Wednesday 17 April 2013

नए माध्यम : सदुपयोग की संभावनाएं


पिछले सप्ताह अंग्रेजी पत्रकार प्रशांत झा का एक ट्वीट देखा कि भारत में सोशल मीडिया के उपयोगकर्ताओं की संख्या छह करोड़ का आंकड़ा पार कर गई है। इनमें से अधिकतर जन फेसबुक के सदस्य हैं, लेकिन अन्य समूहों में भी सदस्यता लगातार बढ़ रही है। श्री झा ने ही 'द हिन्दू' में छपे एक लेख में संभावना व्यक्त की है कि सोशल मीडिया के ये उपयोगकर्ता लोकसभा की एक सौ साठ सीटों पर चुनावी नतीजों को किसी न किसी रूप में प्रभावित कर सकते हैं। इन टिप्पणियों से स्वाभाविक ही निष्कर्ष निकलता है कि आने वाले दिनों में भारतीय समाज में ये नए माध्यम एक बड़ी भूमिका निभाएंगे। सच पूछिए तो इस दिशा में उत्साही लोगों द्वारा इसकी पहल की जा चुकी है। टयूनीशिया और इजिप्त में घटित तथाकथित अरब के साथ ही हमारे यहां भी बहुत लोगों को लगने लगा था कि डिजिटल मीडिया के माध्यम से भारत में भी क्रांतिकारी परिवर्तन संभव हो सकता है। अन्ना हजारे का नया अवतार तथा बाबा रामदेव व अरविन्द केजरीवाल का राष्ट्रीय क्षितिज पर प्रकट होना इस सोच का ही फलितार्थ था। (आगे बढ़ने के पहले यह स्पष्ट कर दूं कि मैं सोशल मीडिया, न्यू मीडिया, डिजिटल मीडिया, माध्यम आदि संज्ञाओं का उपयोग यहां पर्यायवाची के रूप में कर रहा हूं।)

 यह हमारी जानकारी में है कि एक लम्बे समय तक समाचार पत्रों ने देश में वही भूमिका निभाई जिसकी उम्मीद आज नए माध्यमों से की जा रही है। चार सौ वर्ष पहले प्रिंटिंग मशीन के आविष्कार से पूरी दुनिया में एक नई लहर उठी व समय आने पर भारत भी उससे अछूता नहीं रहा। उसके बाद रेडियो व सिनेमा ने भी इसी तरह का रोल अदा किया। अपने अनुभव से मुझे मालूम है कि छत्तीसगढ़ में कृषि की उन्नति में आकाशवाणी के कृषि संबंधी कार्यक्रमों ने कितना योगदान किया। जैसा कि हम जानते हैं दूरदर्शन को भी यही सोचकर प्रोत्साहन दिया गया था कि बेहतर सामाजिक प्रक्रिया के निर्माण में उससे मदद मिलेगी। यह दीगर बात है कि कालांतर में व्यवसायिक सिनेमा की तरह टीवी भी मनोरंजन के साधन तक सिमट कर रह गया। इसके बावजूद टीवी की एक सकारात्मक भूमिका मैं इस रूप में देखता हूं कि वह वृध्दजनों, घरेलू, महिलाओं और एकाकी लोगों के लिए मन बहलाव व समय बिताने का एक अच्छा अवलंब बन गया है। एक बड़ा वर्ग जिसके जीवन में रसाभाव है उसके लिए टीवी ही शायद एकमात्र मित्र है!

हम यहां टीवी के कार्यक्रमों की गुणवत्ता की समीक्षा नहीं कर रहे, बल्कि उसकी उसी भूमिका को रेखांकित कर रहे हैं जो सामाजिक परिस्थितियों के चलते अपने आप बन गई है। इस पृष्ठभूमि में गौर करने पर स्पष्ट हो जाता है कि नए जमाने में नए माध्यम वह भूमिका निभाने के लिए सामने आ गए हैं।  सिनेमा, रेडियो और टीवी इन तीनों में एक कमी भी है कि वहां संवाद एकपक्षीय होता है। श्रोता या दर्शक को अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए अनिवार्यत: अन्य माध्यमों की तलाश करनी पड़ती है। एक समय गांव-गांव में रेडियो क्लब इसीलिए बने और अनेक स्थानों पर फिल्म सोसायटियों की स्थापना होने का भी शायद यही कारण रहा। सोशल मीडिया ने इस पुराने इंतजाम को ऊपर से नीचे तक बदलकर रख दिया है। इसने उपयोगकर्ता को अपने विचार व्यक्त करने के लिए एक तरह से लंदन के हाईड पार्क जैसा खुला मंच दे दिया है और भौगोलिक सीमाएं डिजिटल संसार में आकर पूरी तरह से पिघलकर लुप्त हो गई है। इसने समाज के जनतंत्रीकरण की एक धुंधली सी संभावना भी जगाई है। राजेश जोशी की एक कविता में कल्पना की गई है कि कवि अपना टेलीफोन नंबर प्रधानमंत्री को दे देता है ताकि प्रधानमंत्री को जरूरत पड़े तो वे भी एक सामान्य नागरिक से बात कर सकें। सोशल मीडिया ने राजेश की कल्पना को इस हद तक तो साकार कर ही दिया है कि एक आम आदमी भारत के प्रधानमंत्री अथवा अमेरिका के राष्ट्रपति को टि्वटर अथवा फेसबुक पर संदेश भेज सकता है।

इन नए माध्यमों के इस्तेमाल पर मेरे अपने कुछ निजी अनुभव हैं। पाकिस्तान के पत्रकार मजीद शेख और मैं कार्डिफ, वेल्स (यूके) में कुछ माह तक एक फेलोशिप कार्यक्रम में साथ-साथ थे। 1977 अप्रैल के बाद हमारा सम्पर्क टूट गया था, लेकिन गूगल सर्च की मेहरबानी से 2012 में हम एक-दूसरे से नेट पर मिले और अब फेसबुक के माध्यम से संवाद जारी है। इसी तरह स्कूल के सहपाठी डॉ. विजय भटनागर से 1986 के बाद सम्पर्क खत्म हो गया था, 2012 में ही उनसे फिर मुलाकात हुई। मैंने दो साल पहले फेसबुक, टि्वटर, गूगल प्लस व लिंकड् इन- इन चार माध्यमों का उपयोग करना प्रारंभ किया और अब मैं प्रतिदिन एक से डेढ़ घंटे तक का समय इन पर बिताता हूं। मेरे प्रिय अखबार लंदन से प्रकाशित गार्जियन और न्यू स्टेट्समेन भी मुझे अब नेट पर पढ़ने मिल जाते हैं। इधर मैं गंभीरतापूर्वक सोच रहा हूं कि दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, मुम्बई से एक दिन बाद रायपुर पहुंचने वाले अखबार खरीदना बंद कर दूं क्योंकि रोज सुबह मैं अपने स्मार्ट फोन में ही पढ़ लेता हूं।

इन माध्यमों के प्रयोग से देश-विदेश में न सिर्फ पुराने मित्रों से सम्पर्क सूत्र दोबारा जुड़े हैं, बल्कि बहुत बड़ी संख्या में पत्रकार, साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ता आदि से भी परिचय होकर संवाद प्रारंभ हो गया है। मेरा यह लेख भी इसके पहले लिखे अनेक लेखों की तरह मेरे ब्लॉग पर आ जाएगा तथा दूरदराज में निवास कर रहे बहुत से मित्र इसे पढ सकेंगे। मैं देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में छपे अपने पसंदीदा लेखों की सूचना व लिंक टि्वटर आदि पर डाल देता हूं ताकि समान रुचि के साथी उन्हें पढ़ सकें। ऐसे प्रदेशोें में जहां 'देशबन्धु' का प्रसार नहीं है वहां के पाठकों को मैं यह सलाह देता हूं कि वे इंटरनेट पर जाकर 'देशबन्धु' पढ़ सकें। दरअसल विदेशों में बसे छत्तीसगढ़वासियों के लिए तो देशबन्धु का ई-संस्करण ही घर की खबरें जानने का प्रमुख माध्यम है। 

इस तरह इन नए माध्यमों की उपादेयता स्वयं सिध्द है, लेकिन इसके आगे यह सवाल उठाना लाजमी है कि हम इनका उपयोग किस रूप में करते हैं। यह बात समझ में आती है कि दूर देश में बसे पारिवारिक सदस्यों व मित्रों से स्काइप के द्वारा बातचीत हो जाए। इसमें समय की बचत भी है और आमने-सामने बात करने का सुख भी। एक तरह से स्काइप और फेसबुक जैसे अभिकरण डाकघर की भूमिका में आ गए हैं। समाचारों का आदान-प्रदान हो जाए, जन्मदिन की बधाई दे दी जाए, तस्वीरें दिखला दी जाएं- यह सब उचित है। लेकिन इन माध्यमों में जो अपार संभावनाएं निहित हैं यह उनका एक प्रतिशत भी नहीं है। दूसरे जिस तरह के संवादों का विनियम इन पर होता है, वे कई बार बचकाने और कैशोर्य अनुभूति से भरे होते हैं, जिन्हें एक बड़े समूह के साथ बांटना मेरी दृष्टि में मूर्खतापूर्ण ही है।

इस बचकानेपन को एक सीमा तक बर्दाश्त किया जा सकता है, लेकिन इन माध्यमों का कुछेक राजनीतिक शक्तियों द्वारा जैसा दुरुपयोग किया जा रहा है उससे मन में चिंता होती है। एक उदाहरण सामने रखूं। देश के नागरिक भ्रष्टाचार से चिंतित हो, उसके खिलाफ आवाज उठाएं, आन्दोलनकारियों के प्रति अपना समर्थन व्यक्त करें, स्वयं आन्दोलन में शामिल हों यहां तक तो ठीक है, लेकिन इसमें व्यक्तिगत आक्षेप व चरित्र हनन क्यों हो? याहू अथवा गूगल पर ऐसे समूह बन गए हैं, जो राजनेताओं के चरित्र हनन में तमाम मर्यादाओं को लांघ जाते हैं। इसी तरह यह लोगों का जनतांत्रिक अधिकार है कि वे प्रधानमंत्री पद पर किसे देखना चाहते हैं। उन्हें अपने प्रिय नेता के समर्थन में चर्चा करने का पूरा अख्तियार है, लेकिन यह अधिकार उन्हें क्यों दिया जाए कि वे अपने राजनीतिक विरोधियों पर कमर के नीचे वार करें! जिस तरह से इन माध्यमों पर घृणा फैलाने वाली सामग्री परोसी जा रही है, वह विचारों की अभिव्यक्ति का दुरुपयोग कर रही है और इस पर सभ्य समाज को गंभीरता से सोचने की जरूरत है।

मेरा अंत में कहना यह है कि सोशल मीडिया के सदुपयोग की अपार संभावनाएं हैं। इस तरफ ध्यान देंगे तो उससे समाज को विचार सम्पन्न बनाने में सहायता मिलेगी और अगर छुटभैय्येपन में लगे रहेंगे तो इन माध्यमों की भूमिका नुक्कड़ पर होने वाली अनर्गल चर्चाओं का माध्यम बनकर खत्म हो जाएगी।

देशबंधु में 18 अप्रैल 2013 को प्रकाशित 
 
 

2 comments:

  1. पढु कर मन गद्गद् हो गया. अनुकरणीय गांव है

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  2. ललित भैया आपने दिल की बात इस लेख से कह दी है कई दिनों से मैं भी इस विषय पर ही लिखने की सोच रहा था लेकिन राजनैतिक घटनाक्रम जिस ढंग से हो रहे है उस वजह से लिख नही पाया । आप इस लेख के लिये साधुवाद के पात्र है। यह सोशल मीडिया का ही प्रभाव है कि मैं आपका ़1३ अप्रेल को प्रकाशित लेख ब्लाग में पढ पाया और उस पर कुछ प्रतिक्रिया देने का सुअवसर मिल पाया।गंभीर चिंता का विषय यह है कि जिस ढंग से इस अतिमहत्वपूर्ण माध्यम का उपयोग चरित्र हत्या करने और अशलीलता परोसने के लिये हो रहा है उससे हमारी संस्कृति केा खतरा नजर आ रहा है। लोकतंत्र में हर किसी केा अपनी बात कहने की स्वतंत्रता तो है लेकिन स्व्छंदता कहा तक उचित है। दूसरा आपके टाईम लाईन में जा कर कुछ भी टेग कर दे ,कुछ भी कमेन्टस कर दे इस पर तो कम से कम अंकुश होना चाहिए

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