Wednesday 19 March 2014

भाजपा का भविष्य



भारतीय
जनता पार्टी के कार्यकर्ता व समर्थक अतिउत्साहित हैं कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश में उनकी सरकार बनने जा रही है। इन दिनों मीडिया ने जैसी हवा बांध रखी है उसे देखते हुए इस उत्साह को गलत नहीं कहा जा सकता किन्तु हमारे विचार में भाजपाई एक बड़े सवाल की अनदेखी कर रहे हैं कि अगर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बन भी गई तो एक राजनैतिक दल के रूप में भाजपा का भविष्य क्या होगा? हमारे सामने कुछ तस्वीरें हैं। 16 मार्च को होली के दिन भाजपा के सबसे बड़े नेता लालकृष्ण आडवानी एक तरह से कोप भवन में बैठे रहे। वे उस दिन कुछ गिने-चुने लोगों से ही मिले और मीडिया को उनके दरवाजे से भीतर घुसने की मनाही कर दी गई थी। जबकि इसके पहले तक आडवानी जी बहुत उल्लास के साथ रंगों के त्योहार का आनंद उठाया करते थे। भाजपा के दूसरे ज्येष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी की नाराजगी भी छिपाए नहीं छिप रही है। उन्होंने पिछले कुछ दिनों में पल-पल संदेश दिए कि वे वाराणसी की सीट नहीं छोड़ना चाहते, लेकिन उनकी एक न चली। यही नहीं, श्री आडवानी की टिकट भी इस कॉलम के लिखे जाने तक पक्की नहीं की गई है।

जो पार्टी देश की सत्ता हासिल करने के लिए इतनी बेचैन है उसमें बड़े नेताओं के साथ इस तरह का बर्ताव आश्चर्यजनक है। ये सिर्फ नाम से ही बड़े नेता नहीं हैं। ये वे लोग हैं जिन्होंने भारतीय जनता पार्टी को स्थापित करने में अपना पूरा जीवन होम कर दिया। इस संदर्भ में सुषमा स्वराज का भी ध्यान आता है। उन्होंने कर्नाटक के बागी नेता श्रीरामुलु को दुबारा पार्टी में लेने का सार्वजनिक तौर से पुरजोर विरोध किया, लेकिन उनकी बात भी नहीं सुनी गई। कलराज मिश्र, लालजी टंडन, नवजोत सिंह सिध्दू एवं गिरिराज सिंह इत्यादि कुछ ऐसे नाम हैं जो अपनी पसंदीदा सीट हासिल नहीं कर सके। कुल मिलाकर ऐसा दृश्य है कि एक तरफ श्री आडवानी, श्री जोशी और श्रीमती स्वराज जैसे कद्दावर नेताओं को नीचा दिखलाया जा रहा है और दूसरी तरफ अमित शाह, बी.एस. येदियुरप्पा, कल्याण सिंह व श्रीरामुलु जैसे विवादित व्यक्तियों का पार्टी बांहें फैलाकर स्वागत कर रही है, गले लगा रही है।

इस दृश्य को देखकर सहज ही प्रश्न उठता है कि यदि श्री मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बन सकी तो भारतीय जनता पार्टी में संगठन और विचार के स्तर पर किस तरह के परिवर्तन आएंगे। क्या ये बदलाव उसी तरह के होंगे जिसकी कल्पना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने की है? अभी दबी जबान में जो बातें सुनने मिल रही हैं उनके अनुसार संघ में एक बड़ा वर्ग इस घटनाचक्र से खिन्न और विचलित है। यह संभवत: मोहन भागवत की सोच रही होगी कि एक दृढ़ संकल्पित नेतृत्व के बिना भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का स्वप्न पूरा नहीं हो सकेगा! हो सकता है उनके मन में यह विचार भी रहा हो कि जिस लक्ष्य को पाने में उनके पूर्ववर्ती असफल रहे उसे वे पूरा कर के दिखाएंगे और इसी हिसाब से उन्होंने अपनी रणनीति तैयार की हो! चूंकि संघ ''एकचालकानुवर्ती'' के सिध्दांत पर काम करता है याने सरसंघचालक ने जो तय कर दिया वह पत्थर की लकीर इसलिए संघ के भीतर किसी ने उनका विरोध तो नहीं किया, लेकिन अब एक कसमसाहट नज़र आ रही है।

यह हम जानते हैं कि संघ परिवार (जिसमें विश्व हिन्दू परिषद व बजरंग दल भी शामिल हैं) के कार्यकर्ताओं ने भारतीय जनता पार्टी के बड़े-बड़े नेताओं की उपस्थिति में उनकी मौन स्वीकृति के साथ 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद गिराने का जघन्य कृत्य किया था। इसके अलावा अडवानीजी की रथयात्रा, मुरली मनोहर जोशी की श्रीनगर में राष्ट्रध्वज फहराने की यात्रा, एकात्मकता यात्रा, श्रीरामशिला के नाम से ईंटें  एकत्र करने का अभियान- जैसे उपक्रमों के परिणामस्वरूप भारतीय जनता पार्टी को राजनीतिक लाभ तो हुआ, लेकिन वह कभी भी इतना पर्याप्त नहीं था कि भाजपा अपने बलबूते केन्द्र में सत्ता हासिल कर सके। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा को सत्तारूढ़ होने का मौका अवश्य मिला, किन्तु इसके लिए उन्हें बहुत सारे छोटे दलों का समर्थन हासिल करने के साथ-साथ अपने घोषणा पत्र के तीन मुख्य बिन्दुओं को छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था।

श्री वाजपेयी अनुभवी राजनेता थे और अच्छी तरह से जानते थे कि भारत जैसे देश की सरकार चलाने के लिए कट्टरता छोड़कर लचीला रुख अपनाना आवश्यक है। अपनी इस सूझबूझ के कारण ही वे भाजपा के नेतृत्व में सरकार चलाने में समर्थ हो सके। श्री आडवानी जिन्हें वाजपेयी जी के मुकाबले एक कट्टरपंथी नेता माना जाता था उन्हें भी आगे चलकर भान हुआ कि वे जब तक उदारवादी रवैय्या नहीं अपनाएंगे या वैसा अभिनय नहीं करेंगे वे प्रधानमंत्री नहीं बन सकेंगे। उन्होंने अपनी इस नई सोच का परिचय जिन्ना की मजार पर जाकर श्रध्दांजलि देने जैसे काम से दिया। संघ को उनका यह नया रूप पसंद नहीं आया और परिणामस्वरूप उन्हें पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा। इसके बाद पार्टी ने अपना दांव नितिन गडकरी पर लगाया। श्री गडकरी राष्ट्रीय स्तर के नेता नहीं थे, लेकिन उन्हें संघ का विश्वास तो प्राप्त था ही। फिर भी शायद वे संघ की आशाओं पर खरा नहीं उतर सके!  बिना अधिक विस्तार में गए अभी इतना कहना पर्याप्त होगा कि मोहन भागवत ने नरेन्द्र मोदी से आशा बांध रखी है कि वे भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने में समर्थ होंगे। यक्ष प्रश्न है कि क्या सचमुच ऐसा हो पाएगा?

श्री नरेन्द्र मोदी की दो विशेषताएं हैं जो उनके हिन्दू हृदय सम्राट बन सकने की संभावनाएं जगाती हैं। एक-2002 के गुजरात नरसंहार की पृष्ठभूमि में श्री मोदी भाजपा के सबसे बड़े कट्टरपंथी और अनुदार नेता के रूप में उभरे हैं। दो- वे एक ऐसे कठोर राजनेता के रूप में सामने आते हैं जिसने जो तय कर लिया सो कर लिया, जो समझौता जैसा शब्द नहीं जानता। दिलचस्प बात यह है कि उनके इन गुणों की परख करने वाले मोहन भागवत अकेले व्यक्ति नहीं हैं। भारत के टाटा, अंबानी, बिड़ला, अडानी, टोरेंट, एस्सार जैसे कारपोरेट घराने भी उनके गुणग्राहक हैं। यदि श्री भागवत का जोर उनके पहले गुण पर है तो कारपोरेट की आशाओं की डोर उनके दूसरे गुण से बंधी है।

एक अनुमान लगाने को जी चाहता है कि क्या नितिन गडकरी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर उन्हें पार्टी अध्यक्ष पद से इसीलिए हटाया गया कि वे नरेन्द्र मोदी के प्रतिद्वंद्वी न बन सकें?  हमारा अनुमान गलत हो सकता है किन्तु अभी यह बिन्दु विचारणीय है कि क्या नरेन्द्र मोदी एक तरफ मोहन भागवत और दूसरी तरफ कारपोरेट घरानों की आशाओं-आकांक्षाओं के बीच कोई तालमेल बैठा पाएंगे? श्री भागवत चाहे जो सोचें, क्या भारत का कोई भी प्रधानमंत्री इस विशाल देश को एक धर्म आधारित देश बना सकता है? श्री नरेन्द्र मोदी और हिटलर के बीच प्रकारान्तर से तुलना की जाती है, लेकिन क्या आज की दुनिया में और विशेषकर स्वतंत्र भारत की अपनी राजनीतिक परंपरा में किसी भी व्यक्ति का हिटलर बन पाना संभव है? दूसरी ओर यह प्रश्न भी उठता है कि देश के कारपोरेट घराने अपने साम्राय के निर्बंध विस्तार के लिए जो माहौल चाहते हैं, क्या वह सांप्रदायिक अशांति से उपजे माहौल में संभव हो पाएगा? मेरी दृष्टि में दोनों का ही जवाब नहीं में होना चाहिए।

मैं एक और संभावना देखता हूं। यदि नरेन्द्र मोदी ले-देकर प्रधानमंत्री बन भी गए तो उन्हें मजबूर होकर क्षेत्रीय व छोटे दलों से समझौता करना पड़ेगा, हाशिए पर डाल दिए गए बुजुर्ग नेताओं की अनुपस्थिति में भाजपा का नए सिरे से गठन करना होगा, देश-विदेश के तमाम मसलों पर निर्णय लेना पड़ेगा और तब परीक्षा होगी कि मीडिया और छविनिर्माण एजेंसियों ने भारी रकम और बड़ी मेहनत कर जो प्रपंच रचा है, उसमें नरेंद्र मोदी बोरिस येल्तसिन सिध्द होते हैं या ब्लीदीमिर पुतिन!!

 
देशबंधु में 20 मार्च 2014 को प्रकाशित

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