दिल्ली के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी को मिली सफलता अभूतपूर्व है और इसने सबको चकित कर दिया है। देश के पूर्वोत्तर प्रांतों व तमिलनाडु में जब-तब क्षेत्रीय दलों को इस तरह की एकतरफा विजय मिलने के उदाहरण हैं, लेकिन देश की राजधानी वाले प्रदेश में ऐसे नतीजे आना कल्पनातीत थे। आप प्रमुख अरविन्द केजरीवाल व उनकी पूरी टीम को न सिर्फ बधाईयां मिल रही हैं, जिसके कि वे हर तरह से हकदार हैं; देश की जनता उन्हें इसलिए भी धन्यवाद दे रही है कि आप की विजय के बाद वह भ्रष्टाचार ही नहीं, सार्वजनिक जीवन में तेजी से फैल रहे उन्माद से भी शायद मुक्ति पा सकेगी! इसे संभवत: इस तरह भी कहा जा सकता है कि जनता के मन में आप की विजय ने यह विश्वास जागृत किया है कि वह तानाशाही, फिरकापरस्ती और पूंजी के गठजोड़ से लड़ सकती है। सत्तर में से सड़सठ सीटों में जीतना कोई हंसी खेल नहीं है। यह जनता की उम्मीदों और विश्वास की विजय है। और यदि दिल्ली लघु भारत है तो यह पूरे देश की जनता की जीत है।
इन चुनाव परिणामों का विश्लेषण करते हुए सबसे पहले सवाल उठता है कि भारतीय जनता पार्टी की शोचनीय पराजय के लिए कौन जिम्मेदार हैं और वे इस हार को किस भावना के साथ लेते हैं। भाजपा की मुख्यमंत्री पद की थोपी उम्मीदवार किरण बेदी ने तो नतीजे आते साथ ही यह कहकर अपने आपको बरी कर लिया कि यह उनकी हार नहीं है; उन्होंने लगे हाथ भाजपा को आत्मचिंतन करने की सलाह भी दे डाली है। उसका जो गूढ़ार्थ है उसे हम शायद जानते हैं, लेकिन सिर्फ इतना कहने से सुश्री बेदी अपनी जिम्मेवारी से नहीं बच सकतीं। यह उनकी दबी हुई महत्वाकांक्षा तो थी जिसने उन्हें अरविन्द केजरीवाल का साथ छोड़ भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने के लिए उकसाया। वे धूमकेतु की तरह प्रकट हुईं और टूटे हुए तारे की तरह विलीन हो गईं। तथापि उन्होंने पार्टी में बने रहने की घोषणा की है इसलिए संभावना बनती है कि आगे- पीछे उनकी सेवाओं का कुछ और उपयोग कर लिया जाए!
जब किरण बेदी हार की जिम्मेदारी पार्टी पर डालती हैं तो मानना चाहिए कि यह आरोप उन पर है जिन्होंने उनके लिए पार्टी में आने का मार्ग प्रशस्त किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह- इन दोनों में से किसकी यह सोच थी, यह हमें पता नहीं है, लेकिन दिल्ली के विधानसभा चुनाव भाजपा ने जिस बड़े लाव-लश्कर के साथ लड़े और स्वयं नरेन्द्र मोदी आगे बढ़कर नेतृत्व करते रहे, उसमें तो उनकी ही जिम्मेदारी सबसे पहले बनती है, ऐसी सोच मन में उठना स्वाभाविक है। अगर भाजपा के प्रधानमंत्री को बरी कर दिया जाए तब भी क्या पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को इस शर्मनाक हार की नैतिक जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा नहीं दे देना चाहिए? उन्हें लोकसभा में उत्तरप्रदेश में जीत का श्रेय देते हुए अध्यक्ष पद सौंपा गया था जबकि पार्टी के बड़े-बड़े नेता दरकिनार कर दिए गए थे। तो जिस व्यक्ति को जीतने पर पुरस्कार मिला हो, हारने के बाद उससे और क्या उम्मीद की जाए?
ऐसा समझ आता है कि भारतीय जनता पार्टी ने दिल्ली के चुनावों में शुरु से ही अपने पत्ते गलत खेले। पार्टी को हरियाणा विधानसभा में अवश्य पूर्ण बहुमत मिला, किन्तु महाराष्ट्र व जम्मू-काश्मीर में नतीजे उसकी अपेक्षानुरूप नहीं आए। इसके बाद भाजपा को अहंकार छोड़ आत्ममंथन करना चाहिए था, जो उसने नहीं किया। इसके बजाय वह उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल तथा अन्य गैर-भाजपाई प्रदेशों में लगातार प्रत्यक्ष और परोक्ष वहां की सरकारों को अस्थिर करने के काम में जुटी रही। संघ परिवार के विभिन्न अभिकरणों ने इसमें योगदान करने में कोई कमी नहीं की। आत्ममुग्धता की स्थिति में पहुंचकर भाजपा दिल्ली की जमीनी हकीकत का सही आकलन नहीं कर सकी। 2013 में डॉ. हर्षवर्धन के नेतृत्व में भाजपा 32 सीटें लेकर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी। डॉ. हर्षवर्धन बेदाग छवि के नेता हैं यह भी सबको पता है, लेकिन उनके साथ क्या व्यवहार किया गया? वे लोकसभा चुनाव जीते तो पहले उन्हें स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया, फिर एक तरह से अपमानित कर उनका विभाग बदल दिया गया। यह शायद पार्टी की पहली गलती थी।
यदि भारतीय जनता पार्टी लोकसभा चुनावों के चार-पांच माह के भीतर दिल्ली के चुनाव करा लेती और ये चुनाव दुबारा डॉ. हर्षवर्धन के नेतृत्व में लड़े जाते तब शायद ऐसी स्थिति नहीं होती। चुनावों में इतना विलंब क्यों किया गया, यह भी समझ से परे है। उपराज्यपाल नजीब जंग ने उचित समय में विधानसभा भंग करने की सिफारिश क्यों नहीं की, यह एक और पहेली है। फिर अगर मोदी-शाह युति को हर्षवर्धन रास नहीं आ रहे थे तो विजय गोयल या जगदीश मुखी ने ऐसा क्या अपराध किया था कि उनको किनारे कर दिया गया? विजय गोयल को तो मोदीजी एक समय मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत भी कर चुके थे। फिर किरण बेदी में ऐसी क्या खूबी नज़र आई कि उन्हें सबके सिर पर बैठा दिया गया? उन्हें कृष्णा नगर से ही चुनाव क्यों लड़ाया गया जहां वर्धन अपने बेटे के लिए टिकट मांग रहे थे? पूरे घटनाचक्र का विश्लेषण करें तो अनुमान होता है कि दिल्ली के भाजपाईयों ने स्वयं पूरे मन से काम नहीं किया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवकसंघ में तो एकचालकानुवर्ती का सिद्धांत चलता ही है। केन्द्र सरकार में भी यही नीति लागू कर दी गई। मोदीजी ने अपने आगे बाकी सबको बौना सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पार्टी के अनेक दिग्गज मन ही मन दुखी हैं। केन्द्र सरकार के अधिकारियों-कर्मचारियों के बीच भी शासन की रीति-नीति को लेकर लगातार असंतोष बढ़ रहा है। जहां तक आम जनता की बात है तो वह मोहन भागवत से लेकर साक्षी महाराज और साध्वी प्रज्ञा आदि के कुवचनों से तथा देश में जगह-जगह सांप्रदायिकता के उभार जैसे दिल्ली में एक के बाद एक गिरिजाघरों में तोडफ़ोड़, लव जेहाद, जैसे कृत्यों से खुद को आहत व ठगा हुआ महसूस कर रही है। उसने मोदीजी को सुशासन के लिए वोट दिया था, इन कामों के लिए नहीं।
ऐन चुनाव के दौरान ही अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा करवा के शायद मोदीजी ने सोचा होगा कि अब तो किला फतह हो गया, लेकिन उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। श्री ओबामा ने दिल्ली से रवाना होने के तुरंत पहले तथा वाशिंगटन लौटते साथ ही भारत में सांप्रदायिकता फैलने पर जो चिंता व्यक्त की है उससे यह समझ आ जाना चाहिए कि भारत यदि वैश्विक पूंजीवादी अर्थतंत्र का हिस्सा बनना चाहता है, तो यह तभी हो सकता है जब देश धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर चले और वहां मानवाधिकारों की रक्षा की जाए। आप अठारहवीं सदी की सोच लेकर इक्कीसवीं सदी में विश्व विजय नहीं कर सकते। हमारा ख्याल है कि मोदीजी बराक-बराक कहकर और दस लाख का सूट पहनकर भले ही खुद को धन्य मान रहे हों, इसे भी देश की जनता ने स्वीकार नहीं किया। हमें तो यह तक प्रतीत होता है कि वैश्विक पूंजी का मोदीजी से मोहभंग होने लगा है, इसलिए अब उन्होंने केजरीवालजी पर दाँव लगाया है।
कुछ बात कांग्रेस की भी। उसकी गल्तियों का भी कोई अंत नहीं है। अरविन्द सिंह लवली मौजूदा हालात में अपना काम ठीक ही कर रहे थे, उन्हें चुनाव क्यों नहीं लडऩे दिया गया? वे पिछले सदन में पार्टी के नेता थे, इस बार भी होते। उन्हें हटाकर अजय माकन को क्यों लाया गया? जब श्री माकन केन्द्र की राजनीति में जा चुके हैं, तो फिर प्रदेश में लौटने की ऐसी क्या आवश्यकता थी? क्या ऐसा इसलिए हुआ कि लवली शीला दीक्षित समर्थक माने जाते हैं और माकन उनके घोर विरोधी रहे हैं? शीलाजी तो अपने पुत्र संदीप दीक्षित सहित पहले से ही धराशायी थीं। उनकी तरफ इतना ध्यान देने की जरूरत ही कहां थी? श्री माकन को लाना ही था तो आठ महीने पहले कमान दे दी जाती। बहरहाल कांग्रेस के लिए खुशी की बात है कि भाजपा को इस बुरी कदर पराजय मिली। पुरानी कहावत है- ''नकटे की नाक कटी मेरी सवा हाथ बढ़ी।" यह तय है कि कांगे्रस के बहुत से वोटरों ने आप पार्टी को इसलिए चुना ताकि भाजपा को रोका जा सके।
अब सवाल उठता है कि देश की राजनीति पर इन चुनाव परिणामों का क्या असर होगा? यदि भारतीय जनता पार्टी अब भी अपनी रीति-नीति में सुधार करने के लिए तैयार हो तो वह अपने पूर्ण बहुमत के आधार पर संविधान की मर्यादा के अनुसार देश को सुशासन दे सकती है, किन्तु क्या वह ऐसा करने में समर्थ है? अभी बजट सत्र में ही इसकी परीक्षा हो जाएगी। क्या वह एक जनोन्मुखी बजट लाएगी या फिर कारपोरेट घरानों के इशारों पर नाचती रहेगी? दूसरे,क्या सरकार भूमि अधिग्रहण कानून जैसे अध्यादेशों को वापिस लेगी या फिर हठधर्मिता का परिचय देगी? राजनैतिक मोर्चे पर सबसे पहले बिहार में उसे राजनैतिक विवेक का परिचय देना होगा। यह देखना होगा कि भाजपाई राज्यपाल नीतीश कुमार को सरकार बनाने आमंत्रित करते हैं या फिर भाजपा जीतनराम मांझी की नाव को ही धक्का लगाने की कोशिश करती रहेगी।
दिल्ली में 'आप' की विजय प्रथम दृष्टि में जनतंत्र की विजय है। अगर केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा इस सत्य को स्वीकार कर लेती है तो ठीक अन्यथा उसकी राह आगे भी सुगम नहीं है।
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