Wednesday, 4 July 2012

राजनीति में वंचित समाज के लिए जगह कहाँ?

राष्ट्रपति चुनाव में आदिवासी उम्मीदवार और अपने पुराने मित्र पी.ए. संगमा का खुला समर्थन कर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अरविन्द नेताम ने इस प्रौढावस्था में अपना राजनीतिक भविष्य, जितना भी बाकी है, खतरे में डाल दिया। कहा जा सकता है कि उन्होंने जानते-बूझते अपने लिए मुसीबत मोल ली। कांग्रेस ने उन्हें पार्टी की सदस्यता से तो निलंबित कर ही दिया है, हो सकता है कि आगे कोई और बड़ी कार्रवाई हो। हम यह समझना चाहते हैं कि 1971 में मात्र उनतीस या तीस वर्ष की आयु में जिस व्यक्ति को इंदिरा गांधी ने अपने मंत्रिमण्डल में शामिल किया उसे आज की कांग्रेस पार्टी संभालकर क्यों नहीं रख सकी! इसी प्रश्न से दूसरा बड़ा सवाल उठता है कि कांग्रेस हो या भाजपा या अन्य कोई दल- उसमें आदिवासियों के लिए कितनी जगह है। 

सच पूछा जाए तो इस प्रसंग से उजागर होता है कि भारत की राजनीतिक दलों में आंतरिक जनतंत्र किस तरह कमजोर है और उसमें समाज के कमजोर वर्गों की हैसियत किस तरह दोयम दर्जे की बना दी गई है। ऐसा क्यों हुआ है कि किसी भी पार्टी में आदिवासी, दलित व हाशिए के अन्य समुदायों को राजनीति में निर्णायक अथवा प्रबल भूमिका निभाने के लिए या तो तैयार किया ही नहीं गया या उन्हें स्वयं तैयार होने का अवसर नहीं दिया गया।  पी.ए. संगमा, गिरधर गोमांग, अमर सिंह चौधरी और अरविंद नेताम- ये कुछ आदिवासी नेता हैं जो सत्तर के दशक में उभरे। इनमें पी.ए. संगमा ही केन्द्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण हैसियत हासिल कर सके। बाकी के साथ राजनीति के भीतर लगभग वैसा ही व्यवहार हुआ जैसा आम जीवन में प्रभुत्वशाली वर्ग बस्तर या झाबुआ के आदिवासियों के साथ करता है।

हमारी सामाजिक व्यवस्था में यह पहले से ही मान लिया जाता है कि दलित, आदिवासी या किसान किसी काबिल नहीं हैं। चूंकि संविधान ने उन्हें अधिकार दिए हैं इसलिए एक मजबूरी के तहत ही उन्हें बर्दाश्त किया जाता है। वंचित समाज के नेता यदि अपनी जिम्मेदारियों में कहीं असफल सिध्द होते हैं तो उस बात को बढ़ा-चढा कर पेश किया जाता है। वंचित समाज का कोई सरकारी कर्मचारी यदि कम रिश्वत लेता है तो भी उसका मजाक उड़ाया जाता है कि उसमें हिम्मत की कमी है। उनकी वास्तविक या प्रचारित गलतियों को भी बढा-चढ़ाकर पेश किया जाता है। बाबू जगजीवन राम पर आयकर रिटर्न जमा न करने के आरोप को लंबे समय तक चटखारे लेकर सुनाया जाता रहा; और भाजपा के दलित अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण तहलका कांड में फंसे तो पार्टी ने उनसे एकदम किनारा कर लिया। दूसरी तरफ जब उच्च वर्ग के व्यक्ति कदाचरण के दोषी पाए जाते हैं तो उस पर तुरंत आवरण डाल दिया जाता है।

यदि तर्क के लिए मान लिया जाए कि आदिवासी अथवा वंचित समाज के नेताओं में काबिलियत का अभाव है तो सवाल उठता है कि इस स्थिति को सुधारने के लिए उनकी पार्टी ने क्या किया। क्या यह दोष उन लोगों का नहीं है जिसके हाथ में देश की राजनीति की बागडोर है? यहां हम जमुनादेवी और रेशमलाल जांगड़े के उदाहरण ले सकते हैं। एक आदिवासी महिला और एक दलित- इन दोनों ने 1952 में अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। जमुना देवी का पिछले साल ही निधन हुआ और उन्हें म.प्र. विधानसभा में विपक्ष के नेता से बड़ा कोई पद नहीं मिल पाया, जबकि श्री जांगडे क़ो लोकसभा के साठ साल होने पर सम्मानित होने का अवसर तो मिला लेकिन वे भी राजनीति में पूरी जिन्दगी बिताने के बाद कोई खास पहचान नहीं बना पाए। कारण साफ है। इन्हें जानबूझकर आगे बढने से रोका गया। इस आरोप के समर्थन में सबसे बडा प्रमाण बाबू जगजीवन राम के रूप में हमारे सामने है। वे तो हर दृष्टि से एक योग्य और कुशल राजनेता और प्रशासक थे। आज जिस तरह प्रणब मुखर्जी की खूबियां को गिना-गिना कर उन्हें राष्ट्रपति पद के लिए सर्वथा उपयुक्त प्रत्याशी माना जा रहा है, तो जगजीवन राम उनसे भी कहीं यादा योग्य थे, लेकिन न कांग्रेस और न जनता दल (जिसमें तब का जनसंघ और आज की भाजपा शामिल थी) ने उन्हें न तो राष्ट्रपति बनाने की सोची, न प्रधानमंत्री पद पर उनकी उम्मीदवारी स्वीकार की।

जनतांत्रिक राजनीति के मंच पर अपने को हमेशा नेपथ्य में अथवा छोटी-छोटी भूमिका में देखने से जो असंतोष उभरा उसी का परिणाम है कि कांशीराम के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी बनी और उसकी ताकत जितनी भी है, आज दिखाई दे रही है। इसी तरह आदिवासियों ने भी अपने लिए एक स्वतंत्र मंच की बुनियाद रखना शुरू कर दिया है। श्री संगमा की उम्मीदवारी इस तैयारी का ही संकेत है। यह लगभग तय है कि प्रणब मुखर्जी जीत जाएंगे, लेकिन श्री संगमा हारने के बाद भी आदिवासियों के बीच नेतृत्व का केन्द्र बिन्दु बनकर उभरेंगे। यह ठीक है कि आदिवासी नेताओं ने शायद अपनी रणनीति भलीभांति तैयार नहीं की, लेकिन कांग्रेस और भाजपा में जो बड़े-बड़े नेता बैठे हैं, उन्होंने भी तो ये नए संकेत पढ़ने की परवाह नहीं की। सोनिया गांधी अगर चाहतीं तो आदिवासी नेताओं को बुलाकर बात कर सकती थीं और शायद पी.ए. संगमा को इस बार उपराष्ट्रपति पद देकर सुंदर समन्वय स्थापित किया जा सकता था। दूसरी ओर भाजपा में जिसकी भी चलती हो, श्री अडवानी या श्री गडकरी, भी ऐसी या इससे बेहतर पहल कर सकते थे। आज के समय में जबकि जल, जंगल और जमीन के मुद्दे हमारे राष्ट्रीय विमर्श का एक प्रमुख अंग बन चुके हैं और जिनसे आदिवासी ही सबसे यादा प्रभावित हैं; इसके साथ ही जब देश के आदिवासी अंचलों में माओवाद एक गंभीर चुनौती बनकर सामने मौजूद है, तब आदिवासी समाज के अंर्तद्वंद्व को न समझ पाना अथवा उसकी ओर दुर्लक्ष्य करना राजनीतिक दलों के लिए आगे चलकर नुकसानदेह हो सकता है।

दरअसल राष्ट्रपति चुनाव के इस घटनाचक्र ने एक बार फिर यह सिध्द किया है कि भारतीय मानस में श्रेणीभेदों से उपजे पूर्वाग्रहों की जड़ें कितनी गहरी हैं। इसका ताजा उदाहरण हमने पिछले दिनों पंजाब में देखा जहां एक कांग्रेसी विधायक ने विधानसभा के भीतर सुझाव दिया कि प्रदेश के आवारा कुत्तों को उत्तरपूर्व के प्रदेशों में भेज दिया जाना चाहिए जहां उनका सही उपचार हो जाएगा। बात भले ही मजाक में की गई हो, लेकिन इससे पता चलता है कि हमारे नीति-निर्धारिकों का वैचारिक स्तर क्या है और वे खुद कैसे-कैसे पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं। यूं तो पूरी दुनिया में ऐसे मिलते-जुलते उदाहरण मिल जाएंगे, लेकिन अपने आपको सभ्य कहलाने की सबसे बडी शर्त तो यही है कि समाज अपने आपको बंधी बंधाई धारणाओं से मुक्त करें और दुराग्रह और भेदभाव से मुक्त होकर बहुलता और विविधता का सम्मान करे। यह कैसे हो, इसकी प्राथमिक जिम्मेदारी नीति निर्माताओं याने राजनीतिक तंत्र पर है। क्या राष्ट्रपति चुनाव निपटने के बाद कांग्रेस पार्टी श्री नेताम का निलंबन रद्द कर आदिवासी समाज के प्रति सद्भाव प्रकट कर पाएगी?




देशबंधु में 05 जुलाई 2012 को प्रकाशित 

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