Monday, 10 March 2014

गीता किसने लिखी?





भारतीय चिंतनधारा में श्रीमद्भागवतगीता अथवा संक्षेप में गीता को जो उच्चासन प्राप्त है वह सर्वविदित है। श्रुति, स्मृति और गीता अर्थात् वेद, उपनिषद व गीता ये तीनों मिलकर प्रस्थानत्रयी के नाम से जाने जाते हैं। इनको आधार बनाकर ही भारत की उस दार्शनिक परंपरा का विकास हुआ है जिसने भारत के बहुसंख्यक समाज का मनोगत रचने में अहम् भूमिका निभाई है। वेद व उपनिषद का अध्ययन इस समाज में अभी भी सीमित है और उसकी व्याख्या करने का काम पंडितों के जिम्मे है। एक सामान्य व्यक्ति के लिए इतना जानना ही पर्याप्त है कि वह वैदिक संस्कृति का वारिस है। गीता के साथ ऐसी कोई उलझन नहीं है। गीता और उसके कई शताब्दियों बाद रचित रामचरित मानस ऐसे दो ग्रंथ हैं, जो संभवत: हर उस घर में मिल जाएंगे जो रूढ़ अर्थों में सनातन अथवा हिन्दू धर्म के अनुयायी माने जाते हैं। इनमें शैव, वैष्णव, शाक्त सब शामिल हैं। इस्लाम में कुरान शरीफ व ईसाईयत में पवित्र बाइबिल का जो ओहदा है वही हमारी इस परंपरा में गीता को हासिल है।

यह सामान्य तौर पर माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में महाभारत युध्द प्रारंभ होने की पूर्व बेला में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था ताकि वे संशयरहित होकर युध्द भूमि में अपने कर्तव्य को निभाने के लिए प्रवृत्त हो सकें। गीता के सात सौ श्लोकों में जो उपदेश दिए गए हैं उनको हमारे यहां विभिन्न स्थितियों में दोहराया जाता है, उनसे प्रेरणा ली जाती है, मन को समझाया जाता है। अदालत में हिन्दू धर्म को मानने वाले गीता पर हाथ रखकर सच बोलने की कसम खाते हैं, तो मृत्यु के समय शरीर नश्वर और आत्मा अविनाशी की उक्ति स्मरण हो आती है। जीवन में सफलता-असफलता के बीच जब कभी उहापोह की स्थिति बनती है तो ''कर्म करते जाओ, फल की चिंता मत करो'' का परामर्श किसी न किसी सयाने के मुख से सुनने मिल ही जाता है। गीता की इस लगभग निर्विकल्प श्रेष्ठता का सर्वप्रथम सूत्र संभवत: आदि शंकराचार्य की टीका में देखा जा सकता है। उनके बाद रामानुजाचार्य, निंबार्काचार्य, मध्वाचार्य से लेकर वल्लभाचार्य, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद तक अनेक मनीषियों ने अपनी-अपनी व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं।

गीता के इस दृढ़तापूर्वक स्थापित महत्व के बावजूद इस महान ग्रंथ के लेखन-समय एवं लेखक के बारे में समय-समय पर परस्पर विरोधी मत व्यक्त किए जाते रहे हैं। इसका एक प्रमुख कारण तो यही है कि गीता के विभिन्न अध्यायों  में दिए गए उपदेशों में ही कई जगह विरोधाभास देखने मिलता है। दूसरे गीता की भाषा में भी प्रारंभ से अंत तक एकरूपता नहीं है, जो एक लघुग्रंथ के लिए स्वाभाविक नहीं कही जा सकती और जिसकी ओर अनेक धुरंधर विद्वानों ने संकेत किया है। ये दो ऐसे कारण थे, जिन्होंने प्रोफेसर मेघनाद देसाई को गीता व उससे संबंधित साहित्य के विशद अध्ययन के लिए प्रेरित किया। उन्होंने इस बिना पर जो स्थापनाएं की हैं वे 2014 की शुरुआत में प्रकाशित उनकी अंग्रेजी पुस्तक ''अ सेकुलर इन्क्वायरी इन टू अ सेक्रेड टैक्सट'' याने ''एक पवित्र पाठ की आग्रहमुक्त पड़ताल'' का आधार हैं। स्मरणीय है कि प्रोफेसर देसाई अंतरराष्ट्रीय ख्याति के समाजचिंतक हैं तथा उन्हें टीवी दर्शक आए दिन किसी न किसी चैनल पर समसामयिक मुद्दों पर अपने विचार रखते हुए देख सकते हैं।

श्री देसाई जैसा कि नाम से स्पष्ट है मूलत: भारतीय हैं। वे लगभग चालीस साल तक लंदन स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स में प्रोफेसर रहे हैं तथा ब्रिटिश संसद के उच्च सदन याने हाउस ऑफ लॉर्ड्स के भी सदस्य हैं। भारतीय इतिहास और संस्कृति पर कुछेक कार्यक्रमों में भाग लेते हुए उन्होंने अनुभव किया कि गीता का समदृष्टि विवेचन किया जाना चाहिए। इस प्रक्रिया में वे अनेकानेक विद्वानों के विचारों से रूबरू होते हैं और फिर अपने निष्कर्ष निकालते हैं। उनकी एक स्थापना तो यह है कि प्राचीनकाल में आदि शंकराचार्य के पूर्व गीता का उल्लेख बहुत कम मिलता है। शंकराचार्य के एक शताब्दी पूर्व बाणभट्ट की कादंबरी में गीता का उल्लेख अवश्य है यद्यपि उसके दो अर्थ निकाले जाते हैं, जिनमें एक यह है कि महाभारत में अर्जुन को अनंत गीता सुनकर आत्मिक आनंद मिला था। इसी तरह कालिदास के रघुवंश एवं कुमारसंभव में भी गीता का उल्लेख है तो लेकिन पूरी तरह से प्रमाणित नहीं। महान चीनी यात्री शुआन जांग (ह्वेनसांग) ने सातवीं शताब्दी के अपने यात्रा वृत्तांत में एक ऐसी कथा का उल्लेख किया है जो गीता प्रसंग से मिलती-जुलती है। कुल मिलाकर इस ग्रंथ का विधिवत और नियमित अध्ययन व टीका का काम शंकराचार्य से प्रारंभ होता है। पुराने आचार्यों ने इसे भक्त को सुनाई देववाणी की बजाय एक दार्शनिक विमर्श के धरातल पर ही देखा है।

प्रो. देसाई कहते हैं कि अधिकतर टीकाएं अभिजात समाज के लिए थीं जो संस्कृत जान-समझ सकते थे। तेरहवीं सदी में संत ज्ञानेश्वर ने मराठी अनुवाद कर इसे पहले-पहल आमजन के लिए उपलब्ध कराया यद्यपि उस समय भी दलित-वंचित जन इसे प्रवचन स्थल के बाहर बैठकर ही सुन सकते थे। आगे चलकर अकबर के नवरत्नों में एक फैज़ी ने गीता का फारसी में अनुवाद किया एवं अंग्रेजी राज में सबसे पहले वायसराय वारेन हेस्टिंग्स ने चार्ल्स विलकिंस से इसका हिन्दी अनुवाद कराया। इसके उपरांत अंग्रेजी तथा यूरोप की कुछ अन्य भाषाओं में भी गीता के अनुवाद हुए। तथापि सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं सर्वाधिक लोकप्रिय जो अनुवाद हुआ वह सर एडविन अर्नाल्ड ने किया। सर एडविन ने पूर्व में भगवान बुध्द के जीवन पर 'द लाइट ऑफ एशिया' पुस्तक लिखी थी। गीता का अनुवाद 'द सांग सेलेस्टियस' शीर्षक से 1885 में प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक से ही गीता की जानकारी आधुनिक काल में दूर-दूर तक पहुंची।

वस्तुत: स्वयं महात्मा गांधी ने इस पुस्तक के द्वारा ही गीता से प्रथम परिचय प्राप्त किया था। प्रो. देसाई लिखते हैं कि उन्नीसवीं सदी के अंत में गीता भारतीय घरों में बहुत ज्यादा लोकप्रिय नहीं थी। गांधीजी के पिता ने अपने जीवन के अंतिम समय में ही गीता का वाचन शुरू किया था। यही स्थिति लोकमान्य तिलक की थी। उन्होंने सोलह वर्ष की आयु में गीता का पहली बार अपने पिता की मृत्युशैय्या पर वाचन किया, जबकि उनके घर में संस्कृत प्रचलित थी। महात्मा फुले ने भी अपनी प्रसिध्द पुस्तक 'गुलामगिरी' में मनुस्मृति एवं भागवत का जिक्र तो किया है किन्तु गीता का नहीं। उधर बंगाल में महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोर ने प्राचीन ग्रंथों के अनुवाद हेतु काफी उपाय किए, लेकिन उन पुस्तकों में गीता शामिल नहीं थी। कुल मिलाकर लेखक की स्थापना है कि बीसवीं सदी के प्रारंभ तक गीता को वह महत्व प्राप्त नहीं था जो आज देखा जा रहा है। आने वाले समय में यह स्थिति कैसे बदली? एक तो पश्चिमी भाषाओं में अनुवाद से भारतीयों में यह भाव जागृत हुआ कि भारत एशिया के अन्य देशों से कुछ ऊंचे स्थान पर तथा पश्चिम के कुछ निकट है। इससे अपनी प्राचीन सभ्यता के प्रति गर्व का भाव उत्पन्न हुआ। बंकिम के उपन्यास 'आनंदमठ' से प्रेरित होकर जो क्रांतिकारी दस्ते बने उन्होंने स्वाधीनता संग्राम की अपनी लड़ाई में गीता से प्रेरणा ली। शहीद खुदीराम बोस गले में गीता को पहनकर फांसी के फंदे पर झूले। अपनी संस्कृति पर इस गर्व को पुष्ट करने का काम सबसे प्रमुख रूप से लोकमान्य तिलक रचित 'गीता रहस्य' से हुआ। यह सचमुच आश्चर्यचकित करने वाला तथ्य है कि बर्मा के मंडाले जेल में कालापानी भुगतते हुए तिलक महाराज ने नवंबर 1910 से मार्च 1911 के बीच मात्र एक सौ पांच दिन में बारह सौ दस पेज की यह किताब लिख डाली।

यह हम जानते हैं कि लोकमान्य के बाद गांधी जी ऐसे राजनेता थे, जो साबरमती आश्रम में दैनिक प्रार्थना के बाद गीता पर प्रवचन दिया करते थे। गांधीजी गीता का पाठ सत् और असत् के बीच संघर्ष में सत्य की जीत के रूप में करते थे। महर्षि अरविन्द जो पहले क्रांतिकारी और बाद में आध्यात्मिक नेता बने, उनकी सोच तिलक जी के निकट थी। वे इसे कर्मयोग का सूत्र मानते थे। परवर्ती समय में डॉ. राधाकृष्णन ने गीता की व्याख्या की और उसकी गूढ़ दार्शिनिकता को सरल भाषा में पाठकों तक पहुंचाया। प्रो. देसाई कालक्रम में वर्णन करते हुए हरेकृष्ण आंदोलन तक आते हैं और बतलाते हैं कि गीता इस सम्प्रदाय के अनुयायी के घरों में पढ़ी भले न जाए, ड्राइंगरूम में अवश्य रखी होती है।

अगले अध्यायों में प्रो. देसाई गीता की विषय वस्तु, भाषा, लेखक जैसे पेचीदा सवालों पर अपने विचार सामने रखते हैं। वे एक तरफ विवेकानंद के विचारों को उध्दृत करते हैं तो दूसरी ओर डी.डी. कोसाम्बी व बाबा साहेब आम्बेडकर को। वे सूचनार्थ प्रोफेसर ए.टी. तैलंग द्वारा 1892 में किए गए पहले गद्यानुवाद का भी उल्लेख कहीं करते हैं। दामोदर धर्मानंद कोसाम्बी बीसवीं सदी के महान समाज चिंतकों में से एक थे। जो धारा गीता को एक सम्पूर्ण दार्शनिक एवं दैविक कविता मानती है, कोसाम्बी उससे सहमत नहीं हैं। वे कहते हैं कि गीता का हरेक ने अपनी-अपनी तरह से ऐसा भाष्य किया है कि उससे समाधान की बजाय और अधिक प्रश्न उठते हैं। इससे आंतरिक द्वंद्व दूर होने की बजाय व्यक्तित्व खंडित होने की गुंजाइश बनती है। प्रो. देसाई इससे सहमत हैं। 


लेखक कोसाम्बी के हवाले से ही आगे प्रश्न उठाते हैं कि युध्द क्षेत्र में अर्जुन को संशयमुक्त होने के लिए विशद व्याख्यान की आवश्यकता थी या एक मित्रतापूर्ण फटकार की कि तुम अपना काम करो? श्री देसाई इसके आगे महाभारत के अश्वमेध पर्व में संकलित अनुगीता का उल्लेख करते हैं, जिसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को दुबारा गीता का संदेश संक्षेप में इसलिए देते हैं क्योंकि अर्जुन के चंचल मन में युध्द क्षेत्र के उपदेश की कोई स्मृति बाकी नहीं थी। प्रश्न उठता है कि यदि अर्जुन में गीता का उपदेश समझने की क्षमता नहीं थी जो कि कृष्ण को अवश्य पता रही होगी तो फिर क्या सचमुच यह उपदेश युध्द क्षेत्र में ही दिया गया था? श्री देसाई दूसरा सवाल उठाते हैं कि कृष्ण ने तो धाराप्रवाह उपदेश दिया होगा, फिर उसे अध्यायों में किसने बांटा और फिर हर अध्याय में जो समापन टीका की गई है वह किसने लिखी? इस बारे में वे डॉ. आम्बेडकर को उध्दृत करते हैं कि विद्वानों की विवेचना गलत रास्ते पर है। गीता ईश्वरीय उपदेश नहीं है बल्कि धर्म के पक्ष में दर्शनशास्त्र का उपयोग है।

डॉ. आम्बेडकर ने गीता पर काफी विस्तार से लिखा है। उनका मानना है कि बौध्द धर्म के प्रतिकार के लिए ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने भगवतगीता का एक अस्त्र के रूप में उपयोग किया। यह प्रमाणित है कि ईसापूर्व से नवमीं शताब्दी के बीच लगभग एक हजार वर्ष तक इन दोनों के बीच द्वंद्व चलता रहा है। यह अभी हमारा विषय नहीं है। विद्वान लेखक कोसाम्बी को पुन: उध्दृत करते हुए कहते हैं कि गीता का उत्स प्राचीन दार्शनिक स्रोतों याने उपनिषद अथवा सांख्य दर्शन में है। वे स्वामी विवेकानंद के हवाले से कहते हैं कि ''गीता एक ऐसा गुलदस्ता है, जिसमें उपनिषदों से चुन-चुनकर दार्शनिक सूक्तियों के खूबसूरत फूल सजाए गए हैं।'' विवेकानंद पुन: कहते हैं कि- ''गीता के लेखक ने अद्वैत, योग, ज्ञान, भक्ति आदि को सम्मिश्रित करने का काम किया है। उसने सभी सम्प्रदायों से सर्वश्रेष्ठ चुनाव और गीता की माला में पिरो दिया।'' इस बिंदु पर स्वामी विवेकानंद और डी.डी. कोसाम्बी एक साथ खड़े नजर आते हैं।

इस पुस्तक में इस बात की भी गवेषणा की गई है कि महाभारत और गीता का रचनाकाल क्या है। कोसाम्बी मानते हैं कि इसे दूसरी से चौथी शताब्दी के बीच लिखा गया, क्योंकि इसकी भाषा उसी काल की है। प्रो. देसाई का कहना है कि महाभारत और गीता दोनों के रचनाकाल के बारे में निश्चयपूर्वक कुछ भी कहना कठिन है। महाभारत के बारे में अनेक विद्वान एकमत हैं कि इसे पहले 'जय' नामक संक्षिप्त ग्रंथ के रूप में लिखा गया, फिर 'भारत' नामक अपेक्षाकृत बड़े ग्रंथ के रूप में इसे बढ़ाया गया जिसे अंतत: महाभारत का रूप दे दिया गया। 'भारत' में चौबीस हजार वर्ष श्लोक थे, जबकि महाभारत में एक लाख। संभवत: महाभारत का यह विकास लगभग एक हजार वर्ष की अवधि में हुआ। हरिवंश पुराण को पहले महाभारत का उन्नीसवां पर्व माना जाता था, जिसे बाद में अलग किया गया। इसी के साथ कृष्ण की ऐतिहासिकता पर भी सवाल उठते हैं। स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि कृष्ण के व्यक्तित्व को लेकर बहुत से संदेह है। प्राचीनकाल में हमारे देश में इतिहासशोधन के द्वारा सत्यान्वेषण की परंपरा लगभग नहीं थी इसलिए बिना तथ्य और प्रमाण के जिसको जैसा मन आए वैसी स्थापना कर सकता था। जब कृष्ण को लेकर संदेह है तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि गीता की ऐतिहासिकता क्या है! यद्यपि गीता को एक स्वतंत्र पृथक ग्रंथ के रूप में पढ़ा जाता है, लेकिन वह मूलत: महाभारत के भीष्म पर्व का अंश है। गीता के बारे में सामान्य धारणा है कि यह महाभारत युध्द के पहले दिन दिया गया उपदेश है, लेकिन भीष्म पर्व तो युध्द के दसवें दिन प्रारंभ होता है! इसमें जो विरोधाभास है, वह स्पष्ट है।

प्रो. देसाई ने गीता में निहित दर्शन की भी विस्तारपूर्वक व्याख्या की है, लेकिन उनकी प्रमुख चिंता गीता के लेखक को खोजने की है। वे विभिन्न स्रोतों का हवाला देते हुए कहते हैं कि इसके लिखने वाले कम से कम तीन लोग थे, जो तीन अलग-अलग समयों में हुए। वे यह भी मानते हैं कि गीता अलग-अलग कालखंडों में अलग-अलग श्रोताओं को संबोधित थी। उनके अनुसार प्रथम लेखक के श्रोता पंडित, मुनि, योगी, तत्वदर्शी इत्यादि थे। दूसरे लेखक के श्रोता चुने हुए यति, योगी आदि थे, जबकि तीसरे लेखक के श्रोता आमजन थे। इस विवेचना में वे डॉ. गजानन खेर से काफी सहायता लेते हैं जिन्होंने मराठी में मूल गीता की खोज नामक शोध ग्रंथ लिखा था। प्रो. देसाई का अपना मानना है कि गीता के तीसरे लेखक बादरायण थे जिन्होंने ब्रह्मसूत्र की रचना की थी। वे इन दोनों ग्रंथों में बहुत सी समानताएं पाते हैं।

प्रो. मेघनाद देसाई के इस विविधतापूर्ण शोधग्रंथ पर आने वाले दिनों में पांडित्यपूर्ण चर्चाएं होंगी इसमें मुझे संदेह नहीं। गीता कब लिखी गई और किसने लिखी यह विद्वानों के बीच चर्चा का विषय है लेकिन मैं रेखांकित करना चाहता हूं कि लेखक ने वर्तमान  समय में गीता की प्रासंगिकता पर भी प्रश्न उठाए हैं। वे मानते हैं कि यह एक कठिन और भ्रम में डालने वाला पाठ है। उनका यह भी कहना है कि भारत के संविधान में सामाजिक न्याय एवं जनतांत्रिक स्वतंत्रताओं की जो प्रतिश्रुति है गीता उसके उपयुक्त नहीं है। वे बहुत स्पष्टपूर्वक कहते हैं कि - ''समय आ गया है कि गीता की समालोचना आज की कसौटियों पर की जाए।'' 


अक्षर पर्व मार्च 2014 अंक में प्रकाशित

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