अनेक सेवानिवृत्त अधिकारियों ने, जो बड़े-बड़े पदों पर काम कर चुके हैं, आत्मकथाएं लिखी हैं। ये सभी पुस्तकें अंग्रेजी में लिखी गई हैं और लगभग निरपवाद आत्मश्लाघा से भरपूर हैं। मेरे देखे में एक आरएसवीपी नरोन्हा और दूसरे जावेद चौधरी ही हैं जिनकी आत्मकथा क्रमश: ''ए टेल टोल्ड बाई एन इडियट" और ''द इनसाइडर्स व्यू : मेमॉयर्स ऑफ ए पब्लिक सर्वेंट" निज पर अधिक केंद्रित होने के बजाय प्रशासनिक काम-काज की बारीकियों में झांकने का अवसर प्रदान करती हैं। मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव पद से सेवानिवृत्त और बाद में चार दफे भोपाल क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के लोकसभा सदस्य बने सुशीलचंद्र वर्मा की 'कलेक्टर की डायरी" शायद किसी वरिष्ठ आईएएस द्वारा हिंदी में लिखी गई एकमात्र आत्मकथा है। इस पुस्तक को धारावाहिक रूप में छापने का सुअवसर भी देशबन्धु को मिला। वर्माजी का अंदाजा-बयां बेहद दिलचस्प और पुरलुत्फहै। उनकी रोचक लेखन शैली नरोन्हा साहब की लेखनी के समकक्ष ठहरती है। वर्माजी ने बैतूल, रायपुर जैसे महत्वपूर्ण समझे जाने वाले जिलों की कलेक्टरी की और आगे चलकर वे केंद्र में ग्रामीण विकास विभाग के सचिव भी रहे। उनके समान कर्मनिष्ठ, सत्यनिष्ठ और ज़िन्दादिली से भरपूर व्यक्ति ने जाने किस अवसाद में डूबकर आत्महत्या कर ली। उनकी मृत्यु एक एंटी-क्लाइमेक्स ही कही जा सकती है!
मेरे स्मृतिपटल पर अनायास कनोज कांति दत्ता का नाम उभरता है। वे बंगाल के किसी नगर से 1955-56 के आसपास भिलाई इस्पात संयंत्र में फिटर जैसे किसी पद पर नियुक्ति पाकर यहां आ गए थे। उन्होंने अपने जीवन के कोई 35 साल इस कारखाने में खपा दिए और रिटायरमेंट के बाद भिलाई में ही बस गए। दत्ताजी ने कारखाने के भीतर और बाहर के जीवन पर एक उपन्यास ''लौह वलय" शीर्षक से लिखा। मूल बांग्ला से अनुवाद सुपरिचित लेखिका संतोष झांझी ने किया। वे भी भिलाई निवासी हैं। ''लौह वलय" में इस्पात कारखाने के भीतर का कारोबार कैसे चलता है, इसका बारीकी और विस्तार से वर्णन हुआ है। हिंदी में शायद यह अपनी तरह का एकमात्र उपन्यास है। इसे भी हमने धारावाहिक प्रकाशित किया। अंग्रेजी में ऑर्थर हैली जैसे लेखकों ने मोटरकार कारखाने, बिजली संयंत्र, एयरपोर्ट, होटल जैसे स्थलों का दो-दो साल तक अध्ययन कर उनपर लोकप्रिय उपन्यास लिखे हैं। यहां तो लेखक ताउम्र उस कारखाने के जीवन को जी रहा है। उनके अनुभव प्रत्यक्ष और प्रामाणिक हैं। मुझे अफसोस है कि ''लौह वलय" का पुस्तकाकार प्रकाशन नहीं हो पाया। दत्ताजी उसके पहले ही अंतिम यात्रा पर रवाना हो गए। उनकी एक कहानी ''रिक्शावाला" भी बहुचर्चित हुई थी।
देशबन्धु के इन मित्र लेखकों के अलावा संपादक मंडल के अनेक सहयोगियों ने भी ऐसे नियमित कॉलम लिखे, जिनसे देशबन्धु की पहचान और प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। संपादक पं. रामाश्रय उपाध्याय ''एक दिन की बात" शीर्षक से सप्ताह में छह दिन कॉलम लिखते थे। वे साल में एक बार अपने गांव जाते थे, तभी उनकी लेखनी विराम लेती थी। देश के किसी भी अखबार में सबसे लंबे समय तक प्रकाशित कॉलम के रूप में इसने एक रिकार्ड कायम किया और ''लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्स" में बाकायदा दर्ज हुआ। पंडितजी वक्रतुंड के छद्मनाम से स्तंभ लिखते थे। वे अपनी बेबाकी के लिए प्रसिद्ध थे। उनसे मिलने वाले भी घबराते थे कि पंडितजी कहीं उनको ही निशाना न बना दें। एक बार तो उन्होंने बाबूजी के खिलाफ तक लिख दिया था। लिख तो दिया, छप भी गया, लेकिन अगले दिन घबराए कि अब न जाने क्या हो! बाबूजी पंडितजी को नागपुर के दिनों से जानते थे। उन्होंने हँस कर टाल दिया। कुछ समय बाद बाबूजी के किसी मित्र पर तीर चलाया।उन्होंने बाबूजी से शिकायत की तो सीधा उत्तर मिला- भाई! वे तो मेरे खिलाफ तक लिख देते हैं। दुर्वासा ऋषि हैं। पंडितजी स्वाधीनता सेनानी थे। 1942 में भूमिगत हुए। लेकिन स्वाधीनता सेनानी की पेंशन लेना उन्होंने कुबूल नहीं किया। उनकी औपचारिक शिक्षा तो शायद मैट्रिक के आगे नहीं बढ़ी थी, लेकिन वे देश-दुनिया की हलचलों से बाखबर एक अध्ययनशील व्यक्ति थे। वे तीस साल तक हमारे साथ रहे। फिर बेहतर सुविधाओं की प्रत्याशा में एक नए अखबार में चले गए। वहां उनका मोहभंग हुआ तो पत्रकारिता से अवकाश ले लिया। तब उनकी आयु पचहत्तर वर्ष के आसपास थी। हमारे साथ उनका आत्मीय जुड़ाव अंत तक बना रहा।
देशबन्धु के किसी संपादक द्वारा लिखा गया सबसे लोकप्रिय कॉलम ''घूमता हुआ आईना" था जिसे हमारे वरिष्ठ साथी, और मेरे गुरु व बड़े भाई राजनारायण मिश्र लिखते थे। दरअसल, इस कॉलम की शुरुआत मैंने की थी, किंतु कुछ ही हफ्तों बाद दा (इसी नाम से वे जाने जाते थे) ने मुझसे कॉलम ले लिया। यह उनकी चुटीली शैली का कमाल था कि सोमवार को हजारों पाठक बेसब्री से ''आईना" का इंतजार करते थे। इस स्तंभ में वे अधिकतर रायपुर शहर की उन घटनाओं व स्थितियों का सजीव चित्रण करते थे, जो अमूमन लोगों के ध्यान में नहीं आतीं। वे दौरे पर जाते थे तो अपनी सूक्ष्म व वेधक दृष्टि से उस स्थान की तस्वीरें भी उतार लाते थे। (दा पर मैं पृथक लेख लिख चुका हूं। वह मेरे ब्लॉग स्पॉट पर उपलब्ध है)।
सत्येंद्र गुमाश्ता एक और काबिल व विश्वस्त सहयोगी थे। वे 1963 में देशबन्धु से जुड़े और सारे उतार-चढ़ावों के बीच अंत तक साथ बने रहे। कैंसर के असाध्य रोग ने सत्येंद्र को असमय ही हमसे छीन लिया। दुबले-पतले-लंबे सत्येंद्र सरल स्वभाव के धनी थे। अखबार की साज-सज्जा में नए प्रयोग करने का उन्हें बहुत चाव था। वे अक्सर रात को पहले पेज की ड्यूटी निभाते थे। उसी के साथ उन्होंने साप्ताहिक ''रायपुर डायरी" स्तंभ लिखना प्रारंभ किया। इसमें वे सामान्यत: बीते सप्ताह की प्रमुख घटनाओं का जायजा लेते थे। कॉलम के अंत में वे ''धूप में चलिए हल्के पांव" के उपशीर्षक से एक विनोदपूर्ण टिप्पणी लिखा करते थे। दरवेश के छद्मनाम से लिखा यह कॉलम भी पाठकों के बीच खासा लोकप्रिय हुआ। सत्येंद्र हमारे ही नहीं, छत्तीसगढ़ के पहले पत्रकार थे, जिन्होंने कोई एक दर्जन देशों की यात्राएं कीं। देशबन्धु की ओर से वे पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका की यात्राओं पर गए। पाकिस्तान तो वे क्रिकेट की टेस्ट सीरीज कवर करने के नाम पर गए थे, लेकिन उनका असली मकसद दूसरा था। वे लाहौर में सुप्रसिद्ध गायिका नूरजहां से मिले, उनका इंटरव्यू लिया। इसी तरह कुछ अन्य हस्तियों से भी उन्होंने मुलाकात की। सिरीमावो भंडारनायक और शेख हसीना से भेंट करने वाले वे प्रदेश के शायद एकमात्र पत्रकार हुए हैं।
देशबन्धु की प्रयोगधर्मिता का एक परिचय इन स्थायी स्तंभों के अलावा नए-नए विषयों पर प्रारंभ कॉलमों एवं फीचरों से मिलता है। मसलन यदि बसन्त दीवान प्रदेश के पहले प्रेस फोटोग्राफर के रूप में साथ जुड़े तो चीनी नायडू ने प्रथम खेल संवाददाता का दायित्व संभाला। कृषि विज्ञान में उपाधि लेकर टी.एस. गगन (प्रसिद्ध उपन्यास लेखक तेजिंदर) संपादकीय विभाग में काम करने आए तो उन्होंने खेती-किसानी पर सवाल-जवाब का स्तंभ शुरू कर दिया, जो ग्रामीण अंचलों में काफी पसंद किया गया।सेवाभावी डॉ. एस.आर. गुप्ता ने हिंदी में स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों पर लेख लिखे तो आगे चलकर अनेक डॉक्टरों ने अपनी-अपनी विशेषज्ञता पर साप्ताहिक या पाक्षिक कॉलम लिखे। निस्संदेह इसमें उन्हें भी लाभ हुआ। रायपुर में ओरियेंटल बैंक ऑफ कॉमर्स के मैनेजर श्री कुमार की पत्नी श्रीमती श्रेष्ठा ठक्कर एक दिन प्रस्ताव लेकर आईं कि वे महिलाओं के लिए सौंदर्य प्रसाधन पर कॉलम शुरू करना चाहती हैं। उनके कॉलम को पर्याप्त सराहना और हमें एक नया पाठक वर्ग मिला। इन विविध स्तंभों के बीच एक व्यापक जनोपयोगी और गंभीर कॉलम था- अमृत कलश, जिसे पोषण विज्ञान की अध्येता डॉ. अरुणा पल्टा ने कई बरसों तक जारी रखा। इसी तरह दर्शनशास्त्र की विदुषी डॉ. शोभा निगम ने क्लासिक ग्रंथों पर शोधपूर्ण लेखों की माला ''प्राच्य मंजरी" शीर्षक से लंबे समय तक लिखी।
हमारा एक दैनिक स्तंभ ''दुनिया को जानें" सामान्य ज्ञान पर आधारित व विद्यार्थियों के लिए था। इसकी लोकप्रियता अपार थी। लोग घरों में इसकी कतरनों की फाइलें बनाकर रखने लगे, ताकि बच्चों को प्रतियोगी परीक्षाओं में या अन्य अवसरों पर काम आ सकें। इसी के साथ हमारे मित्र प्रो. शरद इंग्ले ने विद्यार्थियों के लिए कैरियर गाइडेंस पर एक नियमित स्तंभ लगभग पच्चीस साल तक लिखा। देशबन्धु ने हर साल एक जनवरी को "नववर्षांक" परिशिष्ट प्रकाशित करने की परिपाटी भी प्रारंभ की। कई साल तक भारत में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भी अपना संवाददाता भेजने वाला प्रदेश का एकमात्र अखबार देशबन्धु ही था। बदलते समय के साथ और भिन्न-भिन्न कारणों से अनेक कॉलम बंद हो गए। लेकिन मुझे अच्छा लगता है जब कोई पुराना पाठक मिलता है और अपने किसी प्रिय कॉलम की चर्चा छेड़ देता है। देशबन्धु की असली पूंजी पाठकों से मिली प्रशंसा ही है।
#देशबंधु में 29 अगस्त 2019 को प्रकाशित
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