वे दोनों पत्रकार थे। उम्र में साठ के
आसपास, इसलिए कहना होगा वरिष्ठ। दोनों दिल्ली के थे। प्रधानमंत्री के साथ
पहले भी विदेश यात्राएं कर चुके थे। बुखारा से आए जहाज से उतरकर ताशकंद में
दिल्ली के लिए जब वे विमान में चढऩे लगे तो एक रोचक दृश्य देखने मिला।
दोनों के हाथों में दो बड़े-बड़े तरबूज थे, जिन्हें वे किसी तरह संभाल पा
रहे थे। किसी ने पूछा- यह क्या भई! जवाब था- बुखारा के तरबूज बहुत मीठे
होते हैं। हम लोग चार दिन की सोवियत संघ की यात्रा के बाद स्वदेश वापिस लौट
रहे थे। यह प्रसंग है जुलाई 1990 का। वी.पी. सिंह प्रधानमंत्री थे। इस
यात्रा में हम मास्को के अलावा ताशकंद, समरकंद और बुखारा भी गए थे। हम कोई
तीस-पैंतीस पत्रकार उनके साथ चल रही प्रेस पार्टी के सदस्य थे।
प्रधानमंत्री के लगातार एक के बाद एक कार्यक्रम थे। इन दोनों सज्जनों के
अलावा अनेक अन्य पत्रकारों को भी मैंने भारतीय प्रधानमंत्री के किसी भी
कार्यक्रम में नहीं देखा।
अधिकतर साथी क्रैमलिन में गोर्बाच्योव-वी.पी. सिंह भेंट के बाद अपने-अपने हिसाब से घूमने निकल गए थे। दो अन्य पत्रकार ऐसे भी थे, जो पहले दिन के बाद कहीं दिखे ही नहीं। लौटते वक्त जब उन्हें विमान में लाकर बैठा दिया गया तब ख्याल आया कि अरे! ये भी तो साथ थे। ये दोनों मास्को में किसी गोरखधंधे में उलझ गए थे और उन्हें पुलिस ने रोक लिया था। प्रधानमंत्री के साथ गए थे इसलिए वापिस लौटने की अनुमति मिल गई। मेरी किसी प्रधानमंत्री के साथ यह पहली यात्रा थी इसलिए मैं कुछ अतिरिक्त उत्साह के साथ कार्यक्रमों का कवरेज करने में जुटा हुआ था। मुझे साथ ही साथ यह हैरानी भी हो रही थी कि बाकी पत्रकार क्या कर रहे हैं। यूं कहने को तो हम प्रधानमंत्री के साथ गए थे, लेकिन वे हमसे सिर्फ एक बार ही मिले, लौटते समय जब विमान में ही एक संक्षिप्त पत्रवार्ता हुई। बाकी तो उनके कार्यक्रमों की और यात्रा की रिपोर्टिंग हमें उसी तरह करना चाहिए थी जिसकी अपेक्षा सामान्यत: हर रिपोर्टर से की जाती है। इतना जरूर था कि आते-जाते पूरे समय खातिरदारी अच्छी हुई: मास्को में होटल के हमारे कमरों में हरेक के लिए में ब्लैक लेबल की एक-एक बोतल भी रखी हुई थी।
मुझे मार्च 1994 में दूसरी बार प्रधानमंत्री के साथ यात्रा का अवसर मिला। पी.वी. नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री थे। इस यात्रा में भी पत्रकारों का हालचाल वैसा ही था, जो मैं पहले देख चुका था। जब भी प्रधानमंत्री विदेश यात्रा पर जाते हैं अमूमन तीन दर्जन पत्रकारों को साथ ले जाते हैं। यात्रा दल में कुछ मंत्री, कुछ अफसर और कुछ विषय-विशेषज्ञ भी होते हैं। इसका मकसद शायद यही होता हो कि यात्रा के दौरान अनौपचारिक तौर पर विचार-विमर्श हो, जो देश-विशेष के साथ संबंध विकसित करने में कुछ काम आए। लेकिन मैंने देखा कि अधिकतर सहयात्रियों की इसमें रुचि नहीं होती। इसके बावजूद अनेक पत्रकार इस जोड़-तोड़ में लगे रहते हैं कि उन्हें प्रधानमंत्री या अन्य किसी वीवीआईपी के साथ विदेश यात्रा का मौका कैसे मिले। फिर भले ही उस देश के बारे में उनकी जानकारी शून्य ही क्यों न हो।
मुझे इंग्लैण्ड यात्रा में एक ऐसे साथी पत्रकार मिले जिन्हें इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री का नाम तक मालूम नहीं था। हमने यह भी देखा कि कई बार पत्रकारों की जगह अखबार के मालिक यात्रा पर चले गए और अपने कार्यालय को निर्देश दे गए कि वार्ता या भाषा से जो खबर आए उसे प्रतिदिन उनकी बाइलाइन के साथ छाप दिया जाए। एक बड़े प्रतिष्ठित हिन्दी अखबार में तो बात यहां तक पहुंची कि पत्र के दिल्ली ब्यूरो प्रमुख को जो कि स्वयं एक अतिसम्मानित पत्रकार थे पत्रस्वामी से निर्देश मिला कि वे स्वयं न जाकर मालिक के बेटे का नाम प्रेस पार्टी में शामिल करवा दें। उन वरिष्ठ पत्रकार ने क्षुब्ध होकर अखबार ही छोड़ दिया। ये कुछ उदाहरण हैं जिनसे प्रकट होता है कि प्रधानमंत्री के साथ यात्रा करने का लक्ष्य यही होता है कि उन्हें दो-चार दिन खुद पर इठलाने का मौका मिल जाए। जब ऐसा अवसर नहीं मिलता तो भाई लोग नाराज हो जाते हैं। नरसिंह राव के प्रेस सलाहकार पी.वी.आर.के. प्रसाद ने अपनी आत्मकथा में वर्णन किया है कि एक अंग्रेजी अखबार के संपादक ने उनके खिलाफ मुहिम छेड़ दी क्योंकि संपादक महोदय की पत्रकार पत्नी को वे प्रेस पार्टी में शामिल नहीं कर सके।
दरअसल भारतीय समाज में विदेश यात्रा के प्रति एक अजीब तरह का आकर्षण है। जिस देश में पोंगा पंडितों ने विदेश यात्रा पर कभी पाबंदी लगा दी थी और भूले-भटके चले गए तो लौटने पर शुद्धिकरण करना होता था, उस देश में यह आकर्षण क्यों है यह तो समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिक बता पाएंगे। इसलिए अगर किसी को विदेश यात्रा का अवसर मिल जाए तो वह शुभचिंतकों के लिए प्रसन्नता का एवं अन्यों के लिए ईष्र्या का सबब बन जाता है। इस मनोवृत्ति में इधर काफी कमी आई है, लेकिन जब देश के प्रधानमंत्री के साथ ऐसा अवसर मिले, तो फिर कहना ही क्या है। मैंने स्वयं ऐसे अवसर जुटाने की कोशिश की कि इससे अपने प्रसार क्षेत्र में अखबार की धाक कुछ और ज्यादा जम जाएगी।
अखबार की प्रतिष्ठा बढऩे के साथ-साथ अखबारनवीस को भी गर्व का अहसास होता ही है। लोग समझने लगते हैं कि देखो इस पत्रकार की पहुंच कितनी ऊंची है। हम भी कुछ ऐसा भाव जतलाते हैं गोया प्रधानमंत्री के साथ रोज सुबह चाय पीते हैं। लेकिन अवसर पाना आसान नहीं होता। अक्सर तो दिल्ली वालों के खाते में ही यह मौका जुड़ता है। क्षेत्रीय और भाषायी अखबारों को कोई न कोई सीढ़ी ढूंढना पड़ती है। मैं जब वी.पी. सिंह के साथ गया तब प्रसिद्ध पत्रकार प्रेमशंकर झा उनके प्रेस सलाहकार थे। मेरे सुयोग्य सहयोगी व मैत्री-प्रवीण गिरिजाशंकर का उनसे अच्छा परिचय था। गिरिजा ने प्रेमजी से बात की और मेरा नाम जुड़ गया। दूसरी बार पी.वी.आर.के. प्रसाद प्रेस सलाहकार थे, वे रायपुर में साइंस कॉलेज में व्याख्याता रह चुके थे। रायपुर के महापौर रह चुके (स्व.) एस.आर. मूर्ति ने मेरा उनसे परिचय करवाया था।
मैंने यह सारा खुलासा इसलिए किया क्योंकि वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी विदेश यात्राओं में प्रेस पार्टियों के लिए कोई जगह नहीं रखी। ऐसा करने वाले वे पहले प्रधानमंत्री हैं। यद्यपि इसके पूर्व ऐसे अवसर आए हैं जब प्रेस की खुली मेहमाननवाजी नहीं की गई है। मैंने जब यात्राएं की थीं तब पूरी यात्रा सरकारी खर्चे पर होती थीं। इधर कई सालों से एयर इंडिया-1 में यात्रा तो मुफ्त हो जाती थी, लेकिन होटल का किराया पत्रकार या उसके संस्थान को वहन करना पड़ता था। अभी भी शायद कुछ ऐसा इंतजाम किया गया है कि मीडिया संस्थान अपना प्रतिनिधि भेजना चाहे तो संपूर्ण व्यय यात्रा उसे वहन करना पड़ेगा। मुझे ध्यान आता है कि अमेरिका की रिपोर्टर गिल्ड जैसी संस्था ने अपने सदस्यों पर नियम लागू कर रखा है कि यदि वे राष्ट्रपति के साथ दौरे पर जाते हैं तो उसका पूरा खर्च उन्हें स्वयं उठाना होगा। मैंने न्यूयार्क टाइम्स के विख्यात पत्रकार जेम्स रैस्टन की पुस्तक में बरसों पहले यह बात पढ़ी थी।
प्रधानमंत्री के साथ विदेश यात्रा करने के बारे में मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री को पत्रकारों से परहेज नहीं करना चाहिए। पत्रकारों के चयन के लिए एक पारदर्शी व्यवस्था बने और उन पत्रकारों को मौका मिले जो मेजबान देश के बारे में कुछ जानते-समझते हों तथा प्रधानमंत्री की यात्रा का राजनीतिक विश्लेषण करने में सक्षम हों। विशेष विमान में जब कूटनयिक, विषय-विशेषज्ञ एवं पत्रकार साथ बैठेंगे तो उनकी चर्चाओं में ऐसे बिन्दु उभर कर आने की संभावना ऐसे बनी रहेगी जिनसे सरकार को अपने संवाद की दिशा निर्धारित करने में सहायता मिल सकेगी। सजग पत्रकारों का उपयोग दुनिया भर की सरकारों ने ट्रेक-2 डिप्लोमेसी के लिए समय-समय पर किया है। ऐसी यात्राएं इस दिशा में भी भविष्य के लिए उपयोगी हो सकती हैं। बाकी तो मोदीजी प्रधानमंत्री हैं, वे जो चाहें सो करें!
अधिकतर साथी क्रैमलिन में गोर्बाच्योव-वी.पी. सिंह भेंट के बाद अपने-अपने हिसाब से घूमने निकल गए थे। दो अन्य पत्रकार ऐसे भी थे, जो पहले दिन के बाद कहीं दिखे ही नहीं। लौटते वक्त जब उन्हें विमान में लाकर बैठा दिया गया तब ख्याल आया कि अरे! ये भी तो साथ थे। ये दोनों मास्को में किसी गोरखधंधे में उलझ गए थे और उन्हें पुलिस ने रोक लिया था। प्रधानमंत्री के साथ गए थे इसलिए वापिस लौटने की अनुमति मिल गई। मेरी किसी प्रधानमंत्री के साथ यह पहली यात्रा थी इसलिए मैं कुछ अतिरिक्त उत्साह के साथ कार्यक्रमों का कवरेज करने में जुटा हुआ था। मुझे साथ ही साथ यह हैरानी भी हो रही थी कि बाकी पत्रकार क्या कर रहे हैं। यूं कहने को तो हम प्रधानमंत्री के साथ गए थे, लेकिन वे हमसे सिर्फ एक बार ही मिले, लौटते समय जब विमान में ही एक संक्षिप्त पत्रवार्ता हुई। बाकी तो उनके कार्यक्रमों की और यात्रा की रिपोर्टिंग हमें उसी तरह करना चाहिए थी जिसकी अपेक्षा सामान्यत: हर रिपोर्टर से की जाती है। इतना जरूर था कि आते-जाते पूरे समय खातिरदारी अच्छी हुई: मास्को में होटल के हमारे कमरों में हरेक के लिए में ब्लैक लेबल की एक-एक बोतल भी रखी हुई थी।
मुझे मार्च 1994 में दूसरी बार प्रधानमंत्री के साथ यात्रा का अवसर मिला। पी.वी. नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री थे। इस यात्रा में भी पत्रकारों का हालचाल वैसा ही था, जो मैं पहले देख चुका था। जब भी प्रधानमंत्री विदेश यात्रा पर जाते हैं अमूमन तीन दर्जन पत्रकारों को साथ ले जाते हैं। यात्रा दल में कुछ मंत्री, कुछ अफसर और कुछ विषय-विशेषज्ञ भी होते हैं। इसका मकसद शायद यही होता हो कि यात्रा के दौरान अनौपचारिक तौर पर विचार-विमर्श हो, जो देश-विशेष के साथ संबंध विकसित करने में कुछ काम आए। लेकिन मैंने देखा कि अधिकतर सहयात्रियों की इसमें रुचि नहीं होती। इसके बावजूद अनेक पत्रकार इस जोड़-तोड़ में लगे रहते हैं कि उन्हें प्रधानमंत्री या अन्य किसी वीवीआईपी के साथ विदेश यात्रा का मौका कैसे मिले। फिर भले ही उस देश के बारे में उनकी जानकारी शून्य ही क्यों न हो।
मुझे इंग्लैण्ड यात्रा में एक ऐसे साथी पत्रकार मिले जिन्हें इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री का नाम तक मालूम नहीं था। हमने यह भी देखा कि कई बार पत्रकारों की जगह अखबार के मालिक यात्रा पर चले गए और अपने कार्यालय को निर्देश दे गए कि वार्ता या भाषा से जो खबर आए उसे प्रतिदिन उनकी बाइलाइन के साथ छाप दिया जाए। एक बड़े प्रतिष्ठित हिन्दी अखबार में तो बात यहां तक पहुंची कि पत्र के दिल्ली ब्यूरो प्रमुख को जो कि स्वयं एक अतिसम्मानित पत्रकार थे पत्रस्वामी से निर्देश मिला कि वे स्वयं न जाकर मालिक के बेटे का नाम प्रेस पार्टी में शामिल करवा दें। उन वरिष्ठ पत्रकार ने क्षुब्ध होकर अखबार ही छोड़ दिया। ये कुछ उदाहरण हैं जिनसे प्रकट होता है कि प्रधानमंत्री के साथ यात्रा करने का लक्ष्य यही होता है कि उन्हें दो-चार दिन खुद पर इठलाने का मौका मिल जाए। जब ऐसा अवसर नहीं मिलता तो भाई लोग नाराज हो जाते हैं। नरसिंह राव के प्रेस सलाहकार पी.वी.आर.के. प्रसाद ने अपनी आत्मकथा में वर्णन किया है कि एक अंग्रेजी अखबार के संपादक ने उनके खिलाफ मुहिम छेड़ दी क्योंकि संपादक महोदय की पत्रकार पत्नी को वे प्रेस पार्टी में शामिल नहीं कर सके।
दरअसल भारतीय समाज में विदेश यात्रा के प्रति एक अजीब तरह का आकर्षण है। जिस देश में पोंगा पंडितों ने विदेश यात्रा पर कभी पाबंदी लगा दी थी और भूले-भटके चले गए तो लौटने पर शुद्धिकरण करना होता था, उस देश में यह आकर्षण क्यों है यह तो समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिक बता पाएंगे। इसलिए अगर किसी को विदेश यात्रा का अवसर मिल जाए तो वह शुभचिंतकों के लिए प्रसन्नता का एवं अन्यों के लिए ईष्र्या का सबब बन जाता है। इस मनोवृत्ति में इधर काफी कमी आई है, लेकिन जब देश के प्रधानमंत्री के साथ ऐसा अवसर मिले, तो फिर कहना ही क्या है। मैंने स्वयं ऐसे अवसर जुटाने की कोशिश की कि इससे अपने प्रसार क्षेत्र में अखबार की धाक कुछ और ज्यादा जम जाएगी।
अखबार की प्रतिष्ठा बढऩे के साथ-साथ अखबारनवीस को भी गर्व का अहसास होता ही है। लोग समझने लगते हैं कि देखो इस पत्रकार की पहुंच कितनी ऊंची है। हम भी कुछ ऐसा भाव जतलाते हैं गोया प्रधानमंत्री के साथ रोज सुबह चाय पीते हैं। लेकिन अवसर पाना आसान नहीं होता। अक्सर तो दिल्ली वालों के खाते में ही यह मौका जुड़ता है। क्षेत्रीय और भाषायी अखबारों को कोई न कोई सीढ़ी ढूंढना पड़ती है। मैं जब वी.पी. सिंह के साथ गया तब प्रसिद्ध पत्रकार प्रेमशंकर झा उनके प्रेस सलाहकार थे। मेरे सुयोग्य सहयोगी व मैत्री-प्रवीण गिरिजाशंकर का उनसे अच्छा परिचय था। गिरिजा ने प्रेमजी से बात की और मेरा नाम जुड़ गया। दूसरी बार पी.वी.आर.के. प्रसाद प्रेस सलाहकार थे, वे रायपुर में साइंस कॉलेज में व्याख्याता रह चुके थे। रायपुर के महापौर रह चुके (स्व.) एस.आर. मूर्ति ने मेरा उनसे परिचय करवाया था।
मैंने यह सारा खुलासा इसलिए किया क्योंकि वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी विदेश यात्राओं में प्रेस पार्टियों के लिए कोई जगह नहीं रखी। ऐसा करने वाले वे पहले प्रधानमंत्री हैं। यद्यपि इसके पूर्व ऐसे अवसर आए हैं जब प्रेस की खुली मेहमाननवाजी नहीं की गई है। मैंने जब यात्राएं की थीं तब पूरी यात्रा सरकारी खर्चे पर होती थीं। इधर कई सालों से एयर इंडिया-1 में यात्रा तो मुफ्त हो जाती थी, लेकिन होटल का किराया पत्रकार या उसके संस्थान को वहन करना पड़ता था। अभी भी शायद कुछ ऐसा इंतजाम किया गया है कि मीडिया संस्थान अपना प्रतिनिधि भेजना चाहे तो संपूर्ण व्यय यात्रा उसे वहन करना पड़ेगा। मुझे ध्यान आता है कि अमेरिका की रिपोर्टर गिल्ड जैसी संस्था ने अपने सदस्यों पर नियम लागू कर रखा है कि यदि वे राष्ट्रपति के साथ दौरे पर जाते हैं तो उसका पूरा खर्च उन्हें स्वयं उठाना होगा। मैंने न्यूयार्क टाइम्स के विख्यात पत्रकार जेम्स रैस्टन की पुस्तक में बरसों पहले यह बात पढ़ी थी।
प्रधानमंत्री के साथ विदेश यात्रा करने के बारे में मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री को पत्रकारों से परहेज नहीं करना चाहिए। पत्रकारों के चयन के लिए एक पारदर्शी व्यवस्था बने और उन पत्रकारों को मौका मिले जो मेजबान देश के बारे में कुछ जानते-समझते हों तथा प्रधानमंत्री की यात्रा का राजनीतिक विश्लेषण करने में सक्षम हों। विशेष विमान में जब कूटनयिक, विषय-विशेषज्ञ एवं पत्रकार साथ बैठेंगे तो उनकी चर्चाओं में ऐसे बिन्दु उभर कर आने की संभावना ऐसे बनी रहेगी जिनसे सरकार को अपने संवाद की दिशा निर्धारित करने में सहायता मिल सकेगी। सजग पत्रकारों का उपयोग दुनिया भर की सरकारों ने ट्रेक-2 डिप्लोमेसी के लिए समय-समय पर किया है। ऐसी यात्राएं इस दिशा में भी भविष्य के लिए उपयोगी हो सकती हैं। बाकी तो मोदीजी प्रधानमंत्री हैं, वे जो चाहें सो करें!
देशबन्धु में 04 सितम्बर 2014 को प्रकाशित
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