एक दूसरी रिपोर्ट राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन द्वारा जारी की गई है। इसमें 2009-10 से लेकर 2014-15 तक के तुलनात्मक आंकड़े पेश कर बताया गया है कि देश के अस्पतालों में शल्य क्रिया याने सर्जरी करने के मामलों में कैसे बेतहाशा वृद्धि हुई है। महाराष्ट्र के अस्पतालों में शल्य चिकित्सा लगभग एक हजार प्रतिशत बढ़ गई। जबकि दूसरे नंबर पर छत्तीसगढ़ में यह बढ़ोतरी 509 प्रतिशत रही है। रिपोर्ट में बताया गया है कि स्वास्थ्य बीमा योजना, जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम इत्यादि जिनमें या तो प्रोत्साहन निधि मिलना है या बीमा कंपनी को लाभ होना है, के कारण बिना आवश्यकता के मरीजों की सर्जरी कर दी गई। इनमें सिजेरियन, हार्निया, गालब्लेडर, अपेंडिक्स आदि से संबंधित प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं। रिपोर्ट बताती है कि केन्द्र शासित प्रदेशों में तो यह दर लगभग अविश्वसनीय है। मसलन सिक्किम में बाईस सौ चौदह प्रतिशत बढ़ोतरी और अंडमान निकोबार में ग्यारह सौ अठहत्तर प्रतिशत। इसे लेकर सरकार की ओर से स्पष्टीकरण आए हैं, लेकिन अधिकतर विशेषज्ञों का मानना है कि बीमा कंपनियों को लाभ पहुंचाने का उद्देश्य इसमें सर्वोपरि रहा है। संस्थागत प्रसव में प्रेरक को प्रोत्साहन राशि मिलती है जो सामान्य प्रसूति में तीन दिन तक के लिए होती है, लेकिन सिजेरियन में सात दिन भर्ती रहने के लिए, याने दुगुना फायदा।
इन दोनों रिपोर्टों से अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाओं की क्या स्थिति है। एक आम आदमी के जीवन में शिक्षा के बाद स्वास्थ्य ही सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा होता है। किसी भी कल्याणकारी राज्य में स्वास्थ्य सेवा को सरकार की प्राथमिकता सूची में रखा जाता है। लेकिन हमारे यहां उल्टी गंगा बह रही है। अभी अधिक समय नहीं हुआ, पच्चीस-तीस साल पहले तक जनता का सरकारी अस्पताल में बहुत विश्वास रहता था तथा डॉक्टर को देवतुल्य नहीं तो घर के बड़े-बुर्जुगों को मिलने वाले सम्मान का अधिकारी माना जाता था। मुझे ठीक से तो याद नहीं, लेकिन शायद ऋषिकेश मुखर्जी की खूबसूरत आखिरी फिल्म थी जिसमें डॉक्टर को परिवार के शुभचिंतक मित्र और विश्वस्त के रूप में चित्रित किया गया था। यह भूमिका डेविड ने अदा की थी। उन दिनों निजी अस्पताल बहुत कम थे, लेकिन जैसे-जैसे नवपूंजीवाद के कदम आगे बढ़ रहे थे, वैसे-वैसे चिकित्सा क्षेत्र में भी निजी अस्पतालों ने अपने पांव पसारना प्रारंभ कर दिया था। 1970-80 के दशक में बंबई का जसलोक अस्पताल बहुत चर्चित हुआ था जहां पेट्रो डॉलर वाले अरब शेख इलाज करवाने आते थे। अब तो ऐसे नए अस्पताल बन गए हैं जिनके सामने जसलोक दीन-हीन लगता है।
भारत में स्वाधीनता प्राप्ति के समय औसत आयु लगभग सत्ताइस वर्ष थी। आज वह बढ़ कर सत्तर वर्ष के आसपास पहुंच गई है। पहले पचास साल की उम्र में व्यक्ति बूढ़ा लगने लगता था, आज उस उम्र का व्यक्ति युवा कहलाता है। भारत से चेचक का समूल नाश हो चुका है। पोलियो भी समाप्त हो गया है। हृदयरोगी आज सर्जरी के भरोसे लंबी आयु पा लेते हैं। गरज यह कि तमाम भ्रष्टाचार के बावजूद स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में भारत ने सराहनीय सफलताएं अर्जित की हैं। लेकिन हम यह न भूलें कि ये सारे काम सरकारी क्षेत्र में ही हुए। सरकारी अस्पतालों में पहले भी थोड़े-बहुत लालची डॉक्टर रहे होंगे और पैरामेडिकल स्टाफ बख्शीश मांगता होगा, फिर भी रोगी का उपचार तो होता ही था।
आज क्या स्थिति है? क्या मेडिकल कॉलेज से पढ़कर निकलने वाले युवा चिकित्सकों के मन में वैसा सेवाभाव है जो आज से पचास साल पहले था? उत्तर मिलेगा नहीं। शहर की सुविधा में रहने का लोभ हर पढ़े-लिखे व्यक्ति को हो सकता है, लेकिन पहले के डॉक्टर गांव जाने में इस तरह नहीं कतराते थे। इसका एक कारण शायद यह हो कि तब डॉक्टरों को प्राइवेट क्लीनिक या नर्सिंग होम खोलने के लिए बैंकों से इतनी आसानी से ऋण नहीं मिलता था। दूसरी वजह थी जैसा कि हमने उत्तरप्रदेश में देखा- डॉक्टरों को पहले गांव, फिर कस्बा, फिर जिला मुख्यालय इस तरह क्रमिक रूप से पोस्टिंग मिला करती थी। उसमें राजनैतिक हस्तक्षेप नहीं होता था। आज ऐसी कोई व्यवस्था शायद किसी भी प्रदेश में नहीं है।
इस तथ्य पर भी ध्यान दें कि इस बीते युग में सरकारी अस्पतालों के अलावा निजी अस्पताल यदि खुले भी तो किसी सीमा तक वे सरकारी अस्पताल के प्रतिपूरक रहे न कि प्रतिस्पर्द्धी। सम्पन्न तबके द्वारा स्थापित किए गए निजी अस्पतालों के पीछे सेवाभाव प्रमुख था। ये अस्पताल आम जनता के लिए खुले होते थे और इनके डॉक्टरों की जीवनशैली सरकारी डॉक्टरों से बहुत भिन्न नहीं थी। बल्कि अनेक सरकारी डॉक्टर सेवानिवृत्ति के बाद किसी परमार्थ अस्पताल में जाकर सेवा देना पसंद करते थे किन्तु आज चाहे मुंबई में अंबानी अस्पताल हो, चाहे पुणे में बिड़ला अस्पताल या फिर दिल्ली, बंगलुरु, चेन्नई के नामी-गिरामी अस्पताल इनमें किसी साधनहीन व्यक्ति का इलाज तो दूर, मेनगेट से भीतर प्रवेश करना भी असंभव है। विडंबना यह कि ऐसे अधिकतर अस्पतालों को रियायती दर पर भूखंड मिले हैं कि गरीबों की चिकित्सा करेंगे।
मेरी राय में इस विसंगतिपूर्ण स्थिति का सबसे बड़ा कारण है कि देश में जनसंख्या के हिसाब से जितने डॉक्टर होना चाहिए उतने नहीं हैं। अनेक मेधावी डॉक्टर विदेश चले जाते हैं। इस कारण से जो कमी आती है वह अलग है। कोई पच्चीस साल पहले सरकार ने तकनीकी शिक्षा के तंत्र में कुछ बुनियादी फेरबदल किए जिससे तकनीकी महाविद्यालयों की संख्या एकदम से बढ़ गई और देश में इंजीनियरों की कोई कमी नहीं रही। मुझे समझ नहीं आता कि डॉक्टरों व नर्सों की कमी दूर करने के लिए सरकार इसी तरह से कोई कदम क्यों नहीं उठाती! हमें निजी क्षेत्र में नहीं बल्कि सरकारी चिकित्सा महाविद्यालयों की बड़ी संख्या में आवश्यकता है। यदि सरकार ठान ले तो इस हेतु समुचित व्यवस्थाएं करने के लिए अधिक वक्त नहीं लगेगा। लेकिन जब प्रधानमंत्री से लेकर जिलाधीश तक निजी अस्पतालों को बढ़ावा देने में लगे हों तब किससे फरियाद करें और किससे उम्मीद रखें?
देशबन्धु में 14 अप्रैल 2016 को प्रकाशित
No comments:
Post a Comment