Thursday 8 August 2019

देशबन्धु के साठ साल-6


देशबन्धु ने समाचार जगत में विगत साठ वर्षों के दौरान जो साख कायम की है, उसकी बुनियाद में देशबन्धु की संपादकीय नीति के दो तत्व प्रमुख हैं। एक तो पत्र ने प्रारंभ से अब तक एक सुस्पष्ट, संयमपूर्ण और अविरल वैचारिक दृष्टि का पालन किया है। दूसरे- अखबार अपनी संपादकीय प्रयोगधर्मिता के लिए अक्सर चर्चित रहा है। इसके तीन मुख्य घटक हैं। एक-स्थायी स्तंभ और फीचर। दो- विकासपरक रिपोर्टिंग। तीन- ग्रामीण पत्रकारिता। स्थायी स्तंभों की चर्चा करते हुए सबसे पहले हरिशंकर परसाई का नाम आता है। मैं नोट करना चाहूंगा कि 3 दिसंबर 1959 को बाबूजी ने जबलपुर से 'नई दुनिया का तीसरा संस्करण प्रारंभ किया था। कालांतर में नए प्रबंधन के तहत उसका नाम बदलकर 'नवीन दुनिया कर दिया गया। उसकी कहानी आगे आएगी। परसाईजी ने बाबूजी के कहने पर 1960 में ''सुनो भाई साधो शीर्षक से साप्ताहिक कॉलम लिखना प्रारंभ किया, जो इंदौर, रायपुर और जबलपुर में अनेक वर्षों तक एक साथ छपता रहा।
जबलपुर में ही जब 1963 की रामनवमी पर बाबूजी और उनके समानधर्मा मित्रों ने मिलकर सांध्य दैनिक ''जबलपुर समाचार का प्रकाशन शुरू किया तो परसाईजी उसमें ''सबका मुजरा लेय शीर्षक से नया स्तंभ लिखने लगे। काफी आगे जाकर जब परसाईजी का अस्वस्थता के कारण बाहर आना-जाना अत्यन्त सीमित हो गया, तब हमारे आग्रह पर उन्होंने ''पूछिए परसाई से शीर्षक से एक और नया कॉलम लिखना स्वीकार किया। इस कॉलम को उन्होंने देखते ही देखते लोकशिक्षण के एक जबरदस्त माध्यम में परिणत कर दिया। इसमें वे पाठकों के आए सैकड़ों पत्रों में से हर सप्ताह कुछ चुनिंदा और गंभीर प्रश्नों के सारगर्भित लेकिन चुटीले उत्तर देते थे। 1983 में प्रारंभ यह कॉलम 1994 तक जारी रहा। कुछ समय पूर्व एक वृहदाकार ग्रंथ के रूप में कॉलम का संकलन छपा, लेकिन किसी अज्ञात कारण से पुस्तक का शीर्षक बदलकर ''पूछो परसाई से रख दिया गया!
मुझे यह उल्लेख करते हुए खुशी होती है कि परसाईजी की लगभग अस्सी प्रतिशत या उससे भी अधिक रचनाएं देशबन्धु में ही प्रकाशित हुई हैं। ऐसा नहीं कि वे सिर्फ कॉलम या व्यंग्य लेखन ही करते थे। समसामयिक घटनाचक्र पर उनकी पैनी नजर रहती थी और वे महत्वपूर्ण ताजा घटनाओं पर वक्तव्य या टिप्पणी जारी करते थे, जो देशबन्धु में ही प्रथम पृष्ठ पर छपती थी। परसाईजी तर्कप्रवीण थे और उनकी स्मरणशक्ति अद्भुत थी। उनके सामने पुस्तक या पत्रिका का कोई पन्ना खोलकर रख दीजिए। वे एक नजर डालेंगे और पूरी इबारत को हृदयंगम कर लेंगे। अपनी इस ''एलीफैंटाइन मेमोरी याने गज-स्मृति से वे हम लोगों को चमत्कृत कर देते थे। समसामयिक मुद्दों पर वे जो तात्कालिक प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे, वह भी लोकशिक्षण का ही अंग था। पाठकों की अपनी समझ उनसे साफ होती थी। जो लोग उन्हें सिर्फ व्यंग्यकार मानते हैं, वे उनके व्यक्तित्व के इस गंभीर पहलू की अनदेखी कर देते हैं।
यह एक उम्दा संयोग था कि परसाईजी और बाबूजी दोनों ने 1983 में एक साथ अपने स्थायी कॉलम प्रारंभ किए। बाबूजी ने ''दरअसल शीर्षक से सामयिक विषयों पर लेख लिखे। एक तरह से दोनों अभिन्न मित्रों के कॉलम एक दूसरे के विचारों को प्रतिबिंबित करते थे। बाबूजी के अखबारी लेखन की शुरूआत वैसे 1941-42 में हो चुकी थी, जब विद्यार्थी जीवन में उन्होंने वर्धा से हस्तलिखित पत्रिका ''प्रदीप की स्थापना की थी। बाद के सालों में एक के बाद एक कई अखबारों की स्थापना व उनके संपादन-संचालन की दौड़धूप में उनका नियमित लेखन बाधित हो गया था। लेकिन बीच-बीच में समय निकालकर जब वे लिखते तो उसमें उनकी गहरी समझ और अंतर्दृष्टि का परिचय मिलता। एक तरफ निरालाजी के निधन पर ''महाकवि का महाप्रयाण" ; दूसरी ओर रुपए के अवमूल्यन, वीवी गिरि के चुनाव; तीसरी ओर किसान ग्राम दुलारपाली पर फीचर आदि उनकी सर्वांगीण संपादकीय दृष्टि के उदाहरण हैं। नेहरूजी के निधन पर रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविता का जो त्वरित अनुवाद बाबूजी ने किया, मेरी राय में वह सर्वोत्तम अनुवाद है।
अपने स्तंभकारों की चर्चा करते हुए मैं राजनांदगांव के अग्रज साथी रमेश याज्ञिक का स्मरण करता हूं। रमेश भाई की हिंदी में हल्का सा गुजराती पुट था, लेकिन उनकी लेखन शैली अत्यन्त रोचक और बांध लेने वाली थी। उन्होंने टीजेएस जॉर्ज की लिखी वीके कृष्णमेनन की जीवनी का अनुवाद देशबन्धु के लिए किया था। हमारा एक प्रयोग उन दिनों बहुचर्चित और बहुप्रशंसित हुआ जब रमेश भाई ने गुजराती लेखक अश्विन भट्ट के रोमांचक उपन्यास ''आशका मांडल का अनुवाद किया और वह लगातार छब्बीस साप्ताहिक किश्तों में प्रकाशित हुआ। ऐेसे एक-दो अनुवाद उन्होंने और भी किए। उनके साप्ताहिक स्तंभ ''यात्री के पत्र को भी पाठकों से भरपूर सराहना मिली। वे उन दिनों अपने व्यापार के सिलसिले में लगातार दूर-दूर की यात्राएं कर रहे थे और उन अनुभवों के आधार पर किस्सागोई की शैली में भारतीय समाज की जीवंत और प्रामाणिक छवि उकेर रहे थे। रमेश भाई ने एक कथाकार के रूप में भी पर्याप्त ख्याति अर्जित की। प्रसंगवश बता दूं कि देशबन्धु में पहिला धारावाहिक उपन्यास 1965-66 में छपा था जो डॉ. सत्यभामा आडिल ने लिखा था। हृदयेश, मनहर चौहान आदि के उपन्यास भी हमने धारावाहिक प्रकाशित किए।
एक ओर जहां रायपुर व छत्तीसगढ़ में अनेक लेखक नियमित कॉलम के द्वारा देशबन्धु से जुड़े, वहीं जबलपुर में प्रकांड विद्वान प्रो. हनुमान वर्मा ने ''टिटबिट की डायरी शीर्षक कॉलम लिखा, कहानीकार-व्यंग्यकार सुबोध कुमार श्रीवास्तव ने भी व्यंग्य का कॉलम हाथ में लिया; उधर सतना में समाजवादी नेता जगदीश जोशी के अलावा लेखक कमलाप्रसाद, देवीशरण ग्रामीण, बाबूलाल दहिया, सेवाराम त्रिपाठी के साप्ताहिक स्तंभ भी अनेक वर्षों तक प्रकाशित होते रहे। छत्तीसगढ़ में रमाकांत श्रीवास्तव, बसन्त दीवान, रवि श्रीवास्तव, कृष्णा रंजन आदि मित्रों ने नियमित कॉलम लिखे। पुरुषोत्तम अनासक्त व परदेसीराम वर्मा के उपन्यास भी धारावाहिक छपे। डॉ. रमेशचंद्र महरोत्रा ने अनेक वर्षों तक ''दो शब्द स्तंभ निरंतर लिखा, जो पांच खंडों में दिल्ली से प्रकाशित हुआ। नागपुर के डॉ. विनय वाईकर व रायपुर के प्रो. खलीकुर्रहमान ने महाकवि गालिब के साथ-साथ उर्दू शायरी की श्रेष्ठता से पाठकों को परिचित कराया। मैंने अभी अपने संपादकीय सहयोगियों के लिखे स्तंभों का जिक्र नहीं किया है, और न देश के अनेक मूर्धन्य विद्वान स्तंभकारों का। कहानी अभी अधूरी है।
#देशबंधु में 08 अगस्त 2019 को प्रकाशित

1 comment:

  1. समाचार पत्रों में देशबन्धु ने पत्रकारिता के जो आयाम रचे, वो बाद के समय में कोई भी अखबार समूह नहीं कर सका. यदि देशबन्धु को सर्वश्रेष्ठ समाचार पत्र कहूं, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी.

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