Wednesday, 25 February 2015

नीलामी का सीज़न


 आने वाले कुछेक हफ्ते देशवासियों के लिए खासी दिलचस्पी के होंगे। एक ओर संसद का बजट सत्र प्रारंभ हो चुका है जिसमें स्वाभाविक ही जनता की रुचि है। दूसरी तरफ अनगिनत क्रिकेट प्रेमी दम साधकर आस्ट्रेलिया में चल रहे वर्ल्ड कप के मैच देख रहे हैं। किन्तु बीते कुछ दिनों में भी कुछ ऐसे प्रसंग उपस्थित हुए जिन्होंने जनजीवन में अच्छी खासी उत्तेजना बनाए रखी। एक लंबी शीत ऋतु बीत जाने के बाद बसंत की शरारत भरी बयार ने जैसे स्फुरित कर दिया हो। मुझे लगता है कि पिछले एक पखवाड़े को नीलामी का सीजन कहकर पुकारा जाए तो बात और स्पष्ट हो सकेगी। सबसे पहले तो आईपीएल के लिए क्रिकेट खिलाडिय़ों की नीलामी का काम हुआ। उसके बाद कुछ चुने हुए कोल ब्लॉकों को नीलाम करने का कदम सरकार ने उठाया। उधर बिहार में जीतनराम मांझी द्वारा अप्रत्याशित विद्रोह करने  के बाद विधायकों की खरीद-फरोख्त की चर्चा हवा में तैरने लगी तो इधर छत्तीसगढ़ में जिला पंचायतों और जनपद पंचायतों के चुनाव में चुने गए सदस्यों के दाम लगाए जाने के आरोप भी खुले रूप से लगे।

इन सारी वास्तविक अथवा आरोपित नीलामियों में लीक से हटकर कोई बात नहीं हुई। आईपीएल के लिए जब पहली बार बोली लगाई जाना थी तब अवश्य आम जनता खासकर क्रिकेट प्रेमियों के मन में वितृष्णा पैदा हुई थी कि अब खिलाड़ी भी मवेशियों की तरह नीलाम होंगे। किंतु थोड़े दिन बाद इसे सबने सहज स्वीकार कर लिया। खेल के नियम ही बदल गए हैं। जब खिलाड़ी स्वयं अपने को बेचने तैयार हैं तो किसी और का उन पर क्या वश! विधायकों और निर्वाचित प्रतिनिधियों के बिकने में भी अब किसी को आश्चर्य नहीं होता। यह दस्तूर तो 1967 में ही प्रारंभ हो चुका था। फिलहाल नीतीश कुमार तसल्ली कर सकते हैं कि भाजपा के खुले सहयोग के बावजूद जीतनराम मांझी जदयू को तोड़ नहीं पाए। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल को भी संतोष हुआ होगा कि सत्तारूढ़ पार्टी के प्रलोभन में बहुत ज्यादा लोग नहीं आए और कांग्रेस का सम्मान सुरक्षित रहा आया। कोयला खदानों का आबंटन नीलामी से हो तो यह कार्य एक निर्धारित प्रक्रिया से ही चल रहा है। यद्यपि अभी जो नीलामियां हुई हैं उनसे प्राप्त लाभ को लेकर परस्पर विरोधी दावे किए जा रहे हैं।

बहरहाल, इस सीज़न  में जिस नीलामी ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा तथा जिसकी चर्चा देश के बाहर भी हुई वह थी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बहुचर्चित सूट की नीलामी। पाठकों को याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि इस सूट में सुनहरे धागे से प्रधानमंत्री के नाम की धारियां बुनी गई हैं। जिस दिन प्रधानमंत्री ने हैदराबाद हाउस की चाय पार्टी में यह सूट धारण किया था उसके बाद से ही इसे लेकर  तरह-तरह की बातें हो रही थीं। इसकी कीमत लाखों रुपयों में आंकी जा रही थी यद्यपि भाजपा के अनथक प्रवक्ता संबित पात्रा की मानें तो इसका मूल्य मात्र पांच-छह हजार रुपए ही था। ये बात अलग है कि उनके इस बयान पर लोगों ने भरोसा नहीं किया। यह सूट मोदीजी को किसने दिया? कब दिया और क्यों दिया? इसका कपड़ा कहां से आया? डिजाइन किसने तैयार की? सिलाई कहां हुई? इसे लेकर खोजी पत्रकारों ने पता लगाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। किसी ने अहमदाबाद के टेलर मास्टर को पकड़ा, तो कोई मुंबई में फैशन डिजाइनर के स्टूडियो तक पहुंच गया। यह तथ्य भी सामने आया कि इजिप्त के तानाशाह हुस्नी मुबारक के पास भी ऐसा ही सूट था। अमेरिका तक के अखबारों में इस पर चर्चाएं हुईं। यह चर्चा शायद कुछ देर में ठंडी पड़ जाती, लेकिन एक दिन अचानक ज्ञात हुआ कि मोदीजी इस सूट को नीलाम कर रहे हैं तो मुझ जैसे बैठे-ठाले व्यक्ति को फिर कुछ लिखने के लिए मसाला मिल गया।

बताया गया कि सूरत में मोदीजी के इस सूट के अलावा प्रधानमंत्री को पिछले आठ माह में मिले अन्य उपहारों की भी नीलामी की जाएगी। यह नीलामी तीन दिन तक चली। पहले दिन सूट पर सवा करोड़ तक की बोली लगाई गई जो तीसरे दिन अंतत: चार करोड़ इकतीस लाख में जाकर रुकी। सूट के अलावा जो अन्य वस्तुएं नीलाम की गईं उनसे भी कुल मिलाकर लगभग चार करोड़ की राशि प्राप्त हुई। याने नाम वाला सूट एक तरफ, बाकी सारी सौगातें दूसरी तरफ। यह सारी राशि प्रधानमंत्रीजी के प्रिय लक्ष्य गंगा सफाई अभियान के खाते में चली जाएगी। जब नीलामी करने की बात उठी तब रमेश विरानी नामक एक हीरा व्यापारी सामने आए। उन्होंने बताया कि यह सूट उन्होंने अपने बेटे की विवाह पत्रिका के साथ मोदीजी को भेंट किया था। सूट खरीदने वाले लक्ष्मीकांत पटेल भी हीरा व्यापारी हैं। अगर सचमुच गंगा किसी दिन साफ हो सकी तो उस दिन कहना होगा कि इसमें सूरत के हीरा व्यापारियों का अमूल्य योगदान था।

मैं इस विचार में कोई बुराई नहीं देखता कि प्रधानमंत्री को प्राप्त तोहफों की सार्वजनिक रूप से नीलामी हो और उससे प्राप्त नीलामी को किसी महत्तर सार्वजनिक उद्देश्य के लिए व्यय किया जाए। हमें बताया तो यह भी गया कि जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब भी वे प्रतिवर्ष अपने को मिली सौगातों की नीलामी करते थे। याने एक तरह से उन्होंने यह कोई नया काम नहीं किया बल्कि अपनी सोच को राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया है। यहां एक बात समझ नहीं आई जब मुख्यमंत्री मोदी अपने तोहफों की नीलामी करते थे तब उसका कोई प्रचार क्यों नहीं किया गया? श्री मोदी प्रारंभ से ही प्रचारप्रिय रहे हैं इसलिए यह चूक आश्चर्यजनक प्रतीत होती है। यह समयोचित होगा कि गुजरात की वर्तमान मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल इस संबंध में जो भी दस्तावेज सरकार के पास हैं उन्हें सार्वजनिक कर दें ताकि जनता को पूर्व में की गई नीलामियों की मुकम्मल जानकारी मिल सके।

मैं यह भी सोचता हूं कि इस तरह की नीलामी के अलावा ऐसे और कौन से अवसर हो सकते हैं जब प्रधानमंत्री लोकहित के कार्यों के लिए ऐसे नवीन उपायों से धन संग्रह कर सकें। एक उपाय मुझे बहुत मौजूं लगता है कि श्री मोदी अपने किसी भी प्रशंसक के साथ मुफ्त में सेल्फी न खिंचवाएं। अगर कोई देश के प्रधानमंत्री के साथ फोटो खिंचवाना चाहता है तो इसके लिए वह गंगा सफाई अभियान या अन्य किसी प्रकल्प के लिए बकायदा एक निश्चित राशि जमा करे। इसमें यह भी हो सकता है कि प्रधानमंत्री प्रतिदिन या प्रति सप्ताह एक या दो घंटे का समय सेल्फी सेशन के लिए तय करें और इच्छुक जनों के बीच पहले से नीलामी हो जाए। मान लो एक हजार लोग आए हैं तो उन सौ लोगों के साथ ही सेल्फी हो जो अधिकतम राशि दे रहे हों। प्रधानमंत्री इसी तरह सार्वजनिक अथवा व्यक्तिगत कार्यक्रम का निमंत्रण भी फीस लेकर ही स्वीकार करें। अभी जैसे वे मुलायम सिंहजी के पौत्र के तिलक में सैफई गए थे। अच्छा मौका था। वे मुलायम सिंह से एकाध करोड़ तो आसानी वसूल कर ही सकते थे।

प्रधानमंत्री को स्वाभाविक रूप से आए दिन न्यौते मिलते ही हैं। कुछ समय पहले उन्होंने मुंबई में अंबानी अस्पताल का उद्घाटन किया। यह एक सुनहरा अवसर था जब वे अंबानी परिवार से गंगा अभियान के लिए पांच-दस करोड़ तो ले भी सकते थे। वे मुकेश अंबानी को शायद यह भी कह सकते थे कि पीठ पर हाथ रखकर फोटो खिंचवाने के पांच करोड़ एक्सट्रा लगेंगे। हम जानते हैं कि गांधीजी कई बार आटोग्राफ देने के लिए लोगों से पैसा ले लेते थे। इसका अनुसरण भी प्रधानमंत्री करें तो कोई हर्ज नहीं है। इस तरह देखते ही देखते सरकारी खजाने मेंं तीव्र गति से धनराशि आ सकती है। लेकिन बात यहीं तक सीमित क्यों रहे? हम उस सुभाषित को याद करें कि जिस मार्ग पर महापुरुष चलते हैं उसका अनुसरण करना चाहिए।

प्रधानमंत्री ने असावधानी के किसी क्षण में सूट की यह सौगात स्वीकार की होगी। उसका परिमार्जन नीलामी करके हो गया, लेकिन ऐसा करके नरेंद्र मोदी ने एक दृष्टांत उपस्थित कर दिया है। भाजपा द्वारा नियुक्त राज्यपाल, भाजपा के मुख्यमंत्री, मंत्री भी अगर प्रधानमंत्री की बताई राह पर चलें तो एक अच्छी मिसाल कायम हो सकती है। हम छत्तीसगढ़ में ही देखते हैं कि मुख्यमंत्री प्रतिदिन कम से कम आधा दर्जन कार्यक्रमों में हिस्सा लेते हैं। जिसमें उन्हें अनिवार्य रूप से स्मृति चिन्ह भेंट किए जाते हैं। ऐसा ही अन्य प्रदेशों में भी होता है। स्मृति चिन्हों के अलावा भांति-भांति के उपहार भी मिलते हैं। मुख्यमंत्री इनका क्या करते हैं? अगर इनकी नीलामी कर दी जाए तो मुख्यमंत्री सहायता कोष के लिए साल में पांच-दस करोड़ रुपया इकट्ठा हो जाना कौन सा मुश्किल काम है? आशा है नेतागण इस पर विचार करेंगे।
देशबन्धु में 26 फरवरी 2015  को प्रकाशित

Wednesday, 18 February 2015

पूंजीवादी जनतंत्र और 'आप'


 7फरवरी को जब टीवी चैनलों पर एक्जिट पोल आ रहे थे और आम आदमी पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलने की संभावना व्यक्त की जा रही थी तब मैंने ट्विटर और फेसबुक पर एक संभावना व्यक्त की थी कि क्या आम आदमी पार्टी पुराने समय की स्वतंत्र पार्टी के नए अवतार के रूप में उभरेगी; ऐसी पार्टी जो धर्मनिरपेक्ष होगी किन्तु अन्य मामलों में जिसकी रुझान दक्षिणपंथी होगी! मुझे इस टिप्पणी पर कोई खास प्रतिक्रियाएं नहीं मिलीं, लेकिन मैं जब आम आदमी पार्टी की अभूतपूर्व दिल्ली विजय की समीक्षा करने का प्रयत्न करता हूं तब यही सोचने पर मजबूर होता हूं कि देश में आप के रूप में एक ऐसी पार्टी का उदय हुआ है जो अमेरिकी शैली में पूंजीवादी जनतंत्र की ध्वजवाहक होगी। मैं याद करना चाहता हूं कि फ्रांसिस फुकुयामा ने लगभग ढाई दशक पहले अपनी बहुचर्चित पुस्तक 'द एंड ऑफ हिस्ट्री' यह अवधारणा प्रस्तुत की थी कि राजनैतिक इतिहास में पूंजीवादी जनतंत्र ही अंतिम विकल्प है। आगे चलकर फुकुयामा ने तो अपनी स्थापना को काफी हद तक संशोधित किया लेकिन क्या आश्चर्य कि भारत में मीमांसकों को उसका पुराना रूप ही स्वीकार हो!

जैसा कि हम जानते हैं योगेन्द्र यादव आम आदमी पार्टी के सबसे प्रबल, सबसे प्रमुख और सबसे मुखर भाष्यकार हैं। वे सीएसडीएस नामक उस संस्था या थिंक टैंक से भी जुड़े रहे हैं जिसकी राजनैतिक सोच मुख्यत: कांग्रेस विरोधी रही है। श्री यादव ने नतीजे आने के तुरंत बाद ही टीवी पर यह स्पष्ट रूप से घोषित किया कि आम आदमी पार्टी की विचारधारा वर्ग संघर्ष की विचारधारा नहीं है। सीएसडीएस से ही जुड़े आप समर्थक प्रखर पत्रकार अभय कुमार दुबे का भी कहना है कि आम आदमी पार्टी पूंजी-विरोधी या व्यापार-विरोधी नहीं है। आप के प्रणेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी शपथ ग्रहण के बाद व्यापार जगत को निर्भय होकर अपना व्यापार करने और उस पर कानूनन टैक्स जमा करने का संदेश दिया है। ये तीनों उक्तियां आप के राजनैतिक दर्शन को समझने में हमारी मदद करती हैं।

यह तथ्य किसी से छिपा हुआ नहीं है कि वैश्विक पूंजी हितों को भारत में समाजवाद की अवधारणा कभी रास नहीं आई। जब जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे तब भी कांग्रेस पार्टी और सरकार में वही लोग बहुमत में थे जो समाजवाद के खुले तौर पर न सही दबे-छुपे विरोधी थे। पंडितजी ने योजना आयोग की स्थापना व मिश्रित अर्थव्यवस्था की जो बात की वह भी न्यस्त हितों को नागवार गुजरती थी। पंडित नेहरू एक तरह से पार्टी के भीतर काफी हद तक अकेले थे इसीलिए भूमि सुधार कार्यक्रम देश में कभी भी पूरी तरह से लागू नहीं हो पाया। कांग्रेस की जमींदारी उन्मूलन के प्रति वचनबद्धता भी बहुत कुछ कागजों पर रही आई। बड़े भूस्वामियों ने हर तरह के प्रपंच रच भूमि सुधार लागू नहीं होने दिया। विनोबा भावे का भूदान आंदोलन भी इसीलिए अंतत: एक आडंबर ही सिद्ध हुआ। ऐसे बड़े जमींदार अपवादस्वरूप ही थे जिन्होंने ईमानदारी से अपनी भूमि भूदान यज्ञ को समर्पित की।

इसी कड़ी में हम स्वतंत्र पार्टी का गठन होते देखते हैं। इसके सबसे बड़े नेता देश के महान नेताओं में से एक चक्रवर्ती राजगोपालाचारी थे और कर्ता-धर्ताओं में प्रमुख नाम किसी समय के समाजवादी मीनू मसानी का था। यूं तो दोनों पुराने कांग्रेसी और पंडितजी के निकट सहयोगी थे, लेकिन पंडित नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस जिस समाजवाद की बात कर रही थी उससे ये सहमत नहीं थे। यह सच्चाई अपनी जगह पर है कि तत्कालीन परिस्थितियों में स्वयं पंडित नेहरू अपनी नीतियों को पूरी तरह से लागू करने की स्थिति में नहीं थे और समाजवाद आधे-अधूरे रूप में ही लागू हो रहा था। जैसे ही स्वतंत्र पार्टी का गठन हुआ देश के तमाम राजे-महाराजे और इजारेदार उसमें शामिल हो गए। पार्टी ने 1962 के आमचुनाव में ठीक-ठाक सफलता भी अर्जित की। यद्यपि यह प्रयोग बहुत लंबे समय तक नहीं चल पाया। इसके अनेक कारण थे।

आर्थिक नीतियों के अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि 1980 में इंदिरा गांधी के दुबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत में आर्थिक उदारवाद के नए दौर की शुरुआत हो चुकी थी, यद्यपि वह बहुत प्रकट नहीं थी। राजीव गांधी, फिर वी.पी. सिंह के संक्षिप्त कार्यकाल में देश में वैश्विक पूंजी हितों की पकड़ कुछ और मजबूत हुई। तदन्तर पी.वी. नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्री बनने और उनके साथ डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा वित्तमंत्री की कुर्सी संभालने के साथ एल.पी.जी. याने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण का जो दौर प्रारंभ हुआ वह लगातार मजबूत होते गया है। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के नाते अपने दूसरे कार्यकाल में इस प्रक्रिया को अपेक्षानुरूप गति नहीं दे पाए- यह आलोचना तो पूंजीवाद समर्थक हर आर्थिक-सामाजिक विश्लेषण कर ही रहा है। ऐसी स्थिति में पूंजी हितों की रक्षा करने के लिए एक नए नेतृृत्व की तलाश शुरु हुई और नरेन्द्र मोदी देखते ही देखते राष्ट्रीय तो क्या बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर छा गए।

यहां तक तो सब कुछ ठीक था। सब जानते हैं कि भारत दुनिया का दूसरे नंबर का बड़ा बाजार है।  जो सबसे बड़ा बाजार है याने चीन वहां से वैश्विक पूंजी को जो कुछ हासिल करना था वह काफी हद तक पाया जा चुका है। उसके विस्तार में जाने की यहां आवश्यकता नहीं है। अब भारत पर सबकी निगाहें टिकी हैं। देश की भौगोलिक स्थिति, राजनीतिक परंपरा व सामाजिक वातावरण सब मिलकर एक ऐसी रचना करते हैं जो आस्ट्रेलिया व जापान से लेकर अमेरिका व कनाडा तक सबको आकर्षित करती है। विश्व के सबसे बड़े धनपति बिल गेट्स भारत के प्रति अपना प्रेम समय-समय पर व्यक्त करते रहते हैं और भारत के पूंजीपतियों को अमेरिका से कितना प्रेम है इसका प्रमाण राष्ट्रपति भवन में बराक ओबामा से हाथ मिलाने के लिए खड़े उद्योगपतियों की सुदीर्घ पंक्ति के दृश्य से मिल जाता है। फिलहाल यह भूल जाइए कि डॉ. मनमोहन सिंह ने कभी राष्ट्रपति बुश को उच्छवास भर कर कहा था कि भारत की जनता आपसे बहुत प्यार करती है। यह भी भूल जाइए कि बिल क्लिंटन जब हमारी संसद में आए थे तो संसद सदस्य उनसे हाथ मिलाने के लिए कैसे पागलों की तरह टूटे पड़ रहे थे।

इतनी बात करने का मतलब सिर्फ इतना है कि भारतीय संविधान में समाजवाद शब्द भले ही हो, हमारी व्यवहारिक राजनीति से उसे निकालकर फेंक दिया गया है। अब भारत एक मुकम्मल पूंजीवादी जनतंत्र बनने के रास्ते पर काफी आगे बढ़ गया है। यह अपेक्षा नरेन्द्र मोदी से थी कि वे मंजिल पर पहुंचकर ही दम लेंगे, लेकिन उन्हें कदम-कदम पर बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है। यह बाधा कोई और नहीं बल्कि उनके अपने परिवार के लोग पैदा कर रहे हैं। स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि कल तक मोदीजी के अंधप्रशंसक रहे तीसरे दर्जे के रूमानी उपन्यासों के चर्चित लेखक चेतन भगत उन्हें जमीन पर आने की सलाह देने लगे। संघ परिवार के एक अन्य शुभचिंतक बाबा रामदेव के अनन्य सहयोगी व मोदी-विजय से उल्लसित पत्रकार वेदप्रताप वैदिक भी अब प्रधानमंत्री को प्रादेशिक नेता कहने लगे हैं।

दरअसल, हुआ यह है कि वैश्विक पूंजीहितों को समाजवाद से भले ही घृणा हो, वे धर्मनिरपेक्षता के  विरोधी नहीं हैं। बात सरल है। किसी भी देश में सामाजिक सद्भाव और शांति कायम रहेगी तभी व्यापार-व्यवसाय अपेक्षानुरूप प्रगति कर सकेगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दो पाटों के बीच फंस गए हैं। वे एक तरफ कारपोरेट हितों की रक्षा करना चाहते हैं और दूसरी तरफ हिन्दुत्व को भी नहीं छोडऩा चाहते। पिछले नौ माहों में संघ प्रमुख मोहन भागवत से लेकर छोटे-मोटे कार्यकर्ताओं तक ने हिन्दुत्व को लेकर जो उग्र रूप वाणी और व्यवहार में प्रदर्शित किया है वह पूंजीवादी लोकतंत्र के अनुकूल नहीं है। अगर नरेन्द्र मोदी हिन्दुत्व से अपना पीछा नहीं छुड़ा सकते तो उन्हें विश्व बाजार से समर्थन की आशा भी नहीं रखना चाहिए।

हम स्वतंत्र पार्टी की ओर वापस लौटते हैं। देश में उस समय हिन्दुत्ववादी शक्तियों के तीन राजनीतिक दल थे-हिन्दू महासभा, रामराज्य परिषद और भारतीय जनसंघ। उस समय भी वैश्विक पूंजीवाद ने इनमें से किसी पर दांव लगाने के बजाय स्वतंत्र पार्टी के रूप में एक नए राजनीतिक विन्यास को अपना समर्थन दिया था। हमें लगता है कि आज के इजारेदार भी भाजपा और आप के बीच किसको चुनें, इस पर सोच रहे हैं। इस परिदृश्य में आप से यह उम्मीद करना निष्फल ही होगा कि वह किसी तीसरे मोर्चे का हिस्सा बनेगी या कि समाजवादी, साम्यवादी पार्टियों के साथ उसका कोई स्थायी तालमेल हो सकेगा। देश में धर्मनिरपेक्षता का नारा बुलंद करने वाली निष्क्रिय और हताश शक्तियों के लिए फिलहाल इतनी ही राहत काफी है कि भारतीय जनता पार्टी को आम आदमी पार्टी के हाथों पराजय झेलना पड़ी है।
 देशबन्धु में 19 फरवरी 2015 को प्रकाशित

Wednesday, 11 February 2015

जनता की उम्मीदों की विजय




दिल्ली के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी को मिली सफलता अभूतपूर्व है और इसने सबको चकित कर दिया है। देश के पूर्वोत्तर प्रांतों व तमिलनाडु में जब-तब क्षेत्रीय दलों को इस तरह की एकतरफा विजय मिलने के उदाहरण हैं, लेकिन देश की राजधानी वाले प्रदेश में ऐसे नतीजे आना कल्पनातीत थे। आप प्रमुख अरविन्द केजरीवाल व उनकी पूरी टीम को न सिर्फ बधाईयां मिल रही हैं, जिसके कि वे हर तरह से हकदार हैं; देश की जनता उन्हें इसलिए भी धन्यवाद दे रही है कि आप की विजय के बाद वह भ्रष्टाचार ही नहीं, सार्वजनिक जीवन में तेजी से फैल रहे उन्माद से भी शायद मुक्ति पा सकेगी! इसे संभवत: इस तरह भी कहा जा सकता है कि जनता के मन में आप की विजय ने यह विश्वास जागृत किया है कि वह तानाशाही, फिरकापरस्ती और पूंजी के गठजोड़ से लड़ सकती है। सत्तर में से सड़सठ सीटों में जीतना कोई हंसी खेल नहीं है। यह जनता की उम्मीदों और विश्वास की विजय है। और यदि दिल्ली लघु भारत है तो यह पूरे देश की जनता की जीत है।

इन चुनाव परिणामों का विश्लेषण करते हुए सबसे पहले सवाल उठता है कि भारतीय जनता पार्टी की शोचनीय पराजय के लिए कौन जिम्मेदार हैं और वे इस हार को किस भावना के साथ लेते हैं। भाजपा की मुख्यमंत्री पद की थोपी उम्मीदवार किरण बेदी ने तो नतीजे आते साथ ही यह कहकर अपने आपको बरी कर लिया कि यह उनकी हार नहीं है; उन्होंने लगे हाथ भाजपा को आत्मचिंतन करने की सलाह भी दे डाली है। उसका जो गूढ़ार्थ है उसे हम शायद जानते हैं, लेकिन सिर्फ इतना कहने से सुश्री बेदी अपनी जिम्मेवारी से नहीं बच सकतीं। यह उनकी दबी हुई महत्वाकांक्षा तो थी जिसने उन्हें अरविन्द केजरीवाल का साथ छोड़ भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने के लिए उकसाया। वे धूमकेतु की तरह प्रकट हुईं और टूटे हुए तारे की तरह विलीन हो गईं। तथापि उन्होंने पार्टी में बने रहने की घोषणा की है इसलिए संभावना बनती है कि आगे- पीछे उनकी सेवाओं का कुछ और उपयोग कर लिया जाए!

जब किरण बेदी हार की जिम्मेदारी पार्टी पर डालती हैं तो मानना चाहिए कि यह आरोप उन पर है जिन्होंने उनके लिए पार्टी में आने का मार्ग प्रशस्त किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह- इन दोनों में से किसकी यह सोच थी, यह हमें पता नहीं है, लेकिन दिल्ली के विधानसभा चुनाव भाजपा ने जिस बड़े लाव-लश्कर के साथ लड़े और स्वयं नरेन्द्र मोदी आगे बढ़कर नेतृत्व करते रहे, उसमें तो उनकी ही जिम्मेदारी सबसे पहले बनती है, ऐसी सोच मन में उठना स्वाभाविक है। अगर भाजपा के प्रधानमंत्री को बरी कर दिया जाए तब भी क्या पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को इस शर्मनाक हार की नैतिक जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा नहीं दे देना चाहिए? उन्हें लोकसभा में उत्तरप्रदेश में जीत का श्रेय देते हुए अध्यक्ष पद सौंपा गया था जबकि पार्टी के बड़े-बड़े नेता दरकिनार कर दिए गए थे। तो जिस व्यक्ति को जीतने पर पुरस्कार मिला हो, हारने के बाद उससे और क्या उम्मीद की जाए?

ऐसा समझ आता है कि भारतीय जनता पार्टी ने दिल्ली के चुनावों में शुरु से ही अपने पत्ते गलत खेले। पार्टी को हरियाणा विधानसभा में अवश्य पूर्ण बहुमत मिला, किन्तु महाराष्ट्र व जम्मू-काश्मीर में नतीजे उसकी अपेक्षानुरूप नहीं आए। इसके बाद भाजपा को अहंकार छोड़ आत्ममंथन करना चाहिए था, जो उसने नहीं किया।  इसके बजाय वह उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल तथा अन्य गैर-भाजपाई प्रदेशों में लगातार प्रत्यक्ष और परोक्ष वहां की सरकारों को अस्थिर करने के काम में जुटी रही। संघ परिवार के विभिन्न अभिकरणों ने इसमें योगदान करने में कोई कमी नहीं की। आत्ममुग्धता की स्थिति में पहुंचकर भाजपा दिल्ली की जमीनी हकीकत का सही आकलन नहीं कर सकी। 2013 में डॉ. हर्षवर्धन के नेतृत्व में भाजपा 32 सीटें लेकर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी। डॉ. हर्षवर्धन बेदाग छवि के नेता हैं यह भी सबको पता है, लेकिन उनके साथ क्या व्यवहार किया गया? वे लोकसभा चुनाव जीते तो पहले उन्हें स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया, फिर एक तरह से अपमानित कर उनका विभाग बदल दिया गया। यह शायद पार्टी की पहली गलती थी।

यदि भारतीय जनता पार्टी लोकसभा चुनावों के चार-पांच माह के भीतर दिल्ली के चुनाव करा लेती और ये चुनाव दुबारा डॉ. हर्षवर्धन के नेतृत्व में लड़े जाते तब शायद ऐसी स्थिति नहीं होती। चुनावों में इतना विलंब क्यों किया गया, यह भी समझ से परे है। उपराज्यपाल नजीब जंग ने उचित समय में विधानसभा भंग करने की सिफारिश क्यों नहीं की, यह एक और पहेली है। फिर अगर मोदी-शाह युति को हर्षवर्धन रास नहीं आ रहे थे तो विजय गोयल या जगदीश मुखी ने ऐसा क्या अपराध किया था कि उनको किनारे कर दिया गया? विजय गोयल को तो मोदीजी एक समय मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत भी कर चुके थे। फिर किरण बेदी में ऐसी क्या खूबी नज़र आई कि उन्हें सबके सिर पर बैठा दिया गया? उन्हें कृष्णा नगर से ही चुनाव क्यों लड़ाया गया जहां वर्धन अपने बेटे के लिए टिकट मांग रहे थे? पूरे घटनाचक्र का विश्लेषण करें तो अनुमान होता है कि दिल्ली के भाजपाईयों ने स्वयं पूरे मन से काम नहीं किया।

राष्ट्रीय स्वयंसेवकसंघ में तो एकचालकानुवर्ती का सिद्धांत चलता ही है। केन्द्र सरकार में भी यही नीति लागू कर दी गई। मोदीजी ने अपने आगे बाकी सबको बौना सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पार्टी के अनेक दिग्गज मन ही मन दुखी हैं। केन्द्र सरकार के अधिकारियों-कर्मचारियों के बीच भी शासन की रीति-नीति को लेकर लगातार असंतोष बढ़ रहा है। जहां तक आम जनता की बात है तो वह मोहन भागवत से लेकर साक्षी महाराज और साध्वी प्रज्ञा आदि के कुवचनों से तथा देश में जगह-जगह  सांप्रदायिकता के उभार जैसे दिल्ली में एक के बाद एक गिरिजाघरों में तोडफ़ोड़, लव जेहाद, जैसे कृत्यों से खुद को आहत व ठगा हुआ महसूस कर रही है। उसने मोदीजी को सुशासन के लिए वोट दिया था, इन कामों के लिए नहीं।

ऐन चुनाव के दौरान ही अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा करवा के शायद मोदीजी ने सोचा होगा कि अब तो किला फतह हो गया, लेकिन उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। श्री ओबामा ने दिल्ली से रवाना होने के तुरंत पहले तथा वाशिंगटन लौटते साथ ही भारत में सांप्रदायिकता फैलने पर जो चिंता व्यक्त की है उससे यह समझ आ जाना चाहिए कि भारत यदि वैश्विक पूंजीवादी अर्थतंत्र का हिस्सा बनना चाहता है, तो यह तभी हो सकता है जब देश धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर चले और वहां मानवाधिकारों की रक्षा की जाए। आप अठारहवीं सदी की सोच लेकर इक्कीसवीं सदी में विश्व विजय नहीं कर सकते। हमारा ख्याल है कि मोदीजी बराक-बराक कहकर और दस लाख का सूट पहनकर भले ही खुद को धन्य मान रहे हों, इसे भी देश की जनता ने स्वीकार नहीं किया। हमें तो यह तक प्रतीत होता है कि वैश्विक पूंजी का मोदीजी से मोहभंग होने लगा है, इसलिए अब उन्होंने केजरीवालजी पर दाँव लगाया है।

कुछ बात कांग्रेस की भी। उसकी गल्तियों का भी कोई अंत नहीं है। अरविन्द सिंह लवली मौजूदा हालात में अपना काम ठीक ही कर रहे थे, उन्हें चुनाव क्यों नहीं लडऩे दिया गया? वे पिछले सदन में पार्टी के नेता थे, इस बार भी होते। उन्हें हटाकर अजय माकन को क्यों लाया गया? जब श्री माकन केन्द्र की राजनीति में जा चुके हैं, तो फिर प्रदेश में लौटने की ऐसी क्या आवश्यकता थी? क्या ऐसा इसलिए हुआ कि लवली शीला दीक्षित समर्थक माने जाते हैं और माकन उनके घोर विरोधी रहे हैं? शीलाजी तो अपने पुत्र संदीप दीक्षित सहित पहले से ही धराशायी थीं। उनकी तरफ इतना ध्यान देने की जरूरत ही कहां थी? श्री माकन को लाना ही था तो आठ महीने पहले कमान दे दी जाती। बहरहाल कांग्रेस के लिए खुशी की बात है कि भाजपा को इस बुरी कदर पराजय मिली। पुरानी कहावत है- ''नकटे की नाक कटी मेरी सवा हाथ बढ़ी।" यह तय है कि कांगे्रस के बहुत से वोटरों ने आप पार्टी को इसलिए चुना ताकि भाजपा को रोका जा सके।

अब सवाल उठता है कि देश की राजनीति पर इन चुनाव परिणामों का क्या असर होगा? यदि भारतीय जनता पार्टी अब भी अपनी रीति-नीति में सुधार करने के लिए तैयार हो तो वह अपने पूर्ण बहुमत के आधार पर संविधान की मर्यादा के अनुसार देश को सुशासन दे सकती है, किन्तु क्या वह ऐसा करने में समर्थ है? अभी बजट सत्र में ही इसकी परीक्षा हो जाएगी। क्या वह एक जनोन्मुखी बजट लाएगी या फिर कारपोरेट घरानों के इशारों पर नाचती रहेगी? दूसरे,क्या सरकार भूमि अधिग्रहण कानून जैसे अध्यादेशों को वापिस लेगी या फिर हठधर्मिता का परिचय देगी? राजनैतिक मोर्चे पर सबसे पहले बिहार में उसे राजनैतिक विवेक का परिचय देना होगा।  यह देखना होगा कि भाजपाई राज्यपाल नीतीश कुमार को सरकार बनाने आमंत्रित करते हैं या फिर भाजपा जीतनराम मांझी की नाव को ही धक्का लगाने की कोशिश करती रहेगी।

दिल्ली में 'आप' की विजय प्रथम दृष्टि में जनतंत्र की विजय है। अगर केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा इस सत्य को स्वीकार कर लेती है तो ठीक अन्यथा उसकी राह आगे भी सुगम नहीं है।
देशबन्धु में 12 फरवरी 2015 को प्रकाशित

Wednesday, 4 February 2015

ओबामा यात्रा के पांच अध्याय

 


 अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आए और चले गए। उनकी इस यात्रा को मुख्य तौर से पांच अध्यायों में बांटकर देखा जा सकता है। प्रथम अध्याय है- गणतंत्र दिवस समारोह में विशिष्ट अतिथि के रूप में उनकी उपस्थिति। यह अभूतपूर्व है कि कोई अमेरिकी राष्ट्रपति अपने कार्यकाल में दूसरी बार भारत आया हो। यह यात्रा इस नाते और महत्वपूर्ण हो जाती है कि राष्ट्रपति ने अपने पारंपरिक देश के नाम संदेश प्रसारण की तारीख बदली ताकि वे 26 जनवरी को दिल्ली में मौजूद रह सकें। जब से गणतंत्र दिवस परेड का आयोजन हो रहा है तब से प्रतिवर्ष किसी राष्ट्रप्रमुख या शासन प्रमुख को आमंत्रित करने की परिपाटी चली आ रही है, किन्तु आज तक अमेरिका के राष्ट्रप्रमुख को न्यौता नहीं दिया गया। कहते हैं कि पी.वी. नरसिम्हा राव बिल क्लिंटन को बुलाना चाहते थे किन्तु वे अपने देश के नाम संदेश की तारीख बदलने के लिए राजी नहीं थे। इस एक अपवाद को छोड़कर हमने कभी न्यौता क्यों नहीं भेजा तो इसके पीछे कोई कारण अवश्य रहा होगा। अमेरिका के साथ भारत के राजनैतिक संबंध कभी बहुत मधुर नहीं रहे। हम कैसे भूल जाएं कि अमेरिका ने काश्मीर के मसले पर संयुक्त राष्ट्र संघ में लगातार पाकिस्तान का साथ दिया। हमारी गुटनिरपेक्षता की नीति भी अमेरिकी सोच के विपरीत थी। अब इस स्थिति में काफी बदलाव आ चुका है।  दूसरे, अमेरिका के राष्ट्रपति की खातिरदारी करना अपने आप में एक बड़ा सरदर्द है। मोदी सरकार को उनकी सुरक्षा के लिए रखी गई हर शर्त मंजूर करना पड़ी। मैं तुलना करना चाहता हूं कि जब सोवियत संघ से ख्रुश्चेव और बुल्गानिन भारत आए तो पंडित नेहरू ने उन्हें अपने साथ खुली गाड़ी में घुमाया। और जब पंडितजी वहां गए तो उन नेताओं ने भी अपनी सुरक्षा व्यवस्था को तोड़कर नेहरूजी को उसी तरह खुली कार में घुमाया।

दूसरे अध्याय में भारत-अमेरिका आण्विक करार की चर्चा होगी। यह मसला दो-तीन साल से अटका हुआ था। डॉ. मनमोहन सिंह जिन शर्तों पर करार करना चाहते थे उन शर्तों पर प्रमुख विपक्षी दल के नाते भारतीय जनता पार्टी ने कड़ा विरोध किया था, लेकिन अब जिस समझौते पर हस्ताक्षर हुए हैं उसमें लगभग वही बातें हैं जो पुराने मसौदे में थीं। जिस तरह मोदी सरकार मनमोहन सरकार की अनेक पुरानी योजनाओं को नाम बदल-बदल कर चला रही है और प्रचार के बल पर वाहवाही लूटने की कोशिश कर रही है वही हकीकत इस करार को लेकर भी है। विशेषज्ञों की राय न तो उस समय अनुकूल थी और न इस समय। भारत ने रूस के साथ भी आण्विक दुर्घटना की स्थिति में मुआवजे का जो करार रूस के साथ किया है, उसमें सारी जिम्मेदारी आपूर्तिकर्ता की है जबकि श्री ओबामा की यात्रा के समय हुए करार में आपूर्तिकर्ता की जिम्मेदारी मात्र पचास प्रतिशत है, शेष पचास प्रतिशत भारत सरकार के मत्थे। इसके लिए सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कंपनियां साढ़े सात सौ करोड़ का प्रावधान करेंगी। याने जनता की जेब से पैसा जाएगा। यह तर्क समझ नहीं आता। जो अमेरिकी कंपनी संयंत्र लगा रही हैं और चलाएंगी, किसी भी आकस्मिक स्थिति में जिम्मेदारी शत प्रतिशत उन पर ही होना चाहिए। उपभोक्ता पर बोझ क्यों डाला जाए। इससे जुड़ा एक अवांतर मुद्दा भी है कि अमेरिका हमें अपने कबाड़ हो गए परमाणु संयंत्र बेच रहा है जबकि वह अपने देश में ऊर्जा के स्वच्छ, सस्ते और बेहतर उपायों के उपक्रम में निरंतर लगा हुआ है।

अब हम आते हैं तीसरे अध्याय पर। भारत ने अमेरिका के साथ सुरक्षा के मुद्दों पर राष्ट्रपति ओबामा की यात्रा के दौरान जो बहुसूत्रीय समझौता किया है उसकी कुछ धाराएं विशेषकर धारा-36 आशंका उपजाती है। सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि इसके लागू हो जाने के बाद भारत के जितने भी सैनिक प्रतिष्ठान हैं वे सब अमेरिका की निगरानी में अपने आप आ जाएंगे। अगर ऐसा है तो यह एक गंभीर घटना होगी। यह तो हम जानते हैं कि भारत पिछले बीस साल से बल्कि उसके पहले से भी अमेरिका और उसके पिठ्ठू इ•ाराइल के साथ सैन्य मामलों में लगातार सहयोग बढ़ाते आया है। यही वजह है कि आज भारत इ•ारायली शस्त्रास्त्र का ग्राहक नंबर-1 बन चुका है। इस बढ़ती हुर्ई दोस्ती की जो कीमत हमें देश में फैल रही आंतरिक अशांति के रूप में चुकाना पड़ रही है उससे हमारा सत्तातंत्र जानबूझ कर अनभिज्ञ बना हुआ है। हम काश्मीर के मसले पर अमेरिकी रुख देख ही चुके हैं। यह भी कैसे भूला जाए कि बंगलादेश युद्ध के समय अमेरिका ने अपने सातवें बेड़े का इंटरप्राइज नामक युद्धपोत हिन्द महासागर में भेजकर भारत को घुड़काने की कैसी कोशिश की थी। हम मानते हैं कि परिस्थितियां बदलती हैं, लेकिन नये माहौल में, नये मित्रों पर आंख मूंद कर विश्वास किस हद तक किया जा सकता है? अभी जो रिपोर्टें आ रही हैं उनके अनुसार रूस और चीन दोनों इस कारण से भारत से नाखुश हैं। हम चीन को कुछ देर के लिए छोड़ दें, लेकिन रूस के साथ भारत के परस्पर गहरे संबंध रहे हैं और उस ओर ध्यान न देना दुर्भाग्यपूर्ण होगा।

यह सवाल चौथे अध्याय में उठता है कि क्या राष्ट्रपति ओबामा प्रधानमंत्री मोदी के निमंत्रण मात्र पर भारत चले आए? सच बात यह है कि बराक ओबामा के दूसरे कार्यकाल के अब मात्र दो साल बचे हैं। अमेरिकी संसद की दोनों सदनों में विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत है। संभावना बनी है कि अगला राष्ट्रपति भी कहीं उनका न बन जाए। डेमोक्रेटिक पार्टी से संभवत: हिलेरी क्लिंटन अगली उम्मीदवार होंगी। ओबामा के लिए जरूरी है कि वे अपनी पार्टी के पक्ष में माहौल तैयार करें। इसके लिए अमेरिका के व्यवसायिक हितों पर ध्यान देना उनके लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसलिए हमारे प्रधानमंत्री चाहे जितनी मेक इन इंडिया की बात करें अमेरिकी राष्ट्रपति ने तो स्पष्ट कर दिया है कि वे भारत में भांति-भांति के उपक्रमों में पूंजी निवेश कर अपने उद्योग जगत के लिए मुनाफा कमाने की संभावनाएं टटोल रहे हैं। दूसरी तरफ वे भारतीय पूंजीपतियों को अमेरिका में निवेश के लिए बुला रहे हैं ताकि उनके यहां रोजगार के नए अवसर सृजित हो सकें। याने श्री ओबामा अपने दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हैं और मुंह में भी। इसमें भारत को क्या लाभ होगा यह अभी मेरी समझ में नहीं आ रहा है। हम एफडीआई का किसी हद तक समर्थन करते रहे हैं, लेकिन उससे अगर हमारे देश में रोजगार न बढ़े, उल्टे मुनाफे का बड़ा हिस्सा निवेशक देश में चला जाए तो फिर ऐसा उद्यम किस काम का?

अमेरिका के राष्ट्रपति ने स्वदेश रवाना होने के पहले सिरीफोर्ट सभागार में जो व्याख्यान दिया उसकी बहुत चर्चा हो रही है। यह पांचवां अध्याय है। श्री ओबामा ने महात्मा गांधी को याद किया और मार्टिन लूथर किंग को। उन्होंने स्वामी विवेकानंद को याद करते हुए भारत के भाइयों और बहनों कहकर संबोधित किया।  इसके बाद उन्होंने भारत में सामाजिक सद्भाव, साम्प्रदायिक एकता, सामाजिक न्याय, समान अवसर आदि पर काफी बातें कीं तथा शाहरुख खान, मिल्खा सिंह, मैरीकॉम व कैलाश सत्यार्थी- इन चार विभिन्न धर्म के लोगों की आदर्श के रूप में श्रोताओं के सामने प्रस्तुत किया। निश्चित रूप से अमेरिकी राष्ट्रपति अपना होमवर्क ठीक से करके आए थे। उनका भाषण जिसने भी लिखा वह कोई समझदार भारत विशेषज्ञ ही रहा होगा। इस भाषण में उन्होंने एक ओर तो यह संदेश दिया कि भारत-अमेरिका दोस्ती तभी मजबूत हो सकेगी जब भारत अपने संविधान में निहित मूल्यों पर कायम रहेगा। दूसरी ओर इस बहाने उन्होंने पाकिस्तान से लेकर लीबिया-अल्जीरिया तक को आश्वस्त किया है।

इस पुस्तक में एक अध्याय परिशिष्ट के रूप में जोड़ा जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रपति ओबामा को बार-बार उनके प्रथम नाम बराक से संबोधित किया, यह बात गले नहीं उतरी और इसकी खूब आलोचना हो रही है जो उचित है। राजनयिक शिष्टाचार की अपनी शर्तें होती हैं जिनका पालन करने की अपेक्षा प्रधानमंत्री से की जाती थी। श्री ओबामा ने एक बार भी श्री मोदी को नरेन्द्र कहकर संबोधित नहीं किया। वे उन्हें मिस्टर प्राइम मिनिस्टर ही कहते रहे। ठीक भी है। दोनों के बीच आपसी संबंधों में गर्माहट है भी तो वह राजनैतिक धरातल पर है। उसमें व्यक्तिगत मित्रता जैसी कोई बात नहीं है। मार्गे्रट थैचर और रोनाल्ड रीगन ने भी सार्वजनिक मंच पर एक-दूसरे को प्रथम नाम से संबोधित नहीं किया था। इसी तरह श्री मोदी ने एक तो जो दस लाख का सुनहरे धागों में बुना अपने नाम का सूट पहना और दूसरे दिन में जो चार-चार बार कपड़े बदले यह बात भी आम जनता को पसंद नहीं आई। श्री मोदी न तो अमिताभ बच्चन हैं और न वे कौन बन गया करोड़पति के सेट पर थे जहां उन्हें अपना बार-बार परिधान बदलने की आवश्यकता होती। ऐसा उन्होंने क्यों किया? क्या इसकी सलाह उनके छवि निर्माताओं ने दी थी? या फिर वे भारत के नवधनाढ्य वर्ग तथा 'डोन्ट वरी बी हैप्पी' युवाओं को कोई सूक्ष्म संदेश देना चाहते थे?
देशबन्धु में 5 फरवरी 2015 को प्रकाशित