Friday, 20 July 2012

अर्जुनसिंह की आत्मकथा


भारतीय राजनीति में इन दिनों जैसे बड़बोलेपन का दौर चला हुआ है, उसमें यह देखकर आश्चर्य हो सकता है कि अभी एक-सवा साल पहले तक इस परिदृश्य में अर्जुनसिंह जैसे राजनेता मौजूद थे जो बात कम और काम ज़्यादा के सिध्दांत में भरोसा रखते थे। उनसे मिलने वालों को अक्सर इस बात से असुविधा होती थी कि उनके साथ कैसे संवाद स्थापित किया जाए, लेकिन जिन्होंने अर्जुन सिंह को कुछ निकट से देखा है वे बता सकते हैं कि वे जितना भी बोलते थे उसमें वजन होता था। इधर कुछ समय से उनकी प्रकाशनाधीन आत्मकथा को लेकर चर्चाएं हो रही थीं। अपने आपको राजनीति का पंडित समझने वाले बहुत से लोगों का मानना था कि उनकी आत्मकथा में प्रचुर मात्रा में विस्फोटक सामग्री होगी और उसके चलते कांग्रेस के प्रथम परिवार को असुविधा का सामना करना पड़ेगा। लेकिन पुस्तक बाजार में आ चुकी है और ऐसे लोगों को निराशा ही हाथ लगी है। 

अर्जुन सिंह की आत्मकथा का शीर्षक भारी-भरकम है- ''अ ग्रेन ऑफ सेंड इन द अवरग्लास ऑफ टाइम'' इसका हिन्दी अनुवाद शायद कुछ इस तरह होगा- ''महाकाल के घट में रेत का एक कण''। यह शीर्षक ही प्रकट करता है कि श्री सिंह ने भले ही भारतीय राजनीति में एक लंबे समय तक बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो, वे अपने आपको ऐसे अभिनेता के रूप में याद किया जाना पसंद करते हैं जिसने निर्धारित समय पर अपना रोल अदा किया और उसके बाद वापिस नेपथ्य में चला गया। लगभग चार सौ पृष्ठों की इस पुस्तक में जगह-जगह पर उनका यह भाग्यवादी स्वर प्रतिध्वनित होता है। अर्जुन सिंह ने चौवन साल तक सक्रिय राजनीति की। इस लंबे दौर में उन्होंने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे। वे अनेक ऐतिहासिक प्रसंगों के साक्षी रहे। इस नाते आत्मकथा का आकार वर्तमान स्वरूप से दुगुना हो सकता था लेकिन लेखक ने बहुत से प्रसंगों को अनछुआ छोड़ दिया है। यह क्या इसलिए कि वे अपने नजरिए से कुछेक अधिक महत्वपूर्ण प्रसंगों में ही अपनी भूमिका को रेखांकित करना चाहते थे? बाकी तो राजनीतिक इतिहास के अध्येता अपने-अपने हिसाब से आगे-पीछे लिखेंगे ही।

प्रसंगवश उल्लेख करना उचित होगा कि श्री सिंह के 75वीं सालगिरह पर उनके वक्तव्यों, भाषणों और उन पर लिखे गए लेखों का एक वृहद संकलन दस भागों से प्रकाशित हुआ था। इसके पश्चात लेखक-पत्रकार कन्हैयालाल नंदन ने उन पर हिन्दी में एक पुस्तक संपादित की थी, फिर पत्रकार रामशरण जोशी ने भी उनकी एक जीवनी दो-तीन साल पहले ही लिखी। इन दोनों पुस्तकों की प्रकाशन के तुरंत बाद थोडी-बहुत चर्चा हुई, लेकिन दोनों ही अपने चरित्र नायक के साथ पूरी तरह से न्याय नहीं कर सकीं। जहां तक दस खण्डों के संकलन का प्रश्न है उसका अध्ययन एक आवश्यक संदर्भ सामग्री के रूप में यथासमय किया जाएगा। यहां नोट करना उचित होगा कि मायाराम सुरजन ने अपनी पुस्तक ''मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश के'' में 1947 से लेकर 1990 तक के मुख्यमंत्रियों पर संस्मरण शैली में जो लेख लिखे हैं उनमें स्वाभाविक ही अर्जुन सिंह भी शामिल हैं।

बहरहाल अर्जुन सिंह की आत्मकथा एक महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में हमारे सामने आती है। इसमें उन्होंने अपने निजी जीवन और परिवार आदि के बारे में बहुत ही कम लिखा है। 1957 में पहली बार विधायक बनने से लेकर 1980 में मुख्यमंत्री बनने के बीच का जो समय है उस पर भी उन्होंने बहुत विस्तार से लिखना जरूरी नहीं समझा। हां, 1980 में मुख्यमंत्री बनने से लेकर मृत्यु के कुछ समय पहले तक राजनीति की जो दशा-दिशा रही है उसमें से उन्होंने कुछ अहम् प्रसंगों को उठाया है और बहुत सी बातों को संभवत: उल्लेखनीय न मानते हुए छोड़ दिया है। इन तीन दशकों में भारत के सामने बहुत सी नई चुनौतियां आईं- अलगाववाद, आतंकवाद, नक्सलवाद, आर्थिक नवउदारवाद, साम्प्रदायिकता का उभार, भोपाल गैस त्रासदी आदि। इन प्रसंगों पर उन्होंने विस्तार से प्रकाश डाला है। 1985 में वे मप्र के पहले ऐसे मुख्यमंत्री बने जिसने न सिर्फ अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया बल्कि दुबारा शानदार जीत हासिल की; यही नहीं, लोकसभा की चालीस में चालीस सीटें जीतीं, लेकिन इसके तुरंत बाद उन्हें पंजाब का राज्यपाल बनाकर भेज दिया गया। वे पंजाब में एक साल से भी कम समय तक राज्यपाल रहे, लेकिन इतनी सी अवधि में राजीव-लोंगोवाल समझौता करवाकर उन्होंने पंजाब में शांति स्थापना की मजबूत नींव डाली। इस बारे में वे अपनी भूमिका का जिक्र बिना कोई श्रेय लिए करते हैं। इसके कुछ समय बाद ही वे राजीव-लालडेंगा समझौता करवाकर मिजोरम में शांति स्थापना में अहम् भूमिका निभाते हैं, लेकिन इसका उल्लेख भी वे जैसे एक सामान्य घटना हुई, हो इस तरह करते हैं।

मध्यप्रदेश में विधायक, मंत्री, विपक्ष के नेता और मुख्यमंत्री रहते हुए उनके जो अनुभव हैं उनका जिक्र आत्मकथा में होता है, लेकिन यहां भी वे अपने विरोधियों के बारे में लिखते हुए अद्भुत संयम का परिचय देते हैं। प्रदेश की राजनीति में जो उथल-पुथल मचती रही उसका वर्णन करने में वे कोई रुचि नहीं दिखाते, जबकि यह सबको पता है कि अर्जुनसिंह के जीवनकाल में उन पर उनके विरोधी लगातार किस तरह से राजनीति की मर्यादा के परे जाकर आक्रमण करते रहे। भोपाल गैस त्रासदी के बारे में वे विस्तारपूर्वक उल्लेख करते हैं और संकेतों में बता देते हैं कि वॉरेन एण्डरसन को वापिस जाने देने का निर्णय तत्कालीन गृहमंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव का ही था। इस बारे में उन्होंने 11 अगस्त 2010 को राज्यसभा में दिए अपने वक्तव्य को संपूर्णता में उपलब्ध किया है।

अर्जुन सिंह ने बाबरी मस्जिद विध्वंस, कांग्रेस से निष्कासन और तिवारी कांग्रेस के गठन पर भी विस्तार से प्रकाश डाला है। इसमें यह तथ्य उभर कर आता है कि श्री सिंह बार-बार प्रधानमंत्री को साम्प्रदायिकता और साम्राज्यवाद के खतरों से आगाह कर रहे थे, लेकिन श्री राव अपने इस मंत्रिमण्डलीय सहयोगी की बात सुनी-अनसुनी कर दे रहे थे। श्री राव के इस रुख का जो नतीजा देश को और कांग्रेस पार्टी को भुगतना पडा वह सबके सामने है। इस आत्मकथा को पढ़ने के बाद एक ओर तो श्री सिंह के राजनीतिक विवेक और औदार्य का परिचय मिलता है तो दूसरी ओर यह भी स्पष्ट होता है कि वे किस तरह नेहरू-इंदिरा की वैचारिक विरासत को समृध्द करने में लगे रहे। अफसोस कि सोनिया गांधी इस बात को या तो समझ नहीं पाईं या समझकर भी मजबूर थीं!

देशबंधु में 19 जुलाई 2012 को प्रकाशित 



Wednesday, 11 July 2012

राष्ट्रपति चुनाव: वामपंथ की उलझन

आसन्न राष्ट्रपति चुनाव को लेकर यूपीए और एनडीए के बीच जो मतभेद हैं वे तो जनता के सामने आ ही गए हैं, वाममोर्चा भी इस मुद्दे पर एक राय कायम करने में असफल रहा है। इस बारे में मोर्चे के दो प्रमुख दलों याने माकपा और भाकपा के अपने-अपने तर्क हैं और अपनी-अपनी दृष्टि हैं। माकपा के राष्ट्रीय महासचिव प्रकाश करात ने पिछले दिनों एक लेख प्रकाशित किया है (देखिए देशबन्धु 4 जुलाई, राष्ट्रपति चुनाव और वामपंथ) जिसमें उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए प्रणब मुखर्जी को समर्थन देने के पीछे कारण गिनाए हैं। माकपा यह मानती है कि प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने या न बनने से यूपीए सरकार की आर्थिक नीतियों में कोई बदलाव आने वाला नहीं है, लेकिन पार्टी मुख्य तौर पर धर्मनिरपेक्ष नीतियों के आधार पर एनडीए के बजाय यूपीए उम्मीदवार को समर्थन देना बेहतर समझ रही है।

श्री करात ने अपने लेख में इस बात को खुलकर ही स्वीकार किया है कि पश्चिम बंगाल में अपने घटते हुए जनाधार को थामने के लिए और वहां मतदाताओं के बीच वापिस अपनी पकड़ मजबूत बनाने के लिए स्थानीय भावनाओं का आदर करते हुए श्री मुखर्जी का समर्थन करना माकपा के लिए एक तरह से आवश्यक हो गया है। माकपा महासचिव के इन तर्कों में दम है, लेकिन एक तो वे इस बात का खुलासा नहीं करते कि पश्चिम बंगाल में ही पार्टी का युवा वर्ग इस निर्णय से सहमत नहीं है। माकपा के एक ओजस्वी प्रवक्ता प्रसेनजीत बसु ने खुलकर विद्रोह करते हुए इसी बिना पर पार्टी से इस्तीफा दे दिया है; वहीं पार्टी की छात्र इकाई स्टूण्डेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया के एक वर्ग ने मुखर्जी को समर्थन दिए जाने के खिलाफ कोलकाता में प्रदर्शन किए हैं। अभी यह बात भी पूरी तरह स्पष्ट नहीं हुई है कि माकपा के जनाधार वाले दूसरे राज्य याने केरल में इस पर क्या रुख है। खैर इतना तो तय है कि माकपा के शत-प्रतिशत वोट  श्री मुखर्जी को मिलेंगे। यहां इस विडंबना की ओर ध्यान जाए बिना नहीं रहता कि यह वही पार्टी है जिसने सोलह साल पहले अपने सबसे कद्दावर नेता ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया था। उस समय प. बंगाल में निरंतर दो तिहाई बहुमत पा रही पार्टी के प्रकाश करात जैसे नेताओं ने यह सोचने की तकलीफ नहीं उठाई थी कि प्रदेश में पार्टी का जनाधार बनाने में ज्योति बाबू की कितनी अहम् भूमिका थी। अब दूसरे के घोड़े पर दांव लगाकर पार्टी खुशी का सामान जुटाने में लगी है। 

जहां तक भाकपा का सवाल है अब तक के संकेत यही हैं कि पार्टी किसी भी उम्मीदवार का समर्थन न कर मतदान का बहिष्कार करेगी। दो अन्य घटक दलों में फॉरवर्ड ब्लाक यदि माकपा के साथ है तो आरएसपी भाकपा का साथ दे रही है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने मतदान से दूर रहने का निर्णय क्यों लिया, इस बारे में पार्टी की ओर से कोई अधिकृत  बयान जारी हुआ हो तो वह मैं नहीं देख सका हूं। लेकिन इस बारे में कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि कांग्रेस और भाकपा के बीच संबंध सामान्य तौर पर अच्छे ही रहे हैं। दरअसल कांग्रेस यदि नेहरू के रास्त पर चले तो उसमें और भाकपा में व्यवहारिक तौर पर काफी समानताएं देखी जा सकती हैं। 

2004 में भाकपा यूपीए सरकार में शामिल होने तक के लिए तैयार थी, लेकिन माकपा के विरोध के चलते उसने यह अवसर हाथ से जाने दिया। यह तर्क दिया गया कि ऐसा उसने वामपंथी एकजुटता के लिए किया। मेरे जैसे अध्येताओं की राय में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री न बनने देने के बाद माकपा की यह दूसरी गलती थी। खैर जो हुआ सो हुआ। 2007 में जब राष्ट्रपति चुनाव हुआ तो ऐसा समझा जाता है कि प्रतिभा पाटिल का नाम तय करने में भाकपा  के तत्कालीन राष्ट्रीय महासचिव ए.बी. बर्ध्दन की भी भूमिका थी। यूं उनकी पहली पसंद शायद अर्जुन सिंह या प्रणब मुखर्जी ही थे। वैसे भाकपा भले ही यूपीए सरकार का विरोध करती रही हो, लेकिन व्यक्तिगत तौर पर श्री मुखर्जी के साथ पार्टी के संबंध लगातार ठीक रहे। फिर ऐसी क्या बात है कि भाकपा  श्री मुखर्जी का समर्थन नहीं कर रही है?

दरअसल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एक लंबे समय से आदिवासी क्षेत्रों में अपना प्रभाव स्थापित करने में लगी हुई है। स्मरणीय है कि भाकपा के युवा नेता मनीष कुंजाम इन दिनों अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के अध्यक्ष हैं। आंध्र, उड़ीसा, झारखंड नागालैण्ड, छत्तीसगढ़, विदर्भ इत्यादि आदिवासी बहुल इलाकों में सीपीआई चुनाव भले ही न जीत पाती हो, इन जगहों पर जनांदोलनों में वह अग्रणी भूमिका निभा रही है। छत्तीसगढ़ में तो उसे विकट स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। एक तरफ उसके कार्यकर्ता भाजपा सरकार और सुरक्षा बलों के  निशाने पर रहते हैं, तो दूसरी तरफ उसे नक्सलियों का विरोध झेलना पड़ता है। इस तस्वीर को यूं भी देखा जा सकता है कि आज अगर आदिवासियों के जीवन मूल्यों और व्यावहारिक हितों की पैरवी करने वाली कोई पार्टी है तो वह भाकपा ही है। इस स्थिति में पार्टी के लिए यह मुश्किल है कि वह राष्ट्रपति पद के आदिवासी उम्मीदवार पी.ए. संगमा का सीधे-सीधे विरोध करे। चूंकि श्री संगमा को एनडीए ने दत्तक ले लिया है इसलिए वह उनका समर्थन भी नहीं कर सकती। इस वास्तविकता के मद्देनजर मतदान से अलग रहना ही पार्टी को एक सुविधाजनक विकल्प समझ आया होगा। यह संभव है कि आने वाले दिनों में संगमा, आदिवासियों का मंच बनाकर अपने लिए किसी और भूमिका की तलाश करें तब भाकपा के साथ उनकी युति शायद किसी न किसी रूप में जम जाए!

आगे चलकर जो भी हो अभी तो श्री मुखर्जी और श्री संगमा दोनों जोर-शोर से अपने-अपने प्रचार में लगे हुए हैं। दोनों प्रत्याशी एक-एक प्रदेश में जाकर विधायकों से अपने लिए समर्थन मांग रहे हैं। यह एक नया ही नजारा देखने में आ रहा है। हमें लेकिन इस बात का अफसोस है कि श्री मुखर्जी के विरोध को अनावश्यक रूप से खींचा जा रहा है। 2007 में श्रीमती पाटिल के बारे में तरह-तरह की अंफवाहें उड़ाई गई थीं। इस बार ऐसे आरोप लगाए जा रहे हैं जिन्हें स्तरहीन ही कहा जा सकता है। मुझे सबसे ज्यादा हैरत तो स्टेट्समेन में वरिष्ठ पत्रकार सैम राजप्पा के लेख को पढ़कर हुई जिसमें उन्होंने कहा है कि सोनिया गांधी ईसाई को राष्ट्रपति बनाना चाहती हैं और उनके एक इशारे पर पाँसा पलट सकता है। मैं नहीं जानता कि इस तरह की चर्चाएं फैलाने से किसका भला हो रहा है!!


देशबंधु में 12 जुलाई 2012 को प्रकाशित 

Wednesday, 4 July 2012

राजनीति में वंचित समाज के लिए जगह कहाँ?

राष्ट्रपति चुनाव में आदिवासी उम्मीदवार और अपने पुराने मित्र पी.ए. संगमा का खुला समर्थन कर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अरविन्द नेताम ने इस प्रौढावस्था में अपना राजनीतिक भविष्य, जितना भी बाकी है, खतरे में डाल दिया। कहा जा सकता है कि उन्होंने जानते-बूझते अपने लिए मुसीबत मोल ली। कांग्रेस ने उन्हें पार्टी की सदस्यता से तो निलंबित कर ही दिया है, हो सकता है कि आगे कोई और बड़ी कार्रवाई हो। हम यह समझना चाहते हैं कि 1971 में मात्र उनतीस या तीस वर्ष की आयु में जिस व्यक्ति को इंदिरा गांधी ने अपने मंत्रिमण्डल में शामिल किया उसे आज की कांग्रेस पार्टी संभालकर क्यों नहीं रख सकी! इसी प्रश्न से दूसरा बड़ा सवाल उठता है कि कांग्रेस हो या भाजपा या अन्य कोई दल- उसमें आदिवासियों के लिए कितनी जगह है। 

सच पूछा जाए तो इस प्रसंग से उजागर होता है कि भारत की राजनीतिक दलों में आंतरिक जनतंत्र किस तरह कमजोर है और उसमें समाज के कमजोर वर्गों की हैसियत किस तरह दोयम दर्जे की बना दी गई है। ऐसा क्यों हुआ है कि किसी भी पार्टी में आदिवासी, दलित व हाशिए के अन्य समुदायों को राजनीति में निर्णायक अथवा प्रबल भूमिका निभाने के लिए या तो तैयार किया ही नहीं गया या उन्हें स्वयं तैयार होने का अवसर नहीं दिया गया।  पी.ए. संगमा, गिरधर गोमांग, अमर सिंह चौधरी और अरविंद नेताम- ये कुछ आदिवासी नेता हैं जो सत्तर के दशक में उभरे। इनमें पी.ए. संगमा ही केन्द्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण हैसियत हासिल कर सके। बाकी के साथ राजनीति के भीतर लगभग वैसा ही व्यवहार हुआ जैसा आम जीवन में प्रभुत्वशाली वर्ग बस्तर या झाबुआ के आदिवासियों के साथ करता है।

हमारी सामाजिक व्यवस्था में यह पहले से ही मान लिया जाता है कि दलित, आदिवासी या किसान किसी काबिल नहीं हैं। चूंकि संविधान ने उन्हें अधिकार दिए हैं इसलिए एक मजबूरी के तहत ही उन्हें बर्दाश्त किया जाता है। वंचित समाज के नेता यदि अपनी जिम्मेदारियों में कहीं असफल सिध्द होते हैं तो उस बात को बढ़ा-चढा कर पेश किया जाता है। वंचित समाज का कोई सरकारी कर्मचारी यदि कम रिश्वत लेता है तो भी उसका मजाक उड़ाया जाता है कि उसमें हिम्मत की कमी है। उनकी वास्तविक या प्रचारित गलतियों को भी बढा-चढ़ाकर पेश किया जाता है। बाबू जगजीवन राम पर आयकर रिटर्न जमा न करने के आरोप को लंबे समय तक चटखारे लेकर सुनाया जाता रहा; और भाजपा के दलित अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण तहलका कांड में फंसे तो पार्टी ने उनसे एकदम किनारा कर लिया। दूसरी तरफ जब उच्च वर्ग के व्यक्ति कदाचरण के दोषी पाए जाते हैं तो उस पर तुरंत आवरण डाल दिया जाता है।

यदि तर्क के लिए मान लिया जाए कि आदिवासी अथवा वंचित समाज के नेताओं में काबिलियत का अभाव है तो सवाल उठता है कि इस स्थिति को सुधारने के लिए उनकी पार्टी ने क्या किया। क्या यह दोष उन लोगों का नहीं है जिसके हाथ में देश की राजनीति की बागडोर है? यहां हम जमुनादेवी और रेशमलाल जांगड़े के उदाहरण ले सकते हैं। एक आदिवासी महिला और एक दलित- इन दोनों ने 1952 में अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। जमुना देवी का पिछले साल ही निधन हुआ और उन्हें म.प्र. विधानसभा में विपक्ष के नेता से बड़ा कोई पद नहीं मिल पाया, जबकि श्री जांगडे क़ो लोकसभा के साठ साल होने पर सम्मानित होने का अवसर तो मिला लेकिन वे भी राजनीति में पूरी जिन्दगी बिताने के बाद कोई खास पहचान नहीं बना पाए। कारण साफ है। इन्हें जानबूझकर आगे बढने से रोका गया। इस आरोप के समर्थन में सबसे बडा प्रमाण बाबू जगजीवन राम के रूप में हमारे सामने है। वे तो हर दृष्टि से एक योग्य और कुशल राजनेता और प्रशासक थे। आज जिस तरह प्रणब मुखर्जी की खूबियां को गिना-गिना कर उन्हें राष्ट्रपति पद के लिए सर्वथा उपयुक्त प्रत्याशी माना जा रहा है, तो जगजीवन राम उनसे भी कहीं यादा योग्य थे, लेकिन न कांग्रेस और न जनता दल (जिसमें तब का जनसंघ और आज की भाजपा शामिल थी) ने उन्हें न तो राष्ट्रपति बनाने की सोची, न प्रधानमंत्री पद पर उनकी उम्मीदवारी स्वीकार की।

जनतांत्रिक राजनीति के मंच पर अपने को हमेशा नेपथ्य में अथवा छोटी-छोटी भूमिका में देखने से जो असंतोष उभरा उसी का परिणाम है कि कांशीराम के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी बनी और उसकी ताकत जितनी भी है, आज दिखाई दे रही है। इसी तरह आदिवासियों ने भी अपने लिए एक स्वतंत्र मंच की बुनियाद रखना शुरू कर दिया है। श्री संगमा की उम्मीदवारी इस तैयारी का ही संकेत है। यह लगभग तय है कि प्रणब मुखर्जी जीत जाएंगे, लेकिन श्री संगमा हारने के बाद भी आदिवासियों के बीच नेतृत्व का केन्द्र बिन्दु बनकर उभरेंगे। यह ठीक है कि आदिवासी नेताओं ने शायद अपनी रणनीति भलीभांति तैयार नहीं की, लेकिन कांग्रेस और भाजपा में जो बड़े-बड़े नेता बैठे हैं, उन्होंने भी तो ये नए संकेत पढ़ने की परवाह नहीं की। सोनिया गांधी अगर चाहतीं तो आदिवासी नेताओं को बुलाकर बात कर सकती थीं और शायद पी.ए. संगमा को इस बार उपराष्ट्रपति पद देकर सुंदर समन्वय स्थापित किया जा सकता था। दूसरी ओर भाजपा में जिसकी भी चलती हो, श्री अडवानी या श्री गडकरी, भी ऐसी या इससे बेहतर पहल कर सकते थे। आज के समय में जबकि जल, जंगल और जमीन के मुद्दे हमारे राष्ट्रीय विमर्श का एक प्रमुख अंग बन चुके हैं और जिनसे आदिवासी ही सबसे यादा प्रभावित हैं; इसके साथ ही जब देश के आदिवासी अंचलों में माओवाद एक गंभीर चुनौती बनकर सामने मौजूद है, तब आदिवासी समाज के अंर्तद्वंद्व को न समझ पाना अथवा उसकी ओर दुर्लक्ष्य करना राजनीतिक दलों के लिए आगे चलकर नुकसानदेह हो सकता है।

दरअसल राष्ट्रपति चुनाव के इस घटनाचक्र ने एक बार फिर यह सिध्द किया है कि भारतीय मानस में श्रेणीभेदों से उपजे पूर्वाग्रहों की जड़ें कितनी गहरी हैं। इसका ताजा उदाहरण हमने पिछले दिनों पंजाब में देखा जहां एक कांग्रेसी विधायक ने विधानसभा के भीतर सुझाव दिया कि प्रदेश के आवारा कुत्तों को उत्तरपूर्व के प्रदेशों में भेज दिया जाना चाहिए जहां उनका सही उपचार हो जाएगा। बात भले ही मजाक में की गई हो, लेकिन इससे पता चलता है कि हमारे नीति-निर्धारिकों का वैचारिक स्तर क्या है और वे खुद कैसे-कैसे पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं। यूं तो पूरी दुनिया में ऐसे मिलते-जुलते उदाहरण मिल जाएंगे, लेकिन अपने आपको सभ्य कहलाने की सबसे बडी शर्त तो यही है कि समाज अपने आपको बंधी बंधाई धारणाओं से मुक्त करें और दुराग्रह और भेदभाव से मुक्त होकर बहुलता और विविधता का सम्मान करे। यह कैसे हो, इसकी प्राथमिक जिम्मेदारी नीति निर्माताओं याने राजनीतिक तंत्र पर है। क्या राष्ट्रपति चुनाव निपटने के बाद कांग्रेस पार्टी श्री नेताम का निलंबन रद्द कर आदिवासी समाज के प्रति सद्भाव प्रकट कर पाएगी?




देशबंधु में 05 जुलाई 2012 को प्रकाशित