिन था मेरा अभिनंदन
सूरदास सिर पीट रहे थे, कालिदास करते थे क्रन्दन।
हुआ एक्स-रे था तुलसी का
मीरा थी अण्डर आपरेशन,
हिन्दी को केंसर होने का-
हुआ उसी दिन कनफरमेशन।
सीधे दिल्ली चले कबीरा लाद गधे पर नौ मन चंदन।।

उनकी एक और कविता दृष्टव्य है:-
सुनते हैं अजगर-युग है,
तो फिर दास मलूका हूं मैं।।
अब तक संत बन गया होता,
एक चिलम से चूका हूं मैं।।

नागार्जुन बनाम विद्रोही की चर्चा को प्रस्थान बिन्दु मानकर मैं पाठकों को एक वृहत्तर प्रश्न की ओर ले जाना चाहता हूं। यह पहला अवसर नहीं है जब एक कवि की रचना दूसरे कवि की लिखी मान ली गई हो या उस तरह प्रचलित हो गई हो। और ऐसा नहीं कि सिर्फ हिन्दी में ही ऐसे प्रसंग घटित होते थे। कोई दो वर्ष पूर्व स्पैनिश भाषा के महान कवि पाब्लो नेरुदा के नाम से एक लंबी कविता सोशल मीडिया पर प्रसारित हो गई। किसी सजग पाठक का उस पर ध्यान गया। उसने खोज कर बताया कि यह किसी अन्य की रचना है जिसे नेरूदा के नाम से चलाया जा रहा है। दुनिया में और जगहों पर भी इस तरह के प्रसंग घटित होते होंगे। इतिहास में एक दौर वह भी था जब वाचिक परंपरा में किसी कवि की रचना के साथ प्रक्षिप्त अंश जुड़ जाते थे या किसी प्रसिद्ध कवि के नाम से कोई नया कवि अपनी रचना चला देता था। कबीर और मीरा के पदों में कितना उनका स्वयं का लिखा है और कितना दूसरों ने उनके नाम पर जड़ दिया है उस पर आज भी चर्चाएं जारी हैं।
हम जानते हैं कि प्रिंटिंग मशीन के आविष्कार के साथ बड़ी संख्या में किताबों का मुद्रण प्रारंभ हुआ। अब ताड़ पत्र या भोजपत्र पर लिखने की आवश्यकता नहीं थी। साहित्यिक कृति का गेय होना भी अनिवार्य नहीं था। किसी कृति का असली लेखक कौन हैं इस बारे में भ्रम फैलने की गुंजाइश भी कम हो गई। फिर भी कुछ कसर बाकी रहना ही थी। वह इसलिए कि जिस भाषा का प्रसार क्षेत्र विस्तृत हो उसमें कब, कहां, किसने क्या लिखा इसकी समूची जानकारी सामान्य पाठक के पास नहीं हो सकती थी। यदि स्पेन में एक लेखक ने कुछ लिखा और उसे स्पेन प्रवास से लौटे किसी लातिन अमेरिकी चतुर सुजान ने अपने नाम से चला दिया हो, तो ऐसा हो जाना असंभव न था। आज भी तो हम पाते हैं कि कभी किसी फिल्म की कहानी चोरी  होने का आरोप लगता है, तो कभी किसी पत्रिका में चोरी की गई कविता या कहानी छपने का विवाद उठता है। साहित्येतर विषयों में शोध कार्य में चोरी के आरोप लगते हैं और नेताओं के भाषणों में ढूंढा जाता है कि उन्होंने कहां से मसाला टीपा है।
अमेरिका में कोई शोध प्रबंध प्रकाशित होता है और उसकी नकल मारकर भारत में पीएचडी मिल जाती है। इतनी दूर भी क्यों जाएं? भारत में ही एक विश्वविद्यालय के भीतर एक जैसी विषयवस्तु पर पीएचडी दे देते हैं। अगर कहीं पकड़े गए तो फिर जो होगा सो होगा। आज उसकी चिंता क्यों की जाए। मैंने कई हिन्दी लेखकों को दावे करते हुए सुना है कि फलानी फिल्म का प्लॉट उनकी कहानी से चोरी किया गया है। हमारे हिन्दी जगत में यह शिकायत इसलिए उठती है क्योंकि हिन्दी भाषी क्षेत्र अत्यंत वृहद है। लेखकों की संख्या भी कम नहीं है। लगभग हर कस्बे से एकाध लघु पत्रिका प्रकाशित हो रही है। रचनाएं छपती हैं। अधिकतर एक छोटे से दायरे में सीमित रह जाती हैं, लेकिन पत्रिकाओं के संपादकों और साहित्यिक संस्थाओं के बीच विनिमय में रचना एक जगह से दूसरी जगह पहुंचने की संभावना बनी रहती है। इसी में यह आशंका भी निहित है कि दूरदराज की पत्रिका में छपी कोई रचना पसंद आ जाए तो उसे अपने नाम से स्थानीय पत्र या पत्रिका में छपा लो, किसको पता चलना है। वैसे भी अधिकतर लेखक अपनी रचनाओं को ही पढ़ते हैं। सरसरी निगाह से पत्रिका में अन्य लेखों को देखो तो ध्यान भी नहीं जाता कि इसमें कोई चोरी की रचना भी हो सकती है। ऐसी घटनाएं कम ही होती हैं, लेकिन होती तो हैं। सवाल उठता है कि क्या इस पर रोक लगाना संभव है, और क्या सूचना प्रौद्योगिकी का जो विकास हुआ है वह इस संबंध में हमारा मददगार हो सकता है? सवाल अटपटा लग रहा होगा, लेकिन इस पर सोचकर देखिए।
आज हम डिजिटल युग में हैं। सरकारी दफ्तरों में सौ-सौ साल पुरानी फाइलों को डिजिटल स्वरूप में संरक्षित किया जा रहा है। आक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी अब ट्विटर पर नए शब्द शामिल करने की सूचना देती है। किसी भी शब्द का अर्थ देखना हो गूगल सर्च पर चले जाइए। इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका जो कभी छत्तीस खंडों में प्रकाशित होता था वह अब डिजिटल रूप में उपलब्ध है। न्यूयार्क टाइम्स जैसे अखबारों ने अपने सौ-सवा सौ साल पुराने अंकों का डिजिटलीकरण कर दिया है। हिन्दी साहित्य में ही देखिए कि विकिपीडिया पर अनेक लेखकों के परिचय उपलब्ध हैं। हिन्दी कविता कोश इत्यादि नामों से ब्लॉग और फेसबुक पेज इत्यादि चल रहे हैं। अगर एक सुचारू योजना बने और उसे अंजाम देने के लिए वित्तीय सहायता उपलब्ध हो तो हिन्दी में लिखा गया विपुल साहित्य पीसी में माऊस के एक क्लिक पर या स्मार्ट फोन के एक टच पर प्राप्त हो सकता है।
मेरी समझ में देश में हिन्दी की सबसे पुरानी संस्थाओं यथा नागरी प्रचारणी सभा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा, दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा हैदराबाद इत्यादि को यह योजना हाथ में लेना चाहिए। देश के तमाम विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों को भी इस दिशा में विचार करने की आवश्यकता है। केन्द्र सरकार हिन्दी के प्रचार-प्रसार पर हर साल करोड़ों रुपए खर्च करती है। विश्व हिन्दी सम्मेलन नाम का एक स्वांग भी तीसरे-चौथे साल रचा जाता है। यदि एक समन्वित नीति बने, संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग हो तो हिन्दी की तमाम पुस्तकें तथा स्फुट रचनाएं डिजिटल प्लेटफार्म पर आसानी से लाई जा सकती हैं। अभी बहुत से लेखक अपनी रचनाएं खुद का ब्लॉग बनाकर पोस्ट करते हैं। दिक्कत होती है कि इसमें अधिकतम संख्या में लोगों को कैसे जोड़ा जाए। मेरे परिचित अनेक लेखकों के ब्लॉग होंगे, लेकिन उनको अलग-अलग खोलकर देखना व्यावहारिक रूप से संभव नहीं होता। अंग्रेजी की लाखों पुस्तकें किंडल पर उपलब्ध हैं, लेकिन हिन्दी की न के बराबर। संभावनाएं बहुत हैं। उन्हें अमली जामा पहनाने के लिए क्या किया जाए यह विचारणीय है। आज की चर्चा इस दिशा में आगे बढऩे में थोड़ी सी भी सहायक हो तो यह नागार्जुन व जीवनलाल वर्मा विद्रोही दोनों को हमारी आदरांजलि होगी।
अक्षर पर्व मार्च 2018 अंक की प्रस्तावना 

Wednesday, 21 March 2018

खुशी के पैमाने पर भारत

                                       
 
1991 में पी.वी. नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने और वित्त मंत्री का पद संभाला डॉ. मनमोहन सिंह ने। यही समय था जब भारत में तथाकथित आर्थिक उदारवाद की अवधारणा पनपना शुरू हुई। इसके पहले अमेरिका और इंग्लैंड की आर्थिक नीतियों में युगांतरकारी परिवर्तन आ चुके थे। मार्गरेट थैचर और रोनाल्ड रीगन ने जो नया रास्ता चुना उसे क्रमश: थैचरोनामिक्स और रीगनोनामिक्स की संज्ञा प्रदान की गई। एक नया पद प्रयोग में आया जिसे संक्षेप में एलपीजी कहा गया। अंग्रेजी के तीन शब्दों का हिन्दी अनुवाद हुआ उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण। यही वह समय था जब सोवियत संघ टूटने के कगार पर पहुंच चुका था। अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यतंत्र में विश्व व्यापार संगठन अर्थात डब्ल्यूटीओ की स्थापना हो गई थी और कैसे किन शर्तों पर अविछिन्न वैश्विक बाजार कायम किया जा सके इस पर माथापच्ची शुरू हो गई थी। अमेरिका तो शुरू से ही मुक्त व्यापार का पक्षधर था, फिर भी वहां कुछ ऐसे निर्माण क्षेत्र थे जिनमें मजदूर संगठन मजबूत थे और अपनी शर्तें मनवा सकते थे। वहां बेरोजगारी और विपन्नता पर मरहम लगाने के लिए सामाजिक सुरक्षातंत्र मौजूद था।
इंग्लैंड में समाजवादी और पूंजीवादी दोनों धाराएं एक-दूसरे से मुकाबला करते हुए चल रही थीं। आम आदमी को बड़ी हद तक बुनियादी सुविधाएं मयस्सर थीं गो कि वे पर्याप्त नहीं थीं। थैचर ने समाजवादी नीतियों को पूरी तरह दरकिनार करते हुए पूंजीवादी की नीतियों को बढ़ावा दिया। ब्रिटिश रेल का निजीकरण इस दिशा में एक बड़ा कदम था। इंग्लैंड अमेरिका सहित अन्य पूंजीवादी देशों ने जो माहौल बनाया भारत उससे अछूता नहीं रह सकता था। पहले इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी की हत्या के बाद देश में कोई ऐसा कद्दावर नेता नहीं था जो वैश्विक पूंजी के खिलाफ आवाज बुलंद कर सकता। अपने दूसरे कार्यकाल में श्रीमती गांधी को घरेलू मोर्चे पर जिस तरह कांटों पर चलना पड़ रहा था उसमें वे आर्थिक मोर्चे पर पहले की तरह ध्यान नहीं दे पा रही थीं। राजीव गांधी अगर दुबारा सत्ता में लौटते तो वे अपने पहले कार्यकाल की गलतियों को सुधारते ऐसा सामान्य विश्वास था। माना जाता है कि इसी कारण उनकी हत्या की गई।
बहरहाल 1991 से लेकर आज तक भारत एलपीजी के फार्मूले पर चल रहा है। इस बीच सरकार भले ही किसी की भी रही हो। फर्क इतना है कि अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार जनमत का थोड़ा बहुत आदर करती थी इसलिए उसे अपने आर्थिक निर्णयों में संशोधन करने में संकोच नहीं होता था। यशवंत सिन्हा को इसीलिए रोल बैक मिनिस्टर कहकर पुकारा जाने लगा था याने वह मंत्री जो अपने निर्णय हर समय वापस ले ले।यूपीए के दस साल के दौरान अगर मनमोहन सरकार पूंजीमुखी निर्णय लेती थी तो सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद उन पर या तो अंकुश लगाती थी या ऐसी नीतियां प्रवर्तित करती थी जो लोकोन्मुखी हों। किसानों की सत्तर हजार करोड़ की ऋण माफी एक ऐसा बड़ा उदाहरण था। वर्तमान मोदी सरकार की सोच बिल्कुल भिन्न है। इस सरकार को वायदे करना बहुत आता है, लेकिन निभाना नहीं। इसे न जनमत की परवाह है और न संसदीय परंपराओं की। बिना बहस के बजट पारित करना इस सरकार की अहम्मन्यता का बड़ा उदाहरण है। वित्त मंत्री से आम जनता की कौन कहे, व्यापारी और उद्योगपति भी त्रस्त हैं। श्री जेटली जैसा अलोकप्रिय वित्तमंत्री शायद ही कोई और हुआ हो!
एक लंबे समय से हम कुछ संज्ञाएं सुन रहे हैं जैसे- जीडीपी, सेंसेक्स, निफ्टी, जीएसटी इत्यादि। समाज का एक बड़ा वर्ग इनसे प्रभावित है। कितने ही लोग डेस्कटॉप पर बैठकर शेयर मार्केट का उतार-चढ़ाव देखकर खरीद-बिक्री में लगे रहते हैं। बहुत से लोग यह काम अपनी सरकारी ड्यूटी के समय भी करते हैं। हमें बार-बार बताया जाता है कि भारत की विकास दर कल कितनी थी और आज बढ़कर कितनी हो गई है। मोदी सरकार के अर्थशास्त्री इसी को आधार बनाकर यूपीए पर हमला करते हैं। उधर से चिदंबरम पलटवार करते हैं और उनका साथ देने यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी जैसे भाजपाई आ जाते हैं। मीडिया में बयानबाजी होती है, अखबारों में लेख छपते हैं और आम आदमी की हालत सेमल की डाल पर बैठे तोते जैसी हो जाती है। इतना सुंदर चमकीला लुभावना फूल है, यह जब पककर फल बनेगा तो कितना मीठा होगा, तोता यही आस लगाए रहता है। फूल पकता है, फल बनता है और रुई के रेशे बनकर उड़ जाता है।
यह पुरानी कहानी सिर्फ एक दृष्टांत नहीं बल्कि वर्तमान का कठोर सत्य है। अभी-अभी संयुक्त राष्ट्र संघ का एक प्रतिवेदन आया है जिसका नाम है हैप्पीनेस रिपोर्ट। इसके मुताबिक दुनिया के कोई डेढ़ सौ देशों में भारत एक सौ पैंतीसवें क्रम पर है। दक्षिण एशिया या उपमहाद्वीप में भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश और श्रीलंका से भी नीचे है। इस  रिपोर्ट से दो अर्थ निकलते हैं। एक तो यह कि एक भारतीय के जीवन में आम तौर पर खुशी या आनंद नहीं है। उसका क्रम लगातार नीचे गिर रहा है। एक सौ अठाइस से एक सौ तीस, फिर एक सौ पैंतीस, शायद कुछ ऐसा ही है। दूसरे यह कि खुशी और खुशहाली न तो परिपूरक हैं और न पर्यायवाची। जीडीपी के आंकड़ों से आप सिद्ध कर सकते हैं कि देश में खुशहाली बढ़ी है, लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि आम नागरिक का जीवन पहले से अधिक आनंददायक हो गया है। 
इस कठोर सत्य को जानने के लिए किसी बहस की, जिरह की, दस्तावेज की आवश्यकता नहीं है। यह सत्य हमारे दैनंदिन जीवन में चारों ओर बिखरा हुआ है। कोई दिन नहीं जाता जब हम अपने गांव, मुहल्ले या बस्ती में दिल दहलाने वाली, रोंगटे खड़े कर देने वाली एकाध घटना घटित न सुनते हों। आज से बीस बरस पहले तक ऐसी घटनाओं की हम कल्पना भी नहीं करते थे। इक्की-दुक्की वारदातें होती थीं और उन्हें लोग जल्दी भूल जाते थे। लेकिन अब तो ऐसी लोमहर्षक वारदातों का एक लंबा सिलसिला ही चल पड़ा है। इन्हें पेशेवर अपराधी अंजाम नहीं देते बल्कि बिल्कुल सहज, सामान्य जीवन जीने वाले, सीधे-साधे दिखने वाले आम लोग न जाने कब कैसे अपना आपा खोकर अकल्पनीय अपराध कर बैठते हैं।
मैं इस तरह की घटनाओं के बारे में पढ़ता-सुनता हूं तो एक ही निष्कर्ष पर पहुंचता हूं। हमारे देश का कायांतरण एक अशांत और विक्षुब्ध समाज के रूप में हो गया है। हम बात-बात में क्रोधित होने लगे हैं। आप चाहें तो इसका दोष सिनेमा, टीवी, अपसंस्कृति वगैरह-वगैरह को दे सकते हैं, लेकिन यह सच्चाई का एक छोटा हिस्सा है। इस देश के धर्मोपदेशक और ईश्वर के दूत क्या कर रहे हैं? हमारे अपने घर का वातावरण क्या है? हम जिस मुहल्ले या कालोनी में रह रहे हैं क्या वहां सामाजिक समरसता है? अपने बच्चों को जिन स्कूलों में पढ़ने भेज रहे हैं क्या वहां समता व सौहार्द्र का वातावरण है? अगर वृहतर परिदृश्य में देखें तो पाएंगे कि हमने पूंजीवाद के उपकरण तो अपना लिए हैं, लेकिन सामंती संस्कार और कबीलाई मानसिकता से छुटकारा नहीं पा सके हैं।
उन्मुक्त पूंजीवाद के इस दौर में हमने असीमित इच्छाएं पाल ली हैं जिन्हें पूरा करने के साधन आम आदमी के पास नहीं हैं। शहरीकरण व उत्पादन के नए संबंधों ने पुराने सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया है। हमारे पास अब कोई सुरक्षा कवच नहीं है। अपनी लाचारी और बेबसी पर पर्दा डालने के लिए भारतवासी या तो किसी मिथकीय स्वर्णयुग में लौट जाना चाहते हैं या फिर मध्ययुगीन वर्जनाओं का आश्रय लेने लगते हैं। राजनेता इस ओर से गाफिल हैं, अर्थशास्त्री आत्ममुग्ध और समाजशास्त्री सेमिनारों में व्यस्त। अपने जीवन की खुशियां अब कहां-कैसे तलाशें? 
देशबंधु में 22 मार्च 2018 को प्रकाशित 

Thursday, 15 March 2018

बैंकों के निजीकरण के खिलाफ


सिझौरा में सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया की दो हजारवीं शाखा खुली। यह कोई चालीस साल पुरानी बात है। उस दिन गांव में उत्सव का माहौल था। बैंक के चेयरमेेन बंबई से आए। भोपाल से सरकार के कौन-कौन नुमाइंदे आए यह अभी याद नहीं; लेकिन मैंने इसे एक ऐतिहासिक अवसर माना और अपने वरिष्ठ साथी सत्येन्द्र गुमाश्ता को कार्यक्रम की रिपोर्टिंग करने वहां भेजा। आप नक्शे पर देखना चाहेंगे, तो शायद कहीं एक छोटे से बिंदु के रूप में यह जगह आपको दिख जाएगी। रायपुर-जबलपुर मार्ग पर मंडला जिले में सिझौरा एक छोटा सा गांव है, जिसकी आबादी लगभग सौ फीसदी आदिवासी है। इस छोटे से गांव में जहां तक पहुंचने के लिए एक अच्छी सड़क भी न हो, और जहां के लोग बैंक का अर्थ भी न जानते हों भला वहां सेन्ट्रल बैंक को अपनी शाखा खोलने की क्या सूझी? आज चालीस साल बाद शायद यह सवाल पूछा जा सकता है। इसका जवाब बैंकों के राष्ट्रीयकरण में है। 


सिझौरा ही नहीं, भुआ-बिछिया, करंजिया, बीजाडांडी, नारायणगंज-पडरिया जैसे गांवों में भी बैंक ने शाखाएं खोलीं। इसी तरह अन्य बैंकों ने भी दूरदराज के गांवों में जाकर अपना कारोबार शुरू किया। तब के सरगुजा जिले में उदयपुर एक छोटा सा गांव था। वहां एक झोपड़ीनुमा मकान में सेंट्रल बैंक की शाखा खुली। बैंक के मेरे पूर्व परिचित राजेन्द्र खजांची उस एकल स्टाफ वाली बैंक शाखा के पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर सब कुछ थे। गांव में प्राथमिक शाला शायद रही हो, पुलिस थाना भी नहीं था। मंडला ज़िले की भुआ-बिछिया शाखा में में मेरे साथ कभी काम कर चुके चुन्नीलाल केला पदस्थ थे। इन गांवों में सामान्य बुनियादी सुविधाएं भी नहीं थीं, लेकिन इन जैसे लोग बैंक राष्ट्रीयकरण के उद्देश्य को पूरा करने में लगे थे, यद्यपि इसके लिए उन्हें शहरी सुख-सुविधाओं से वंचित होना पड़ा था। एक जुनून था कि देश के गांव-गांव तक बैंकिंग सेवा पहुंचे और उसके माध्यम से आम आदमी के आर्थिक स्तर में सुधार आए। उसकी मेहनत की गाढ़ी कमाई सूदखोरों के पास न चली जाए।
1969 में जब इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तो उसके कुछ और प्रभाव देखने में आए। देश में पहली बार प्रायरटी सेक्टर की अवधारणा आई।  इसका सरल अर्थ था कि कमजोर वर्ग की माली हालत सुधारने में बैंक योगदान करेगा। इसके दो रोचक उदाहरणों का मैं गवाह हूं। मालती प्रसाद जैन रायपुर में पंजाब नेशनल बैंक याने पीएनबी के मैनेजर थे। उनका भोपाल तबादला हो गया। वहां उन्होंने पुलिस के तमाम सिपाहियों को सायकिल खरीदने हेतु आसान शर्तों पर कर्ज उपलब्ध कराया। विभाग ने वेतन से पांच रुपया या दस रुपया महीने की किश्त काटकर बैंक में जमा करने की अनुमति दे दी। सैकड़ों पुलिस वालों के पास खुद की साइकिल हो गई। रायपुर में सेंट्रल बैंक की विवेकानंद आश्रम शाखा के प्रबंधक थे गिरधरदास डागा। उन्होंने बढ़ईपारा में बैलगाड़ी के चक्के बनाने वालों को कर्ज दिया। उसकी मासिक किश्त की वसूली करने वे खुद उनके मुहल्ले में जाते थे। चक्के बनाने वालों के कारोबार में तरक्की हुई और बैंक का कर्ज भी पट गया। एनपीए की नौबत नहीं आई।
आज इन प्रसंगों का उल्लेख करना प्रासंगिक है और आवश्यक भी। मुझे उस समय की धुंधली स्मृति है जब 1952-53 में कभी लक्ष्मी बैंक दिवालिया हो गया था। यह एक निजी बैंक था। इसकी शाखाएं पूरे मध्यप्रांत और बरार में फैली थीं। बड़े विश्वास के साथ लोगों ने बैंक में पैसा जमा कराया था। उनकी जीवन भर की जमा पूंजी स्वाहा हो गई। बैंक के मालिकों पर क्या कार्रवाई हुई, यह नहीं पता, लेकिन एक खराब उदाहरण के रूप में लक्ष्मी बैंक का नाम बार-बार लिया जाता था। अपने आपको दिवालिया घोषित करने वाला वह अकेला बैंक नहीं था। देश में कई जगहों पर इसी तरह चालाक पूंजीपतियों ने जनता के साथ धोखाधड़ी की। बाद में चिटफंड कंपनियों के भी इस तरह के करतब लोगों ने देखे। अभी मैंने एक लेख में पढ़ा कि निजी बैंक द्वारा आम जनता के साथ धोखाधड़ी करने का भारत में पहला केस सन् 1840 में हुआ था। लेख आउटलुक पत्रिका के 12 मार्च के अंक में छपा है। 
इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद निजी बैंकों और बीमा कंपनियों के द्वारा की जा रही लूट पर अंकुश लगाने के लिए काफी सोच-विचार किया था। राष्ट्रीयकरण तो बाद में हुआ। पहले बैंकों पर सामाजिक नियंत्रण की योजना लागू की गई। इसके अंतर्गत प्रावधान हुआ कि कोई भी उद्यमी अपने द्वारा स्थापित या नियंत्रित बैंक से ऋण नहीं ले सकेगा। इसकी काट निकालने में व्यापार-चतुर बैंक मालिकों ने देरी नहीं लगाई। बैंक ए का मालिक बैंक बी से ऋण लेने लगा, बी वाला सी से और सी वाला डी से। इस तरह एक दुष्चक्र रच दिया गया। कुल मिलाकर बैंकों पर पूंजीपतियों का नियंत्रण कायम रहा आया। आम जनता को इससे कोई फायदा नहीं पहुंचा। सच तो यह है कि आम जनता ने बैंकों में जो रकम जमा की थी उसका उपभोग ये इजारेदार अपना व्यवसाय बढ़ाने के लिए करते रहे। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं था कि बैंकिंग एक ऐसी सेवा है जो देश की गरीबी को दूर करने में मददगार हो सकती थी।
यह माना जाता है कि इंदिराजी ने कांग्रेस के भीतर अपने विरोधियों याने सिंडीकेट के नेताओं  के दबाव से मुक्त होने के लिए बैंक राष्ट्रीयकरण की योजना बनाई थी। इसमें किसी हद तक सच्चाई है, लेकिन श्रीमती गांधी के इस साहसिक और अभूतपूर्व निर्णय के जो सकारात्मक दूरगामी परिणाम हुए उनकी तुलना में यह राजनैतिक लाभ तो क्षणिक था। जैसा कि मैंने शुरू में बताया देश के दूरदराज के कोनों तक बैंकों की शाखाएं खुलीं, बैंक कर्मचारियों का मनोबल बढ़ा, उन्हें लगा कि वे देश की तरक्की में अपना योगदान कर रहे हैं। उन्होंने इसके लिए एक लंबी लड़ाई लड़ी थी और यह ट्रेड यूनियन का कोई छोटा-मोटा मामला नहीं था। एक समय था जब बैंकों में सेवा शर्तें बहुत खराब थीं। काम का वातावरण बोझिल और कई बार प्राणलेवा भी था। बैंक कर्मचारियों के नेता एच.एस. परवाना और उनके साथियों ने इसके खिलाफ लगातार संघर्ष किया, पर वे सिर्फ खुद की सुविधाओं के लिए नहीं लड़ रहे थे, बल्कि बैंकिंग को एक समाजउपयोगी सेवातंत्र में बदलना उनका अभीष्ट था।
आज पीएनबी घोटाले के बाद बैंकों को वापिस निजी क्षेत्र के हवाले करने की आवाजें उठ रही हैं। देश के उद्यमियों की अग्रणी संस्था सीआईआई ने इस हेतु आवाज उठाने में एक दिन का भी समय नहीं लिया। हमें याद रखना चाहिए कि ये सीआईआई जैसे व्यापारिक संगठन ही हैं, जो उद्योगों के लिए सारी रियायतें चाहते हैं, जिन्हें लगता है कि भारत में टैक्स दरें बहुत ज्यादा हैं, जो निजी क्षेत्र की नौकरियों में आरक्षण का विरोध करते हैं, जो एसईजेड में कारखाने खोल देश के तमाम नियम कायदों को धता बताते हैं और जिनका वश चले तो सारे स्कूल कॉलेज भी निजी क्षेत्र के हवाले कर दें। यही लोग जीएसटी के भी समर्थक हैं और चाहते हैं कि टैक्स का सारा भार अप्रत्यक्ष कर के रूप में गरीब से गरीब आदमी को भी भुगतना पड़े।
नीरव मोदी, मेहुल चौकसी, जतिन मेहता, ललित मोदी, विजय माल्या, दिवंगत हर्षद मेहता इत्यादि तमाम लोग इस अभिजात समाज के हिस्से हैं। बैंकों से अरबों-खरबों का ऋण ये लेंगे। फिर उसे नहीं पटाएंगे। कानून से बचते फिरेंगे, और फिर कहेंगे कि बैंक इनके हाथों में सौंप दिए जाएं। कहावत है -चित भी मेरी पट भी मेरी। वह इन्हीं लोगों पर पूरी-पूरी लागू होती है। ठीक है कि पीएनबी और अन्य राष्ट्रीयकृत बैंकों में घपले हुए हैं, लेकिन उसका लाभ किसने उठाया? आपने या मैंने तो नहीं। कुछ बैंक कर्मचारी यदि भ्रष्ट निकले तो उससे पूरी व्यवस्था तो गलत नहीं हो जाती। और क्या निजी बैंकों में घपले नहीं होते? अगर विदेशों में निजी बैंक डूब सकते हैं तो भारत में क्यों नहीं? किसी दिन उनका कच्चा चिट्ठा भी सामने आएगा। मेरा यह सब कहने का मतलब इतना ही है कि जनता को सार्वजनिक क्षेत्र की संपदाएं, चाहे बैंक हो या और कुछ, उनके निजीकरण अथवा विनिवेश के खिलाफ आवाज उठाना चाहिए।
देशबंधु में 15 मार्च 2018 को प्रकाशित 



 

Thursday, 8 March 2018

त्रिपुरा के बाद?



 
भारतीय जनता पार्टी त्रिपुरा के विधानसभा चुनावों में मिली शानदार जीत के लिए निश्चित ही बधाई की हकदार है। बात यहां समाप्त नहीं हो जाती।  जिस दिन चुनाव परिणाम आए उस दिन से यह प्रचार लगातार किया जाता रहा कि उत्तर-पूर्वी राज्यों में लाल किला ढह गया है और केसरिया ध्वज चारों ओर लहरा रहा है। मैं सवाल करना चाहता हूं कि भारतीय जनता पार्टी कब तक इस छद्म के सहारे चलेगी। मेरा जनता से भी सवाल है कि वह कब तक आंखें मूंदकर, कान बंद कर इस छलना को समझने से इंकार करती रहेगी। भारतीय जनता पार्टी का प्रचारतंत्र जिस तरह दिन में अड़तालीस घंटे काम कर रहा है उसे देखकर मुझे दो बातें प्रतीत होती हैं-एक तो यह कि भाजपा जनता को मूर्ख समझती है और उसने एक पुरानी कहावत को पलटकर इस तरह रख दिया है कि आप हर समय हर व्यक्ति को बेवकूफ बना सकते हैं। दूसरी, अगर ऐसा नहीं है तो क्या हम यह मान लें कि भारत के मतदाता ने एक बिल्कुल नई राह पकड़ ली है, जिसमें आदर्श और सिद्धांतों की कोई गुंजाइश नहीं है बल्कि संकीर्ण मानसिकता से उपजे एक मध्ययुगीन भग्न स्वप्न को फिर यथार्थ में बदलने का लक्ष्य है?
उत्तर-पूर्व के राजनीतिक और चुनावी नक्शे पर एक उड़ती दृष्टि डाल लेना उचित होगा।  त्रिपुरा में पिछले बीस साल से सीपीएम के माणिक सरकार मुख्यमंत्री थे। उनके पहले भी नृपेन चक्रवर्ती और दशरथ देब के नेतृत्व में वामपंथी सरकार थी। इस लंबे दौर में त्रिपुरा में आंतरिक अशांति के कारणों का समाधान हुआ। वहां जो उग्रवाद पनपा था वह नियंत्रित हुआ। अपने आप में यह एक बड़ी उपलब्धि थी। फिर भी लंबे समय तक किसी एक पार्टी का शासन हो तो मतदाता ऊबने लगते हैं, उनमें असंतोष पनपने लगता है और वे बदलाव की अपेक्षा करने लगते हैं। सत्तारूढ़ दल इतने समय तक बिना कोई गलती किए राज करेगा, ऐसा कोई नहीं सोचेगा याने उसे अपने गल्तियों का खामियाजा भी भुगतना पड़ता है। इसके अलावा त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी और उसकी पितृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने घोर परिश्रम किया और उन्हें अपनी रणनीति में कामयाबी मिली। यह तथ्य ध्यान रखने योग्य है कि त्रिपुरा में भाजपा और माकपा को प्राप्त कुल मतों में बहुत अधिक अंतर नहीं था, शायद एक प्रतिशत का भी नहीं।
भारतीय जनता पार्टी ने एक ओर जहां दो अलगाववादी पार्टियों के साथ चुनावी समझौता किया, वहीं उसने कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के विधायकों और नेताओं को चाणक्य नीति पर चल कर अपने साथ जोड़ने में सफलता हासिल की। त्रिपुरा में कांग्रेस पहले भी सत्ता में नहीं थी। इस चुनाव में भी उसके पास खोने के लिए बहुत कुछ नहीं था। कांग्रेस की शायद यह भी सोच थी कि माकपा की जीत से उसे आगे चलकर लोकसभा चुनावों के समय गठबंधन में सहायता मिलेगी।  दूसरी ओर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की विडंबना कि उसके शीर्ष नेतृत्व में टकराव चल रहा है। पार्टी एक तरह से पश्चिम बंगाल और केरल ऐसे दो खेमों में बंट गई है। जनाधारविहीन प्रकाश करात की नीतियों ने पार्टी का जो नुकसान किया है उसे अभी पूरी तरह समझा नहीं गया है। कुल मिलाकर ऐसे कारण बने जिनसे भाजपा की जीत सुनिश्चित हो गई। माणिक सरकार की सादगी और ईमानदारी को बहुत उछाला गया। हमने ऐसे बहुत से चरित्रवान, सादगी पसंद और ईमानदार लोगों को पहले भी चुनाव हारते देखा है।
अब नगालैण्ड की बात करें। यहां जिस क्षेत्रीय दल के साथ भाजपा ने पिछले पांच साल या शायद उससे भी पहले से गठबंधन कर रखा था उसे चुनाव के ऐन पहले तोड़ दिया और एक दूसरे क्षेत्रीय दल के साथ नया मोर्चा बना लिया। चुनाव में दोनों पार्टियों को बराबर-बराबर सीटें मिलीं और कुछ समय के लिए एक संवैधानिक संकट की स्थिति बन गई। जब निवृत्तमान मुख्यमंत्री ने पद छोड़ने से इंकार कर दिया। उनकी मांग थी कि उन्हें ही दुबारा शपथ ग्रहण कराई जाए।  इस स्थिति में भाजपा क्या करती? राज्यपाल उसका है इसलिए वह नए गठबंधन के नेता को मुख्यमंत्री पद का आमंत्रण भिजवा सकती थी, लेकिन नगालैण्ड में भाजपा की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लग गया है। जिसका साथ उसने छोड़ा वह पार्टी बराबरी की ताकत बन कर उभरी है, वह भी बिना भाजपा के सहारे, इसलिए उसका मनोबल ऊंचा है। क्या ऐसे में भाजपा नए दोस्त को छोड़कर पुराने साथी की ओर हाथ बढ़ाएगी या फिर नए गठबंधन में पिछलग्गू बनकर सत्ता हासिल करेगी? 

नगालैण्ड की बात करते समय यह नहीं भूला जा सकता कि केन्द्र की मोदी सरकार ने विद्रोही नगा गुटों के साथ कोई गुप्त समझौता किया है। इसका खुलासा अभी तक नहीं हुआ है। यह चर्चा अवश्य सुनने मिलती है कि वृहत्तर नगालिम बनेगा जिसमें मणिपुर आदि के नगा इलाके भी शामिल होंगे तथा इस नए प्रदेश का अपना अलग ध्वज आदि होंगे। इसको लेकर मणिपुर में संशय पनप रहा है जहां अनैतिक रूप से भाजपा ने सत्ता हासिल की है। भाजपा यदि प्रदेश की सत्ता में आती है तो क्या वह इस कथित समझौते को लागू करने की दिशा में आगे बढ़ेगी? यदि हां तो पड़ोसी मणिपुर में इसका क्या असर पड़ेगा और यदि नहीं तो नगालैण्ड की जनता उस पर आगे कितना विश्वास रख पाएगी? एक तरफ त्रिपुरा के अलगाववादी दल, दूसरी ओर नगालैण्ड की यह उलझन। कहना होगा कि भाजपा यहां अपने ही जाल में खुद किसी हद तक फंस गई है। इससे बाहर निकलने के लिए भारी युक्ति और कौशल की आवश्यकता होगी।
 मेघालय में भारतीय जनता पार्टी ने जो खेल खेला है उसकी खुले शब्दों में निंदा की जानी चाहिए। मेघालय में आज तक कभी किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, लेकिन संसदीय परंपरा है कि सबसे बड़े दल को सरकार बनाने का न्यौता दिया जाता है। मेघालय के राज्यपाल ने जो किया उससे इस परिपाटी का उल्लंघन हुआ है। भाजपा को इस सवाल का जवाब देना पड़ेगा कि मेघालय में सबसे बड़ी पार्टी को सरकार न बनाने देने से उसने कौन सा आदर्श स्थापित किया है। उल्लेखनीय है कि मेघालय में भाजपा को मात्र दो सीटें मिलीं। यहां उसके सहयोग से कोनराड संगमा मुख्यमंत्री बन गए हैं। वे पी.ए. संगमा के बेटे हैं। उनकी बहन भी चुनाव जीती हैं। कांग्रेस पर वंशवाद का आरोप मोदीजी और उनके भक्तों ने खूब लगाया लेकिन अब पूर्णों संगमा के बेटे को मुख्यमंत्री बनाने में इन्हें वंशवाद नज़र नहीं आया, बल्कि इस तथ्य को भाजपा ने सुविधापूर्वक भुला दिया। संभव है कि आने वाले दिनों में वह मेघालय कांग्रेस में तोड़-फोड़ की वैसी ही कोशिश करे जैसे उसने अरुणाचल और मणिपुर में की थी। 
एक विहंगम दृष्टि डालें तो हमें समझ आता है कि उत्तर-पूर्व के किसी भी प्रांत में भारतीय जनता पार्टी की मूलरूप से कोई प्रभावी स्थिति नहीं है। वह जिन राज्यों में सत्तारूढ़ है वहां उसने अधिकतर जोड़-तोड़ से सत्ता हासिल की है। सबसे पहले असम में हिमंत विश्व शर्मा जैसे अवसरवादी कांग्रेसी नेता को उसने तोड़ लिया। शर्मा जोड़-तोड़ में अवश्य माहिर होंगे, लेकिन उसकी भी कोई सीमा होती है। अरुणाचल में भाजपा ने जो खेल किया उसकी परिणति एक पूर्व मुख्यमंत्री की आत्महत्या में हुई। अरुणाचल और मणिपुर दोनों में सत्तालोलुप राजनेता ही भाजपा के साथ जुड़े। यही स्थिति नगालैण्ड, त्रिपुरा और मेघालय में दिखाई दे रही है। इसके परिणाम दीर्घकाल में अच्छे नहीं होंगे।
नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के शब्दकोष में राजनैतिक शुचिता जैसी कोई संज्ञा नहीं है। आप पिछली सरकारों को चाहे जितना कोसते रहें, लेकिन स्वयं आपने क्या किया है, इसके बारे में जनता आज नहीं तो कल सवाल अवश्य पूछेगी। एक समय भाजपा चाल चरित्र और चेहरा की बात करती थी, अब वह सिर्फ दो लोगों के चेहरे और उनकी चाल नहीं, बल्कि चालबाजी के सिद्धांत पर अमल कर रही है। अब देखना यही है कि प्रचारतंत्र के भरोसे जो तिलिस्म खड़ा किया है, वह भरम कब टूटता है।
देशबंधु में 08 मार्च 2018 को प्रकाशित