Friday 20 July 2012

अर्जुनसिंह की आत्मकथा


भारतीय राजनीति में इन दिनों जैसे बड़बोलेपन का दौर चला हुआ है, उसमें यह देखकर आश्चर्य हो सकता है कि अभी एक-सवा साल पहले तक इस परिदृश्य में अर्जुनसिंह जैसे राजनेता मौजूद थे जो बात कम और काम ज़्यादा के सिध्दांत में भरोसा रखते थे। उनसे मिलने वालों को अक्सर इस बात से असुविधा होती थी कि उनके साथ कैसे संवाद स्थापित किया जाए, लेकिन जिन्होंने अर्जुन सिंह को कुछ निकट से देखा है वे बता सकते हैं कि वे जितना भी बोलते थे उसमें वजन होता था। इधर कुछ समय से उनकी प्रकाशनाधीन आत्मकथा को लेकर चर्चाएं हो रही थीं। अपने आपको राजनीति का पंडित समझने वाले बहुत से लोगों का मानना था कि उनकी आत्मकथा में प्रचुर मात्रा में विस्फोटक सामग्री होगी और उसके चलते कांग्रेस के प्रथम परिवार को असुविधा का सामना करना पड़ेगा। लेकिन पुस्तक बाजार में आ चुकी है और ऐसे लोगों को निराशा ही हाथ लगी है। 

अर्जुन सिंह की आत्मकथा का शीर्षक भारी-भरकम है- ''अ ग्रेन ऑफ सेंड इन द अवरग्लास ऑफ टाइम'' इसका हिन्दी अनुवाद शायद कुछ इस तरह होगा- ''महाकाल के घट में रेत का एक कण''। यह शीर्षक ही प्रकट करता है कि श्री सिंह ने भले ही भारतीय राजनीति में एक लंबे समय तक बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो, वे अपने आपको ऐसे अभिनेता के रूप में याद किया जाना पसंद करते हैं जिसने निर्धारित समय पर अपना रोल अदा किया और उसके बाद वापिस नेपथ्य में चला गया। लगभग चार सौ पृष्ठों की इस पुस्तक में जगह-जगह पर उनका यह भाग्यवादी स्वर प्रतिध्वनित होता है। अर्जुन सिंह ने चौवन साल तक सक्रिय राजनीति की। इस लंबे दौर में उन्होंने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे। वे अनेक ऐतिहासिक प्रसंगों के साक्षी रहे। इस नाते आत्मकथा का आकार वर्तमान स्वरूप से दुगुना हो सकता था लेकिन लेखक ने बहुत से प्रसंगों को अनछुआ छोड़ दिया है। यह क्या इसलिए कि वे अपने नजरिए से कुछेक अधिक महत्वपूर्ण प्रसंगों में ही अपनी भूमिका को रेखांकित करना चाहते थे? बाकी तो राजनीतिक इतिहास के अध्येता अपने-अपने हिसाब से आगे-पीछे लिखेंगे ही।

प्रसंगवश उल्लेख करना उचित होगा कि श्री सिंह के 75वीं सालगिरह पर उनके वक्तव्यों, भाषणों और उन पर लिखे गए लेखों का एक वृहद संकलन दस भागों से प्रकाशित हुआ था। इसके पश्चात लेखक-पत्रकार कन्हैयालाल नंदन ने उन पर हिन्दी में एक पुस्तक संपादित की थी, फिर पत्रकार रामशरण जोशी ने भी उनकी एक जीवनी दो-तीन साल पहले ही लिखी। इन दोनों पुस्तकों की प्रकाशन के तुरंत बाद थोडी-बहुत चर्चा हुई, लेकिन दोनों ही अपने चरित्र नायक के साथ पूरी तरह से न्याय नहीं कर सकीं। जहां तक दस खण्डों के संकलन का प्रश्न है उसका अध्ययन एक आवश्यक संदर्भ सामग्री के रूप में यथासमय किया जाएगा। यहां नोट करना उचित होगा कि मायाराम सुरजन ने अपनी पुस्तक ''मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश के'' में 1947 से लेकर 1990 तक के मुख्यमंत्रियों पर संस्मरण शैली में जो लेख लिखे हैं उनमें स्वाभाविक ही अर्जुन सिंह भी शामिल हैं।

बहरहाल अर्जुन सिंह की आत्मकथा एक महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में हमारे सामने आती है। इसमें उन्होंने अपने निजी जीवन और परिवार आदि के बारे में बहुत ही कम लिखा है। 1957 में पहली बार विधायक बनने से लेकर 1980 में मुख्यमंत्री बनने के बीच का जो समय है उस पर भी उन्होंने बहुत विस्तार से लिखना जरूरी नहीं समझा। हां, 1980 में मुख्यमंत्री बनने से लेकर मृत्यु के कुछ समय पहले तक राजनीति की जो दशा-दिशा रही है उसमें से उन्होंने कुछ अहम् प्रसंगों को उठाया है और बहुत सी बातों को संभवत: उल्लेखनीय न मानते हुए छोड़ दिया है। इन तीन दशकों में भारत के सामने बहुत सी नई चुनौतियां आईं- अलगाववाद, आतंकवाद, नक्सलवाद, आर्थिक नवउदारवाद, साम्प्रदायिकता का उभार, भोपाल गैस त्रासदी आदि। इन प्रसंगों पर उन्होंने विस्तार से प्रकाश डाला है। 1985 में वे मप्र के पहले ऐसे मुख्यमंत्री बने जिसने न सिर्फ अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया बल्कि दुबारा शानदार जीत हासिल की; यही नहीं, लोकसभा की चालीस में चालीस सीटें जीतीं, लेकिन इसके तुरंत बाद उन्हें पंजाब का राज्यपाल बनाकर भेज दिया गया। वे पंजाब में एक साल से भी कम समय तक राज्यपाल रहे, लेकिन इतनी सी अवधि में राजीव-लोंगोवाल समझौता करवाकर उन्होंने पंजाब में शांति स्थापना की मजबूत नींव डाली। इस बारे में वे अपनी भूमिका का जिक्र बिना कोई श्रेय लिए करते हैं। इसके कुछ समय बाद ही वे राजीव-लालडेंगा समझौता करवाकर मिजोरम में शांति स्थापना में अहम् भूमिका निभाते हैं, लेकिन इसका उल्लेख भी वे जैसे एक सामान्य घटना हुई, हो इस तरह करते हैं।

मध्यप्रदेश में विधायक, मंत्री, विपक्ष के नेता और मुख्यमंत्री रहते हुए उनके जो अनुभव हैं उनका जिक्र आत्मकथा में होता है, लेकिन यहां भी वे अपने विरोधियों के बारे में लिखते हुए अद्भुत संयम का परिचय देते हैं। प्रदेश की राजनीति में जो उथल-पुथल मचती रही उसका वर्णन करने में वे कोई रुचि नहीं दिखाते, जबकि यह सबको पता है कि अर्जुनसिंह के जीवनकाल में उन पर उनके विरोधी लगातार किस तरह से राजनीति की मर्यादा के परे जाकर आक्रमण करते रहे। भोपाल गैस त्रासदी के बारे में वे विस्तारपूर्वक उल्लेख करते हैं और संकेतों में बता देते हैं कि वॉरेन एण्डरसन को वापिस जाने देने का निर्णय तत्कालीन गृहमंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव का ही था। इस बारे में उन्होंने 11 अगस्त 2010 को राज्यसभा में दिए अपने वक्तव्य को संपूर्णता में उपलब्ध किया है।

अर्जुन सिंह ने बाबरी मस्जिद विध्वंस, कांग्रेस से निष्कासन और तिवारी कांग्रेस के गठन पर भी विस्तार से प्रकाश डाला है। इसमें यह तथ्य उभर कर आता है कि श्री सिंह बार-बार प्रधानमंत्री को साम्प्रदायिकता और साम्राज्यवाद के खतरों से आगाह कर रहे थे, लेकिन श्री राव अपने इस मंत्रिमण्डलीय सहयोगी की बात सुनी-अनसुनी कर दे रहे थे। श्री राव के इस रुख का जो नतीजा देश को और कांग्रेस पार्टी को भुगतना पडा वह सबके सामने है। इस आत्मकथा को पढ़ने के बाद एक ओर तो श्री सिंह के राजनीतिक विवेक और औदार्य का परिचय मिलता है तो दूसरी ओर यह भी स्पष्ट होता है कि वे किस तरह नेहरू-इंदिरा की वैचारिक विरासत को समृध्द करने में लगे रहे। अफसोस कि सोनिया गांधी इस बात को या तो समझ नहीं पाईं या समझकर भी मजबूर थीं!

देशबंधु में 19 जुलाई 2012 को प्रकाशित 



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