आने वाले कुछेक हफ्ते देशवासियों के लिए
खासी दिलचस्पी के होंगे। एक ओर संसद का बजट सत्र प्रारंभ हो चुका है जिसमें
स्वाभाविक ही जनता की रुचि है। दूसरी तरफ अनगिनत क्रिकेट प्रेमी दम साधकर
आस्ट्रेलिया में चल रहे वर्ल्ड कप के मैच देख रहे हैं। किन्तु बीते कुछ
दिनों में भी कुछ ऐसे प्रसंग उपस्थित हुए जिन्होंने जनजीवन में अच्छी खासी
उत्तेजना बनाए रखी। एक लंबी शीत ऋतु बीत जाने के बाद बसंत की शरारत भरी
बयार ने जैसे स्फुरित कर दिया हो। मुझे लगता है कि पिछले एक पखवाड़े को
नीलामी का सीजन कहकर पुकारा जाए तो बात और स्पष्ट हो सकेगी। सबसे पहले तो
आईपीएल के लिए क्रिकेट खिलाडिय़ों की नीलामी का काम हुआ। उसके बाद कुछ चुने
हुए कोल ब्लॉकों को नीलाम करने का कदम सरकार ने उठाया। उधर बिहार में
जीतनराम मांझी द्वारा अप्रत्याशित विद्रोह करने के बाद विधायकों की
खरीद-फरोख्त की चर्चा हवा में तैरने लगी तो इधर छत्तीसगढ़ में जिला
पंचायतों और जनपद पंचायतों के चुनाव में चुने गए सदस्यों के दाम लगाए जाने
के आरोप भी खुले रूप से लगे।
इन सारी वास्तविक अथवा आरोपित नीलामियों में लीक से हटकर कोई बात नहीं हुई। आईपीएल के लिए जब पहली बार बोली लगाई जाना थी तब अवश्य आम जनता खासकर क्रिकेट प्रेमियों के मन में वितृष्णा पैदा हुई थी कि अब खिलाड़ी भी मवेशियों की तरह नीलाम होंगे। किंतु थोड़े दिन बाद इसे सबने सहज स्वीकार कर लिया। खेल के नियम ही बदल गए हैं। जब खिलाड़ी स्वयं अपने को बेचने तैयार हैं तो किसी और का उन पर क्या वश! विधायकों और निर्वाचित प्रतिनिधियों के बिकने में भी अब किसी को आश्चर्य नहीं होता। यह दस्तूर तो 1967 में ही प्रारंभ हो चुका था। फिलहाल नीतीश कुमार तसल्ली कर सकते हैं कि भाजपा के खुले सहयोग के बावजूद जीतनराम मांझी जदयू को तोड़ नहीं पाए। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल को भी संतोष हुआ होगा कि सत्तारूढ़ पार्टी के प्रलोभन में बहुत ज्यादा लोग नहीं आए और कांग्रेस का सम्मान सुरक्षित रहा आया। कोयला खदानों का आबंटन नीलामी से हो तो यह कार्य एक निर्धारित प्रक्रिया से ही चल रहा है। यद्यपि अभी जो नीलामियां हुई हैं उनसे प्राप्त लाभ को लेकर परस्पर विरोधी दावे किए जा रहे हैं।
बहरहाल, इस सीज़न में जिस नीलामी ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा तथा जिसकी चर्चा देश के बाहर भी हुई वह थी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बहुचर्चित सूट की नीलामी। पाठकों को याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि इस सूट में सुनहरे धागे से प्रधानमंत्री के नाम की धारियां बुनी गई हैं। जिस दिन प्रधानमंत्री ने हैदराबाद हाउस की चाय पार्टी में यह सूट धारण किया था उसके बाद से ही इसे लेकर तरह-तरह की बातें हो रही थीं। इसकी कीमत लाखों रुपयों में आंकी जा रही थी यद्यपि भाजपा के अनथक प्रवक्ता संबित पात्रा की मानें तो इसका मूल्य मात्र पांच-छह हजार रुपए ही था। ये बात अलग है कि उनके इस बयान पर लोगों ने भरोसा नहीं किया। यह सूट मोदीजी को किसने दिया? कब दिया और क्यों दिया? इसका कपड़ा कहां से आया? डिजाइन किसने तैयार की? सिलाई कहां हुई? इसे लेकर खोजी पत्रकारों ने पता लगाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। किसी ने अहमदाबाद के टेलर मास्टर को पकड़ा, तो कोई मुंबई में फैशन डिजाइनर के स्टूडियो तक पहुंच गया। यह तथ्य भी सामने आया कि इजिप्त के तानाशाह हुस्नी मुबारक के पास भी ऐसा ही सूट था। अमेरिका तक के अखबारों में इस पर चर्चाएं हुईं। यह चर्चा शायद कुछ देर में ठंडी पड़ जाती, लेकिन एक दिन अचानक ज्ञात हुआ कि मोदीजी इस सूट को नीलाम कर रहे हैं तो मुझ जैसे बैठे-ठाले व्यक्ति को फिर कुछ लिखने के लिए मसाला मिल गया।
बताया गया कि सूरत में मोदीजी के इस सूट के अलावा प्रधानमंत्री को पिछले आठ माह में मिले अन्य उपहारों की भी नीलामी की जाएगी। यह नीलामी तीन दिन तक चली। पहले दिन सूट पर सवा करोड़ तक की बोली लगाई गई जो तीसरे दिन अंतत: चार करोड़ इकतीस लाख में जाकर रुकी। सूट के अलावा जो अन्य वस्तुएं नीलाम की गईं उनसे भी कुल मिलाकर लगभग चार करोड़ की राशि प्राप्त हुई। याने नाम वाला सूट एक तरफ, बाकी सारी सौगातें दूसरी तरफ। यह सारी राशि प्रधानमंत्रीजी के प्रिय लक्ष्य गंगा सफाई अभियान के खाते में चली जाएगी। जब नीलामी करने की बात उठी तब रमेश विरानी नामक एक हीरा व्यापारी सामने आए। उन्होंने बताया कि यह सूट उन्होंने अपने बेटे की विवाह पत्रिका के साथ मोदीजी को भेंट किया था। सूट खरीदने वाले लक्ष्मीकांत पटेल भी हीरा व्यापारी हैं। अगर सचमुच गंगा किसी दिन साफ हो सकी तो उस दिन कहना होगा कि इसमें सूरत के हीरा व्यापारियों का अमूल्य योगदान था।
मैं इस विचार में कोई बुराई नहीं देखता कि प्रधानमंत्री को प्राप्त तोहफों की सार्वजनिक रूप से नीलामी हो और उससे प्राप्त नीलामी को किसी महत्तर सार्वजनिक उद्देश्य के लिए व्यय किया जाए। हमें बताया तो यह भी गया कि जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब भी वे प्रतिवर्ष अपने को मिली सौगातों की नीलामी करते थे। याने एक तरह से उन्होंने यह कोई नया काम नहीं किया बल्कि अपनी सोच को राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया है। यहां एक बात समझ नहीं आई जब मुख्यमंत्री मोदी अपने तोहफों की नीलामी करते थे तब उसका कोई प्रचार क्यों नहीं किया गया? श्री मोदी प्रारंभ से ही प्रचारप्रिय रहे हैं इसलिए यह चूक आश्चर्यजनक प्रतीत होती है। यह समयोचित होगा कि गुजरात की वर्तमान मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल इस संबंध में जो भी दस्तावेज सरकार के पास हैं उन्हें सार्वजनिक कर दें ताकि जनता को पूर्व में की गई नीलामियों की मुकम्मल जानकारी मिल सके।
मैं यह भी सोचता हूं कि इस तरह की नीलामी के अलावा ऐसे और कौन से अवसर हो सकते हैं जब प्रधानमंत्री लोकहित के कार्यों के लिए ऐसे नवीन उपायों से धन संग्रह कर सकें। एक उपाय मुझे बहुत मौजूं लगता है कि श्री मोदी अपने किसी भी प्रशंसक के साथ मुफ्त में सेल्फी न खिंचवाएं। अगर कोई देश के प्रधानमंत्री के साथ फोटो खिंचवाना चाहता है तो इसके लिए वह गंगा सफाई अभियान या अन्य किसी प्रकल्प के लिए बकायदा एक निश्चित राशि जमा करे। इसमें यह भी हो सकता है कि प्रधानमंत्री प्रतिदिन या प्रति सप्ताह एक या दो घंटे का समय सेल्फी सेशन के लिए तय करें और इच्छुक जनों के बीच पहले से नीलामी हो जाए। मान लो एक हजार लोग आए हैं तो उन सौ लोगों के साथ ही सेल्फी हो जो अधिकतम राशि दे रहे हों। प्रधानमंत्री इसी तरह सार्वजनिक अथवा व्यक्तिगत कार्यक्रम का निमंत्रण भी फीस लेकर ही स्वीकार करें। अभी जैसे वे मुलायम सिंहजी के पौत्र के तिलक में सैफई गए थे। अच्छा मौका था। वे मुलायम सिंह से एकाध करोड़ तो आसानी वसूल कर ही सकते थे।
प्रधानमंत्री को स्वाभाविक रूप से आए दिन न्यौते मिलते ही हैं। कुछ समय पहले उन्होंने मुंबई में अंबानी अस्पताल का उद्घाटन किया। यह एक सुनहरा अवसर था जब वे अंबानी परिवार से गंगा अभियान के लिए पांच-दस करोड़ तो ले भी सकते थे। वे मुकेश अंबानी को शायद यह भी कह सकते थे कि पीठ पर हाथ रखकर फोटो खिंचवाने के पांच करोड़ एक्सट्रा लगेंगे। हम जानते हैं कि गांधीजी कई बार आटोग्राफ देने के लिए लोगों से पैसा ले लेते थे। इसका अनुसरण भी प्रधानमंत्री करें तो कोई हर्ज नहीं है। इस तरह देखते ही देखते सरकारी खजाने मेंं तीव्र गति से धनराशि आ सकती है। लेकिन बात यहीं तक सीमित क्यों रहे? हम उस सुभाषित को याद करें कि जिस मार्ग पर महापुरुष चलते हैं उसका अनुसरण करना चाहिए।
प्रधानमंत्री ने असावधानी के किसी क्षण में सूट की यह सौगात स्वीकार की होगी। उसका परिमार्जन नीलामी करके हो गया, लेकिन ऐसा करके नरेंद्र मोदी ने एक दृष्टांत उपस्थित कर दिया है। भाजपा द्वारा नियुक्त राज्यपाल, भाजपा के मुख्यमंत्री, मंत्री भी अगर प्रधानमंत्री की बताई राह पर चलें तो एक अच्छी मिसाल कायम हो सकती है। हम छत्तीसगढ़ में ही देखते हैं कि मुख्यमंत्री प्रतिदिन कम से कम आधा दर्जन कार्यक्रमों में हिस्सा लेते हैं। जिसमें उन्हें अनिवार्य रूप से स्मृति चिन्ह भेंट किए जाते हैं। ऐसा ही अन्य प्रदेशों में भी होता है। स्मृति चिन्हों के अलावा भांति-भांति के उपहार भी मिलते हैं। मुख्यमंत्री इनका क्या करते हैं? अगर इनकी नीलामी कर दी जाए तो मुख्यमंत्री सहायता कोष के लिए साल में पांच-दस करोड़ रुपया इकट्ठा हो जाना कौन सा मुश्किल काम है? आशा है नेतागण इस पर विचार करेंगे।
इन सारी वास्तविक अथवा आरोपित नीलामियों में लीक से हटकर कोई बात नहीं हुई। आईपीएल के लिए जब पहली बार बोली लगाई जाना थी तब अवश्य आम जनता खासकर क्रिकेट प्रेमियों के मन में वितृष्णा पैदा हुई थी कि अब खिलाड़ी भी मवेशियों की तरह नीलाम होंगे। किंतु थोड़े दिन बाद इसे सबने सहज स्वीकार कर लिया। खेल के नियम ही बदल गए हैं। जब खिलाड़ी स्वयं अपने को बेचने तैयार हैं तो किसी और का उन पर क्या वश! विधायकों और निर्वाचित प्रतिनिधियों के बिकने में भी अब किसी को आश्चर्य नहीं होता। यह दस्तूर तो 1967 में ही प्रारंभ हो चुका था। फिलहाल नीतीश कुमार तसल्ली कर सकते हैं कि भाजपा के खुले सहयोग के बावजूद जीतनराम मांझी जदयू को तोड़ नहीं पाए। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल को भी संतोष हुआ होगा कि सत्तारूढ़ पार्टी के प्रलोभन में बहुत ज्यादा लोग नहीं आए और कांग्रेस का सम्मान सुरक्षित रहा आया। कोयला खदानों का आबंटन नीलामी से हो तो यह कार्य एक निर्धारित प्रक्रिया से ही चल रहा है। यद्यपि अभी जो नीलामियां हुई हैं उनसे प्राप्त लाभ को लेकर परस्पर विरोधी दावे किए जा रहे हैं।
बहरहाल, इस सीज़न में जिस नीलामी ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा तथा जिसकी चर्चा देश के बाहर भी हुई वह थी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बहुचर्चित सूट की नीलामी। पाठकों को याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि इस सूट में सुनहरे धागे से प्रधानमंत्री के नाम की धारियां बुनी गई हैं। जिस दिन प्रधानमंत्री ने हैदराबाद हाउस की चाय पार्टी में यह सूट धारण किया था उसके बाद से ही इसे लेकर तरह-तरह की बातें हो रही थीं। इसकी कीमत लाखों रुपयों में आंकी जा रही थी यद्यपि भाजपा के अनथक प्रवक्ता संबित पात्रा की मानें तो इसका मूल्य मात्र पांच-छह हजार रुपए ही था। ये बात अलग है कि उनके इस बयान पर लोगों ने भरोसा नहीं किया। यह सूट मोदीजी को किसने दिया? कब दिया और क्यों दिया? इसका कपड़ा कहां से आया? डिजाइन किसने तैयार की? सिलाई कहां हुई? इसे लेकर खोजी पत्रकारों ने पता लगाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। किसी ने अहमदाबाद के टेलर मास्टर को पकड़ा, तो कोई मुंबई में फैशन डिजाइनर के स्टूडियो तक पहुंच गया। यह तथ्य भी सामने आया कि इजिप्त के तानाशाह हुस्नी मुबारक के पास भी ऐसा ही सूट था। अमेरिका तक के अखबारों में इस पर चर्चाएं हुईं। यह चर्चा शायद कुछ देर में ठंडी पड़ जाती, लेकिन एक दिन अचानक ज्ञात हुआ कि मोदीजी इस सूट को नीलाम कर रहे हैं तो मुझ जैसे बैठे-ठाले व्यक्ति को फिर कुछ लिखने के लिए मसाला मिल गया।
बताया गया कि सूरत में मोदीजी के इस सूट के अलावा प्रधानमंत्री को पिछले आठ माह में मिले अन्य उपहारों की भी नीलामी की जाएगी। यह नीलामी तीन दिन तक चली। पहले दिन सूट पर सवा करोड़ तक की बोली लगाई गई जो तीसरे दिन अंतत: चार करोड़ इकतीस लाख में जाकर रुकी। सूट के अलावा जो अन्य वस्तुएं नीलाम की गईं उनसे भी कुल मिलाकर लगभग चार करोड़ की राशि प्राप्त हुई। याने नाम वाला सूट एक तरफ, बाकी सारी सौगातें दूसरी तरफ। यह सारी राशि प्रधानमंत्रीजी के प्रिय लक्ष्य गंगा सफाई अभियान के खाते में चली जाएगी। जब नीलामी करने की बात उठी तब रमेश विरानी नामक एक हीरा व्यापारी सामने आए। उन्होंने बताया कि यह सूट उन्होंने अपने बेटे की विवाह पत्रिका के साथ मोदीजी को भेंट किया था। सूट खरीदने वाले लक्ष्मीकांत पटेल भी हीरा व्यापारी हैं। अगर सचमुच गंगा किसी दिन साफ हो सकी तो उस दिन कहना होगा कि इसमें सूरत के हीरा व्यापारियों का अमूल्य योगदान था।
मैं इस विचार में कोई बुराई नहीं देखता कि प्रधानमंत्री को प्राप्त तोहफों की सार्वजनिक रूप से नीलामी हो और उससे प्राप्त नीलामी को किसी महत्तर सार्वजनिक उद्देश्य के लिए व्यय किया जाए। हमें बताया तो यह भी गया कि जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब भी वे प्रतिवर्ष अपने को मिली सौगातों की नीलामी करते थे। याने एक तरह से उन्होंने यह कोई नया काम नहीं किया बल्कि अपनी सोच को राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया है। यहां एक बात समझ नहीं आई जब मुख्यमंत्री मोदी अपने तोहफों की नीलामी करते थे तब उसका कोई प्रचार क्यों नहीं किया गया? श्री मोदी प्रारंभ से ही प्रचारप्रिय रहे हैं इसलिए यह चूक आश्चर्यजनक प्रतीत होती है। यह समयोचित होगा कि गुजरात की वर्तमान मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल इस संबंध में जो भी दस्तावेज सरकार के पास हैं उन्हें सार्वजनिक कर दें ताकि जनता को पूर्व में की गई नीलामियों की मुकम्मल जानकारी मिल सके।
मैं यह भी सोचता हूं कि इस तरह की नीलामी के अलावा ऐसे और कौन से अवसर हो सकते हैं जब प्रधानमंत्री लोकहित के कार्यों के लिए ऐसे नवीन उपायों से धन संग्रह कर सकें। एक उपाय मुझे बहुत मौजूं लगता है कि श्री मोदी अपने किसी भी प्रशंसक के साथ मुफ्त में सेल्फी न खिंचवाएं। अगर कोई देश के प्रधानमंत्री के साथ फोटो खिंचवाना चाहता है तो इसके लिए वह गंगा सफाई अभियान या अन्य किसी प्रकल्प के लिए बकायदा एक निश्चित राशि जमा करे। इसमें यह भी हो सकता है कि प्रधानमंत्री प्रतिदिन या प्रति सप्ताह एक या दो घंटे का समय सेल्फी सेशन के लिए तय करें और इच्छुक जनों के बीच पहले से नीलामी हो जाए। मान लो एक हजार लोग आए हैं तो उन सौ लोगों के साथ ही सेल्फी हो जो अधिकतम राशि दे रहे हों। प्रधानमंत्री इसी तरह सार्वजनिक अथवा व्यक्तिगत कार्यक्रम का निमंत्रण भी फीस लेकर ही स्वीकार करें। अभी जैसे वे मुलायम सिंहजी के पौत्र के तिलक में सैफई गए थे। अच्छा मौका था। वे मुलायम सिंह से एकाध करोड़ तो आसानी वसूल कर ही सकते थे।
प्रधानमंत्री को स्वाभाविक रूप से आए दिन न्यौते मिलते ही हैं। कुछ समय पहले उन्होंने मुंबई में अंबानी अस्पताल का उद्घाटन किया। यह एक सुनहरा अवसर था जब वे अंबानी परिवार से गंगा अभियान के लिए पांच-दस करोड़ तो ले भी सकते थे। वे मुकेश अंबानी को शायद यह भी कह सकते थे कि पीठ पर हाथ रखकर फोटो खिंचवाने के पांच करोड़ एक्सट्रा लगेंगे। हम जानते हैं कि गांधीजी कई बार आटोग्राफ देने के लिए लोगों से पैसा ले लेते थे। इसका अनुसरण भी प्रधानमंत्री करें तो कोई हर्ज नहीं है। इस तरह देखते ही देखते सरकारी खजाने मेंं तीव्र गति से धनराशि आ सकती है। लेकिन बात यहीं तक सीमित क्यों रहे? हम उस सुभाषित को याद करें कि जिस मार्ग पर महापुरुष चलते हैं उसका अनुसरण करना चाहिए।
प्रधानमंत्री ने असावधानी के किसी क्षण में सूट की यह सौगात स्वीकार की होगी। उसका परिमार्जन नीलामी करके हो गया, लेकिन ऐसा करके नरेंद्र मोदी ने एक दृष्टांत उपस्थित कर दिया है। भाजपा द्वारा नियुक्त राज्यपाल, भाजपा के मुख्यमंत्री, मंत्री भी अगर प्रधानमंत्री की बताई राह पर चलें तो एक अच्छी मिसाल कायम हो सकती है। हम छत्तीसगढ़ में ही देखते हैं कि मुख्यमंत्री प्रतिदिन कम से कम आधा दर्जन कार्यक्रमों में हिस्सा लेते हैं। जिसमें उन्हें अनिवार्य रूप से स्मृति चिन्ह भेंट किए जाते हैं। ऐसा ही अन्य प्रदेशों में भी होता है। स्मृति चिन्हों के अलावा भांति-भांति के उपहार भी मिलते हैं। मुख्यमंत्री इनका क्या करते हैं? अगर इनकी नीलामी कर दी जाए तो मुख्यमंत्री सहायता कोष के लिए साल में पांच-दस करोड़ रुपया इकट्ठा हो जाना कौन सा मुश्किल काम है? आशा है नेतागण इस पर विचार करेंगे।
देशबन्धु में 26 फरवरी 2015 को प्रकाशित