छत्तीसगढ़ में 23 अप्रैल को तीसरे चरण के मतदान के साथ लोकसभा चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं। अब चार सप्ताह बाद आने वाले परिणामों का इंतजार है। प्रदेश की विधानसभा में कांग्रेस को तीन चौथाई बहुमत हासिल है। इस बिना पर वह लोकसभा की ग्यारह की ग्यारह सीटें जीत लेने की उम्मीद कर रही है। दूसरी तरफ भाजपा के अपने दावे हैं। उसे लगता है कि प्रदेश की पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के खिलाफ जो गुस्सा था वह उतर चुका है और मोदी लहर पर सवार होकर भाजपा अच्छा प्रदर्शन करने में समर्थ होगी। इस बहस में पड़ना व्यर्थ है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि कुल मिलाकर लाभ कांग्रेस को ही होगा। फिलहाल तो इस तथ्य पर गौर करें कि पिछले चार माह से प्रदेश लगातार चुनावी मूड में था तथा यह स्थिति अभी एक माह और बनी रहेगी। इसके चलते प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था लगभग स्थगित रही है, इसलिए बेहतर होगा कि अन्य बातों की बजाय प्रदेश की भावी दशा-दिशा के बारे में चर्चा की जाए।
जैसी कि खबरें हैं, मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, वरिष्ठ मंत्री द्वय टी.एस. सिंहदेव व ताम्रध्वज साहू तथा अन्य वरिष्ठ नेता आगामी कुछ दिनों तक दूसरे प्रदेशों में कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार में व्यस्त रहेंगे। फिर भी अभी तक जो धुआंधार दौरे चल रहे थे और चुनावों के अलावा बाकी विषयों पर सोचने के लिए बहुत कम वक्त था, उससे अब थोड़ी राहत मिलेगी। यही सोचकर हम प्रदेश सरकार के सामने कुछ बिन्दु विचारार्थ रखना चाहेंगे ताकि चुनाव परिणाम आने के तुरंत बाद प्रदेश के प्रशासन तंत्र को बिना समय गंवाए गति दी जा सके।
हमारी सबसे पहली अपेक्षा है कि सरकार राज्य की वित्तीय स्थिति पर तत्काल ध्यान दे। सर्वविदित है कि पिछली सरकार लगभग खाली खजाना छोड़ कर गई थी क्योंकि उसका ध्यान आसन्न विधानसभा चुनावों और लोक-लुभावन योजनाओं पर था और वित्तीय अनुशासन को दरकिनार कर दिया गया था। लेकिन आज दोषारोपण का समय नहीं है। यह तथ्य सामने है कि कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव के पहले अनेक लोकहितकारी घोषणाएं की थीं। उन्हें पूरा करने के लिए सरकार को रिजर्व बैंक से ओवरड्राफ्ट लेना पड़ा है। अभी न्यूनतम आय योजना इत्यादि के लिए भी राज्य सरकार को अपने हिस्से की वित्तीय व्यवस्था करना पड़ेगी। यह मुद्दा इस पृष्ठभूमि में अधिक गंभीर हो जाता है कि केन्द्र सरकार की नीतियों के चलते उद्योग व्यापार की हालत कमजोर है जिसका सीधा प्रभाव राजस्व संग्रह पर पड़ेगा। संक्षेप में कहें तो राज्य सरकार को कठोर वित्तीय अनुशासन अपनाना होगा।
मैं नहीं जानता कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को वित्त विभाग अपने पास रखने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई! सरकार का मुखिया होने के नाते वैसे भी उन पर काम का बोझ पहले से है। खैर! यह उनका विशेषाधिकार है। मेरा ध्यान राज्य के 2019-20 के बजट पर जाता है। इस बजट का प्रारूप पिछले बारह-तेरह वर्षों में पेश बजटों से इस मायने में अलग नहीं है कि इससे राज्य की वित्तीय स्थिति का सही अनुमान नहीं लग पाता। वित्त विभाग में जो वरिष्ठ अधिकारी बैठे हैं, वे जान रहे होंगे कि मेरा इशारा किस ओर है। बजट पारदर्शी होना चाहिए और उसमें विगत वर्षों के वास्तविक आंकड़ों को आधार बनाकर आगे के अनुमान व पुनरीक्षित अनुमान का ब्यौरा होना चाहिए। इस नाते यह राय देना अनुचित न होगा कि मुख्यमंत्री समय निकालकर प्राथमिकता के आधार पर बजट प्रस्तावों का एक बार पुनरावलोकन कर लें।
दूसरी अपेक्षा प्रशासनतंत्र में कसावट लाने की है। जब यह सुनने मिलता है कि जिम्मेदार अधिकारियों के भी गुट बन गए हैं या वरिष्ठ और कनिष्ठ अधिकारियों के बीच तनाव उत्पन्न हो गए हैं तो जानकर तकलीफ और चिंता होती है। यह स्वाभाविक है कि जिन अधिकारियों ने लगातार पन्द्रह साल तक एक व्यवस्था में काम किया हो, वे एकदम से आए बदलाव के साथ स्वयं को बदलने में असुविधा महसूस करें। मुख्यमंत्री के सामने भी समस्या हो सकती है कि वे किस पर कितना विश्वास करें। हमारी समझ में मुख्यमंत्री को, जिन अधिकारियों पर कदाचरण के आरोप हैं को, छोड़ शेष को आश्वस्त करना चाहिए कि वे निर्भय और निष्पक्ष होकर अपनी राय व्यक्त करें और अपना काम इस तरह करें कि पुराने रिश्तों का छिद्रान्वेषण करने के बजाय वर्तमान में कार्यक्षमता के आधार पर उनका आकलन किया जा सके।
भूपेश बघेल ने पद संभालने के कुछ दिन बाद ही अधिकारियों की किसी सभा में अपने भाव व्यक्त किए थे कि अधिकारी घोड़े नहीं बल्कि मनुष्य हैं और उनका आकलन उनके कार्य से ही होगा। यह सोच प्रशंसनीय है। इसके अनुरूप अमल करने की आवश्यकता है। अनुमान होता है कि प्रशासनिक कसावट लाने के लिए जो उपाय अपनाए जाना चाहिए, उनकी ओर चुनावी भागदौड़ के बीच पर्याप्त ध्यान देना संभव नहीं हो पाया है। अभी तो नए-नए बने मंत्रियों और पुराने अधिकारियों-कर्मचारियों के बीच जो तालमेल होना चाहिए वह भी ठीक से नहीं बन पाया है। मैं मुख्यमंत्री को सुझाव देना चाहूंगा कि वे प्रशासनतंत्र का अधिकतम संभव सीमा तक विकेन्द्रीकरण तथा साथ में ''चेन ऑफ कमांड'' सुनिश्चित करें। उसी से सबके सम्मान और मर्यादा की रक्षा संभव होगी।
हमारी तीसरी अपेक्षा राज्य की विभिन्न स्वायत्त संस्थाओं के पुनर्गठन को लेकर है। नई सरकार के गठन के कुछ सप्ताह बाद ही लोकसभा के चुनाव सिर पर आ गए। जो बहुत से स्वायत्तशासी, आयोग, निगम, मंडल आदि हैं उनमें होने वाले मनोनयन इसके चलते रुक गए। जिन विधायकों को मंत्री बनने का सौभाग्य नहीं मिला वे उम्मीद लगाए बैठे हैं। उनसे कहीं ज्यादा बड़ी संख्या कांग्रेस के उन वरिष्ठ नेताओं की है जो पन्द्रह साल का सूखा खत्म होने के बाद चातक की तरह स्वाति नक्षत्र में पीयूष वर्षा की प्रतीक्षा में हैं। मुश्किल यह है कि सरकार के पास वर्तमान में जितने भी पद हों और भविष्य में चाहे जितने नए पद बन जाए, वे हमेशा अपर्याप्त सिद्ध होते हैं। यहीं आकर मुखिया को शक्ति संतुलन साधना होता है।
बस्तर विकास प्राधिकरण व सरगुजा विकास प्राधिकरण में विधायकों को मनोनीत कर मुख्यमंत्री ने सही संदेश दिया है। अब उन्हें राज्य योजना आयोग, राज्य वित्त आयोग, पाठ्य पुस्तक निगम, विश्वविद्यालय, साहित्य और संस्कृति की संस्थाएं इत्यादि पर ध्यान देना है। राज्य योजना आयोग की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। खासकर तब जब राहुल गांधी कांग्रेस की सत्ता में आने पर केन्द्रीय योजना आयोग को पुनर्जीवित करने की घोषणा कर चुके हैं। इस आयोग या मंडल में ऐसे सदस्य होना चाहिए जो अर्थशास्त्र की समझ रखने के साथ भविष्य की योजनाएं बनाने की समझ रखते हों। राज्य वित्त आयोग के बारे में यही बात कहना होगी। अन्य स्वायत्त संस्थाओं के बारे में भी हमारा कहना है कि राजनैतिक निष्ठा के साथ विषय की काबिलियत का भी बराबरी से ध्यान रखना श्रेयस्कर होगा। अभी मुद्दे और भी हैं। उन पर जल्दी ही चर्चा करेंगे।
देशबंधु में 25 अप्रैल 2019 को प्रकाशित
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