Saturday, 11 July 2020

देशबन्धु: चौथा खंभा बनने से इंकार-5

उस दिन मैंने सुबह-सुबह बंबई से रायपुर आने के लिए गीतांजलि एक्सप्रेस पकड़ी थी। शायद 78-79 की बात होगी। नई-नई ट्रेन चली थी और आरक्षण मिलना अपेक्षाकृत आसान था। शाम 7 के बजे के आसपास ट्रेन नागपुर पहुंची। ऊंचे-पूरे सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी एक यात्री ने मेरी बोगी में प्रवेश किया। टीटीई उनके पीछे-पीछे आ रहा था। यात्री ने बर्थ के रेक्जीन को छूकर देखा। टीटीई की तरफ प्रश्न उछाला, 'इससे बेहतर बर्थ नहीं है?' 
- 'जी, इस ट्रेन में सभी डिब्बे 3- टियर हैं, और कोई श्रेणी नहीं है।' 
'ठीक है, रायपुर तक जाना है, किसी तरह चले जाएंगे।' 
'सर, टिकट बना दूं?' 
'हां, बना दो।' फिर उन्होंने अपने कुरते और जैकेट की जेब टटोली, खाली थी। 
'तुम रायपुर तक चल रहे हो?' टीटीई से पूछा। 
'जी, बिलासपुर तक जाऊंगा।' 
'तब ठीक है, रायपुर में पैसे ले लेना।' 
रात करीब एक बजे ट्रेन रायपुर पहुंची। उन्हें लेने पांच-सात लोग आए थे, उनमें से किसी ने टिकट के पैसे चुकाए। मैं उन सज्जन को जानता था। वे भी मुझे अच्छे से जानते थे। लेकिन मैं जानबूझ कर दूर बैठा दर्शक बना हुआ था।

वे श्यामाचरण शुक्ल थे। तब तक मध्यप्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री रह चुके थे। उनके स्वभाव में एक तरफ नफासत थी, दूसरी तरफ फक्कड़पना भी था। वे नाराज भी जल्दी होते थे और उतनी ही जल्दी पिघल भी जाते थे। उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा असीमित तो थी, लेकिन मध्यप्रदेश के आकाश तक। उन्होंने दिल्ली जाने का ख्याल कभी नहीं रखा। उन्हें लोगों से मिलने-जुलने में आनंद आता था, लेकिन जनता को 'दर्शन' देने की सामंती ठसक भी उनमें थी। शुक्ल जी नागपुर के विधि महाविद्यालय में बाबूजी से एक साल जूनियर थे और कम्युनिस्ट नेता ए बी बर्धन उनके सहपाठी थे। रविशंकर शुक्ल के मुख्यमंत्री रहते हुए भी बर्धनजी ने शुक्लजी को विवि छात्रसंघ चुनाव में पराजित किया था। जब श्री बर्धन मुख्यमंत्री के पास छात्रसंघ के शपथग्रहण के लिए मुख्य अतिथि का न्यौता देने गए तो निमंत्रण उन्होंने स्वीकार कर लिया था। यह सीनियर शुक्ल जी की उदारता थी कि बच्चों की राजनीति में बड़े क्यों हस्तक्षेप करें! यह उदारता श्यामाचरणजी में भी किसी न किसी रूप में आई।

मैं अनेक दृष्टियों से श्यामाचरणजी का सम्मान करता रहा हूं- मुख्यमंत्री, आयु, बाबूजी के सहपाठी, निर्मल हृदय आदि। इसके बावजूद उनके साथ कभी-कभार मेरी टकराहट हुई, लेकिन कभी लंबी नहीं खिंची। इस लेख माला के प्रथम खंड में मैं लिख चुका हूं कि 1969 में नगरीय निकायों के चुनाव को लेकर मैंने रायपुर में एक मुहिम छेड़ दी थी, जिसकी शिकायत उन्होंने बाबूजी से की थी कि ललित मेरे खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं। लेकिन इस बात को उन्होंने मन में नहीं रखा। एक लंबे अर्से बाद जब शुक्लजी कांग्रेस से निष्कासित रहने के बाद पार्टी में वापस लौटे, और रायपुर में उनके जोरदार स्वागत की तैयारी शुरु हुई, उसी दिन मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी, जो शुक्ल जी के रिश्तेदार भी थे, ने जाने किस भ्रम में गलत खबर छाप दी कि उनका रायपुर आना स्थगित हो गया है। इस खबर से देशबन्धु की साख पर आंच आनी ही थी, शुक्लजी के स्वागत समारोह के फीके पड़ जाने की आशंका भी थी। बहरहाल, वे निर्धारित समय पर रायपुर आए। मेरी अगले दिन ही शाम को चाय पर मुलाकात तय हुई। हम बातें कर ही रहे थे कि उनके सुपुत्र अमितेश ने कमरे में प्रवेश किया और गलत खबर के बारे में शिकायत की। शुक्लजी ने शांत स्वर में एक वाक्य में बेटे को चुप किया। बड़ों के बीच में नहीं बोलते हैं, तुम बाहर जाओ। मैं जब वर्तमान में राजनेताओं के व्यवहार को देखता हूं तो इस प्रसंग से तुलना करने का अनायास मन हो जाता है।

पं.रविशंकर शुक्ल का निधन 31 दिसम्बर 1956 को हुआ। कुछ ही सप्ताह बाद आम चुनाव होने थे। श्यामाचरण को विधानसभा और विद्याचरण को लोकसभा का टिकट मिला। दोनों ने जीत दर्ज की। 2007 में दोनों भाइयों की राजनीति को 50 साल पूरे हुए। उनके साथ अर्जुन सिंह और जमुना देवी के भी 5 दशक पूरे हुए। मैंने तब दोनों भाइयों के राजनैतिक सफर पर एक लेख लिखा था, जो देशबन्धु लाइब्रेरी में पुरानी फाइलों में देखा जा सकता है। श्यामाचरण जी के बारे में बात करते हुए कुछ बातें याद आती हैं। एक तो छत्तीसगढ़ के प्रखर समाजवादी नेता वी वाय तामस्कर इन दोनों भाईयों को छत्तीसगढ़ की राजनीति के दो राजकुमार कहकर संबोधित करते थे। देशबन्धु के संपादक पं.रामाश्रय उपाध्याय जब-तब अपने कॉलम में इसी उपमा का प्रयोग कर शुक्ल बंधुओं की आलोचना कर देते थे। श्यामाचरणजी ने इस बात का बुरा नहीं माना लेकिन कभी-कभार वे बेहद मामूली बात का भी बुरा मान बैठते थे। मसलन किसी दिन नवभारत में उनका बयान पहले पेज पर या फोटो सहित छपा, दूसरी ओर देशबन्धु में आखिरी पेज पर या बिना फोटो के छपा तो वे मुझे फोन करके शिकायत करते थे। ललित, आजकल तुम्हारे पेपर में ठीक से रिपोर्टिंग नहीं हो रही है।

इसी तरह कभी कम्युनिस्ट विधायक सुधीर मुखर्जी का वक्तव्य प्रथम पेज पर और उनका आखिरी पेज पर छप जाए तो भी वे बुरा मान जाते थे। ऐसे समय में उनसे इतना कहना पर्याप्त होता- ठीक है, देख लूंगा, आगे से गलती नहीं होगी। और वे संतुष्ट हो जाते थे। दिलचस्प तथ्य है कि वे फोन मुझे करते थे लेकिन हमेशा पूछते बाबूजी के बारे में थे। ललित, मायारामजी हैं? जी, वे तो रायपुर से बाहर हैं। बंबई गए हैं, इत्यादि। अच्छा ठीक है, फिर तुमसे ही बात कर लेता हूं। यह बड़प्पन जताने का उनका अपना तरीका था। मैं इस मासूम अदा पर मन ही मन मुस्कुराने के अलावा और क्या कर सकता था? उन्हें अपने राजनीतिक कद का भरपूर अहसास था और इसे व्यक्त करने से वे कभी नहीं चूकते थे। वे तीन बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे और बात-बात में कोई बात पसंद न आने पर वे अफसरों को सीधे कहते थे- मैं चौथी बार मुख्यमंत्री बनकर आऊंगा, तब तुम लोगों के दिमाग ठिकाने लगाऊंगा। अफसर भी जानते थे कि इस बात को कितनी गंभीरतापूर्वक लेना चाहिए।

मेरे बुजुर्ग मित्र डॉ. रामचंद्र सिंहदेव ने मध्यप्रदेश के छह मुख्यमंत्रियों के साथ मंत्रिमंडल में काम किया। उनके संस्मरण 'सुनी सब की, करी मन की' देशबन्धु में छपे हैं। वे कहते थे- श्यामाचरण के पास प्रदेश के विकास की जो दृष्टि है, वह किसी अन्य के पास नहीं है। इस आकलन से शायद ही कोई असहमत होगा। श्री शुक्ल जानते थे कि प्रदेश में सिंचाई सुविधाओं के विस्तार के बिना किसान और आम आदमी की आर्थिक बेहतरी का और कोई उपाय नहीं है। उन्होंने अपने कार्यकाल में इस दिशा में भरपूर ध्यान दिया। प्रदेश में जगह-जगह बड़े-छोटे बांध बने। इस मामले में उनकी दृष्टि एक इंजीनियर की थी, यानी जो योजनाएं हाथ में ली गईं, उनका बाकायदा अध्ययन किया गया। कहीं भी  कुछ भी कर देना है, ऐसा नहीं था। इसका एक अपवाद ध्यान में है।

तेजी से बढ़ते इंदौर शहर की जलापूर्ति के लिए उन्होंने नर्मदा का पानी इंदौर पहुंचाने की योजना भी बनाई। इस तरह अपनी ससुराल को एक तोहफा दिया। उनके इस निर्णय से इंदौर को फौरी राहत मिली, लेकिन योजना तकनीकी रूप से दीर्घकालीन लाभदायक सिद्ध नहीं हुई। उनके विचारों में कभी-कभी पुरातनपंथी सोच भी नजर आती थी। छत्तीसगढ़ और झारखंड को सड़क मार्ग से जोड़ने के लिए जशपुर के आगे शंख नदी पर पुल बनना था, जिसे उन्होंने वर्षों नहीं बनने दिया कि बिहार के लोग मध्यप्रदेश आकर अपराध करेंगे और पुल पार कर भाग जाएंगे। यह पुल न बनने से दोनों तरफ के नागरिकों को कितनी असुविधाएं होती रही होंगी, इस बारे में उन्होंने सोचना जरूरी नहीं समझा।   
(अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 09 जुलाई 2020 को प्रकाशित

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