Wednesday 21 March 2018

खुशी के पैमाने पर भारत

                                       
 
1991 में पी.वी. नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने और वित्त मंत्री का पद संभाला डॉ. मनमोहन सिंह ने। यही समय था जब भारत में तथाकथित आर्थिक उदारवाद की अवधारणा पनपना शुरू हुई। इसके पहले अमेरिका और इंग्लैंड की आर्थिक नीतियों में युगांतरकारी परिवर्तन आ चुके थे। मार्गरेट थैचर और रोनाल्ड रीगन ने जो नया रास्ता चुना उसे क्रमश: थैचरोनामिक्स और रीगनोनामिक्स की संज्ञा प्रदान की गई। एक नया पद प्रयोग में आया जिसे संक्षेप में एलपीजी कहा गया। अंग्रेजी के तीन शब्दों का हिन्दी अनुवाद हुआ उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण। यही वह समय था जब सोवियत संघ टूटने के कगार पर पहुंच चुका था। अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यतंत्र में विश्व व्यापार संगठन अर्थात डब्ल्यूटीओ की स्थापना हो गई थी और कैसे किन शर्तों पर अविछिन्न वैश्विक बाजार कायम किया जा सके इस पर माथापच्ची शुरू हो गई थी। अमेरिका तो शुरू से ही मुक्त व्यापार का पक्षधर था, फिर भी वहां कुछ ऐसे निर्माण क्षेत्र थे जिनमें मजदूर संगठन मजबूत थे और अपनी शर्तें मनवा सकते थे। वहां बेरोजगारी और विपन्नता पर मरहम लगाने के लिए सामाजिक सुरक्षातंत्र मौजूद था।
इंग्लैंड में समाजवादी और पूंजीवादी दोनों धाराएं एक-दूसरे से मुकाबला करते हुए चल रही थीं। आम आदमी को बड़ी हद तक बुनियादी सुविधाएं मयस्सर थीं गो कि वे पर्याप्त नहीं थीं। थैचर ने समाजवादी नीतियों को पूरी तरह दरकिनार करते हुए पूंजीवादी की नीतियों को बढ़ावा दिया। ब्रिटिश रेल का निजीकरण इस दिशा में एक बड़ा कदम था। इंग्लैंड अमेरिका सहित अन्य पूंजीवादी देशों ने जो माहौल बनाया भारत उससे अछूता नहीं रह सकता था। पहले इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी की हत्या के बाद देश में कोई ऐसा कद्दावर नेता नहीं था जो वैश्विक पूंजी के खिलाफ आवाज बुलंद कर सकता। अपने दूसरे कार्यकाल में श्रीमती गांधी को घरेलू मोर्चे पर जिस तरह कांटों पर चलना पड़ रहा था उसमें वे आर्थिक मोर्चे पर पहले की तरह ध्यान नहीं दे पा रही थीं। राजीव गांधी अगर दुबारा सत्ता में लौटते तो वे अपने पहले कार्यकाल की गलतियों को सुधारते ऐसा सामान्य विश्वास था। माना जाता है कि इसी कारण उनकी हत्या की गई।
बहरहाल 1991 से लेकर आज तक भारत एलपीजी के फार्मूले पर चल रहा है। इस बीच सरकार भले ही किसी की भी रही हो। फर्क इतना है कि अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार जनमत का थोड़ा बहुत आदर करती थी इसलिए उसे अपने आर्थिक निर्णयों में संशोधन करने में संकोच नहीं होता था। यशवंत सिन्हा को इसीलिए रोल बैक मिनिस्टर कहकर पुकारा जाने लगा था याने वह मंत्री जो अपने निर्णय हर समय वापस ले ले।यूपीए के दस साल के दौरान अगर मनमोहन सरकार पूंजीमुखी निर्णय लेती थी तो सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद उन पर या तो अंकुश लगाती थी या ऐसी नीतियां प्रवर्तित करती थी जो लोकोन्मुखी हों। किसानों की सत्तर हजार करोड़ की ऋण माफी एक ऐसा बड़ा उदाहरण था। वर्तमान मोदी सरकार की सोच बिल्कुल भिन्न है। इस सरकार को वायदे करना बहुत आता है, लेकिन निभाना नहीं। इसे न जनमत की परवाह है और न संसदीय परंपराओं की। बिना बहस के बजट पारित करना इस सरकार की अहम्मन्यता का बड़ा उदाहरण है। वित्त मंत्री से आम जनता की कौन कहे, व्यापारी और उद्योगपति भी त्रस्त हैं। श्री जेटली जैसा अलोकप्रिय वित्तमंत्री शायद ही कोई और हुआ हो!
एक लंबे समय से हम कुछ संज्ञाएं सुन रहे हैं जैसे- जीडीपी, सेंसेक्स, निफ्टी, जीएसटी इत्यादि। समाज का एक बड़ा वर्ग इनसे प्रभावित है। कितने ही लोग डेस्कटॉप पर बैठकर शेयर मार्केट का उतार-चढ़ाव देखकर खरीद-बिक्री में लगे रहते हैं। बहुत से लोग यह काम अपनी सरकारी ड्यूटी के समय भी करते हैं। हमें बार-बार बताया जाता है कि भारत की विकास दर कल कितनी थी और आज बढ़कर कितनी हो गई है। मोदी सरकार के अर्थशास्त्री इसी को आधार बनाकर यूपीए पर हमला करते हैं। उधर से चिदंबरम पलटवार करते हैं और उनका साथ देने यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी जैसे भाजपाई आ जाते हैं। मीडिया में बयानबाजी होती है, अखबारों में लेख छपते हैं और आम आदमी की हालत सेमल की डाल पर बैठे तोते जैसी हो जाती है। इतना सुंदर चमकीला लुभावना फूल है, यह जब पककर फल बनेगा तो कितना मीठा होगा, तोता यही आस लगाए रहता है। फूल पकता है, फल बनता है और रुई के रेशे बनकर उड़ जाता है।
यह पुरानी कहानी सिर्फ एक दृष्टांत नहीं बल्कि वर्तमान का कठोर सत्य है। अभी-अभी संयुक्त राष्ट्र संघ का एक प्रतिवेदन आया है जिसका नाम है हैप्पीनेस रिपोर्ट। इसके मुताबिक दुनिया के कोई डेढ़ सौ देशों में भारत एक सौ पैंतीसवें क्रम पर है। दक्षिण एशिया या उपमहाद्वीप में भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश और श्रीलंका से भी नीचे है। इस  रिपोर्ट से दो अर्थ निकलते हैं। एक तो यह कि एक भारतीय के जीवन में आम तौर पर खुशी या आनंद नहीं है। उसका क्रम लगातार नीचे गिर रहा है। एक सौ अठाइस से एक सौ तीस, फिर एक सौ पैंतीस, शायद कुछ ऐसा ही है। दूसरे यह कि खुशी और खुशहाली न तो परिपूरक हैं और न पर्यायवाची। जीडीपी के आंकड़ों से आप सिद्ध कर सकते हैं कि देश में खुशहाली बढ़ी है, लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि आम नागरिक का जीवन पहले से अधिक आनंददायक हो गया है। 
इस कठोर सत्य को जानने के लिए किसी बहस की, जिरह की, दस्तावेज की आवश्यकता नहीं है। यह सत्य हमारे दैनंदिन जीवन में चारों ओर बिखरा हुआ है। कोई दिन नहीं जाता जब हम अपने गांव, मुहल्ले या बस्ती में दिल दहलाने वाली, रोंगटे खड़े कर देने वाली एकाध घटना घटित न सुनते हों। आज से बीस बरस पहले तक ऐसी घटनाओं की हम कल्पना भी नहीं करते थे। इक्की-दुक्की वारदातें होती थीं और उन्हें लोग जल्दी भूल जाते थे। लेकिन अब तो ऐसी लोमहर्षक वारदातों का एक लंबा सिलसिला ही चल पड़ा है। इन्हें पेशेवर अपराधी अंजाम नहीं देते बल्कि बिल्कुल सहज, सामान्य जीवन जीने वाले, सीधे-साधे दिखने वाले आम लोग न जाने कब कैसे अपना आपा खोकर अकल्पनीय अपराध कर बैठते हैं।
मैं इस तरह की घटनाओं के बारे में पढ़ता-सुनता हूं तो एक ही निष्कर्ष पर पहुंचता हूं। हमारे देश का कायांतरण एक अशांत और विक्षुब्ध समाज के रूप में हो गया है। हम बात-बात में क्रोधित होने लगे हैं। आप चाहें तो इसका दोष सिनेमा, टीवी, अपसंस्कृति वगैरह-वगैरह को दे सकते हैं, लेकिन यह सच्चाई का एक छोटा हिस्सा है। इस देश के धर्मोपदेशक और ईश्वर के दूत क्या कर रहे हैं? हमारे अपने घर का वातावरण क्या है? हम जिस मुहल्ले या कालोनी में रह रहे हैं क्या वहां सामाजिक समरसता है? अपने बच्चों को जिन स्कूलों में पढ़ने भेज रहे हैं क्या वहां समता व सौहार्द्र का वातावरण है? अगर वृहतर परिदृश्य में देखें तो पाएंगे कि हमने पूंजीवाद के उपकरण तो अपना लिए हैं, लेकिन सामंती संस्कार और कबीलाई मानसिकता से छुटकारा नहीं पा सके हैं।
उन्मुक्त पूंजीवाद के इस दौर में हमने असीमित इच्छाएं पाल ली हैं जिन्हें पूरा करने के साधन आम आदमी के पास नहीं हैं। शहरीकरण व उत्पादन के नए संबंधों ने पुराने सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया है। हमारे पास अब कोई सुरक्षा कवच नहीं है। अपनी लाचारी और बेबसी पर पर्दा डालने के लिए भारतवासी या तो किसी मिथकीय स्वर्णयुग में लौट जाना चाहते हैं या फिर मध्ययुगीन वर्जनाओं का आश्रय लेने लगते हैं। राजनेता इस ओर से गाफिल हैं, अर्थशास्त्री आत्ममुग्ध और समाजशास्त्री सेमिनारों में व्यस्त। अपने जीवन की खुशियां अब कहां-कैसे तलाशें? 
देशबंधु में 22 मार्च 2018 को प्रकाशित 

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