Wednesday 18 February 2015

पूंजीवादी जनतंत्र और 'आप'


 7फरवरी को जब टीवी चैनलों पर एक्जिट पोल आ रहे थे और आम आदमी पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलने की संभावना व्यक्त की जा रही थी तब मैंने ट्विटर और फेसबुक पर एक संभावना व्यक्त की थी कि क्या आम आदमी पार्टी पुराने समय की स्वतंत्र पार्टी के नए अवतार के रूप में उभरेगी; ऐसी पार्टी जो धर्मनिरपेक्ष होगी किन्तु अन्य मामलों में जिसकी रुझान दक्षिणपंथी होगी! मुझे इस टिप्पणी पर कोई खास प्रतिक्रियाएं नहीं मिलीं, लेकिन मैं जब आम आदमी पार्टी की अभूतपूर्व दिल्ली विजय की समीक्षा करने का प्रयत्न करता हूं तब यही सोचने पर मजबूर होता हूं कि देश में आप के रूप में एक ऐसी पार्टी का उदय हुआ है जो अमेरिकी शैली में पूंजीवादी जनतंत्र की ध्वजवाहक होगी। मैं याद करना चाहता हूं कि फ्रांसिस फुकुयामा ने लगभग ढाई दशक पहले अपनी बहुचर्चित पुस्तक 'द एंड ऑफ हिस्ट्री' यह अवधारणा प्रस्तुत की थी कि राजनैतिक इतिहास में पूंजीवादी जनतंत्र ही अंतिम विकल्प है। आगे चलकर फुकुयामा ने तो अपनी स्थापना को काफी हद तक संशोधित किया लेकिन क्या आश्चर्य कि भारत में मीमांसकों को उसका पुराना रूप ही स्वीकार हो!

जैसा कि हम जानते हैं योगेन्द्र यादव आम आदमी पार्टी के सबसे प्रबल, सबसे प्रमुख और सबसे मुखर भाष्यकार हैं। वे सीएसडीएस नामक उस संस्था या थिंक टैंक से भी जुड़े रहे हैं जिसकी राजनैतिक सोच मुख्यत: कांग्रेस विरोधी रही है। श्री यादव ने नतीजे आने के तुरंत बाद ही टीवी पर यह स्पष्ट रूप से घोषित किया कि आम आदमी पार्टी की विचारधारा वर्ग संघर्ष की विचारधारा नहीं है। सीएसडीएस से ही जुड़े आप समर्थक प्रखर पत्रकार अभय कुमार दुबे का भी कहना है कि आम आदमी पार्टी पूंजी-विरोधी या व्यापार-विरोधी नहीं है। आप के प्रणेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी शपथ ग्रहण के बाद व्यापार जगत को निर्भय होकर अपना व्यापार करने और उस पर कानूनन टैक्स जमा करने का संदेश दिया है। ये तीनों उक्तियां आप के राजनैतिक दर्शन को समझने में हमारी मदद करती हैं।

यह तथ्य किसी से छिपा हुआ नहीं है कि वैश्विक पूंजी हितों को भारत में समाजवाद की अवधारणा कभी रास नहीं आई। जब जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे तब भी कांग्रेस पार्टी और सरकार में वही लोग बहुमत में थे जो समाजवाद के खुले तौर पर न सही दबे-छुपे विरोधी थे। पंडितजी ने योजना आयोग की स्थापना व मिश्रित अर्थव्यवस्था की जो बात की वह भी न्यस्त हितों को नागवार गुजरती थी। पंडित नेहरू एक तरह से पार्टी के भीतर काफी हद तक अकेले थे इसीलिए भूमि सुधार कार्यक्रम देश में कभी भी पूरी तरह से लागू नहीं हो पाया। कांग्रेस की जमींदारी उन्मूलन के प्रति वचनबद्धता भी बहुत कुछ कागजों पर रही आई। बड़े भूस्वामियों ने हर तरह के प्रपंच रच भूमि सुधार लागू नहीं होने दिया। विनोबा भावे का भूदान आंदोलन भी इसीलिए अंतत: एक आडंबर ही सिद्ध हुआ। ऐसे बड़े जमींदार अपवादस्वरूप ही थे जिन्होंने ईमानदारी से अपनी भूमि भूदान यज्ञ को समर्पित की।

इसी कड़ी में हम स्वतंत्र पार्टी का गठन होते देखते हैं। इसके सबसे बड़े नेता देश के महान नेताओं में से एक चक्रवर्ती राजगोपालाचारी थे और कर्ता-धर्ताओं में प्रमुख नाम किसी समय के समाजवादी मीनू मसानी का था। यूं तो दोनों पुराने कांग्रेसी और पंडितजी के निकट सहयोगी थे, लेकिन पंडित नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस जिस समाजवाद की बात कर रही थी उससे ये सहमत नहीं थे। यह सच्चाई अपनी जगह पर है कि तत्कालीन परिस्थितियों में स्वयं पंडित नेहरू अपनी नीतियों को पूरी तरह से लागू करने की स्थिति में नहीं थे और समाजवाद आधे-अधूरे रूप में ही लागू हो रहा था। जैसे ही स्वतंत्र पार्टी का गठन हुआ देश के तमाम राजे-महाराजे और इजारेदार उसमें शामिल हो गए। पार्टी ने 1962 के आमचुनाव में ठीक-ठाक सफलता भी अर्जित की। यद्यपि यह प्रयोग बहुत लंबे समय तक नहीं चल पाया। इसके अनेक कारण थे।

आर्थिक नीतियों के अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि 1980 में इंदिरा गांधी के दुबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत में आर्थिक उदारवाद के नए दौर की शुरुआत हो चुकी थी, यद्यपि वह बहुत प्रकट नहीं थी। राजीव गांधी, फिर वी.पी. सिंह के संक्षिप्त कार्यकाल में देश में वैश्विक पूंजी हितों की पकड़ कुछ और मजबूत हुई। तदन्तर पी.वी. नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्री बनने और उनके साथ डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा वित्तमंत्री की कुर्सी संभालने के साथ एल.पी.जी. याने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण का जो दौर प्रारंभ हुआ वह लगातार मजबूत होते गया है। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के नाते अपने दूसरे कार्यकाल में इस प्रक्रिया को अपेक्षानुरूप गति नहीं दे पाए- यह आलोचना तो पूंजीवाद समर्थक हर आर्थिक-सामाजिक विश्लेषण कर ही रहा है। ऐसी स्थिति में पूंजी हितों की रक्षा करने के लिए एक नए नेतृृत्व की तलाश शुरु हुई और नरेन्द्र मोदी देखते ही देखते राष्ट्रीय तो क्या बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर छा गए।

यहां तक तो सब कुछ ठीक था। सब जानते हैं कि भारत दुनिया का दूसरे नंबर का बड़ा बाजार है।  जो सबसे बड़ा बाजार है याने चीन वहां से वैश्विक पूंजी को जो कुछ हासिल करना था वह काफी हद तक पाया जा चुका है। उसके विस्तार में जाने की यहां आवश्यकता नहीं है। अब भारत पर सबकी निगाहें टिकी हैं। देश की भौगोलिक स्थिति, राजनीतिक परंपरा व सामाजिक वातावरण सब मिलकर एक ऐसी रचना करते हैं जो आस्ट्रेलिया व जापान से लेकर अमेरिका व कनाडा तक सबको आकर्षित करती है। विश्व के सबसे बड़े धनपति बिल गेट्स भारत के प्रति अपना प्रेम समय-समय पर व्यक्त करते रहते हैं और भारत के पूंजीपतियों को अमेरिका से कितना प्रेम है इसका प्रमाण राष्ट्रपति भवन में बराक ओबामा से हाथ मिलाने के लिए खड़े उद्योगपतियों की सुदीर्घ पंक्ति के दृश्य से मिल जाता है। फिलहाल यह भूल जाइए कि डॉ. मनमोहन सिंह ने कभी राष्ट्रपति बुश को उच्छवास भर कर कहा था कि भारत की जनता आपसे बहुत प्यार करती है। यह भी भूल जाइए कि बिल क्लिंटन जब हमारी संसद में आए थे तो संसद सदस्य उनसे हाथ मिलाने के लिए कैसे पागलों की तरह टूटे पड़ रहे थे।

इतनी बात करने का मतलब सिर्फ इतना है कि भारतीय संविधान में समाजवाद शब्द भले ही हो, हमारी व्यवहारिक राजनीति से उसे निकालकर फेंक दिया गया है। अब भारत एक मुकम्मल पूंजीवादी जनतंत्र बनने के रास्ते पर काफी आगे बढ़ गया है। यह अपेक्षा नरेन्द्र मोदी से थी कि वे मंजिल पर पहुंचकर ही दम लेंगे, लेकिन उन्हें कदम-कदम पर बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है। यह बाधा कोई और नहीं बल्कि उनके अपने परिवार के लोग पैदा कर रहे हैं। स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि कल तक मोदीजी के अंधप्रशंसक रहे तीसरे दर्जे के रूमानी उपन्यासों के चर्चित लेखक चेतन भगत उन्हें जमीन पर आने की सलाह देने लगे। संघ परिवार के एक अन्य शुभचिंतक बाबा रामदेव के अनन्य सहयोगी व मोदी-विजय से उल्लसित पत्रकार वेदप्रताप वैदिक भी अब प्रधानमंत्री को प्रादेशिक नेता कहने लगे हैं।

दरअसल, हुआ यह है कि वैश्विक पूंजीहितों को समाजवाद से भले ही घृणा हो, वे धर्मनिरपेक्षता के  विरोधी नहीं हैं। बात सरल है। किसी भी देश में सामाजिक सद्भाव और शांति कायम रहेगी तभी व्यापार-व्यवसाय अपेक्षानुरूप प्रगति कर सकेगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दो पाटों के बीच फंस गए हैं। वे एक तरफ कारपोरेट हितों की रक्षा करना चाहते हैं और दूसरी तरफ हिन्दुत्व को भी नहीं छोडऩा चाहते। पिछले नौ माहों में संघ प्रमुख मोहन भागवत से लेकर छोटे-मोटे कार्यकर्ताओं तक ने हिन्दुत्व को लेकर जो उग्र रूप वाणी और व्यवहार में प्रदर्शित किया है वह पूंजीवादी लोकतंत्र के अनुकूल नहीं है। अगर नरेन्द्र मोदी हिन्दुत्व से अपना पीछा नहीं छुड़ा सकते तो उन्हें विश्व बाजार से समर्थन की आशा भी नहीं रखना चाहिए।

हम स्वतंत्र पार्टी की ओर वापस लौटते हैं। देश में उस समय हिन्दुत्ववादी शक्तियों के तीन राजनीतिक दल थे-हिन्दू महासभा, रामराज्य परिषद और भारतीय जनसंघ। उस समय भी वैश्विक पूंजीवाद ने इनमें से किसी पर दांव लगाने के बजाय स्वतंत्र पार्टी के रूप में एक नए राजनीतिक विन्यास को अपना समर्थन दिया था। हमें लगता है कि आज के इजारेदार भी भाजपा और आप के बीच किसको चुनें, इस पर सोच रहे हैं। इस परिदृश्य में आप से यह उम्मीद करना निष्फल ही होगा कि वह किसी तीसरे मोर्चे का हिस्सा बनेगी या कि समाजवादी, साम्यवादी पार्टियों के साथ उसका कोई स्थायी तालमेल हो सकेगा। देश में धर्मनिरपेक्षता का नारा बुलंद करने वाली निष्क्रिय और हताश शक्तियों के लिए फिलहाल इतनी ही राहत काफी है कि भारतीय जनता पार्टी को आम आदमी पार्टी के हाथों पराजय झेलना पड़ी है।
 देशबन्धु में 19 फरवरी 2015 को प्रकाशित

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