तंग-संकरी गलियों से गुजरते
धीमे और सधे कदमों से;
चौकीदार ने लहराई थी अपनी लालटेन
और कहा था-
सब कुछ ठीक है।
धीमे और सधे कदमों से;
चौकीदार ने लहराई थी अपनी लालटेन
और कहा था-
सब कुछ ठीक है।
बंद जाली के पीछे बैठी थी
एक औरत, जिसके पास अब
बचा कुछ भी न था
बेचने के लिए;
चौकीदार ठिठका था उसके दरवाजे पर
और चीखा था ऊंची आवाज में-
सब कुछ ठीक है।
एक औरत, जिसके पास अब
बचा कुछ भी न था
बेचने के लिए;
चौकीदार ठिठका था उसके दरवाजे पर
और चीखा था ऊंची आवाज में-
सब कुछ ठीक है।
घुप्प अंधेरे में
ठिठुर रहा था एक बूढ़ा,
जिसके पास नहीं था
खाने को एक भी दाना;
चौकीदार की चीख पर वह
होठों ही होठों में बुदबुदाया-
सब कुछ ठीक है।
ठिठुर रहा था एक बूढ़ा,
जिसके पास नहीं था
खाने को एक भी दाना;
चौकीदार की चीख पर वह
होठों ही होठों में बुदबुदाया-
सब कुछ ठीक है।
सुनसान सड़क नापते हुए
गुजर रहा था चौकीदार
मौन में डूबे एक
घर के सामने से,
जहां एक बच्चे की मौत हुई थी;
खिड़की के कांच के पीछे
झिलमिला रही थी एक पिघलती मोमबत्ती,
और चौकीदार ने चीख कर कहा था-
सब कुछ ठीक है।
गुजर रहा था चौकीदार
मौन में डूबे एक
घर के सामने से,
जहां एक बच्चे की मौत हुई थी;
खिड़की के कांच के पीछे
झिलमिला रही थी एक पिघलती मोमबत्ती,
और चौकीदार ने चीख कर कहा था-
सब कुछ ठीक है।
चौकीदार ने बिताई अपनी रात
इसी तरह
धीमे और सधे कदमों से
चलते हुए;
तंग-संकरी गलियों को सुनाते हुए-
सब कुछ ठीक है।
सब कुछ ठीक है...।
इसी तरह
धीमे और सधे कदमों से
चलते हुए;
तंग-संकरी गलियों को सुनाते हुए-
सब कुछ ठीक है।
सब कुछ ठीक है...।
टीप: अमेरिकन कवयित्री मिरियम वेडर की आज से लगभग एक सौ साल पहले लिखी यह कविता द टेलीग्राफ, कोलकाता के 20 मार्च 2019 के अंक में पुनर्प्रकाशित हुई है, जहां से मैंने इसे साभार लिया है.
#देशबंधु अवकाश अंक में 31 मार्च 2019 को प्रकशित
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