यह संचार प्रौद्योगिकी का युग है। तेजी के साथ एक के बाद एक नए उपकरण सामने आ रहे हैं। जैसे कोई जादूगर अपने हैट में से निकालकर नई-नई चीजें दर्शकों की ओर फेंक रहा हो। जादू का खेल देखते हुए जैसे दर्शक अचरज से भर जाते हैं वैसे ही आज पूरा समाज नई प्रौद्योगिकी के नए-नए उपकरण देखकर आश्चर्य विमुग्ध है। कम्प्यूटर को आए अभी कितने साल हुए हैं! उसके लगातार नए और उन्नत मॉडल लगभग हर माह बाजार में आ जाते हैं। इंटरनेट को भी तो लगभग दो दशक का समय हुआ है। उसमें भी नित नए परिवर्तन और संवर्द्धन उपभोक्ताओं को पेश किए जा रहे हैं। मोबाइल फोन का तो कहना ही क्या! एक समय अनेक लोगों ने कुछ अनिच्छा से, कुछ कौतुक से इस खिलौने को अपनाया था। नोकिया का बेसिक टेलीफोनी वाला बाबा आदम के जमाने का वह फोन न जाने कहां खो गया जो हथेली में समा जाता था! आज स्मार्टफोन हाथों में है। उसके एक से बढ़कर एक मॉडल हैं, एप्स हैं, और हैं संवाद के नए-नए मंच, नए-नए प्लेटफार्म।
विगत सप्ताह कैम्ब्रिज एनालिटिका का जो स्कैण्डल सामने आया है उसके बाद से स्कूल के दिनों में निबंध लिखने का एक प्रचलित विषय बारंबार याद आ रहा है। विज्ञान वरदान है या अभिशाप। यह कैसे कहें कि विज्ञान अभिशाप है! मनुष्य सभ्यता की हजारों वर्ष की यात्रा आखिरकार विज्ञान की ही तो देन है। अगर आदिमानव ने अग्नि का आविष्कार न किया होता, अगर उसके बाद चक्के का आविष्कार न हुआ होता तो क्या हम वहां पहुंच पाते जहां आज हैं? छपाई मशीन, टेलीफोन, बिजली, भाप का इंजन, एक्स-रे- ये तमाम वैज्ञानिक आविष्कार ही तो हैं जिन्होंने मनुष्य जीवन को सुखद बनाने में भूमिका निभाई। ऐसे में यही कहना पड़ता है कि आविष्कार तो मूल्यनिरपेक्ष है। उसका अच्छा या बुरा होना, वरदान या अभिशाप होना उपयोगकर्ता पर निर्भर करता है। जिस माचिस की तीली से रोटी पकाने के लिए चूल्हा जलता है उसी से घर भी जलाया जा सकता है। यही बात चाकू से लेकर नाभिकीय ऊर्जा तक पर लागू होती है।
कैम्बिज एनालिटिका ने जो घनघोर अपराध किया है उसे इस पृष्ठभूमि में एक सीमा तक समझा जा सकता है। लेकिन सूचना प्रौद्योगिकी और संचार प्रौद्योगिकी की प्रगति का एक सौ-सौ परतों के नीचे दबा हुआ, आम जनता की आंखों से ओझल और खतरनाक पक्ष भी है जिस पर भी आज चर्चा होना चाहिए। इसमें कोई रहस्य नहीं है कि मीडिया के परपंरागत रूपों का उपयोग सत्ताधीश और श्रेष्ठिवर्ग अपने एजेंडे के मुताबिक करते आए हैं। अखबारों का प्रकाशन जब शुरू हुआ तब से उन्होंने सामंतों और पूंजीपतियों का हित संरक्षण किया हैं। यद्यपि भारत में स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा निकाले गए अखबार इसका अपवाद थे, जिसकी कीमत भी उन्हें चुकाना पड़ी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब विश्व में जनतांत्रिक शक्तियों का उदय हुआ तब भी अखबारों ने जनहितैषी भूमिका निभाने की ओर ध्यान दिया। वैसे पूंजीवादी जनतंत्र में जनता को आश्वस्त करने और भुलावे में रखने की दृष्टि से भी मीडिया पर अंकुश लगाने से काफी हद तक बचा जाता है। इसे ही हम प्रेस की स्वाधीनता कहते हैं।
पारंपरिक मीडिया अर्थात अखबार, रेडियो और टीवी की कोई तुलना नए मीडिया याने इंटरनेट माध्यमों से नहीं की जा सकती। इस नए मीडिया के आम जनता के लिए लाभ कम नहीं है, लेकिन वे तभी तक हैं जब तक जनता पूंजीवादी जनतंत्र की सीमाओं से बंधी हुई है। मैंने जिस गोपन पक्ष का उल्लेख किया है उसकी बात यहां उठती है। ध्यानयोग्य है कि इंटरनेट का आविष्कार और विकास अमेरिका के सैन्य-पूंजी गठजोड़ की हिफाजत और उसके उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए हुआ है। यदि कोई व्यक्ति या समूह इस एजेंडा के दाएं-बाएं जाने की कोशिश करेगा तो उसके बारे में इंटरनेट के माध्यम से संकलित सूचनाओं का उपयोग उसी पर चट्टान पटक देने जैसी कार्रवाई में किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में जिनका इंटरनेट पर नियंत्रण है वे आपके बारे में राई-रत्ती खबर रखते हैं। आपने यदि व्यवस्था का विरोध किया तो एक सीमा तक ही आपकी हरकतें बर्दाश्त की जाएंगी।
मानवाधिकारों के लिए सचेष्ट अनेक समूह पिछले कुछ वर्षों में इस बारे में चिंता प्रकट करते रहे हैं। क्योंकि इंटरनेट और उसके उपकरण मनुष्य की निजता का, उसके गोपनीयता के अधिकार का अतिक्रमण और हनन करते हैं। ट्विटर या फेसबुक पर की गई एक लापरवाह पोस्ट किसी व्यक्ति को आनन-फानन में जेल के सींखचों के पीछे पहुंचा सकती है। भारत में ही उदाहरण है कि राजनेता का कार्टून बनाने पर या हल्के ढंग से की गई टिप्पणी पर किसी फेसबुक उपयोगकर्ता को गिरफ्तार कर लिया गया। व्यक्ति अपनी सफाई देता रहे, बाद में भले ही निर्दोष सिद्ध हो जाए, लेकिन जब उसे प्रताड़ित किया जाता है, तो शेष समाज में भय का संचार होना स्वाभाविक हो जाता है। कहने का आशय यह है कि सूचना प्रौद्योगिकी को लेकर व्यक्ति को कोई रूमानी धारणाएं नहीं पालनी चाहिए। इसमें डाकिया डाक लाया या चिट्ठी आई है जैसे गाना गाने की गुंजाइश नहीं है।
यह तो एक पक्ष हुआ। कैम्ब्रिज एनालिटिका ने जो किया उससे तस्वीर का दूसरा रूप सामने आता है। अभी तक मिली खबरों के अनुसार इस कंपनी ने फेसबुक से पांच करोड़ अमेरिकी मतदाताओं के प्रोफाइल याने निजी जानकारियां हासिल कीं। जुआघरों के खरबपति मालिक डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति चुने जाने की मुहिम में उनका उपयोग किया। कंपनी ने चुने हुए मतदाताओं को ऐसी सूचनाएं प्रसारित कीं जिनके प्रभाव में आकर वे ट्रंप के पक्ष में आ जाएं। हमें याद है कि एक और खरबपति जार्ज बुश जूनियर ने फ्लोरिडा के अपने गवर्नर भाई और फिर अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट की मदद से अल गोर को राष्ट्रपति चुनाव में पराजित किया था। उसमें सीधे-सीधे धोखाधड़ी थी, न्यायपालिका का पक्षपात था, लेकिन पूंजीतंत्र के आगे किसी की नहीं चली थी। बराक ओबामा को राष्ट्रपति बनाने में मुद्रा बाजार के सट्टेबाज खरबपति जार्ज सोरोस ने मदद की थी। लेकिन ट्रंप का किस्सा इन सबसे अलग है।
कैम्ब्रिज एनालिटिका ने फेसबुक उपयोगकर्ताओं की निजी जानकारियों को अवैध रूप से हासिल कर उनका अवैध उपयोग किया। इस कंपनी ने इंग्लैण्ड के ब्रेक्सिट से अलग होने के प्रसंग में भी मतदाताओं को प्रभावित किया। खबरें ये भी हैं कि इस कंपनी और इसकी सहयोगी कंपनियों ने भारत में भी ऐसी कार्रवाईयों को अंजाम दिया। इन्होंने 2010 में नीतीश-भाजपा गठबंधन को जीतने में मदद की, इसके बाद उसने 2014 के चुनावों के पहले कांग्रेस में घुसपैठ कर, उसे ध्वस्त करने की योजना बनाई और भाजपा का सहयोग किया। भारत के निर्वाचन आयोग ने फेसबुक के साथ मतदाताओं का प्रोफाइल साझा करने के लिए बाकायदा समझौता भी किया, लेकिन मतदाताओं से उसकी अनुमति नहीं ली। अब कनाडा, अमेरिका, इंग्लैण्ड, भारत सब जगह फेसबुक और कैम्ब्रिज एनालिटिका दोनों के खिलाफ जांच शुरू हो गई है। व्हाट्सअप और ट्विटर ने फेसबुक की निंदा की है; उसके शेयर के भाव टूट गए हैं; टेस्ला के मालिक उद्योगपति एलोन मस्क ने अपना फेसबुक खाता बंद कर दिया है। आगे क्या होता है, देखना बाकी है।
हमारे लिए गहरी चिंता का विषय है कि नया मीडिया या सोशल मीडिया का यह दुरुपयोग मनुष्य जाति के लिए कितना घातक होगा। अगर इस पर अंकुश नहीं लगाया गया, तो वह दिन शायद बहुत दूर नहीं होगा जब पूंजीवादी जनतंत्र कभी भी अधिनायक तंत्र में बदल सकता है। जब आप उपग्रह से, ड्रोन से, स्मार्टफोन से हर व्यक्ति के क्रियाकलाप पर, उसकी दैनंदिन गतिविधियों पर निगाह रखे हुए है तो इसका अर्थ यह है कि वह चौबीस घंटे आपके निशाने पर है। उसे आप कभी भी जेल में डाल सकते हैं। यहां तक कि उसकी हत्या भी कर सकते हैं। हॉलीवुड की अनेक रोमांचकारी फिल्मों में इस तरह के चित्रण हुए हैं। ये कल्पनाएं सच साबित हो रही हैं। आज हमें उसी का सबसे ज्यादा डर है। सोशल मीडिया के दुरुपयोग के दीगर आयाम भी हैं। उन पर कभी अलग से चर्चा होगी।
देशबंधु में 29 मार्च 2018 को प्रकाशित