मैं नहीं
जानता कि मेरा अनुमान किस सीमा तक सही निकलेगा, लेकिन इन दिनों जो
राजनीतिक गतिविधियां चल रही हैं उन्हें देखकर संभावना बनती है कि सोलहवीं
लोकसभा के चुनावों के साथ भारत की राजनीति में एक बिल्कुल नई तरह की शुरुआत
होगी। ध्यान रहे कि मैं यह बात एक व्यापक पृष्ठभूमि में कर रहा हूं और
इसमें किसकी जीत होगी या कौन प्रधानमंत्री बनेगा, इसकी कोई चर्चा फिलहाल
मैं नहीं कर रहा हूं।
सबसे पहले दलबदल की ही बात क्यों न की जाए! अलमोड़ा, भिण्ड, भुवनेश्वर, पटना और न जाने कहां-कहां से महारथी समझे जाने वाले नेताओं के एक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में जाने की खबरें मिल रही हैं। अल्मोड़ा से भाजपा ने बच्ची सिंह रावत को टिकट नहीं दिया तो उन्होंने पार्टी छोड़ दी। पटना में राज्यसभा सदस्य रामकृपाल यादव लोकसभा का टिकट न मिलने से लालू प्रसाद से खफा हो गए। ओड़िशा विधानसभा में विपक्ष के नेता भूपेन्द्र सिंह ने ही पार्टी छोड़ दी और बीजद में शामिल हो गए। इस मामले में कीर्तिमान स्थापित किया मध्यप्रदेश ने। पिछले साल विधानसभा में कांग्रेस के उपनेता चौधरी राकेश सिंह ने सदन के भीतर ही दलबदल किया। उनके बाद होशंगाबाद के लोकसभा सदस्य उदयप्रताप सिंह ने कांग्रेस छोड़ दी और उनके भी सिरमौर निकले भागीरथ प्रसाद। रात को कांग्रेस टिकट मिलने की घोषणा हुई, सुबह भाजपा दफ्तर माला पहनने पहुंच गए। अब उनके सामने क्या मजबूरी थी या कोई प्रलोभन, ये तो वही बता सकते हैं। कुछ ऐसा ही किस्सा तीसरी पीढ़ी के कांग्रेसी विवेक तनखा के साथ हुआ। वे लगभग एक दशक तक दिग्विजय सिंह सरकार में महाधिवक्ता थे, फिर उन्होंने कांग्रेस विरोधियों का सहयोग लेकर राज्यसभा का चुनाव लड़ा, उसमें हार गए। वे कांग्रेस विरोधी प्रबंधन गुरु शिव खेड़ा के 'इंडिया फर्स्ट' अभियान से जुड़े हुए हैं और इस बार उन्हें जबलपुर से कांग्रेस का टिकट मिल गया है।
ऐसे और न जाने कितने उदाहरण हैं। इनसे पता चलता है कि राजनीतिक दल व राजनेता क्षणिक एवं तात्कालिक मुनाफे की प्रत्याशा में किस तरह का आचरण कर रहे हैं। अगर इसे अनैतिक आचरण कहा जाए तो क्या गलत होगा? वैसे तो दल-बदल की यह प्रवृत्ति 1967 से शुरू हो गयी थी। डॉ. लोहिया के अनुयायी इसमें बेहद प्रवीण थे। जनसंघ, फिर भाजपा ने इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देने में हमेशा उत्साह का प्रदर्शन किया। इस मामले में कांग्रेसी भाजपा से उन्नीस बैठे। जो भी हो, आज देश के मतदाता के सामने खुलकर यह बात आ रही है कि राजनीति में सिध्दांतहीनता किस कदर हावी हो गयी है। ये नेता जो मौका ताड़कर दल बदलते हैं, वे इस अवांछित स्थिति को बढ़ावा देने के लिए बहुत बड़ी हद तक जिम्मेदार हैं। इसलिए आज आम चुनावों की बेला में भारतीय मतदाताओं के सामने यह अवसर और संभावनाएं हैं कि इस तरह के मौकापरस्त उम्मीदवारों को घर का रास्ता दिखाकर स्वस्थ राजनीति का मार्ग प्रशस्त किया जाए। अगर मतदाता अपने वोट का इस्तेमाल विवेकपूर्ण ढंग से करे तो दल-बदल का रोग हमेशा के लिए खत्म किया जा सकता है।
इन चुनावों का एक दिलचस्प तथ्य यह है कि देश के अधिकतर हिस्सों में दो पार्टियों के बीच आमने-सामने का मुकाबला न होकर चतुष्कोणीय संघर्ष होगा। चार-पांच प्रांत ही ऐसे हैं जहां कांग्रेस व भाजपा के बीच सीधी-सीधी टक्कर होगी। अस्सी सीटों वाले सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश में एक तरफ कांग्रेस-राष्ट्रीय लोकदल गठबंधन, दूसरी तरफ भाजपा, तीसरी तरफ सपा व तीसरा मोर्चा व चौथी तरफ बसपा होगी। अड़तालीस सीटों वाले महाराष्ट्र में कांग्रेस, भाजपा-शिवसेना, मनसे और आप के बीच अनेक सीटों पर चतुष्कोणीय मुकाबले होंगे। तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक और द्रमुक ने किसी के साथ गठजोड़ नहीं किया है। वहां कांग्रेस अपने बूते पर लड़ेगी और वामदल भी। भाजपा छोटे दलों के साथ गठजोड़ करने की जुगत में है। बिहार में कांग्रेस-राजद, भाजपा, लोजपा और जदयू के बीच मुकाबला होना है। वाममोर्चे की पहल पर तीसरा मोर्चा बनने की पहल हुई है, लेकिन उसके आगे बढ़ने के पहले ही टूटने के आसार नजर आ रहे है। बंगाल में भी चार पक्षों के बीच मुकाबला होगा- कांग्रेस, तृणमूल, वाममोर्चा और भाजपा।
इस स्थिति में आज यह अनुमान लगा पाना कठिन है कि कहां से कौन जीतेगा। कल तक बिहार में नीतीश कुमार की छवि अजेय योध्दा की बनी हुई थी, जो अब बिखर गयी है। इसी तरह अन्य क्षेत्रीय नेता अपने-अपने उद्देश्य में क्या कमाल कर पाएंगे, इस पर प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है। यहां मतदाताओं के सामने एक नया विकल्प खुलता है कि वे अपनी समझ से बेहतर उम्मीदवार को चुन सकें। जहां आमने-सामने मुकाबला हो वहां मतदाता एक बार पार्टी के प्रति निष्ठा या सिध्दांतों के आधार पर अपना वोट देने का निर्णय कर सकता है, लेकिन जहां एक तरह से सीमाएं धुंधला गयी हों वहां प्रत्याशी के अपने गुण व अपनी छवि के आधार पर फैसला होना संभव है। तो क्या इस बार हम ऐसी लोकसभा देखेंगे जिसमें बड़ी संख्या में सदस्य पार्टी के बजाय निजी छवि के कारण जीतकर आएंगे?
इसी सवाल से एक और संभावना उभरती है, बशर्ते राजनीतिक दल जनता से मिल रहे संकेतों को पढ़ने में सक्षम हों. कांग्रेस व भाजपा इन दोनों बड़े दलों के सामने आज यह अवसर है कि वे प्रत्याशियों को चुनने में सिर्फ ''जीत सकते हैं'' (विनेबिलिटी) को आधार न बनाएं बल्कि थोड़ी हिम्मत जुटाकर ऐसे लोगों को सामने लाएं जिनकी छवि स्वच्छ हो। हम याद करना चाहेंगे कि छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस ने पहले चरण में जिन अठ्ठारह प्रत्याशियों को टिकट दिए थे उनमें से बारह ने जीत दर्ज की। अगर कांग्रेसी मगरूर न हुए होते तो बाद के चरणों में भी नए लोगों को सामने लाकर बेहतर नतीजे हासिल कर सकते थे। इस दृष्टि से अभी कांग्रेस ने जो पहली सूची जारी की है उसमें बड़ी संख्या में नए लोगों को, युवाओं को और महिलाओं को टिकट दी गईं। क्या कांग्रेस इस नीति पर कायम रह पाएगी? क्या भाजपा भी ऐसी ही कोई नीति अपनाएगी? गर ऐसा हो सका तो इन पार्टियों के लिए भी अच्छा होगा और राजनीतिज्ञों के लिए भी। एक अच्छी बात यह हुई है कि आसन्न चुनावों में कांग्रेस व भाजपा दोनों के पास नया नेतृत्व है। ऐसा लगता है कि इधर डॉ. मनमोहन सिंह, उधर डॉ. लालकृष्ण अडवानी-दोनों बुजुर्गों की भूमिका नई पीढ़ी को आशीर्वाद देने तक सीमित रह गयी है। फिर कांग्रेस में यदि सोनिया गांधी खुद होकर अपनी भूमिका को समेट रही हैं तो भाजपा में सुषमा स्वराज और उनके समकालीनों को योजनाबध्द तरीके से हाशिए पर खिसकाया जा रहा है। यद्यपि नरेंद्र मोदी युवा नहीं हैं, लेकिन मीडिया के सहयोग से उनकी एक युवकोचित छवि बनाने की कोशिश चल रही है। इसके चलते दोनों पार्र्टियों में सांगठनिक स्तर पर नयी पीढ़ी का अभ्युदय होने की उम्मीद जागने लगी है। यह राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी दोनों पर निर्भर करता है कि वे अपनी-अपनी पार्टी के भीतर युवाओं को कितना आगे ला सकते हैं!
इन सारे बिन्दुओं पर विचार करते हुए ऐसा विश्वास करने को मन होता है कि आगामी लोकसभा में हमें ऐसे सदस्य देखने मिलेंगे, जो राजनीति के घिसे पिटे तरीकों से दूर रहेंगे और कुछ इस तरह से अपना कामकाज करेंगे कि संसदीय लोकतंत्र व लोकतांत्रिक राजनीति में जनता का विश्वास फिर से जाग सके। क्या वास्तव में ऐसा हो सकेगा?
सबसे पहले दलबदल की ही बात क्यों न की जाए! अलमोड़ा, भिण्ड, भुवनेश्वर, पटना और न जाने कहां-कहां से महारथी समझे जाने वाले नेताओं के एक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में जाने की खबरें मिल रही हैं। अल्मोड़ा से भाजपा ने बच्ची सिंह रावत को टिकट नहीं दिया तो उन्होंने पार्टी छोड़ दी। पटना में राज्यसभा सदस्य रामकृपाल यादव लोकसभा का टिकट न मिलने से लालू प्रसाद से खफा हो गए। ओड़िशा विधानसभा में विपक्ष के नेता भूपेन्द्र सिंह ने ही पार्टी छोड़ दी और बीजद में शामिल हो गए। इस मामले में कीर्तिमान स्थापित किया मध्यप्रदेश ने। पिछले साल विधानसभा में कांग्रेस के उपनेता चौधरी राकेश सिंह ने सदन के भीतर ही दलबदल किया। उनके बाद होशंगाबाद के लोकसभा सदस्य उदयप्रताप सिंह ने कांग्रेस छोड़ दी और उनके भी सिरमौर निकले भागीरथ प्रसाद। रात को कांग्रेस टिकट मिलने की घोषणा हुई, सुबह भाजपा दफ्तर माला पहनने पहुंच गए। अब उनके सामने क्या मजबूरी थी या कोई प्रलोभन, ये तो वही बता सकते हैं। कुछ ऐसा ही किस्सा तीसरी पीढ़ी के कांग्रेसी विवेक तनखा के साथ हुआ। वे लगभग एक दशक तक दिग्विजय सिंह सरकार में महाधिवक्ता थे, फिर उन्होंने कांग्रेस विरोधियों का सहयोग लेकर राज्यसभा का चुनाव लड़ा, उसमें हार गए। वे कांग्रेस विरोधी प्रबंधन गुरु शिव खेड़ा के 'इंडिया फर्स्ट' अभियान से जुड़े हुए हैं और इस बार उन्हें जबलपुर से कांग्रेस का टिकट मिल गया है।
ऐसे और न जाने कितने उदाहरण हैं। इनसे पता चलता है कि राजनीतिक दल व राजनेता क्षणिक एवं तात्कालिक मुनाफे की प्रत्याशा में किस तरह का आचरण कर रहे हैं। अगर इसे अनैतिक आचरण कहा जाए तो क्या गलत होगा? वैसे तो दल-बदल की यह प्रवृत्ति 1967 से शुरू हो गयी थी। डॉ. लोहिया के अनुयायी इसमें बेहद प्रवीण थे। जनसंघ, फिर भाजपा ने इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देने में हमेशा उत्साह का प्रदर्शन किया। इस मामले में कांग्रेसी भाजपा से उन्नीस बैठे। जो भी हो, आज देश के मतदाता के सामने खुलकर यह बात आ रही है कि राजनीति में सिध्दांतहीनता किस कदर हावी हो गयी है। ये नेता जो मौका ताड़कर दल बदलते हैं, वे इस अवांछित स्थिति को बढ़ावा देने के लिए बहुत बड़ी हद तक जिम्मेदार हैं। इसलिए आज आम चुनावों की बेला में भारतीय मतदाताओं के सामने यह अवसर और संभावनाएं हैं कि इस तरह के मौकापरस्त उम्मीदवारों को घर का रास्ता दिखाकर स्वस्थ राजनीति का मार्ग प्रशस्त किया जाए। अगर मतदाता अपने वोट का इस्तेमाल विवेकपूर्ण ढंग से करे तो दल-बदल का रोग हमेशा के लिए खत्म किया जा सकता है।
इन चुनावों का एक दिलचस्प तथ्य यह है कि देश के अधिकतर हिस्सों में दो पार्टियों के बीच आमने-सामने का मुकाबला न होकर चतुष्कोणीय संघर्ष होगा। चार-पांच प्रांत ही ऐसे हैं जहां कांग्रेस व भाजपा के बीच सीधी-सीधी टक्कर होगी। अस्सी सीटों वाले सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश में एक तरफ कांग्रेस-राष्ट्रीय लोकदल गठबंधन, दूसरी तरफ भाजपा, तीसरी तरफ सपा व तीसरा मोर्चा व चौथी तरफ बसपा होगी। अड़तालीस सीटों वाले महाराष्ट्र में कांग्रेस, भाजपा-शिवसेना, मनसे और आप के बीच अनेक सीटों पर चतुष्कोणीय मुकाबले होंगे। तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक और द्रमुक ने किसी के साथ गठजोड़ नहीं किया है। वहां कांग्रेस अपने बूते पर लड़ेगी और वामदल भी। भाजपा छोटे दलों के साथ गठजोड़ करने की जुगत में है। बिहार में कांग्रेस-राजद, भाजपा, लोजपा और जदयू के बीच मुकाबला होना है। वाममोर्चे की पहल पर तीसरा मोर्चा बनने की पहल हुई है, लेकिन उसके आगे बढ़ने के पहले ही टूटने के आसार नजर आ रहे है। बंगाल में भी चार पक्षों के बीच मुकाबला होगा- कांग्रेस, तृणमूल, वाममोर्चा और भाजपा।
इस स्थिति में आज यह अनुमान लगा पाना कठिन है कि कहां से कौन जीतेगा। कल तक बिहार में नीतीश कुमार की छवि अजेय योध्दा की बनी हुई थी, जो अब बिखर गयी है। इसी तरह अन्य क्षेत्रीय नेता अपने-अपने उद्देश्य में क्या कमाल कर पाएंगे, इस पर प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है। यहां मतदाताओं के सामने एक नया विकल्प खुलता है कि वे अपनी समझ से बेहतर उम्मीदवार को चुन सकें। जहां आमने-सामने मुकाबला हो वहां मतदाता एक बार पार्टी के प्रति निष्ठा या सिध्दांतों के आधार पर अपना वोट देने का निर्णय कर सकता है, लेकिन जहां एक तरह से सीमाएं धुंधला गयी हों वहां प्रत्याशी के अपने गुण व अपनी छवि के आधार पर फैसला होना संभव है। तो क्या इस बार हम ऐसी लोकसभा देखेंगे जिसमें बड़ी संख्या में सदस्य पार्टी के बजाय निजी छवि के कारण जीतकर आएंगे?
इसी सवाल से एक और संभावना उभरती है, बशर्ते राजनीतिक दल जनता से मिल रहे संकेतों को पढ़ने में सक्षम हों. कांग्रेस व भाजपा इन दोनों बड़े दलों के सामने आज यह अवसर है कि वे प्रत्याशियों को चुनने में सिर्फ ''जीत सकते हैं'' (विनेबिलिटी) को आधार न बनाएं बल्कि थोड़ी हिम्मत जुटाकर ऐसे लोगों को सामने लाएं जिनकी छवि स्वच्छ हो। हम याद करना चाहेंगे कि छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस ने पहले चरण में जिन अठ्ठारह प्रत्याशियों को टिकट दिए थे उनमें से बारह ने जीत दर्ज की। अगर कांग्रेसी मगरूर न हुए होते तो बाद के चरणों में भी नए लोगों को सामने लाकर बेहतर नतीजे हासिल कर सकते थे। इस दृष्टि से अभी कांग्रेस ने जो पहली सूची जारी की है उसमें बड़ी संख्या में नए लोगों को, युवाओं को और महिलाओं को टिकट दी गईं। क्या कांग्रेस इस नीति पर कायम रह पाएगी? क्या भाजपा भी ऐसी ही कोई नीति अपनाएगी? गर ऐसा हो सका तो इन पार्टियों के लिए भी अच्छा होगा और राजनीतिज्ञों के लिए भी। एक अच्छी बात यह हुई है कि आसन्न चुनावों में कांग्रेस व भाजपा दोनों के पास नया नेतृत्व है। ऐसा लगता है कि इधर डॉ. मनमोहन सिंह, उधर डॉ. लालकृष्ण अडवानी-दोनों बुजुर्गों की भूमिका नई पीढ़ी को आशीर्वाद देने तक सीमित रह गयी है। फिर कांग्रेस में यदि सोनिया गांधी खुद होकर अपनी भूमिका को समेट रही हैं तो भाजपा में सुषमा स्वराज और उनके समकालीनों को योजनाबध्द तरीके से हाशिए पर खिसकाया जा रहा है। यद्यपि नरेंद्र मोदी युवा नहीं हैं, लेकिन मीडिया के सहयोग से उनकी एक युवकोचित छवि बनाने की कोशिश चल रही है। इसके चलते दोनों पार्र्टियों में सांगठनिक स्तर पर नयी पीढ़ी का अभ्युदय होने की उम्मीद जागने लगी है। यह राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी दोनों पर निर्भर करता है कि वे अपनी-अपनी पार्टी के भीतर युवाओं को कितना आगे ला सकते हैं!
इन सारे बिन्दुओं पर विचार करते हुए ऐसा विश्वास करने को मन होता है कि आगामी लोकसभा में हमें ऐसे सदस्य देखने मिलेंगे, जो राजनीति के घिसे पिटे तरीकों से दूर रहेंगे और कुछ इस तरह से अपना कामकाज करेंगे कि संसदीय लोकतंत्र व लोकतांत्रिक राजनीति में जनता का विश्वास फिर से जाग सके। क्या वास्तव में ऐसा हो सकेगा?
देशबंधु में 13 मार्च 2014 को प्रकाशित
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