Wednesday, 24 April 2019

छत्तीसगढ़: अब आगे की सोचें


छत्तीसगढ़ में 23 अप्रैल को तीसरे चरण के मतदान के साथ लोकसभा चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं। अब चार सप्ताह बाद आने वाले परिणामों का इंतजार है। प्रदेश की विधानसभा में कांग्रेस को तीन चौथाई बहुमत हासिल है। इस बिना पर वह लोकसभा की ग्यारह की ग्यारह सीटें जीत लेने की उम्मीद कर रही है। दूसरी तरफ भाजपा के अपने दावे हैं। उसे लगता है कि प्रदेश की पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के खिलाफ जो गुस्सा था वह उतर चुका है और मोदी लहर पर सवार होकर भाजपा अच्छा प्रदर्शन करने में समर्थ होगी। इस बहस में पड़ना व्यर्थ है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि कुल मिलाकर लाभ कांग्रेस को ही होगा। फिलहाल तो इस तथ्य पर गौर करें कि पिछले चार माह से प्रदेश लगातार चुनावी मूड में था तथा यह स्थिति अभी एक माह और बनी रहेगी। इसके चलते प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था लगभग स्थगित रही है, इसलिए बेहतर होगा कि अन्य बातों की बजाय प्रदेश की भावी दशा-दिशा के बारे में चर्चा की जाए।
जैसी कि खबरें हैं, मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, वरिष्ठ मंत्री द्वय टी.एस. सिंहदेव व ताम्रध्वज साहू तथा अन्य वरिष्ठ नेता आगामी कुछ दिनों तक दूसरे प्रदेशों में कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार में व्यस्त रहेंगे। फिर भी अभी तक जो धुआंधार दौरे चल रहे थे और चुनावों के अलावा बाकी विषयों पर सोचने के लिए बहुत कम वक्त था, उससे अब थोड़ी राहत मिलेगी। यही सोचकर हम प्रदेश सरकार के सामने कुछ बिन्दु विचारार्थ रखना चाहेंगे ताकि चुनाव परिणाम आने के तुरंत बाद प्रदेश के प्रशासन तंत्र को बिना समय गंवाए गति दी जा सके।
हमारी सबसे पहली अपेक्षा है कि सरकार राज्य की वित्तीय स्थिति पर तत्काल ध्यान दे। सर्वविदित है कि पिछली सरकार लगभग खाली खजाना छोड़ कर गई थी क्योंकि उसका ध्यान आसन्न विधानसभा चुनावों और लोक-लुभावन योजनाओं पर था और वित्तीय अनुशासन को दरकिनार कर दिया गया था। लेकिन आज दोषारोपण का समय नहीं है। यह तथ्य सामने है कि कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव के पहले अनेक लोकहितकारी घोषणाएं की थीं। उन्हें पूरा करने के लिए सरकार को रिजर्व बैंक से ओवरड्राफ्ट लेना पड़ा है। अभी न्यूनतम आय योजना इत्यादि के लिए भी राज्य सरकार को अपने हिस्से की वित्तीय व्यवस्था करना पड़ेगी। यह मुद्दा इस पृष्ठभूमि में अधिक गंभीर हो जाता है कि केन्द्र सरकार की नीतियों के चलते उद्योग व्यापार की हालत कमजोर है जिसका सीधा प्रभाव राजस्व संग्रह पर पड़ेगा। संक्षेप में कहें तो राज्य सरकार को कठोर वित्तीय अनुशासन अपनाना होगा।
मैं नहीं जानता कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को वित्त विभाग अपने पास रखने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई! सरकार का मुखिया होने के नाते वैसे भी उन पर काम का बोझ पहले से है। खैर! यह उनका विशेषाधिकार है। मेरा ध्यान राज्य के 2019-20 के बजट पर जाता है। इस बजट का प्रारूप पिछले बारह-तेरह वर्षों में पेश बजटों से इस मायने में अलग नहीं है कि इससे राज्य की वित्तीय स्थिति का सही अनुमान नहीं लग पाता। वित्त विभाग में जो वरिष्ठ अधिकारी बैठे हैं, वे जान रहे होंगे कि मेरा इशारा किस ओर है। बजट पारदर्शी होना चाहिए और उसमें विगत वर्षों के वास्तविक आंकड़ों को आधार बनाकर आगे के अनुमान व पुनरीक्षित अनुमान का ब्यौरा होना चाहिए। इस नाते यह राय देना अनुचित न होगा कि मुख्यमंत्री समय निकालकर प्राथमिकता के आधार पर बजट प्रस्तावों का एक बार पुनरावलोकन कर लें।
दूसरी अपेक्षा प्रशासनतंत्र में कसावट लाने की है। जब यह सुनने मिलता है कि जिम्मेदार अधिकारियों के भी गुट बन गए हैं या वरिष्ठ और कनिष्ठ अधिकारियों के बीच तनाव उत्पन्न हो गए हैं तो जानकर तकलीफ और चिंता होती है। यह स्वाभाविक है कि जिन अधिकारियों ने लगातार पन्द्रह साल तक एक व्यवस्था में काम किया हो, वे एकदम से आए बदलाव के साथ स्वयं को बदलने में असुविधा महसूस करें। मुख्यमंत्री के सामने भी समस्या हो सकती है कि वे किस पर कितना विश्वास करें। हमारी समझ में मुख्यमंत्री को, जिन अधिकारियों पर कदाचरण के आरोप हैं को, छोड़ शेष को आश्वस्त करना चाहिए कि वे निर्भय और निष्पक्ष होकर अपनी राय व्यक्त करें और अपना काम इस तरह करें कि पुराने रिश्तों का छिद्रान्वेषण करने के बजाय वर्तमान में कार्यक्षमता के आधार पर उनका आकलन किया जा सके।
भूपेश बघेल ने पद संभालने के कुछ दिन बाद ही अधिकारियों की किसी सभा में अपने भाव व्यक्त किए थे कि अधिकारी घोड़े नहीं बल्कि मनुष्य हैं और उनका आकलन उनके कार्य से ही होगा। यह सोच प्रशंसनीय है। इसके अनुरूप अमल करने की आवश्यकता है। अनुमान होता है कि प्रशासनिक कसावट लाने के लिए जो उपाय अपनाए जाना चाहिए, उनकी ओर चुनावी भागदौड़ के बीच पर्याप्त ध्यान देना संभव नहीं हो पाया है। अभी तो नए-नए बने मंत्रियों और पुराने अधिकारियों-कर्मचारियों के बीच जो तालमेल होना चाहिए वह भी ठीक से नहीं बन पाया है। मैं मुख्यमंत्री को सुझाव देना चाहूंगा कि वे प्रशासनतंत्र का अधिकतम संभव सीमा तक विकेन्द्रीकरण तथा साथ में ''चेन ऑफ कमांड'' सुनिश्चित करें। उसी से सबके सम्मान और मर्यादा की रक्षा संभव होगी।
हमारी तीसरी अपेक्षा राज्य की विभिन्न स्वायत्त संस्थाओं के पुनर्गठन को लेकर है। नई सरकार के गठन के कुछ सप्ताह बाद ही लोकसभा के चुनाव सिर पर आ गए। जो बहुत से स्वायत्तशासी, आयोग, निगम, मंडल आदि हैं उनमें होने वाले मनोनयन इसके चलते रुक गए। जिन विधायकों को मंत्री बनने का सौभाग्य नहीं मिला वे उम्मीद लगाए बैठे हैं। उनसे कहीं ज्यादा बड़ी संख्या कांग्रेस के उन वरिष्ठ नेताओं की है जो पन्द्रह साल का सूखा खत्म होने के बाद चातक की तरह स्वाति नक्षत्र में पीयूष वर्षा की प्रतीक्षा में हैं। मुश्किल यह है कि सरकार के पास वर्तमान में जितने भी पद हों और भविष्य में चाहे जितने नए पद बन जाए, वे हमेशा अपर्याप्त सिद्ध होते हैं। यहीं आकर मुखिया को शक्ति संतुलन साधना होता है।
बस्तर विकास प्राधिकरण व सरगुजा विकास प्राधिकरण में विधायकों को मनोनीत कर मुख्यमंत्री ने सही संदेश दिया है। अब उन्हें राज्य योजना आयोग, राज्य वित्त आयोग, पाठ्य पुस्तक निगम, विश्वविद्यालय, साहित्य और संस्कृति की संस्थाएं इत्यादि पर ध्यान देना है। राज्य योजना आयोग की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। खासकर तब जब राहुल गांधी कांग्रेस की सत्ता में आने पर केन्द्रीय योजना आयोग को पुनर्जीवित करने की घोषणा कर चुके हैं। इस आयोग या मंडल में ऐसे सदस्य होना चाहिए जो अर्थशास्त्र की समझ रखने के साथ भविष्य की योजनाएं बनाने की समझ रखते हों। राज्य वित्त आयोग के बारे में यही बात कहना होगी। अन्य स्वायत्त संस्थाओं के बारे में भी हमारा कहना है कि राजनैतिक निष्ठा के साथ विषय की काबिलियत का भी बराबरी से ध्यान रखना श्रेयस्कर होगा। अभी मुद्दे और भी हैं। उन पर जल्दी ही चर्चा करेंगे।
देशबंधु में 25 अप्रैल 2019 को प्रकाशित
  
 

Wednesday, 17 April 2019

आम चुनाव: शोर और चुप्पी के बीच


एक ओर अभूतपूर्व शोर-शराबा, दूसरी तरफ असाधारण चुप्पी। सत्रहवीं लोकसभा के चुनावी परिदृश्य को शायद इस एक वाक्य में समेटा जा सकता है! इतना शोर क्यों है, कारण समझना शायद कठिन नहीं है। एक तो चुनाव आयोग ने पूरी प्रक्रिया संपन्न होने के लिए बेहद लंबा वक्त दे दिया। 10 मार्च को चुनावों की घोषणा की, जबकि नतीज आएंगे 23 मई को। इन दस हफ्तों में राजनैतिक दलों के पास बातें करने के सिवाय काम ही क्या है? आज यहां, कल वहां। आज इसकी रैली, कल उसकी। आज एक का रोड शो, कल दूसरे का। नया कुछ कहने को है नहीं, तो वही-वही बातें बार-बार की जा रही हैं। तिस पर चौबीस घंटा माथा गरम कर देने वाले टीवी चैनल। सुबह से कथित विशेषज्ञ स्टूडियो में आकर बैठ धागे उधेड़ने में जुट जाते हैं। संस्कृत का एक बढ़िया शब्द है- पिष्ट पेषण। याने पिसे आटे को बार-बार पीसना। अंतहीन, दिशाहीन, अर्थहीन बहसों के अंबार तले समाचार और तथ्य कहां दब जाते हैं, पता ही नहीं चल पाता। भारत की जनता मानों इस निरर्थक कवायद को झेलने के लिए अभिशप्त है।
तो क्या आम मतदाता ने इस घनघोर शोर से स्वयं को अलग रखने के लिए मौन धारण कर लिया है। वह क्यों अपने आपको फिजूल की बहसों में उलझाए? जब देश का प्रधानमंत्री बार-बार दर्प भरे स्वर में खुद के चौकीदार होने का बखान करे, जिसके मुकाबले विपक्षी दल का अध्यक्ष चौकीदार को चोर सिद्ध करने की चुनौती बारंबार फेंके तो सामान्य जन इस वाक्युद्ध में कहां तक दिलचस्पी ले? टीवी पर, फेसबुक पर, यू ट्यूब पर, अखबारों में जब ऐसी ही बातें दोहराई जाएं तो वह कितना बर्दाश्त करे? हां, यह तो वह जानता है कि उसे अपने मताधिकार का प्रयोग करना है, उसने शायद यह तय भी कर लिया है कि उसका वोट किसे जाएगा और क्यों जाएगा, लेकिन मन की बात सार्वजनिक कर वह क्यों अपना समय और शक्ति व्यर्थ करे? उसने पिछले पांच साल में जो देखा, सुना और भुगता है, उसके आधार पर भी शायद वह चुप रहना बेहतर समझता है! आज के वातावरण में शायद इसी में उसे समझदारी प्रतीत होती है!
यह स्थिति सुखद नहीं है। इसलिए कि आम चुनाव को लेकर जनता के मन में जो उमंग, स्फूर्ति, उत्साह के भाव होते हैं, उनका यहां अता-पता नहीं है। मतदाता आम चुनाव को एक त्यौहार मान उसके माध्यम से बेहतर भविष्य के प्रति आशा संजोता है, वह जैसे कहीं खो गई हैं। राजनेता एक दूसरे पर कीचड़ उछालें, अपशब्दों का प्रयोग करें; हर समय नीचा दिखाने की कोशिश करें तो जनता के बीच इन नकारात्मक बातों का क्या संदेश जाता है? यही न कि आपको जनता की नहीं, खुद की चिंता है। कहना होगा कि 2014 के आम चुनाव के पूर्व जब प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने भ्रष्टाचार, परिवारवाद आदि के मुद्दे उठाकर इस तरह के नकारात्मक प्रचार की शुरूआत की थी, तब मतदाता ने भाजपा पर विश्वास कर उसे भारी बहुमत से विजय प्रदान की थी, लेकिन आज पांच साल बाद उनके तमाम वायदे खोखले सिद्ध हो रहे हैं और जनता स्वयं को ठगी गई महसूस कर रही है।
इस दरमियान लोकतांत्रिक संस्थाओं की जिस तरह दुर्गति हुई है, उसने भी चिंता उत्पन्न की है। एक समय था जब चुनाव आयोग पर जनता को अटूट विश्वास था। वह विश्वास अब खंडित हो चुका है। ऐसे प्रसंग बार-बार सामने आ रहे हैं, जिससे विपक्षी दलों को चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगाने का मौका मिल रहा है। एक उदाहरण राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह का है। 1993 में जब हिमाचल के तत्कालीन राज्यपाल बैरिस्टर गुलशेर अहमद ने रीवां (मप्र) में अपने बेटे के लिए वोट मांगे थे तो उन्हें पद छोड़ना पड़ा था, लेकिन 2019 में जब राज्यपाल कल्याण सिंह ने खुलकर भाजपा को जिताने की अपील की तो चुनाव आयोग ने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की। योगी आदित्यनाथ, मेनका गांधी सहित अनेक नेताओं को इसी तरह सस्ते में छोड़ दिया गया। नमो टीवी पर आवश्यक कार्रवाई करने में भी आयोग ने विलंब किया। (यह लिख लेने के बाद सोमवार रात सूचना मिली कि आयोग ने चार नेताओं पर अनुशासन की कार्रवाई की है।) लेकिन उधर मोदीजी अपने चुनावी भाषणों में सैन्यबलों का उल्लेख कर आयोग की अवमानना करते रहे।
मीडिया की लोकतंत्र में जो अहम भूमिका हो सकती है, उसके बारे में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। परंतु आज जैसी स्थिति है, उसे देखकर लगता है कि मैं शायद किसी गलत जगह आ गया हूं! चुनाव आयोग ने ओपिनियन पोल, एक्जाट पोल, सर्वे आदि पर रोक लगा रखी है, लेकिन मीडिया कोई न कोई तरकीब खोज कर इस प्रतिबंध का लगातार उल्लंघन कर रहा है। एक चैनल पर किसी प्रवक्ता ने सही कहा कि यह ओपिनियन पोल नहीं, बल्कि ओपिनियन मेकिंग पोल है। दरअसल होना तो यह चाहिए कि जिस दिन चुनावों की तिथियां घोषित हों, उसी दिन प्रच्छन्न प्रचार के इन उपायों पर भी रोक लग जाए। लेकिन यह राजनैतिक दलों के लिए भी आत्मपरीक्षण का विषय होना चाहिए। उन्हें क्यों लगता है कि सच्चे-झूठे प्रचार के भरोसे चुनाव जीता जा सकता है? जसगीत में, गणगौर के गीतों में, भजनों में, सीरियलों में, चाय के प्यालों पर, रेलवे और विमान के टिकिटों पर प्रचार करने वाले एक तरह से अपने मन की दुर्बलता ही व्यक्त करते हैं। वे भूल जाते हैं कि 2004 के आम चुनावों में ''शाइनिंग इंडिया'' का लुभावना नारा निष्फल सिद्ध हुआ था।
सच तो यह है कि भारत की जनता अपने राजनैतिक दलों को बार-बार कसौटी पर कसती है। जवाहरलाल नेहरू के निधन के उपरांत 1967 के चुनावों से ही यह प्रक्रिया प्रारंभ हो गई थी। जब चुनाव आयोग एक सदस्यीय था, तब भी मतदाता ने केंद्र और प्रदेशों में सरकारें बदली हैं। याद कर सकते हैं कि 1957 में नेहरू की विराट उपस्थिति के बावजूद केरल विधानसभा में कम्युनिस्ट पार्टी को विजय हासिल हुई थी। आने वाले वर्षों में ऐसे अनेक प्रमाण लगातार मिलते गए हैं। इसलिए न तो किसी भी दल को अपनी सफलता पर एक हद से बढ़कर अहंकार करना चाहिए और न अपने को अपराजेय मानने की भूल करना चाहिए। चुनावों में पैसा और प्रचार की भूमिका को बढ़-चढ़ कर आंकना भी मेरी दृष्टि में गलत है। जो समझते हैं कि गरीब जनता को पैसों के बल पर खरीदा जा सकता है, मानना होगा कि उनका भरोसा जनतंत्र में नहीं, बल्कि पूंजीतंत्र में है। वोटर उनसे पैसा लेकर भी उन्हें धूल चटा सकता है और चटाता है। इसके उदाहरण कम नहीं हैं।
एक सवाल इन दिनों बार-बार उछाला जा रहा है कि विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन है। जाहिर है कि नरेंद्र मोदी के समर्थक और भक्त ही यह प्रश्न कर रहे हैं। ये भूल जाते हैं कि भारत में संसदीय जनतंत्र है, राष्ट्रपति शासन प्रणाली नहीं। यह ठीक है कि भावी प्रधानमंत्री के लिए प्रमुख नेताओं के नाम उठते हैं किंतु आवश्यक नहीं कि हर बार ऐसा ही हो। 2014 में भले ही आरएसएस के आदेश पर भाजपा ने मोदीजी का नाम आगे कर दिया हो, किंतु क्या आज भी वही स्थिति है? भाजपा में ही कम से कम दो नामों पर तो चर्चा चल ही रही है कि अब की जीते तो राजनाथ सिंह या नितिन गड़करी प्रधानमंत्री बनाए जाएंगे, क्योंकि उनकी स्वीकार्यता घटक दलों के बीच नरेंद्र मोदी के मुकाबले अधिक हो गई है। भाजपा के बीच ही दबे स्वर में कहा जा रहा है कि नितिन गड़करी को हटाने के लिए काफी भीतरघात किया गया है। जहां तक कांग्रेस की बात है, नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह दोनों अप्रत्याशित ढंग से प्रधानमंत्री बनाए गए थे। कुल मिलाकर यह एक व्यर्थ प्रश्न है।
यद्यपि मोदीजी दुबारा प्रधानमंत्री बनने की अभिलाषा रखते हैं तो यह उनका अधिकार है, जिस पर निर्णय एनडीए को लेना होगा। तथापि अपनी सभाओं में वे जिस तरह ''अबकी बार, मोदी सरकार'' के नारे लगा और लगवा रहे हैं; उन्हें सुनकर प्रतीत होता है कि नरेंद्र मोदी को न एनडीए की परवाह है, न भाजपा की, और न पितृसंस्था संघ की। अपने को सर्वोच्च व निर्विकल्प मान बैठने का यह अहंकार उन पर भारी बैठ सकता है। जनता जानती है कि ऐसी भाषा जनतांत्रिक नेता नहीं, तानाशाह बोलते हैं।
 देशबंधु में 18 अप्रैल 2019 को प्रकाशित 

Thursday, 11 April 2019

देशबंधु के साठ साल


देशबन्धु ने साठ साल का सफर तय कर लिया है। हीरक जयंती के लिए बस दो दिन शेष हैं। शुभ मुहूर्त के हिसाब से रामनवमी संवत् 2016 को रायपुर से देशबन्धु का प्रकाशन प्रारंभ हुआ था। प्रचलित कैलेण्डर के हिसाब से तारीख थी 17 अप्रैल 1959। वह तारीख भी छह दिन बाद ही है। हमारे घर में मालूम नहीं कब से यह मान्यता चली आ रही है कि ऐसी पांच तिथियां हैं जिनमें मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं होती। ये हैं- बसंत पंचमी, रामनवमी, अक्षय तृतीया, दशहरा और धनतेरस। बाबूजी ने इसी विचार से शायद रामनवमी का दिन अपना स्वतंत्र व्यवसाय प्रारंभ करने के लिए चुना था। जैसा कि किसी भी उपक्रम में, और किसी भी व्यक्ति के जीवन में स्वाभाविक है, देशबन्धु को साठ साल की इस यात्रा में बहुत से उतार-चढ़ाव देखना पड़े हैं। बाबूजी को जानने वाले कहते थे कि मायाराम जी रेत में नाव चला रहे हैं। यह टिप्पणी सही भी थी और गलत भी। नाव चलाने के लिए पानी और पतवार दोनों चाहिए और आज वह क्षण है जब हम उन लोगों को याद करें जिन्होंने हमें स्नेह दिया, आत्मीयता दी, विश्वास दिया और जो समय-समय पर हमारे संबल बने।
देशबन्धु को पत्रकारिता का विश्वविद्यालय कहा जाता है। हमारे खाते में बहुत कुछ है जिस पर हमें संतोष होता है और जिस पर हम गर्व भी कर सकते हैं, लेकिन आज मैं उन लोगों का उल्लेख करना चाहता हूं जो देशबन्धु को इस मुकाम तक पहुंचाने में सहायक बने। बाबूजी के लिए रायपुर एक लगभग अपरिचित स्थान था। 1958 के अंत में जब उन्होंने एक समाचार पत्र समूह से दुखी मन से विदा ली तब उनके पास दिल्ली और बंबई के बड़े अखबारों में काम संभालने के ऑफर थे। स्व. देवदास गांधी ने उन्हें हिन्दुस्तान टाइम्स में आने का निमंत्रण दिया था। बाबूजी इसे शायद स्वीकार भी कर लेते, लेकिन सामने उन चालीस लोगों की आजीविका का प्रश्न था जो उनके साथ ही उस पत्र समूह से इस्तीफा देकर अलग हो गए थे। बाबूजी यदि चाहते तो जबलपुर, भोपाल, नागपुर में कहीं से नया अखबार निकाल सकते थे। इसके लिए भी उनके पास निमंत्रण थे। लेकिन वे अपने पूर्व नियोक्ता के साथ स्पर्द्धा करने के बजाय किसी ऐसी जगह जाना चाहते थे जहां उन्हें मानसिक शांति मिल सके।
1958 का रायपुर एक उभरता हुआ नगर था। यहां कुछ पुराने सहपाठियों के अलावा बाबूजी दो-तीन लोगों को विशेषकर जानते थे। इनमें रायपुर के विधायक और प्रभावी नेता शारदाचरण तिवारी थे जिनसे काफी पहले से पहचान थी। जब बाबूजी अखबार निकालने के लिए रायपुर आए तो कुछ दिनों के लिए तिवारीजी के घर पर ही रहे। आवास के लिए बैरन बाजार में किराए का मकान भी उन्होंने ही दिलाया और प्रेस के लिए सद्दानी चौक से श्याम टाकीज की सड़क पर प्रभुलाल हलवाई का मकान भी उनके ही सौजन्य से मिला। बाबूजी के साथ आए अधिकतर लोग ड्यूटी करने के बाद निकट स्थित तिवारीजी के श्याम टाकीज में ही जाकर विश्राम और स्नान-ध्यान करते थे।
दूसरे परिचित थे धमतरी के केशरीमल लुंकड़ जो सिने वितरक और सिने मालिक थे। केशरीमलजी बाबूजी को बहुत सम्मान देते थे। बड़ा भाई जैसा मानते थे और बाबूजी के निधन के बाद भी हम पर उनका स्नेह अंत तक बना रहा। उस शुरूआती दौर में कार नहीं थी तो केशरीमलजी ने अपनी गाड़ी भिजवा दी थी कि जब पैसा होगा तब इसकी कीमत चुका देना। मुझे यहां तीसरे सिने व्यवसायी सतीश भैया याने स्व. सतीशचंद्र जैन का ध्यान आता है। बाबूलाल टाकीज संभालने वाले सतीश भैया एक प्रबुद्ध नागरिक और सामाजिक कार्यकर्ता थे। वे विरल व्यापारियों में से थे जो पुस्तकें खरीदते और पढ़ते थे और जिनके साथ घंटों देश-दुनिया के विषयों पर चर्चा की जा सकती थी।
देशबन्धु का प्रकाशन इंदौर नई दुनिया के रायपुर संस्करण के रूप में प्रारंभ हुआ था। इंदौर में उसके तीन भागीदार थे- लाभचंद छजलानी याने बाबूजी, नरेन्द्र तिवारी याने चाचाजी और बसंतीलाल सेठिया याने भैयाजी। यह अपने समय की एक बेमिसाल भागीदारी थी। इंदौर वाले बाबूजी और उनके दोनों साथियों ने न सिर्फ रायपुर से अखबार निकालने में प्रारंभिक मदद की बल्कि लंबे समय तक उनका सहयोग इस अखबार को मिलता रहा। 1972 की रामनवमी को नई दुनिया रायपुर का नाम बदलकर देशबन्धु रखा गया। उसी साल देशबन्धु चितरंजन दास की जन्मशती भी थी। भागीदारी खत्म होने के बाद भी इंदौर के साथ हमारे पारिवारिक संबंध बने रहे। जब अखबार शुरू हुआ तो इंदौर से बाबूजी के पुत्र अभय छजलानी और बाद में रामचंद्र नेमा यहां काम जमाने में मदद हेतु कुछ समय के लिए आकर रहे।
जिन चालीस लोगों ने बाबूजी के साथ अपनी जमी जमाई नौकरी छोड़ दी थी उनमें से कुछ के नाम मुझे कभी नहीं भूलते। जैसे मशीनमैन छोटेलाल, कंपोजिंग फोरमैन दुलीचंद, जीतनारायण राय, गुलाब सिंह, रामप्रसाद यादव, ड्राइवर मारुतिराव, बाबूजी के स्वघोषित अंगरक्षक बाबूसिंह, फिर मोतीलाल गुप्ता इत्यादि। रामप्रसाद मुझसे उम्र में दो-एक साल बड़े थे। उद्यमी थे। उन्होंने कंपोजिंग के साथ-साथ सुबह अखबार बांटना भी शुरू किया और आगे चलकर यादव न्यूज एजेंसी भी खोली जिसे अब छोटे भाई व बेटे संभाल रहे हैं। मारुतिराव बिना कार के ड्राइवर थे और दफ्तर में जो काम समझ आए करते थे। उनकी मां जिन्हें हम सब आई कहते थे ने कठिन समय में जो हमारी मदद की उस पर बाबूजी का मार्मिक संस्मरण पठनीय है।
देशबन्धु की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता उसकी संपादकीय रीति-नीति और प्रयोगधर्मिता के कारण बनी है। बाबूजी स्वयं सिद्धहस्त पत्रकार थे और उन्होंने कुशल पत्रकारों की एक चमकदार टीम तैयार कर ली थी। पंडित रामाश्रय उपाध्याय एक तरह से इस टीम के वायस कैप्टन थे। मुझे के.आई. अहमद अब्बन, पंकज शर्मा और श्री सिद्दीकी की तिकड़ी का ध्यान आता है जो प्रारंभिक वर्षीें में सहयोगी थे और जिनकी प्रतिभा का अखबार को भरपूर लाभ मिला। पंडितजी के साथ दा याने राजनारायण मिश्र और कुछ दिन बाद सत्येन्द्र गुमाश्ता भी जुड़ गए थे। इन्होंने अखबार की धाक जमाने के लिए जो काम किया वह अविस्मरणीय है। सत्येन्द्र तो ताउम्र हमारे साथ ही काम करते रहे। वे छत्तीसगढ़ के पहले पत्रकार थे जिन्होंने अनेक देशों की यात्रा की थी। कैंसर ने उन्हें हमसे असमय छीन लिया।
देशबन्धु के आंचलिक प्रतिनिधियों और संवाददाता में दुर्ग के धीरज भैया याने धीरजलाल जैन का नाम सर्वोपरि है। वे व्यवहार कुशल पत्रकार होने के साथ व्यापार कुशल भी थे। मुझे उनका बहुत मार्गदर्शन मिला। तखतपुर के दर्शन सिंह, दल्लीराजहरा के ओंकारनाथ जायसवाल, बागबाहरा के विष्णुराम परदेसी उर्फ भगतजी के नाम भी मुझे इस क्षण याद आ रहे हैं। मैं यहां गिरधर दास डागा का उल्लेख भी करना चाहता हूं। वे सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया में अधिकारी थे। बैंक में हमारी साख जमाने का बड़ा श्रेय उनको जाता है। आज हम जहां हैं उसमें सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया का बहुत योगदान रहा है। इस बारे में मैं आगे कभी लिखूंगा। अभी बहुत से व्यक्ति हैं जिनके नाम मन में उमड़-घुमड़ रहे हैं उनकी भी चर्चा आगे होगी। अभी तो देशबन्धु की हीरक जयंती के अवसर पर हम अपने सभी पाठकों, अभिकर्ताओं, विज्ञापनदाताओं, मित्रों, सहयोगियों, सहकर्मियों और शुभचिंतकों के प्रति आभार व्यक्त करते हैं। हमें विश्वास है कि आपका स्नेह और सहयोग आने वाले समय में भी हमें मिलता रहेगा।
#देशबंधु में 11 अप्रैल 2019 को प्रकाशित
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Wednesday, 3 April 2019

कविता: चौकीदार


तंग-संकरी गलियों से गुजरते
धीमे और सधे कदमों से;
चौकीदार ने लहराई थी अपनी लालटेन
और कहा था-
सब कुछ ठीक है।
बंद जाली के पीछे बैठी थी
एक औरत, जिसके पास अब
बचा कुछ भी न था
बेचने के लिए;
चौकीदार ठिठका था उसके दरवाजे पर
और चीखा था ऊंची आवाज में-
सब कुछ ठीक है।
घुप्प अंधेरे में
ठिठुर रहा था एक बूढ़ा,
जिसके पास नहीं था
खाने को एक भी दाना;
चौकीदार की चीख पर वह
होठों ही होठों में बुदबुदाया-
सब कुछ ठीक है।
सुनसान सड़क नापते हुए
गुजर रहा था चौकीदार
मौन में डूबे एक
घर के सामने से,
जहां एक बच्चे की मौत हुई थी;
खिड़की के कांच के पीछे
झिलमिला रही थी एक पिघलती मोमबत्ती,
और चौकीदार ने चीख कर कहा था-
सब कुछ ठीक है।
चौकीदार ने बिताई अपनी रात
इसी तरह
धीमे और सधे कदमों से
चलते हुए;
तंग-संकरी गलियों को सुनाते हुए-
सब कुछ ठीक है।
सब कुछ ठीक है...।
टीप: अमेरिकन कवयित्री मिरियम वेडर की आज से लगभग एक सौ साल पहले लिखी यह कविता द टेलीग्राफ, कोलकाता के 20 मार्च 2019 के अंक में पुनर्प्रकाशित हुई है, जहां से मैंने इसे साभार लिया है.
#देशबंधु अवकाश अंक में 31 मार्च 2019 को प्रकशित

'न्याय' का असर


कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने न्यूनतम आय योजना अर्थात 'न्याय' लागू करने की बात क्या कही, इस चुनावी माहौल में खलबली मच गई। पक्ष और विपक्ष ही नहीं, दूर किनारे पर बैठे लोग भी अपनी-अपनी तरह से विश्लेषण करने में जुट गए हैं कि आखिरकार यह योजना क्या है, कैसे लागू होगी, मतदाताओं के बीच इसका क्या प्रभाव पड़ेगा और अंतत: देश के सर्वहारा को इसका लाभ किस तरह पहुंचेगा! ऐसी ही कुछ खलबली नवंबर 2018 में पैदा हुई थी जब राहुल गांधी ने विधानसभा चुनावों के दौरान छत्तीसगढ़ की धरती से किसानों की कर्जमाफी का ही ऐलान नहीं किया था, बल्कि धान, सोयाबीन, तेंदूपत्ता आदि उत्पादों का न्यूनतम मूल्य भी एक लुभावनी सीमा तक बढ़ा देने का वायदा किया था। तब भी भाजपा और उसके समर्थकों ने अविश्वास जताया था कि ऐसा नहीं हो पाएगा। तब के नतीजों ने सिद्ध किया था कि मतदाताओं ने भाजपा की शंका के मुकाबले कांग्रेस के वायदे पर एतबार किया।
विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद भाजपा कार्यकर्ता छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में किसी कदर सदमे में आ गए। वे अपनी हार स्वीकार करने मानो तैयार ही नहीं थे। उन्होंने तब नवगठित कांग्रेसी सरकारों पर सवाल उठाना शुरू किया कि वे न तो किसानों का कर्ज माफ करेंगे, न समर्थन मूल्य दे पाएंगे, न धान का बोनस देंगे और न बिजली बिल आधा कर पाएंगे। कांग्रेस ने इन आशंकाओं को समय रहते निराधार और निर्मूल सिद्ध किया, जहां उसने अपने अधिकतम वायदे घोषित समय सीमा के भीतर पूरे कर दिए। लेकिन प्रतीत होता है कि भाजपा पराजय की मानसिकता से अभी तक उबर नहीं पाई है। उसने राहुल गांधी की इस नई घोषणा पर सवाल उठाना शुरू कर दिए हैं। इसकी एक वजह भाजपा के मन का चोर भी हो सकता है कि 2014 में उसने जो वायदे किए थे उनमें से अधिकतर का पालन नहीं हुआ और वे जुमले सिद्ध हुए। याद रहे कि वायदे को जुमले का पर्याय कांग्रेस या अन्य किसी विपक्षी दल ने नहीं, बल्कि स्वयं भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने निरूपित किया था।
बहरहाल यह समझने की कोशिश करें कि यह न्यूनतम आय योजना याने 'न्याय' क्या है? यहां उल्लेख करना आवश्यक होगा कि राहुल गांधी ने इतनी बड़ी घोषणा बिना सोचे-विचारे नहीं की है। उन्होंने इसके लिए थॉमस पिकेटी, पॉल क्रुगमेन और रघुराम राजन जैसे विश्वविख्यात अर्थशास्त्रियों से लंबे समय तक विचार-विमर्श किया था। यहां मुझे मनरेगा का ध्यान आता है। यूपीए-1 के दौरान ग्रामीण इलाकों में न्यूनतम रोजगार गारंटी की यह योजना भी जाने-माने सामाजिक अध्येत्ताओं से सलाह लेने के बाद ही लागू की गई थी। दूसरी ओर विमुद्रीकरण याने नोटबंदी और जीएसटी के उदाहरण हमारे सामने है जिन्हें मोदी सरकार ने बिना सोचे-समझे लागू किया और जिनका खामियाजा आज भी देश की जनता को उठाना पड़ रहा है। जीएसटी को लेकर तो मोदी-जेटली टीम ने जिस तरह बार-बार अपने निर्णयों में संशोधन किए हैं वह हैरतअंगेज है।
न्यूनतम आय योजना में यह कल्पना की गई है कि देश के बीस प्रतिशत सबसे गरीब लगभग पांच करोड़ परिवारों को प्रतिमाह बारह हजार रुपया या साल में एक लाख चवालीस हजार रुपया आमदनी होना चाहिए। यह अनुमान लगाया गया था कि एक परिवार में औसतन पांच सदस्यों के हिसाब से कोई पच्चीस करोड़ लोग लाभान्वित होंगे। इस योजना के पीछे राहुल गांधी का अनुमान है कि वर्तमान में सर्वाधिक गरीब परिवार की मासिक न्यूनतम आय छह हजार है जबकि अधिकतम सीमा शायद दस हजार या ग्यारह हजार भी हो सकती है। 'न्याय' के तहत जिस परिवार की मासिक छह हजार रुपए है उसे अतिरिक्त छह हजार रुपए, इस तरह साल में 72 हजार रुपए सरकार की ओर से दिए जाएंगे। इस क्रम में जिनकी आय आठ हजार होगी उसे चार हजार मिलेगा। कुल मिलाकर साल में तीन लाख करोड़ का अतिरिक्त व्यय सरकार को वहन करना होगा।
प्रश्न उठता है कि यह अतिरिक्त तीन लाख करोड़ रुपया कहां से आएगा? विशेषज्ञों ने हिसाब लगाया है कि यह राशि सालाना बजट की लगभग तेरह प्रतिशत होती है अर्थात बोझ काफी बड़ा है। अभी यह भी स्पष्ट नहीं है कि हितग्राहियों की पहचान कैसे की जाएगी। मैं समझता हूं कि इन बारीक मुद्दों पर राहुल गांधी ने विचार किया होगा जिनका खुलासा आगे चलकर होगा। इस चुनावी माहौल में अकादमिक चर्चा की गुंजाइश नहीं है और न आंकड़े समझाने का वक्त है। फिर भी एक-दो दृष्टांतों से मामला समझा जा सकता है। यूपीए-1 में किसानों के सत्तर हजार करोड़ के ऋण एक बार माफ किए गए। उस समय की दृष्टि से वह भी एक बड़ी रकम थी। फिर मनरेगा आदि के लिए भी तो प्रावधान किया ही गया था। और हम यह न भूलें कि कुछ समय पहले ही तेलंगाना, ओडिशा और स्वयं मोदी सरकार ने लगभग इसी तरह से निर्धन परिवारों के लिए नकद राहत की योजनाएं लागू की हैं।
मैं जितना समझता हूं उस दृष्टि से तीन लाख करोड़ सालाना की व्यवस्था करना असंभव तो बिल्कुल नहीं है। उसे जितना कठिन बताया जा रहा है वह उतनी कठिन भी नहीं है। 'न्याय' लागू करने के लिए कई तरीकों से धनराशि जुटाई जा सकती है जिसमें दो का उल्लेख करना चाहूंगा। एक तो जिस तरह से उद्योग-व्यापार को अंधाधुंध तरीके से कर्ज दिए गए जिनकी वसूली मोदी के होते हुए नामुमकिन हो गई उसे कड़ाई से रोकना होगा। राष्ट्रीयकृत बैंकों का राजनीतिकरण न कर उन्हें स्वायत्तता देना होगी, बैंक मैनेजरों के अधिकार बढ़ाना होंगे ताकि वे बिना किसी दबाव के स्वविवेक से निर्णय ले सके। ऐसा करने से बैंकों द्वारा दिए गए ऋणों की अदायगी बड़ी हद तक सुनिश्चित हो सकेगी। इस उद्देश्य को पाने के लिए बैंकों के निजीकरण और बैंकों के विलय जैसे प्रतिगामी निर्णय लेने से भी सरकार को बचना होगा।
इसके साथ-साथ सरकार को फिजूलखर्ची पर रोक लगाना पड़ेगी। हम कहना चाहेंगे कि अनेक राज्यों में कांग्रेस की सरकारें भी अतीत में इस दुर्गुण से मुक्त नहीं रह सकी हैं। एक समय मध्यप्रदेश में हमने देखा है कि कांग्रेस सरकार ने अपने चहेते उद्योगपतियों और व्यापारियों को किस तरह से बिना सही-गलत की परख किए लाभ पहुंचाए थे। राहुल गांधी के सामने यह चुनौती अवश्य होगी कि क्या वे अपनी टीम के सदस्यों को मनमानी करने से रोक पाएंगे? हम जब फिजूलखर्ची की बात करते हैं तो छत्तीसगढ़ में ही हाल के वर्षों में की गई सरकारी पैसों की बर्बादी दिखने लगती है और आज भी वह किसी सीमा तक जारी है। इसके लिए अकेले छत्तीसगढ़ को ही क्या दोष दें? हर प्रदेश में लगभग यही हाल है। फिर भी कुछ उदाहरण यहां गिनाए जा सकते हैं।
यदि छत्तीसगढ़ में नया रायपुर के नाम से नई राजधानी का निर्माण नहीं होता तो क्या प्रशासन का भठ्ठा बैठ जाता? और क्या यही गलती आंध्रप्रदेश में चंद्राबाबू नायडू नहीं कर रहे हैं? एक दूसरा उदाहरण सारे देश में बड़े-बड़े स्टेडियम बनाने का है। सब जानते हैं कि इन क्रीड़ा परिसरों में खेलों का आयोजन भूले-बिसरे ही होता है। ज्यादातर समय धार्मिक प्रवचनों के काम आते हैं। इसी सिलसिले में रायपुर के स्काईवाक की एक बार फिर याद आ जाना स्वाभाविक है। मैं यह भी समझना चाहूंगा कि जब सड़कों का निर्माण निजी कंपनियों द्वारा टोल- टैक्स के आधार पर किया जा रहा है तो फिर पीडब्ल्यूडी या लोक निर्माण विभाग की क्या आवश्यकता है? ऐसे सैकड़ों उदाहरण पेश किए जा सकते हैं। मतलब यह कि फिजूलखर्ची रोक लीजिए। लोक कल्याण के लिए धनराशि की कोई कमी नहीं होगी।
मेरी राय में न्यूनतम आय योजना एक व्यवहारिक कल्पनाशील योजना है जिससे देश में सिर्फ गरीबों को लाभ नहीं मिलेगा बल्कि कुल मिलाकर आर्थिक गतिविधियों का विस्तार होगा जिसका लाभ अंतत: सबको मिलेगा।
#देशबंधु में 04 अप्रैल 2019 को प्रकाशित