Wednesday, 28 August 2019

देशबन्धु के साठ साल-8


अनेक सेवानिवृत्त अधिकारियों ने, जो बड़े-बड़े पदों पर काम कर चुके हैं, आत्मकथाएं लिखी हैं। ये सभी पुस्तकें अंग्रेजी में लिखी गई हैं और लगभग निरपवाद आत्मश्लाघा से भरपूर हैं। मेरे देखे में एक आरएसवीपी नरोन्हा और दूसरे जावेद चौधरी ही हैं जिनकी आत्मकथा क्रमश: ''ए टेल टोल्ड बाई एन इडियट" और ''द इनसाइडर्स व्यू : मेमॉयर्स ऑफ ए पब्लिक सर्वेंट" निज पर अधिक केंद्रित होने के बजाय प्रशासनिक काम-काज की बारीकियों में झांकने का अवसर प्रदान करती हैं। मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव पद से सेवानिवृत्त और बाद में चार दफे भोपाल क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के लोकसभा सदस्य बने सुशीलचंद्र वर्मा की 'कलेक्टर की डायरी" शायद किसी वरिष्ठ आईएएस द्वारा हिंदी में लिखी गई एकमात्र आत्मकथा है। इस पुस्तक को धारावाहिक रूप में छापने का सुअवसर भी देशबन्धु को मिला। वर्माजी का अंदाजा-बयां बेहद दिलचस्प और पुरलुत्फहै। उनकी रोचक लेखन शैली नरोन्हा साहब की लेखनी के समकक्ष ठहरती है। वर्माजी ने बैतूल, रायपुर जैसे महत्वपूर्ण समझे जाने वाले जिलों की कलेक्टरी की और आगे चलकर वे केंद्र में ग्रामीण विकास विभाग के सचिव भी रहे। उनके समान कर्मनिष्ठ, सत्यनिष्ठ और ज़िन्दादिली से भरपूर व्यक्ति ने जाने किस अवसाद में डूबकर आत्महत्या कर ली। उनकी मृत्यु एक एंटी-क्लाइमेक्स ही कही जा सकती है!
मेरे स्मृतिपटल पर अनायास कनोज कांति दत्ता का नाम उभरता है। वे बंगाल के किसी नगर से 1955-56 के आसपास भिलाई इस्पात संयंत्र में फिटर जैसे किसी पद पर नियुक्ति पाकर यहां आ गए थे। उन्होंने अपने जीवन के कोई 35 साल इस कारखाने में खपा दिए और रिटायरमेंट के बाद भिलाई में ही बस गए। दत्ताजी ने कारखाने के भीतर और बाहर के जीवन पर एक उपन्यास ''लौह वलय" शीर्षक से लिखा। मूल बांग्ला से अनुवाद सुपरिचित लेखिका संतोष झांझी ने किया। वे भी भिलाई निवासी हैं। ''लौह वलय" में इस्पात कारखाने के भीतर का कारोबार कैसे चलता है, इसका बारीकी और विस्तार से वर्णन हुआ है। हिंदी में शायद यह अपनी तरह का एकमात्र उपन्यास है। इसे भी हमने धारावाहिक प्रकाशित किया। अंग्रेजी में ऑर्थर हैली जैसे लेखकों ने मोटरकार कारखाने, बिजली संयंत्र, एयरपोर्ट, होटल जैसे स्थलों का दो-दो साल तक अध्ययन कर उनपर लोकप्रिय उपन्यास लिखे हैं। यहां तो लेखक ताउम्र उस कारखाने के जीवन को जी रहा है। उनके अनुभव प्रत्यक्ष और प्रामाणिक हैं। मुझे अफसोस है कि ''लौह वलय" का पुस्तकाकार प्रकाशन नहीं हो पाया। दत्ताजी उसके पहले ही अंतिम यात्रा पर रवाना हो गए। उनकी एक कहानी ''रिक्शावाला" भी बहुचर्चित हुई थी।
देशबन्धु के इन मित्र लेखकों के अलावा संपादक मंडल के अनेक सहयोगियों ने भी ऐसे नियमित कॉलम लिखे, जिनसे देशबन्धु की पहचान और प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। संपादक पं. रामाश्रय उपाध्याय ''एक दिन की बात" शीर्षक से सप्ताह में छह दिन कॉलम लिखते थे। वे साल में एक बार अपने गांव जाते थे, तभी उनकी लेखनी विराम लेती थी। देश के किसी भी अखबार में सबसे लंबे समय तक प्रकाशित कॉलम के रूप में इसने एक रिकार्ड कायम किया और ''लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्स" में बाकायदा दर्ज हुआ। पंडितजी वक्रतुंड के छद्मनाम से स्तंभ लिखते थे। वे अपनी बेबाकी के लिए प्रसिद्ध थे। उनसे मिलने वाले भी घबराते थे कि पंडितजी कहीं उनको ही निशाना न बना दें। एक बार तो उन्होंने बाबूजी के खिलाफ तक लिख दिया था। लिख तो दिया, छप भी गया, लेकिन अगले दिन घबराए कि अब न जाने क्या हो! बाबूजी पंडितजी को नागपुर के दिनों से जानते थे। उन्होंने हँस कर टाल दिया। कुछ समय बाद बाबूजी के किसी मित्र पर तीर चलाया।उन्होंने बाबूजी से शिकायत की तो सीधा उत्तर मिला- भाई! वे तो मेरे खिलाफ तक लिख देते हैं। दुर्वासा ऋषि हैं। पंडितजी स्वाधीनता सेनानी थे। 1942 में भूमिगत हुए। लेकिन स्वाधीनता सेनानी की पेंशन लेना उन्होंने कुबूल नहीं किया। उनकी औपचारिक शिक्षा तो शायद मैट्रिक के आगे नहीं बढ़ी थी, लेकिन वे देश-दुनिया की हलचलों से बाखबर एक अध्ययनशील व्यक्ति थे। वे तीस साल तक हमारे साथ रहे। फिर बेहतर सुविधाओं की प्रत्याशा में एक नए अखबार में चले गए। वहां उनका मोहभंग हुआ तो पत्रकारिता से अवकाश ले लिया। तब उनकी आयु पचहत्तर वर्ष के आसपास थी। हमारे साथ उनका आत्मीय जुड़ाव अंत तक बना रहा।
देशबन्धु के किसी संपादक द्वारा लिखा गया सबसे लोकप्रिय कॉलम ''घूमता हुआ आईना" था जिसे हमारे वरिष्ठ साथी, और मेरे गुरु व बड़े भाई राजनारायण मिश्र लिखते थे। दरअसल, इस कॉलम की शुरुआत मैंने की थी, किंतु कुछ ही हफ्तों बाद दा (इसी नाम से वे जाने जाते थे) ने मुझसे कॉलम ले लिया। यह उनकी चुटीली शैली का कमाल था कि सोमवार को हजारों पाठक बेसब्री से ''आईना" का इंतजार करते थे। इस स्तंभ में वे अधिकतर रायपुर शहर की उन घटनाओं व स्थितियों का सजीव चित्रण करते थे, जो अमूमन लोगों के ध्यान में नहीं आतीं। वे दौरे पर जाते थे तो अपनी सूक्ष्म व वेधक दृष्टि से उस स्थान की तस्वीरें भी उतार लाते थे। (दा पर मैं पृथक लेख लिख चुका हूं। वह मेरे ब्लॉग स्पॉट पर उपलब्ध है)।
सत्येंद्र गुमाश्ता एक और काबिल व विश्वस्त सहयोगी थे। वे 1963 में देशबन्धु से जुड़े और सारे उतार-चढ़ावों के बीच अंत तक साथ बने रहे। कैंसर के असाध्य रोग ने सत्येंद्र को असमय ही हमसे छीन लिया। दुबले-पतले-लंबे सत्येंद्र सरल स्वभाव के धनी थे। अखबार की साज-सज्जा में नए प्रयोग करने का उन्हें बहुत चाव था। वे अक्सर रात को पहले पेज की ड्यूटी निभाते थे। उसी के साथ उन्होंने साप्ताहिक ''रायपुर डायरी" स्तंभ लिखना प्रारंभ किया। इसमें वे सामान्यत: बीते सप्ताह की प्रमुख घटनाओं का जायजा लेते थे। कॉलम के अंत में वे ''धूप में चलिए हल्के पांव" के उपशीर्षक से एक विनोदपूर्ण टिप्पणी लिखा करते थे। दरवेश के छद्मनाम से लिखा यह कॉलम भी पाठकों के बीच खासा लोकप्रिय हुआ। सत्येंद्र हमारे ही नहीं, छत्तीसगढ़ के पहले पत्रकार थे, जिन्होंने कोई एक दर्जन देशों की यात्राएं कीं। देशबन्धु की ओर से वे पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका की यात्राओं पर गए। पाकिस्तान तो वे क्रिकेट की टेस्ट सीरीज कवर करने के नाम पर गए थे, लेकिन उनका असली मकसद दूसरा था। वे लाहौर में सुप्रसिद्ध गायिका नूरजहां से मिले, उनका इंटरव्यू लिया। इसी तरह कुछ अन्य हस्तियों से भी उन्होंने मुलाकात की। सिरीमावो भंडारनायक और शेख हसीना से भेंट करने वाले वे प्रदेश के शायद एकमात्र पत्रकार हुए हैं।
देशबन्धु की प्रयोगधर्मिता का एक परिचय इन स्थायी स्तंभों के अलावा नए-नए विषयों पर प्रारंभ कॉलमों एवं फीचरों से मिलता है। मसलन यदि बसन्त दीवान प्रदेश के पहले प्रेस फोटोग्राफर के रूप में साथ जुड़े तो चीनी नायडू ने प्रथम खेल संवाददाता का दायित्व संभाला। कृषि विज्ञान में उपाधि लेकर टी.एस. गगन (प्रसिद्ध उपन्यास लेखक तेजिंदर) संपादकीय विभाग में काम करने आए तो उन्होंने खेती-किसानी पर सवाल-जवाब का स्तंभ शुरू कर दिया, जो ग्रामीण अंचलों में काफी पसंद किया गया।सेवाभावी डॉ. एस.आर. गुप्ता ने हिंदी में स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों पर लेख लिखे तो आगे चलकर अनेक डॉक्टरों ने अपनी-अपनी विशेषज्ञता पर साप्ताहिक या पाक्षिक कॉलम लिखे। निस्संदेह इसमें उन्हें भी लाभ हुआ। रायपुर में ओरियेंटल बैंक ऑफ कॉमर्स के मैनेजर श्री कुमार की पत्नी श्रीमती श्रेष्ठा ठक्कर एक दिन प्रस्ताव लेकर आईं कि वे महिलाओं के लिए सौंदर्य प्रसाधन पर कॉलम शुरू करना चाहती हैं। उनके कॉलम को पर्याप्त सराहना और हमें एक नया पाठक वर्ग मिला। इन विविध स्तंभों के बीच एक व्यापक जनोपयोगी और गंभीर कॉलम था- अमृत कलश, जिसे पोषण विज्ञान की अध्येता डॉ. अरुणा पल्टा ने कई बरसों तक जारी रखा। इसी तरह दर्शनशास्त्र की विदुषी डॉ. शोभा निगम ने क्लासिक ग्रंथों पर शोधपूर्ण लेखों की माला ''प्राच्य मंजरी" शीर्षक से लंबे समय तक लिखी।
हमारा एक दैनिक स्तंभ ''दुनिया को जानें" सामान्य ज्ञान पर आधारित व विद्यार्थियों के लिए था। इसकी लोकप्रियता अपार थी। लोग घरों में इसकी कतरनों की फाइलें बनाकर रखने लगे, ताकि बच्चों को प्रतियोगी परीक्षाओं में या अन्य अवसरों पर काम आ सकें। इसी के साथ हमारे मित्र प्रो. शरद इंग्ले ने विद्यार्थियों के लिए कैरियर गाइडेंस पर एक नियमित स्तंभ लगभग पच्चीस साल तक लिखा। देशबन्धु ने हर साल एक जनवरी को "नववर्षांक" परिशिष्ट प्रकाशित करने की परिपाटी भी प्रारंभ की। कई साल तक भारत में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भी अपना संवाददाता भेजने वाला प्रदेश का एकमात्र अखबार देशबन्धु ही था। बदलते समय के साथ और भिन्न-भिन्न कारणों से अनेक कॉलम बंद हो गए। लेकिन मुझे अच्छा लगता है जब कोई पुराना पाठक मिलता है और अपने किसी प्रिय कॉलम की चर्चा छेड़ देता है। देशबन्धु की असली पूंजी पाठकों से मिली प्रशंसा ही है।
#देशबंधु में 29 अगस्त 2019 को प्रकाशित

Wednesday, 21 August 2019

देशबन्धु के साठ साल-7


कुछ ज्ञान-कुछ विज्ञान देशबन्धु का एक लोकप्रिय साप्ताहिक स्तंभ था। इसकी परिकल्पना प्रो. वी.जी. वैद्य ने की थी। नामकरण भी उन्होंने ही किया था। प्रो. वैद्य रायपुर के शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय (अब एनआईटी) में रसायनशास्त्र के प्राध्यापक थे। आम अध्यापकों के विपरीत उनकी लिखने-पढ़ने में दिलचस्पी थी; वे कैंपस के बाहर की हलचलों में भी दिलचस्पी रखते थे; और खाली समय में भी व्यस्त रहने के कारण निकाल लेते थे। रिटायरमेंट के बाद उन्होंने रविशंकर वि.वि. में छात्रों के लिए फोटोग्राफी की निशुल्क कक्षाएं संचालित कीं। कुछ साल बाद वे पुणे चले गए तो वहां तर्कर्तार्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी की मराठी विश्वकोष परियोजना से जुड़ गए। उन्होंने प्रसिद्ध वैज्ञानिक जयंत नार्लीकर व लेखक लक्ष्मणराव लोंढे की अनेक मराठी विज्ञान कथाओं का हिंदी अनुवाद देशबन्धु के लिए किया। फिर स्वयं भी हिंदी में विज्ञान कथाएं लिखने लगे, जिसका पुस्तक रूप में प्रकाशन नेशनल बुक ट्रस्ट ने किया। प्रसंगवश, वैद्य साहब के भाई एम.जी. वैद्य भोपाल में प्रतिष्ठित पत्रकार थे, भाभी श्रीमती शकुंतला वैद्य रूसी भाषी की कक्षाएं संचालित करती थीं और इंदौर के सीपीआई नेता अनंत लागू उनकी पत्नी के भाई थे।
सुप्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डॉ. रमेशचंद्र महरोत्रा का चलते-चलते उल्लेख पिछले अध्याय में हुआ है। एक ओर अपने विषय के अधिकारी विद्वान; दूसरी ओर अद्भुत सादगी। वे साधारण सा कुर्ता-पाजामा पहनते थे और साईकिल पर चलते थे। उन्हें अपने पांडित्य पर लेशमात्र भी गर्व नहीं था और धन-दौलत का मोह उन्होंने कभी नहीं पाला। एक बार कार खरीद ली तो वह भी इकलौती संतान बेटी संज्ञा को दे दी। घर-गिरस्ती उन्होंने भाभी श्रीमती उमा महरोत्रा के जिम्मे छोड़ रखी थी, जो इप्टा से जुड़ी रहीं और सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में भी उत्साहपूर्वक भाग लेती रहीं। इस दम्पति ने समाज हित में अनेक काम किए और एक के बाद दोनों की पार्थिव देहें रायपुर मेडिकल कॉलेज को दान कर दी गईं। महरोत्राजी व्यंग्य कविताएं भी लिखते थे, जो मुझे कभी पसंद नहीं आईं। वे अपने ''दो शब्द कॉलम में कोई दो शब्द उठाकर उसकी सविस्तार व्याख्या करते थे। यह स्तंभ अनेक वर्षों तक चला। हिंदी भाषा के प्रति प्रेम व रुचि जागृत करने की यह एक अनूठी पहल थी।
समय-समय पर देश की अनेक मूर्धन्य हस्तियों ने देशबन्धु में कॉलम लिखे। इनमें इंद्रकुमार गुजराल, विजय मर्चेंट, जयंत नार्लीकर, के.एफ. रुस्तमजी, अरुण गांधी के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं। गुजराल साहब का आशीर्वाद और स्नेह हमें अंत तक मिलता रहा। 7 अप्रैल 2008 को देशबन्धु के दिल्ली संस्करण के उद्घाटन पर वे ही मुख्य अतिथि थे। उन्होंने अपने विशाल पुस्तक संग्रह का एक भाग देशबन्धु लाइब्रेरी को भेंट भी किया। वे सामान्यत: अन्तरराष्ट्रीय राजनीति पर अंग्रेजी में लिखते थे, जिसका अनुवाद हमें करना होता था। उपरोक्त सभी महानुभावों के साथ भी यही बात थी। मई-जून 2003 में मुझे डाक से एक मोटा लिफाफा मिला। भीतर एक लेख के साथ साइरस रुस्तमजी का लिखा एक पत्र था- ''मैं के.एफ. रुस्तमजी का पुत्र हूं। वे आपके अखबार के लिए लिखते थे। उनके कागजात में उनका यह आखिरी लेख मिला है, जिसे वे समय रहते आपको भेज नहीं पाए। संभव हो तो इसका उपयोग कर लीजिए। अंग्रेजो में लिखे पत्र का भाव यही था। महात्मा गांधी के पौत्र अरुण गांधी उन दिनों भारत में ही पत्रकारिता कर रहे थे और उन्होंने भी अपने लेख छापने के लिए सरलता से हामी भर दी थी। अरुण अब अमेरिका में रहते हैं। पिछले साल उनकी पुस्तक आई है- द गिफ्ट ऑफ एंगर। यह पुस्तक बापू के साथ बीते समय में हासिल अनुभवों पर आधारित है। इसमें बापू के जीवन दर्शन की सरल-सुबोध व्याख्या की गई है।
हमारे लेखकों की सूची में एक उल्लेखनीय नाम प्रो. एस.डी. मिश्र का है। वे रायपुर के शासकीय विज्ञान म.वि. में गणित के प्राध्यापक थे और 1964 में तबादले पर अन्यत्र चले गए थे। लेकिन एक गुणी अध्यापक के रूप में उनकी चर्चा उनके पूर्व छात्रों के बीच अक्सर होती थी। प्रो. मिश्र ने 92-93 साल की उम्र में अपने संस्मरण लिपिबद्ध करना प्रारंभ किया। यह अपने आप में अचरज की बात थी। उनके सुपुत्र डॉ. परिवेश मिश्र ने जब ये संस्मरण मुझे दिखाए तो मैं चकित रह गया। ऐसी सुंदर भाषा, ऐसे रोचक विवरण! गुजरे समय और स्थानों को उन्होंने जीवंत कर दिया। हमने दो बार में उनके संस्मरण 26-26 किश्तों में छापे। पहले ''ग्राउंड जीरो से उठी यादें; फिर बेमेतरा से बैरन बाज़ार तक। मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि हिंदी में ऐसे संस्मरण लिखने वाले लेखक बिरले ही होंगे। रायपुर, नागपुर, भोपाल, दमोह इत्यादि अनेक स्थानों पर, यहां तक कि विदेशों में बसे उनके छात्र इन संस्मरणों को खोज-खोज कर पढ़ते। हमसे संपर्क कर उनका पता-फोन नंबर लेते और उनसे बात करते। संस्मरण लिपिबद्ध करने के कुछ समय पहले ही उनकी जीवन संगिनी का निधन हुआ था। लेकिन संस्मरण पढ़ने के बाद उनके छात्रों-मित्रों-परिचितों ने जब उनसे संपर्क किया तो उनका अकेलापन कुछ हद तक दूर हुआ।
डॉ. जयंत नार्लीकर रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के निमंत्रण पर तीन दिन के लिए रायपुर आ रहे थे। इंग्लैंड से लौटने के बाद उन्होंने विज्ञान के लोकव्यापीकरण को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था। मैं उनका तब से प्रशंसक था जब वे 1960 के दशक में कैंब्रिज में फ्रेड हॉयल के साथ खगोलशास्त्र पर शोध कर रहे थे और अन्तरराष्ट्रीय ख्याति हासिल कर चुके थे। उनका रायपुर आना हमारे लिए एक बड़ी खबर थी। हमने नार्लीकरजी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक पूरे पेज की विशेष सामग्री प्रकाशित की और तीनों दिन उनके व्याख्यानों को प्रमुखता के साथ छापा। इसी समय लगे हाथ उनके अंग्रेजो लेखों को अनुवाद कर छापने की अनुमति भी मांग ली, जो सहर्ष मिल गई। महान क्रिकेट खिलाड़ी विजय मर्चेंट ने तो अंतरर्देशीय पत्र पर उनके लेख छापने की अनुमति प्रदान की थी। इन सबके लेख नई-नई जानकारियों से भरे होते थे; पाठकों का ज्ञान उनसे बढ़ता था और अखबार की प्रतिष्ठा में भी वृद्धि होती थी। यह तथ्य उल्लेखनीय है कि इनमें से किसी ने भी हमसे न पारिश्रमिक की अपेक्षा की और न मांग की।
जयंत नार्लीकर के प्रथम रायपुर आगमन पर हमने जैसी विशेष सामग्री प्रकाशित की थी, बिलकुल उसी तरह हमने विश्वविख्यात सितारवादक रविशंकर का भी अभिनंदन किया। इस तरह विभिन्न अवसरों पर विशेष परिशिष्ट प्रकाशित करने की एक परंपरा ही देशबन्धु में स्थापित हो गई। याद आता है सितंबर 1979 में ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम भारत दौरे पर आई थी। तब हमने कुछ सप्ताह पूर्व ही ऑफसेट मशीन पर छपाई प्रारंभ की थी। बहुमुखी प्रतिभासंपन्न लेखक-कवि-बैंक अधिकारी ओम भारती उन दिनों रायपुर में पदस्थ थे।ओम की क्रिकेट में भी खासी दिलचस्पी थी। उन्होंने क्रिकेट पर टैब्लाइड आकार में बत्तीस पेज के एक विशेषांक की योजना प्रस्तावित की। भारत में क्रिकेट की जैसी लोकप्रियता है, उसे देखते हुए कहना न होगा कि देशबन्धु का यह क्रिकेट विशेषांक अत्यन्त लोकप्रिय हुआ और हमें अंक दुबारा छापना पड़ा। इस अंक की बहुत सारी प्रतियां लेकर ओम नागपुर भी गए, जहां एक मैच होना था। वहां वीसीए स्टेडियम में देशबन्धु की धूम मच गई। उसी दौर में हमने शतरंज पर एक साप्ताहिक स्तंभ शुरू किया। किसी हिंदी दैनिक में यह शायद अपनी तरह का पहला कॉलम था! इसे मुजाहिद खान तैयार करते थे, जो शायद रायपुर तहसील कार्यालय में कार्यरत थे। छत्तीसगढ़ में शतरंज का खेल लोकप्रिय हो चला था, जिसे आगे बढ़ाने में देशबन्धु ने भी एक छोटी सी भूमिका निभाई।
देशबंधु में 22 अगस्त 2019 को प्रकाशित

Saturday, 17 August 2019

स्वाधीनता और जनतंत्र का रिश्ता


आज हम आज़ादी के बहत्तर साल पूरे कर स्वाधीन मुल्क के तिहत्तरवें वर्ष में पहला कदम रख रहे हैं। इस मुबारक मौके पर एक पल रुककर हमें खुद से पूछना चाहिए कि देश की स्वतंत्रता हासिल करना हमारा अंतिम लक्ष्य था या किसी वृहत्तर लक्ष्य की पूर्ति के लिए एक अनिवार्य साधन था! वैसे जवाब हमें पता है। हम जानते हैं कि अंग्रेजों की एक सौ नब्बे साल की गुलामी ने भारत को हर तरह से कमज़ोर कर दिया था, तोड़ दिया था। भारतीय समाज से उद्यमशीलता, कल्पनाशीलता, प्रयोगशीलता, साहसिकता जैसे गुण लगभग समाप्त कर दिए गए थे। जिन नायकों व मनीषियों ने स्वाधीनता की लड़़ाई में देश का नेतृत्व किया, उन्हें पता था कि आज़ादी मिलने के बाद खुली हवा में सांस लेते हुए ही भारतवासी अपने खोए आत्मबल को हासिल कर सकेंगे। 1757 में पलासी के युद्ध से लेकर 1942-43 में बंगाल के भीषण अकाल और 1946 के नौसैनिक विद्रोह तक देश ने क्या-क्या नहीं देखा और भुगता। हमें हर कीमत पर स्वाधीनता हासिल करना ही थी, ताकि आने वाली पीढिय़ों के जीवन में अंधकार, अशिक्षा, दुर्भिक्ष, कुपोषण, परावलंबन, आत्मग्लानि जैसी बाधाएं और विपत्तियां घर न कर सकें। 

इस पृष्ठभूमि का स्मरण करते हुए यह उचित होगा कि स्वतंत्रता दिवस को स्वाधीनता सेनानियों के प्रति कृतज्ञता दिवस के रूप  में मनाया जाए। आज यह ध्यान रखना पहले से कहीं अधिक आवश्यक है, क्योंकि एक साजिश के तहत देश का नया इतिहास लिखने का काम चल रहा है। जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में कुर्बानियों दीं, उनके नाम और चिह्न मिटाए जा रहे हैं, उनकी स्मृति का खुलेआम अपमान किया जा रहा है। दूसरी ओर वे ताकतें जिन्होंने औपनिवेशिक सत्ता का तन-मन-धन से सहयोग किया, बल्कि जो अंग्रेजी राज में हुक्म के ताबेदार बन गए, उनका गुणगान हो रहा है, उनकी जय जयकार की जा रही है, उनकी मूर्तियां और मंदिर बन रहे हैं। सत्य को सिर के बल खड़ा कर दिया गया है। जो नए-नए किस्से गढ़े जा रहे हैं उन्हें सुन-पढ़कर हैरत होती है। दुर्भाग्य है कि पूंजीमुखी मीडिया को इस छद्म को रचने में सत्तातंत्र का सहायक बनने में कोई ग्लानि महसूस नहीं हो रही है। इसलिए आज वक्त है कि जनता तिलक, गोखले, गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाष, मौलाना आज़ाद, राजेंद्र प्रसाद, बाबा साहेब, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद  और उनके तमाम साथियों के बारे में जितना कुछ जान सकती है, सही रूप में जानने-समझने की कोशिश करे। 

एक स्वतंत्रचेता नागरिक को जानना चाहिए कि चंद्रशेखर आज़ाद ने जिस क्रांतिकारी दल का गठन किया उसका नाम हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन क्यों रखा। वे समाजवाद और गणतंत्र जैसी संज्ञा का प्रयोग क्यों कर रहे थे? शहीदे-आज़म भगतसिंह, ने ''मैं नास्तिक क्यों हूं" जैसी पुस्तिका क्या सोचकर लिखी? ''कीरति" पत्रिका में उनके जो लेख छपे, उनमें उन्होंने दक्षिणपंथी, हिंदुत्ववादी नेताओं की आलोचना क्यों की? उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को अपना नेता क्यों माना? सुभाषचंद्र बोस ने महात्मा गांधी को ''राष्ट्रपिता" का संबोधन क्यों दिया? उन्होंने आज़ाद हिंद फौज में गांधी, नेहरू और मौलाना आज़ाद के नाम पर ब्रिगेडें क्यों बनाईं? जर्मनी से भारत आ रही मित्र को उन्होंने बापू से मिलने की सलाह यह कहकर क्यों दी कि वे हमारे पिता हैं? बाबासाहब आंबेडकर ने चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की गवाही में महात्मा गांधी के साथ पूना-पैक्ट क्यों किया? यह भी समझना लाजिमी है कि एक महान लक्ष्य के लिए साथ मिलकर काम कर रहे लोगों के बीच जब-तब मतभेद होना अस्वाभाविक नहीं है। इसलिए जब मतभेदों को बढ़ा-चढ़ाकर उभारा जाता है और उसकी ओट में व्यापक सहमतियों को दबाने के  प्रयत्न होते हैं तो सावधानी रखना आवश्यक है कि जनता इस चालबाजी में फंसकर न रह जाए।

इस अत्यन्त महत्वपूर्ण तथ्य पर भी हमें विचार करना आवश्यक है कि स्वाधीनता संग्राम के अंतिम दशकों में जिन्होंने हमारा नेतृत्व किया, उन्होंने भविष्य की राह तैयार करने के लिए संविधान सभा का गठन क्यों किया? इस संविधान सभा का स्वरूप क्या था? इसके सदस्य कौन थे? लगभग तीन साल तक चली कार्रवाईयों में क्या-क्या निर्णय लिए गए? ये निर्णय विरोध को दरकिनार करके लिए गए या फिर आम सहमति बनाने की कोशिशें की गईं? हमारे इन पुरखों ने भारत की कल्पना एक गणराज्य के रूप में क्यों की? उन्होंने संसदीय जनतंत्र प्रणाली का चयन क्यों किया? वे कौन से कारण थे जो इस ऐतिहासिक निर्णय के पीछे थे? अगर इन बातों को समझने की कोशिश नहीं की जाती तो इसका एक ही मतलब होता है कि हम अपने पुरखों का अपमान कर रहे हैं। उन्होंने जो विरासत हमें सौंपी है, उसे ठुकरा रहे हैं। क्या हमें स्वयं को एक विचारविपन्न समाज में तब्दील कर लेना चाहिए? याद रखिए, 1991 से लगातार आवाजें उठी हैं कि भारत एक बार फिर नवसाम्राज्यवादी ताकतों का गुलाम बनने की राह पर चल पड़ा है। एक लंबे संघर्ष और बेशुमार कुर्बानियों के बाद हासिल आज़ादी का क्या यही हश्र होना है?

आज की दुनिया की यह भयावह सच्चाई है कि पूंजीवाद और साम्राज्यवाद नया बाना धारण करके जगह-जगह अपनी घुसपैठ कर चुके हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति आइज़नहावर ने 1960 के अपने अंतिम भाषण में सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ (मिलिटरी-इंडस्ट्रियल कांप्लेक्स) के खिलाफ अमेरिकी जनता को आगाह किया था। उसी दानवी ताकत ने कितने ही देशों को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। जिस डिजिटल प्रगति पर जनसामान्य मुग्ध है, उसे पता ही नहीं है कि ऊपर से मासूम दीखने वाले ये खिलौने कैसे उसके लिए आत्मघाती हो सकते हैं। जानना चाहिए कि इज़राइल जिसका निर्माण ही 1948 में हुआ, आज कैसे विश्व बाज़ार में हथियारों का बड़ा सौदागर बन गया है। उसने भारत को अपने हथियारों का सबसे बड़ा ग्राहक कैसे बना लिया, क्या यह हमारी सोच का विषय नहीं होना चाहिए? यह भी तो पूछना चाहिए कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या के पीछे अदृश्य हाथ किसका था! क्या कारण था कि पहले राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी, फिर भाई रॉबर्ट कैनेडी की हत्या की गई और तीसरे भाई एडवर्ड कैनेडी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार भी नहीं बनने दिया गया! क्या विश्व के दो लोकतांत्रिक देशों की इन घटनाओं में कोई समानता खोज सकते हैं?

मेरे कहने का आशय  है कि यह समय भावनाओं में बहने का नहीं है। राष्ट्रीय जीवन में जो भी घटनाचक्र चल रहा है, उसका सतर्क दृष्टि से अध्ययन और समीक्षा करना इस दौर की सबसे अहम मांग है। अखबार, रेडियो, टीवी, फेसबुक, वाट्सएप पर जो कुछ सामग्री परोसी जा रही है, उसे अंतिम सत्य मानकर स्वीकार मत कीजिए। घटनाओं की तह में जाइए। कार्य-कारण संबंध तलाश कीजिए। सोचिए कि क्या हमें जनतंत्र नहीं चाहिए? सोचिए कि हम एकरस जीवन जीना चाहते हैं या विविधता होना चाहिए? सोचिए कि हम अमूमन जो कुर्ता पहनते हैं, उसे पंजाब में ''बंगाली" और बंगाल में ''पंजाबी" क्यों कहा जाता है? आज दोसा-इडली कैसे सारे देश में लोकप्रिय हैं और कैसे मक्के की रोटी-सरसों का साग सब तरफ प्रचलित हो गए हैं। रसगुल्ला हमारी राष्ट्रीय मिठाई कैसे बन गई? जिन प्रदेशों में साड़ी ही सर्वमान्य थी, वहां सलवार-कुर्ती ने अपनी प्रमुख जगह कैसे बना ली? खान-पान, वस्त्राभूषण, रहन-सहन सबमें विविधता, फिर भी भारतीय होने के एहसास की एकता- क्या यह हमारी ताकत नहीं है?  

और जब विविधता में एकता ही हमारा मूलमंत्र है तो फिर राजनीति में भी विविधता क्यों न हो? सच तो यह है कि अब तक राजनीति में चली आ रही विविधता के कारण ही हमारी एकता के सूत्र मजबूत हुए हैं। विविधता को समाप्त कर एकरूपता लाने का विचार खतरनाक है। स्वतंत्रता को कायम रखना है तो जनतंत्र को बचाना होगा। जनतंत्र को बचाने के लिए ऊंच-नीच, बड़ा-छोटा, अपना-पराया, हिंदू-मुसलमान, दलित-सवर्ण, शाकाहारी-मांसाहारी, आदमी-औरत, काश्मीरी-गुजराती, पंजाबी-मद्रासी, मराठी-बंगाली जैसे तमाम द्वैतभाव से मुक्ति पानी होगी। मैंने अपने बचपन से स्वतंत्रता का यही अर्थ समझा है। शायद आप भी मेरी तरह सोचते हों!
 
देशबंधु में 15 अगस्त 2019 को प्रकाशित  

Thursday, 8 August 2019

देशबन्धु के साठ साल-6


देशबन्धु ने समाचार जगत में विगत साठ वर्षों के दौरान जो साख कायम की है, उसकी बुनियाद में देशबन्धु की संपादकीय नीति के दो तत्व प्रमुख हैं। एक तो पत्र ने प्रारंभ से अब तक एक सुस्पष्ट, संयमपूर्ण और अविरल वैचारिक दृष्टि का पालन किया है। दूसरे- अखबार अपनी संपादकीय प्रयोगधर्मिता के लिए अक्सर चर्चित रहा है। इसके तीन मुख्य घटक हैं। एक-स्थायी स्तंभ और फीचर। दो- विकासपरक रिपोर्टिंग। तीन- ग्रामीण पत्रकारिता। स्थायी स्तंभों की चर्चा करते हुए सबसे पहले हरिशंकर परसाई का नाम आता है। मैं नोट करना चाहूंगा कि 3 दिसंबर 1959 को बाबूजी ने जबलपुर से 'नई दुनिया का तीसरा संस्करण प्रारंभ किया था। कालांतर में नए प्रबंधन के तहत उसका नाम बदलकर 'नवीन दुनिया कर दिया गया। उसकी कहानी आगे आएगी। परसाईजी ने बाबूजी के कहने पर 1960 में ''सुनो भाई साधो शीर्षक से साप्ताहिक कॉलम लिखना प्रारंभ किया, जो इंदौर, रायपुर और जबलपुर में अनेक वर्षों तक एक साथ छपता रहा।
जबलपुर में ही जब 1963 की रामनवमी पर बाबूजी और उनके समानधर्मा मित्रों ने मिलकर सांध्य दैनिक ''जबलपुर समाचार का प्रकाशन शुरू किया तो परसाईजी उसमें ''सबका मुजरा लेय शीर्षक से नया स्तंभ लिखने लगे। काफी आगे जाकर जब परसाईजी का अस्वस्थता के कारण बाहर आना-जाना अत्यन्त सीमित हो गया, तब हमारे आग्रह पर उन्होंने ''पूछिए परसाई से शीर्षक से एक और नया कॉलम लिखना स्वीकार किया। इस कॉलम को उन्होंने देखते ही देखते लोकशिक्षण के एक जबरदस्त माध्यम में परिणत कर दिया। इसमें वे पाठकों के आए सैकड़ों पत्रों में से हर सप्ताह कुछ चुनिंदा और गंभीर प्रश्नों के सारगर्भित लेकिन चुटीले उत्तर देते थे। 1983 में प्रारंभ यह कॉलम 1994 तक जारी रहा। कुछ समय पूर्व एक वृहदाकार ग्रंथ के रूप में कॉलम का संकलन छपा, लेकिन किसी अज्ञात कारण से पुस्तक का शीर्षक बदलकर ''पूछो परसाई से रख दिया गया!
मुझे यह उल्लेख करते हुए खुशी होती है कि परसाईजी की लगभग अस्सी प्रतिशत या उससे भी अधिक रचनाएं देशबन्धु में ही प्रकाशित हुई हैं। ऐसा नहीं कि वे सिर्फ कॉलम या व्यंग्य लेखन ही करते थे। समसामयिक घटनाचक्र पर उनकी पैनी नजर रहती थी और वे महत्वपूर्ण ताजा घटनाओं पर वक्तव्य या टिप्पणी जारी करते थे, जो देशबन्धु में ही प्रथम पृष्ठ पर छपती थी। परसाईजी तर्कप्रवीण थे और उनकी स्मरणशक्ति अद्भुत थी। उनके सामने पुस्तक या पत्रिका का कोई पन्ना खोलकर रख दीजिए। वे एक नजर डालेंगे और पूरी इबारत को हृदयंगम कर लेंगे। अपनी इस ''एलीफैंटाइन मेमोरी याने गज-स्मृति से वे हम लोगों को चमत्कृत कर देते थे। समसामयिक मुद्दों पर वे जो तात्कालिक प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे, वह भी लोकशिक्षण का ही अंग था। पाठकों की अपनी समझ उनसे साफ होती थी। जो लोग उन्हें सिर्फ व्यंग्यकार मानते हैं, वे उनके व्यक्तित्व के इस गंभीर पहलू की अनदेखी कर देते हैं।
यह एक उम्दा संयोग था कि परसाईजी और बाबूजी दोनों ने 1983 में एक साथ अपने स्थायी कॉलम प्रारंभ किए। बाबूजी ने ''दरअसल शीर्षक से सामयिक विषयों पर लेख लिखे। एक तरह से दोनों अभिन्न मित्रों के कॉलम एक दूसरे के विचारों को प्रतिबिंबित करते थे। बाबूजी के अखबारी लेखन की शुरूआत वैसे 1941-42 में हो चुकी थी, जब विद्यार्थी जीवन में उन्होंने वर्धा से हस्तलिखित पत्रिका ''प्रदीप की स्थापना की थी। बाद के सालों में एक के बाद एक कई अखबारों की स्थापना व उनके संपादन-संचालन की दौड़धूप में उनका नियमित लेखन बाधित हो गया था। लेकिन बीच-बीच में समय निकालकर जब वे लिखते तो उसमें उनकी गहरी समझ और अंतर्दृष्टि का परिचय मिलता। एक तरफ निरालाजी के निधन पर ''महाकवि का महाप्रयाण" ; दूसरी ओर रुपए के अवमूल्यन, वीवी गिरि के चुनाव; तीसरी ओर किसान ग्राम दुलारपाली पर फीचर आदि उनकी सर्वांगीण संपादकीय दृष्टि के उदाहरण हैं। नेहरूजी के निधन पर रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविता का जो त्वरित अनुवाद बाबूजी ने किया, मेरी राय में वह सर्वोत्तम अनुवाद है।
अपने स्तंभकारों की चर्चा करते हुए मैं राजनांदगांव के अग्रज साथी रमेश याज्ञिक का स्मरण करता हूं। रमेश भाई की हिंदी में हल्का सा गुजराती पुट था, लेकिन उनकी लेखन शैली अत्यन्त रोचक और बांध लेने वाली थी। उन्होंने टीजेएस जॉर्ज की लिखी वीके कृष्णमेनन की जीवनी का अनुवाद देशबन्धु के लिए किया था। हमारा एक प्रयोग उन दिनों बहुचर्चित और बहुप्रशंसित हुआ जब रमेश भाई ने गुजराती लेखक अश्विन भट्ट के रोमांचक उपन्यास ''आशका मांडल का अनुवाद किया और वह लगातार छब्बीस साप्ताहिक किश्तों में प्रकाशित हुआ। ऐेसे एक-दो अनुवाद उन्होंने और भी किए। उनके साप्ताहिक स्तंभ ''यात्री के पत्र को भी पाठकों से भरपूर सराहना मिली। वे उन दिनों अपने व्यापार के सिलसिले में लगातार दूर-दूर की यात्राएं कर रहे थे और उन अनुभवों के आधार पर किस्सागोई की शैली में भारतीय समाज की जीवंत और प्रामाणिक छवि उकेर रहे थे। रमेश भाई ने एक कथाकार के रूप में भी पर्याप्त ख्याति अर्जित की। प्रसंगवश बता दूं कि देशबन्धु में पहिला धारावाहिक उपन्यास 1965-66 में छपा था जो डॉ. सत्यभामा आडिल ने लिखा था। हृदयेश, मनहर चौहान आदि के उपन्यास भी हमने धारावाहिक प्रकाशित किए।
एक ओर जहां रायपुर व छत्तीसगढ़ में अनेक लेखक नियमित कॉलम के द्वारा देशबन्धु से जुड़े, वहीं जबलपुर में प्रकांड विद्वान प्रो. हनुमान वर्मा ने ''टिटबिट की डायरी शीर्षक कॉलम लिखा, कहानीकार-व्यंग्यकार सुबोध कुमार श्रीवास्तव ने भी व्यंग्य का कॉलम हाथ में लिया; उधर सतना में समाजवादी नेता जगदीश जोशी के अलावा लेखक कमलाप्रसाद, देवीशरण ग्रामीण, बाबूलाल दहिया, सेवाराम त्रिपाठी के साप्ताहिक स्तंभ भी अनेक वर्षों तक प्रकाशित होते रहे। छत्तीसगढ़ में रमाकांत श्रीवास्तव, बसन्त दीवान, रवि श्रीवास्तव, कृष्णा रंजन आदि मित्रों ने नियमित कॉलम लिखे। पुरुषोत्तम अनासक्त व परदेसीराम वर्मा के उपन्यास भी धारावाहिक छपे। डॉ. रमेशचंद्र महरोत्रा ने अनेक वर्षों तक ''दो शब्द स्तंभ निरंतर लिखा, जो पांच खंडों में दिल्ली से प्रकाशित हुआ। नागपुर के डॉ. विनय वाईकर व रायपुर के प्रो. खलीकुर्रहमान ने महाकवि गालिब के साथ-साथ उर्दू शायरी की श्रेष्ठता से पाठकों को परिचित कराया। मैंने अभी अपने संपादकीय सहयोगियों के लिखे स्तंभों का जिक्र नहीं किया है, और न देश के अनेक मूर्धन्य विद्वान स्तंभकारों का। कहानी अभी अधूरी है।
#देशबंधु में 08 अगस्त 2019 को प्रकाशित