Wednesday 2 October 2019

भक्ति, शक्ति, युक्ति, विभक्ति


भक्ति, शक्ति, युक्ति और विभक्ति- ये साधारण नहीं, अर्थगंभीर शब्द हैं। यहां इनका प्रयोग कविता की तुक मिलाने के लिए नहीं हो रहा है, बल्कि ये चार सूत्र हैं जिनके सहारे भारत के स्वर्णिम भविष्य की रचना की जा रही है। मोदीराजा की प्रजा का विकास का मंत्र इनमें निहित है। देश की आर्थिक खुशहाली के लिए ये चार मजबूत आधार स्तंभ हैं। आइए समझते हैं कि यह कैसे है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत एक धर्मप्रवण देश है। यहां जितने धर्म, संप्रदाय, पंथ, उपासना पद्धतियां, उपासना स्थल, ईश्वर, अवतार, देवी-देवता, अवतारी पुरुष, पर्व-व्रत, त्यौहार हैं, दुनिया में कोई अन्य देश या समाज उनका मुकाबला नहीं कर सकता। वहां सगुण और निर्गुण भक्ति दोनों के कई-कई स्वरूप हैं। सामान्यत: भक्ति से अर्थ परलोक सुधारने से लिया जाता है, किंतु हमारे यहां भक्ति के दो प्रमुख प्रकार हैं। पारलौकिक के अलावा इहलौकिक भक्ति की परिपाटी भी इधर कुछ वर्षों में चमत्कारी गति से विकसित हुई है। दोनों तरह की भक्ति के चलते देश ने जो तरक्की की है, उसका विधिवत अध्ययन अब तक नहीं किया गया है।अर्थशास्त्रियों को चाहिए कि वे इस दिशा में ध्यान दें। उनसे बेहतर कौन जानता है कि अर्थ और आस्था के बीच कितना गहरा, अन्योन्याश्रित संबंध है। ऐसा कौन सा तीर्थ है जहां मेला न भरता हो, और ऐसा कौन सा उपासना स्थल है जिसके साथ दो-चार-दस दूकानें न जुड़ी हों या अन्य व्यवसायिक गतिविधियों की गुंजाइश न हो?
यह ईश्वर में आस्था ही है जो हमें उपासना स्थलों के निर्माण के लिए प्रेरित करती है, भले ही उनमें देव प्रतिमा हो, न हो। यह निर्माण कितनी प्रक्रियाओं से गुजर कर पूरा होता है और इनमें कितने लोगों का श्रम निवेश होता है। नए निर्माण के साथ पुरानी निर्मितियों का जीर्णाेद्धार भी चलता रहता है। ईंट, सीमेंट, संगमरमर, ग्रेनाइट, पत्थर, बालू, सोना, चांदी, तांबा कितनी ही वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है। खदानों में काम चलता है।कारखानों में माल बनता है, भराई और लदान होता है, परिवहन के साधन लगते हैं, बड़े-छोटे मालवाहकों के चक्के घूमते हैं; बिजली-टेलीफोन, पानी का इंतजाम होता है, फूलमाला, फूल, चादर, ध्वजा, पताका, पोशाक, घंटे-घड़ि़याल, दीपदान, आरती, लोबान, मोमबत्ती, घी, तेल, सब कुछ की जरूरत पड़ती है। इसमें लाखों लोगों को रोजगार की प्राप्ति होती है। खदान मजदूर से लेकर ट्रक चालक तक, पंडे-पुजारी से लेकर याचक तक के जीवनयापन में इनकी महती भूमिका से भला कौन इंकार करेगा? ये जो सावन में लाखों लोग कांवड़ यात्रा पर निकल पड़ते हैं, उनसे रोजगार के अस्थायी ही सही, लेकिन कितने नए अवसर सृजित होते हैं। पकौड़ा इकॉनामी का ये अभिन्न अंग हैं।
कुछ दिन पहले एक अखबार ने अपने मुख्य शीर्षक में मोदीजी को ही बुद्ध की उपमा दे दी। इसके पहले ये देश के पिता घोषित हो चुके थे। इन्हें गौतम और गांधी का संयुक्त अवतार कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा! कितने लोगों को इहलोक इनकी भक्ति से सुधर रहा है। कम्प्यूटर जानने वाले कितने युवाओं को इनकी कृपा से काम मिल जाता है; सोशल मीडिया में ट्रॉल करने वाले हजारों जनों की रोजी-रोटी इसी के भरोसे चल रही है, जापान से लेकर अमेरिका तक, विवेक अग्निहोत्री से लेकर प्रसून जोशी इत्यादि तक, स्वयंसेवकों से लेकर एनआरआई व पीआईओ तक जिस उमंग-उत्साह से नित नए आयोजनों की श्रृंखला बनी है, वह वालमार्ट या मैक्डोनाल्ड से किस मायने में कम है? सोचकर देखिए, अगर यह सब न होता तो हमारे टीवी चैनल कैसे चलते? कितना अच्छा है कि सुबह आस्था आदि चैनलों पर रामदेव, रविशंकर आदि के प्रवचन सुनो और रात को न्यूज चैनल पर मोदी लीला देखने के बाद चैन की नींद सो जाओ। जो चौकीदार है, वही पिता है और उसकी शरण में हम बालकों को अभय मिला है।
हरि अनंत, हरिकथा अनंता। भक्ति की चर्चा को विश्राम देकर शक्ति के सूत्र पर दृष्टिपात करें। हम महाशक्ति बनने के पथ पर अग्रसर हैं। डीआरडीओ और ओएफबी आदि समय के साथ अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं। हमें अपनी सामरिक ताकत बढ़ाना है, ताकि घर और बाहर के शत्रुओं को मात दी जा के। सीबीआई, आईबी, बीएसएफ, सीआरपीएफ, एनआईए, थलसेना, नभसेना, जलसेना, सब अपनी-अपनी जगह मुस्तैद हैं; लेकिन अब एकीकृत कमांड की आवश्यकता है। मौका पड़े तो हम अपनी तरफ से अणुबम का उपयोग करने से भी नहीं हिचकेंगे। देश के भीतर भी जो हमारा विरोध करते हैं, उन्हें भी पता चल जाए कि उन्हें बख्शा नहीं जाएगा। क्या किसी को अनुमान है कि देश में कितने सीसीटीवी कैमरे लगे हैं और हर साल कितने नए कैमरे खरीदे जाते हैं? टेलीफोन टेप करने के लिए कौन से उपकरण लगते हैं और इस काम में कितने लोगों को रोजगार उपलब्ध होता है? अभी जब अडानी, अंबानी, टाटा, बिड़ला इत्यादि सैन्य साज-सामग्री का निर्माण करेंगे तो उससे कितनी नई नौकरियां युवाओं को मिल पाएंगी? सीआरपीएफ, सीआईएसएफ की नई बटालियन बनने से कितने युवाओं के परिवारों को फौरी राहत महसूस होती है? अभी तक हम अपने को ''सॉफ्ट पॉवर'' मान खुद को हीन समझते थे। मान लेना चाहिए कि शक्ति का यह नवोन्मेष भारत के लिए कल्याणकारी होगा।
और युक्ति? युक्ति याने जुगाड़। जुगाड़ में क्या वे बातें शामिल नहीं हैं जो नहीं करना चाहिए? मसलन- भ्रष्टाचार। लेकिन बताइए कि कौन सा देश-काल-समाज है, जो भ्रष्टाचार रहित हो। कौटिल्य के अर्थशास्त्र व कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम् तक में उत्कोच याने घूस का उल्लेख है। तो इस युक्ति से कितने ही लोगों का काम सध जाता है, कितनों की साध पूरी हो जाती है, समय और श्रम की बचत होती है, वैकल्पिक रोजगार के अवसर निर्मित होते हैं। लेकिन जब सरकार चली जाए, ओहदा छिन जाए और जांच बैठा दी जाए तब भी नए सिरे से बड़ी संख्या में लोगों को काम मिल जाता है। पुलिस वाले हथकड़ियां लेकर कलाइयां ढूंढने में लग जाते हैं, ईडी और सीबीआई में विशेष कक्ष स्थापित हो जाते हैं, कहीं वाइस सेंपल तो कहीं डीएनए टेस्ट, तो कहीं किसी फोरेंसिक जांच का समय आ जाता है। जेलखाने आबाद होने लगते हैं। कोर्ट-कचहरी में आवाजाही बढ़ जाती है। अस्पताल के कैदी कक्ष में भी सरगर्मियां होने लगती हैं। कितने सारे वकील कितने उनके असिस्टेंट, कितने स्टेनो-टाइपिस्ट, कितने अर्जीनवीस, फिर फोटो कॉपियर मशीनें, ए-फोर, ए-थ्री कागज की खपत, अखबारों की सुर्खियां। जीडीपी में बढ़ोतरी में इनके योगदान को तो रेखांकित करना ही होगा।
चौथे तथा अंतिम सूत्र याने विभक्ति को जान लेना शायद कठिन नहीं है। देश की सत्ता जिनके हाथों में है, वे एक स्वर्णिम अतीत की कल्पना में खोये हुए हैंऔर एक अखंड भारत उनका अभीष्ट है। उनका नक्शा बर्मा या म्यांमार से शुरू होकर अफगानिस्तान तक जाता है। नेपाल, तिब्बत व श्रीलंका भी इसी के भीतर हैं। इस नक्शे में चप्पे-चप्पे पर विचरण करती हुई आर्यजाति वैदिक संस्कृति का निर्माण करती है और इसमें कोई अन्य धर्म या दर्शन नहीं है, बौद्ध धर्म भी नहीं। यह दंतकथाओं में खोया लोक है, जिसकी पुनर्प्राप्ति के लिए यज्ञ चल रहा है- असम में, काश्मीर में, आदिवासी प्रांतरों में। एक बहुमत है जो अपना है। एक अल्पमत है जो पराया है।
असम में राष्ट्रीय नागरिकता पंजी बन गई है और देश के अन्य प्रांतों में भी उसका अनुकरण किया जाएगा। आदिवासी दरअसल वनवासी हैं; नागर समाज उनका आखेट करने के लिए स्वतंत्र है और रोकने वाले राजद्रोह के अपराधी हैं। काश्मीर याने काश्मीर घाटी हमारी है, जहां नीलमत पुराण और राजतरंगिणी के साक्ष्य ही मान्य हैं, तथा हम व्यग्र हैं कि वहां के सदियों के वासियों को इस पवित्र भूमि का परित्याग कर अन्यत्र चले जाना चाहिए। यक्ष प्रश्न है कि जब पी.ओ.के. पर आधिपत्य कर लेंगे, तब वहां के निवासियों का प्रत्यार्पण कहां किया जाएगा! फिलहाल, काश्मीर में सात लाख के लगभग सैनिक-अर्द्धसैनिक बल तैनात हैं; असम में नए बंदीगृह बनाए जा रहे हैं; सरकार, पुलिस, वकील, पत्रकार, मानव अधिकार कार्यकर्ता, राजनैतिक दल सबको व्यस्त रहने का जायज कारण मिल गया है। कुल मिलाकर चार सूत्रों का पालन करते हुए देश तरक्की कर रहा है।
#देशबंधु में 3 अक्टूबर 2019 को प्रकाशित

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