भारतीय जनता पार्टी त्रिपुरा के विधानसभा चुनावों में मिली शानदार जीत के लिए निश्चित ही बधाई की हकदार है। बात यहां समाप्त नहीं हो जाती। जिस दिन चुनाव परिणाम आए उस दिन से यह प्रचार लगातार किया जाता रहा कि उत्तर-पूर्वी राज्यों में लाल किला ढह गया है और केसरिया ध्वज चारों ओर लहरा रहा है। मैं सवाल करना चाहता हूं कि भारतीय जनता पार्टी कब तक इस छद्म के सहारे चलेगी। मेरा जनता से भी सवाल है कि वह कब तक आंखें मूंदकर, कान बंद कर इस छलना को समझने से इंकार करती रहेगी। भारतीय जनता पार्टी का प्रचारतंत्र जिस तरह दिन में अड़तालीस घंटे काम कर रहा है उसे देखकर मुझे दो बातें प्रतीत होती हैं-एक तो यह कि भाजपा जनता को मूर्ख समझती है और उसने एक पुरानी कहावत को पलटकर इस तरह रख दिया है कि आप हर समय हर व्यक्ति को बेवकूफ बना सकते हैं। दूसरी, अगर ऐसा नहीं है तो क्या हम यह मान लें कि भारत के मतदाता ने एक बिल्कुल नई राह पकड़ ली है, जिसमें आदर्श और सिद्धांतों की कोई गुंजाइश नहीं है बल्कि संकीर्ण मानसिकता से उपजे एक मध्ययुगीन भग्न स्वप्न को फिर यथार्थ में बदलने का लक्ष्य है?
उत्तर-पूर्व के राजनीतिक और चुनावी नक्शे पर एक उड़ती दृष्टि डाल लेना उचित होगा। त्रिपुरा में पिछले बीस साल से सीपीएम के माणिक सरकार मुख्यमंत्री थे। उनके पहले भी नृपेन चक्रवर्ती और दशरथ देब के नेतृत्व में वामपंथी सरकार थी। इस लंबे दौर में त्रिपुरा में आंतरिक अशांति के कारणों का समाधान हुआ। वहां जो उग्रवाद पनपा था वह नियंत्रित हुआ। अपने आप में यह एक बड़ी उपलब्धि थी। फिर भी लंबे समय तक किसी एक पार्टी का शासन हो तो मतदाता ऊबने लगते हैं, उनमें असंतोष पनपने लगता है और वे बदलाव की अपेक्षा करने लगते हैं। सत्तारूढ़ दल इतने समय तक बिना कोई गलती किए राज करेगा, ऐसा कोई नहीं सोचेगा याने उसे अपने गल्तियों का खामियाजा भी भुगतना पड़ता है। इसके अलावा त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी और उसकी पितृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने घोर परिश्रम किया और उन्हें अपनी रणनीति में कामयाबी मिली। यह तथ्य ध्यान रखने योग्य है कि त्रिपुरा में भाजपा और माकपा को प्राप्त कुल मतों में बहुत अधिक अंतर नहीं था, शायद एक प्रतिशत का भी नहीं।
भारतीय जनता पार्टी ने एक ओर जहां दो अलगाववादी पार्टियों के साथ चुनावी समझौता किया, वहीं उसने कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के विधायकों और नेताओं को चाणक्य नीति पर चल कर अपने साथ जोड़ने में सफलता हासिल की। त्रिपुरा में कांग्रेस पहले भी सत्ता में नहीं थी। इस चुनाव में भी उसके पास खोने के लिए बहुत कुछ नहीं था। कांग्रेस की शायद यह भी सोच थी कि माकपा की जीत से उसे आगे चलकर लोकसभा चुनावों के समय गठबंधन में सहायता मिलेगी। दूसरी ओर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की विडंबना कि उसके शीर्ष नेतृत्व में टकराव चल रहा है। पार्टी एक तरह से पश्चिम बंगाल और केरल ऐसे दो खेमों में बंट गई है। जनाधारविहीन प्रकाश करात की नीतियों ने पार्टी का जो नुकसान किया है उसे अभी पूरी तरह समझा नहीं गया है। कुल मिलाकर ऐसे कारण बने जिनसे भाजपा की जीत सुनिश्चित हो गई। माणिक सरकार की सादगी और ईमानदारी को बहुत उछाला गया। हमने ऐसे बहुत से चरित्रवान, सादगी पसंद और ईमानदार लोगों को पहले भी चुनाव हारते देखा है।
अब नगालैण्ड की बात करें। यहां जिस क्षेत्रीय दल के साथ भाजपा ने पिछले पांच साल या शायद उससे भी पहले से गठबंधन कर रखा था उसे चुनाव के ऐन पहले तोड़ दिया और एक दूसरे क्षेत्रीय दल के साथ नया मोर्चा बना लिया। चुनाव में दोनों पार्टियों को बराबर-बराबर सीटें मिलीं और कुछ समय के लिए एक संवैधानिक संकट की स्थिति बन गई। जब निवृत्तमान मुख्यमंत्री ने पद छोड़ने से इंकार कर दिया। उनकी मांग थी कि उन्हें ही दुबारा शपथ ग्रहण कराई जाए। इस स्थिति में भाजपा क्या करती? राज्यपाल उसका है इसलिए वह नए गठबंधन के नेता को मुख्यमंत्री पद का आमंत्रण भिजवा सकती थी, लेकिन नगालैण्ड में भाजपा की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लग गया है। जिसका साथ उसने छोड़ा वह पार्टी बराबरी की ताकत बन कर उभरी है, वह भी बिना भाजपा के सहारे, इसलिए उसका मनोबल ऊंचा है। क्या ऐसे में भाजपा नए दोस्त को छोड़कर पुराने साथी की ओर हाथ बढ़ाएगी या फिर नए गठबंधन में पिछलग्गू बनकर सत्ता हासिल करेगी?
नगालैण्ड की बात करते समय यह नहीं भूला जा सकता कि केन्द्र की मोदी सरकार ने विद्रोही नगा गुटों के साथ कोई गुप्त समझौता किया है। इसका खुलासा अभी तक नहीं हुआ है। यह चर्चा अवश्य सुनने मिलती है कि वृहत्तर नगालिम बनेगा जिसमें मणिपुर आदि के नगा इलाके भी शामिल होंगे तथा इस नए प्रदेश का अपना अलग ध्वज आदि होंगे। इसको लेकर मणिपुर में संशय पनप रहा है जहां अनैतिक रूप से भाजपा ने सत्ता हासिल की है। भाजपा यदि प्रदेश की सत्ता में आती है तो क्या वह इस कथित समझौते को लागू करने की दिशा में आगे बढ़ेगी? यदि हां तो पड़ोसी मणिपुर में इसका क्या असर पड़ेगा और यदि नहीं तो नगालैण्ड की जनता उस पर आगे कितना विश्वास रख पाएगी? एक तरफ त्रिपुरा के अलगाववादी दल, दूसरी ओर नगालैण्ड की यह उलझन। कहना होगा कि भाजपा यहां अपने ही जाल में खुद किसी हद तक फंस गई है। इससे बाहर निकलने के लिए भारी युक्ति और कौशल की आवश्यकता होगी।
मेघालय में भारतीय जनता पार्टी ने जो खेल खेला है उसकी खुले शब्दों में निंदा की जानी चाहिए। मेघालय में आज तक कभी किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, लेकिन संसदीय परंपरा है कि सबसे बड़े दल को सरकार बनाने का न्यौता दिया जाता है। मेघालय के राज्यपाल ने जो किया उससे इस परिपाटी का उल्लंघन हुआ है। भाजपा को इस सवाल का जवाब देना पड़ेगा कि मेघालय में सबसे बड़ी पार्टी को सरकार न बनाने देने से उसने कौन सा आदर्श स्थापित किया है। उल्लेखनीय है कि मेघालय में भाजपा को मात्र दो सीटें मिलीं। यहां उसके सहयोग से कोनराड संगमा मुख्यमंत्री बन गए हैं। वे पी.ए. संगमा के बेटे हैं। उनकी बहन भी चुनाव जीती हैं। कांग्रेस पर वंशवाद का आरोप मोदीजी और उनके भक्तों ने खूब लगाया लेकिन अब पूर्णों संगमा के बेटे को मुख्यमंत्री बनाने में इन्हें वंशवाद नज़र नहीं आया, बल्कि इस तथ्य को भाजपा ने सुविधापूर्वक भुला दिया। संभव है कि आने वाले दिनों में वह मेघालय कांग्रेस में तोड़-फोड़ की वैसी ही कोशिश करे जैसे उसने अरुणाचल और मणिपुर में की थी।
एक विहंगम दृष्टि डालें तो हमें समझ आता है कि उत्तर-पूर्व के किसी भी प्रांत में भारतीय जनता पार्टी की मूलरूप से कोई प्रभावी स्थिति नहीं है। वह जिन राज्यों में सत्तारूढ़ है वहां उसने अधिकतर जोड़-तोड़ से सत्ता हासिल की है। सबसे पहले असम में हिमंत विश्व शर्मा जैसे अवसरवादी कांग्रेसी नेता को उसने तोड़ लिया। शर्मा जोड़-तोड़ में अवश्य माहिर होंगे, लेकिन उसकी भी कोई सीमा होती है। अरुणाचल में भाजपा ने जो खेल किया उसकी परिणति एक पूर्व मुख्यमंत्री की आत्महत्या में हुई। अरुणाचल और मणिपुर दोनों में सत्तालोलुप राजनेता ही भाजपा के साथ जुड़े। यही स्थिति नगालैण्ड, त्रिपुरा और मेघालय में दिखाई दे रही है। इसके परिणाम दीर्घकाल में अच्छे नहीं होंगे।
नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के शब्दकोष में राजनैतिक शुचिता जैसी कोई संज्ञा नहीं है। आप पिछली सरकारों को चाहे जितना कोसते रहें, लेकिन स्वयं आपने क्या किया है, इसके बारे में जनता आज नहीं तो कल सवाल अवश्य पूछेगी। एक समय भाजपा चाल चरित्र और चेहरा की बात करती थी, अब वह सिर्फ दो लोगों के चेहरे और उनकी चाल नहीं, बल्कि चालबाजी के सिद्धांत पर अमल कर रही है। अब देखना यही है कि प्रचारतंत्र के भरोसे जो तिलिस्म खड़ा किया है, वह भरम कब टूटता है।
देशबंधु में 08 मार्च 2018 को प्रकाशित
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