Wednesday 4 February 2015

ओबामा यात्रा के पांच अध्याय

 


 अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आए और चले गए। उनकी इस यात्रा को मुख्य तौर से पांच अध्यायों में बांटकर देखा जा सकता है। प्रथम अध्याय है- गणतंत्र दिवस समारोह में विशिष्ट अतिथि के रूप में उनकी उपस्थिति। यह अभूतपूर्व है कि कोई अमेरिकी राष्ट्रपति अपने कार्यकाल में दूसरी बार भारत आया हो। यह यात्रा इस नाते और महत्वपूर्ण हो जाती है कि राष्ट्रपति ने अपने पारंपरिक देश के नाम संदेश प्रसारण की तारीख बदली ताकि वे 26 जनवरी को दिल्ली में मौजूद रह सकें। जब से गणतंत्र दिवस परेड का आयोजन हो रहा है तब से प्रतिवर्ष किसी राष्ट्रप्रमुख या शासन प्रमुख को आमंत्रित करने की परिपाटी चली आ रही है, किन्तु आज तक अमेरिका के राष्ट्रप्रमुख को न्यौता नहीं दिया गया। कहते हैं कि पी.वी. नरसिम्हा राव बिल क्लिंटन को बुलाना चाहते थे किन्तु वे अपने देश के नाम संदेश की तारीख बदलने के लिए राजी नहीं थे। इस एक अपवाद को छोड़कर हमने कभी न्यौता क्यों नहीं भेजा तो इसके पीछे कोई कारण अवश्य रहा होगा। अमेरिका के साथ भारत के राजनैतिक संबंध कभी बहुत मधुर नहीं रहे। हम कैसे भूल जाएं कि अमेरिका ने काश्मीर के मसले पर संयुक्त राष्ट्र संघ में लगातार पाकिस्तान का साथ दिया। हमारी गुटनिरपेक्षता की नीति भी अमेरिकी सोच के विपरीत थी। अब इस स्थिति में काफी बदलाव आ चुका है।  दूसरे, अमेरिका के राष्ट्रपति की खातिरदारी करना अपने आप में एक बड़ा सरदर्द है। मोदी सरकार को उनकी सुरक्षा के लिए रखी गई हर शर्त मंजूर करना पड़ी। मैं तुलना करना चाहता हूं कि जब सोवियत संघ से ख्रुश्चेव और बुल्गानिन भारत आए तो पंडित नेहरू ने उन्हें अपने साथ खुली गाड़ी में घुमाया। और जब पंडितजी वहां गए तो उन नेताओं ने भी अपनी सुरक्षा व्यवस्था को तोड़कर नेहरूजी को उसी तरह खुली कार में घुमाया।

दूसरे अध्याय में भारत-अमेरिका आण्विक करार की चर्चा होगी। यह मसला दो-तीन साल से अटका हुआ था। डॉ. मनमोहन सिंह जिन शर्तों पर करार करना चाहते थे उन शर्तों पर प्रमुख विपक्षी दल के नाते भारतीय जनता पार्टी ने कड़ा विरोध किया था, लेकिन अब जिस समझौते पर हस्ताक्षर हुए हैं उसमें लगभग वही बातें हैं जो पुराने मसौदे में थीं। जिस तरह मोदी सरकार मनमोहन सरकार की अनेक पुरानी योजनाओं को नाम बदल-बदल कर चला रही है और प्रचार के बल पर वाहवाही लूटने की कोशिश कर रही है वही हकीकत इस करार को लेकर भी है। विशेषज्ञों की राय न तो उस समय अनुकूल थी और न इस समय। भारत ने रूस के साथ भी आण्विक दुर्घटना की स्थिति में मुआवजे का जो करार रूस के साथ किया है, उसमें सारी जिम्मेदारी आपूर्तिकर्ता की है जबकि श्री ओबामा की यात्रा के समय हुए करार में आपूर्तिकर्ता की जिम्मेदारी मात्र पचास प्रतिशत है, शेष पचास प्रतिशत भारत सरकार के मत्थे। इसके लिए सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कंपनियां साढ़े सात सौ करोड़ का प्रावधान करेंगी। याने जनता की जेब से पैसा जाएगा। यह तर्क समझ नहीं आता। जो अमेरिकी कंपनी संयंत्र लगा रही हैं और चलाएंगी, किसी भी आकस्मिक स्थिति में जिम्मेदारी शत प्रतिशत उन पर ही होना चाहिए। उपभोक्ता पर बोझ क्यों डाला जाए। इससे जुड़ा एक अवांतर मुद्दा भी है कि अमेरिका हमें अपने कबाड़ हो गए परमाणु संयंत्र बेच रहा है जबकि वह अपने देश में ऊर्जा के स्वच्छ, सस्ते और बेहतर उपायों के उपक्रम में निरंतर लगा हुआ है।

अब हम आते हैं तीसरे अध्याय पर। भारत ने अमेरिका के साथ सुरक्षा के मुद्दों पर राष्ट्रपति ओबामा की यात्रा के दौरान जो बहुसूत्रीय समझौता किया है उसकी कुछ धाराएं विशेषकर धारा-36 आशंका उपजाती है। सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि इसके लागू हो जाने के बाद भारत के जितने भी सैनिक प्रतिष्ठान हैं वे सब अमेरिका की निगरानी में अपने आप आ जाएंगे। अगर ऐसा है तो यह एक गंभीर घटना होगी। यह तो हम जानते हैं कि भारत पिछले बीस साल से बल्कि उसके पहले से भी अमेरिका और उसके पिठ्ठू इ•ाराइल के साथ सैन्य मामलों में लगातार सहयोग बढ़ाते आया है। यही वजह है कि आज भारत इ•ारायली शस्त्रास्त्र का ग्राहक नंबर-1 बन चुका है। इस बढ़ती हुर्ई दोस्ती की जो कीमत हमें देश में फैल रही आंतरिक अशांति के रूप में चुकाना पड़ रही है उससे हमारा सत्तातंत्र जानबूझ कर अनभिज्ञ बना हुआ है। हम काश्मीर के मसले पर अमेरिकी रुख देख ही चुके हैं। यह भी कैसे भूला जाए कि बंगलादेश युद्ध के समय अमेरिका ने अपने सातवें बेड़े का इंटरप्राइज नामक युद्धपोत हिन्द महासागर में भेजकर भारत को घुड़काने की कैसी कोशिश की थी। हम मानते हैं कि परिस्थितियां बदलती हैं, लेकिन नये माहौल में, नये मित्रों पर आंख मूंद कर विश्वास किस हद तक किया जा सकता है? अभी जो रिपोर्टें आ रही हैं उनके अनुसार रूस और चीन दोनों इस कारण से भारत से नाखुश हैं। हम चीन को कुछ देर के लिए छोड़ दें, लेकिन रूस के साथ भारत के परस्पर गहरे संबंध रहे हैं और उस ओर ध्यान न देना दुर्भाग्यपूर्ण होगा।

यह सवाल चौथे अध्याय में उठता है कि क्या राष्ट्रपति ओबामा प्रधानमंत्री मोदी के निमंत्रण मात्र पर भारत चले आए? सच बात यह है कि बराक ओबामा के दूसरे कार्यकाल के अब मात्र दो साल बचे हैं। अमेरिकी संसद की दोनों सदनों में विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत है। संभावना बनी है कि अगला राष्ट्रपति भी कहीं उनका न बन जाए। डेमोक्रेटिक पार्टी से संभवत: हिलेरी क्लिंटन अगली उम्मीदवार होंगी। ओबामा के लिए जरूरी है कि वे अपनी पार्टी के पक्ष में माहौल तैयार करें। इसके लिए अमेरिका के व्यवसायिक हितों पर ध्यान देना उनके लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसलिए हमारे प्रधानमंत्री चाहे जितनी मेक इन इंडिया की बात करें अमेरिकी राष्ट्रपति ने तो स्पष्ट कर दिया है कि वे भारत में भांति-भांति के उपक्रमों में पूंजी निवेश कर अपने उद्योग जगत के लिए मुनाफा कमाने की संभावनाएं टटोल रहे हैं। दूसरी तरफ वे भारतीय पूंजीपतियों को अमेरिका में निवेश के लिए बुला रहे हैं ताकि उनके यहां रोजगार के नए अवसर सृजित हो सकें। याने श्री ओबामा अपने दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हैं और मुंह में भी। इसमें भारत को क्या लाभ होगा यह अभी मेरी समझ में नहीं आ रहा है। हम एफडीआई का किसी हद तक समर्थन करते रहे हैं, लेकिन उससे अगर हमारे देश में रोजगार न बढ़े, उल्टे मुनाफे का बड़ा हिस्सा निवेशक देश में चला जाए तो फिर ऐसा उद्यम किस काम का?

अमेरिका के राष्ट्रपति ने स्वदेश रवाना होने के पहले सिरीफोर्ट सभागार में जो व्याख्यान दिया उसकी बहुत चर्चा हो रही है। यह पांचवां अध्याय है। श्री ओबामा ने महात्मा गांधी को याद किया और मार्टिन लूथर किंग को। उन्होंने स्वामी विवेकानंद को याद करते हुए भारत के भाइयों और बहनों कहकर संबोधित किया।  इसके बाद उन्होंने भारत में सामाजिक सद्भाव, साम्प्रदायिक एकता, सामाजिक न्याय, समान अवसर आदि पर काफी बातें कीं तथा शाहरुख खान, मिल्खा सिंह, मैरीकॉम व कैलाश सत्यार्थी- इन चार विभिन्न धर्म के लोगों की आदर्श के रूप में श्रोताओं के सामने प्रस्तुत किया। निश्चित रूप से अमेरिकी राष्ट्रपति अपना होमवर्क ठीक से करके आए थे। उनका भाषण जिसने भी लिखा वह कोई समझदार भारत विशेषज्ञ ही रहा होगा। इस भाषण में उन्होंने एक ओर तो यह संदेश दिया कि भारत-अमेरिका दोस्ती तभी मजबूत हो सकेगी जब भारत अपने संविधान में निहित मूल्यों पर कायम रहेगा। दूसरी ओर इस बहाने उन्होंने पाकिस्तान से लेकर लीबिया-अल्जीरिया तक को आश्वस्त किया है।

इस पुस्तक में एक अध्याय परिशिष्ट के रूप में जोड़ा जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रपति ओबामा को बार-बार उनके प्रथम नाम बराक से संबोधित किया, यह बात गले नहीं उतरी और इसकी खूब आलोचना हो रही है जो उचित है। राजनयिक शिष्टाचार की अपनी शर्तें होती हैं जिनका पालन करने की अपेक्षा प्रधानमंत्री से की जाती थी। श्री ओबामा ने एक बार भी श्री मोदी को नरेन्द्र कहकर संबोधित नहीं किया। वे उन्हें मिस्टर प्राइम मिनिस्टर ही कहते रहे। ठीक भी है। दोनों के बीच आपसी संबंधों में गर्माहट है भी तो वह राजनैतिक धरातल पर है। उसमें व्यक्तिगत मित्रता जैसी कोई बात नहीं है। मार्गे्रट थैचर और रोनाल्ड रीगन ने भी सार्वजनिक मंच पर एक-दूसरे को प्रथम नाम से संबोधित नहीं किया था। इसी तरह श्री मोदी ने एक तो जो दस लाख का सुनहरे धागों में बुना अपने नाम का सूट पहना और दूसरे दिन में जो चार-चार बार कपड़े बदले यह बात भी आम जनता को पसंद नहीं आई। श्री मोदी न तो अमिताभ बच्चन हैं और न वे कौन बन गया करोड़पति के सेट पर थे जहां उन्हें अपना बार-बार परिधान बदलने की आवश्यकता होती। ऐसा उन्होंने क्यों किया? क्या इसकी सलाह उनके छवि निर्माताओं ने दी थी? या फिर वे भारत के नवधनाढ्य वर्ग तथा 'डोन्ट वरी बी हैप्पी' युवाओं को कोई सूक्ष्म संदेश देना चाहते थे?
देशबन्धु में 5 फरवरी 2015 को प्रकाशित

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