पत्रकारिता के लिए इन दिनों एक नई संज्ञा प्रचलित हो गई है-मीडिया। यह एक अधूरी संज्ञा है जिसे बोलने में आसानी के कारण अपना लिया गया है। अन्यथा पत्रकारिता के लिए जनसंचार माध्यम एक बेहतर संज्ञा है जिसे हम मास मीडिया के नाम से भी जानते हैं। आज पत्रकारिता के स्वरूप पर चर्चा करते हुए हमें सबसे पहले अखबार का ध्यान आता है जिसका प्रारंभ कोई पांच सौ साल पहले हुआ था। इस अर्थ में पत्रकारिता एक आधुनिक संज्ञा है, लेकिन यदि हम जनसंचार माध्यमों की बात करें तो भारत के संदर्भ में इसके लिए लगभग एक हजार साल पहले जाना होगा। जैसा कि पाठक जानते हैं नाटक या रंगमच एक प्राचीन विधा है। प्राचीनकाल में नाटक सामान्यत: देव स्तुति में लिखे जाते थे या फिर राजाओं के मनोरंजन के लिए। इनका दायरा बहुत सीमित था इसलिए इन्हें जनसंचार का माध्यम मानना सही नहीं होगा। मेरी समझ में भारत में जनसंचार माध्यम की नींव शूद्रक के नाटक मृच्छकटिकम् के साथ रखी गई जिसमें जनसामान्य के जीवन का चित्रण हुआ। यह कोई हजार-ग्यारह सौ वर्ष पुरानी बात है। इंग्लैंड में भी रंगमंच की लंबी परंपरा रही है जिसे शेक्सपियर के नाटक आम जनता के बीच ले जाते हैं।
यदि किसी देशकाल में राजनैतिक परिस्थितियां अनुकूल न हों तो जनसंचार माध्यम कठपुतली से बेहतर और कुछ नहीं हो सकता। यहां अनुकूल परिस्थिति से मेरा आशय जनतंत्र से है। जनसंचार अपने आप में एक जनतांत्रिक युक्ति है, जिसका बेहतरीन उपयोग जनतांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था में ही हो सकता है। जहां कहीं भी अधिनायकवाद, राजशाही, कुलीनतंत्र अथवा सैन्य शासन होगा वहां पत्रकारिता के स्वस्थ विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। इसे हम अपने कुछेक पड़ोसी देशों के उदाहरण से समझ सकते हैं। औरों की बात क्या, संसदीय जनतंत्र की जननी इंग्लैण्ड में भी बीबीसी को नियंत्रित करने की कोशिशें काफी समय से चल रही हैं। अमेरिका का प्रथम संविधान संशोधन विधेयक हो, चाहे भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी का मौलिक अधिकार, इनकी रक्षा तभी हो सकती है जब राजसत्ता में अपार सहनशीलता हो और जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति अविचल प्रतिबद्धता।
अंग्रेजी में पुरानी कहावत है कि आपको वही सरकार मिलती है, जिसके योग्य आप हैं। यही बात पत्रकारिता के बारे में कही जा सकती है। पत्रकारिता के विकास की दृष्टि से यह जानना महत्वपूर्ण है कि उसकी सामाजिक परिस्थितियां क्या हैं। यह बहुत कुछ समाज की राजनैतिक रुझान पर भी निर्भर करता है। मोटे तौर पर समाज में पत्रकारिता के प्रति एक आदर का भाव विद्यमान होता है, किंतु अब वहां पत्रकारिता पर सवाल उठने लगे हैं, उसे संशय की दृष्टि से देखा जा रहा है और दूसरी तरफ जिस पत्रकारिता को लोकशिक्षण का अनिवार्य माध्यम सदियों से माना गया है, उससे लोकशिक्षण के बजाय लोकमनोरंजन की भूमिका निभाने की अपेक्षा की जा रही है। बात साफ है। यदि नागरिकों की दिलचस्पी लोकहित के गंभीर प्रश्नों में नहीं है तो ऐसे में पत्रकारिता का विकास होने के बजाय उसके बीमार पडऩे की आशंका अधिक है। यह तो समाज को ही तय करना होगा कि उसे चमक-दमक, शोशेबाजी, नकली बहसों, चुटकुलेबाजी, अविश्वसनीय समाचारों आदि की आवश्यकता है या अपने समय के प्रश्नों से रूबरू होने की!
यहां पूंजी निवेश की बात भी उठती है। टेक्नालॉजी का विकास अपने आप में स्वागत योग्य है, किन्तु यदि वह आम जनता को उपलब्ध नहीं है तो ऐसा विकास किस काम का? भारत ही नहीं, विदेशों में जनसंचार माध्यमों में एकाधिकारवाद की प्रवृत्ति बढ़ते जा रही है। टेक्नालॉजी इतनी मंहगी है कि वह कामकाजी पत्रकारों की पहुंच से बाहर है। इस स्थिति का फायदा उठाकर कारपोरेट घराने मास मीडिया पर मिल्कियत जमाते जा रहे हंै। यह बेहद चिंताजनक स्थिति है। जिनके पास सत्ता है उनमें सहिष्णुता की कमी है। ऐसे में अब जो पत्रकारिता हम देख रहे हैं वह बहुत बड़ी हद तक सत्ता और पूंजी के गठजोड़ का परिणाम व प्रमाण है।
इस तरह एक ओर महंगी टेक्नालॉजी, दूसरी ओर असहिष्णु सत्ता तंत्र, तीसरी ओर आत्ममुग्ध, स्वकेंद्रित समाज - इन सबने मिल कर भविष्य की पत्रकारिता के सामने गंभीर चुनौती पेश कर दी है। इस बीच डिजिटल मीडिया का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है। डिजिटल मीडिया को हम बोलचाल में सोशल मीडिया कहते हैं, लेकिन वस्तुस्थिति इसके विपरीत है। यह तथाकथित सोशल मीडिया समाजपरक न होकर बड़ी सीमा तक व्यक्तिपरक है और अभी जैसी स्थिति है उसमें इससे कोई उम्मीद पालना बेमानी होगा। डिजिटल मीडिया में लोकमंगल के लिए संभावनाएं निहित हैं, लेकिन उसमें अनेक बाधाएं हैं। हम पारंपरिक मीडिया के दो उदाहरण लेकर बात को समझें। भारत में जब दूरदर्शन आया था तो उम्मीद की गई थी कि वह लोकशिक्षण का बहुत बड़ा माध्यम बनेगा, लेकिन पूंजी की ताकतों ने उसका क्या हाल किया है यह बताने की आवश्यकता नहीं है। इसी तरह की उम्मीद एफएम रेडियो से की गई थी कि समुदाय आधारित एफएम रेडियो स्टेशन अपने प्रसार क्षेत्र में जनहित के कार्यों का प्रचार और लोकशिक्षण का काम करेंगे। इसके उल्टे एफएम रेडियो निम्नस्तरीय मनोरंजन का माध्यम बनकर रह गया है।
डिजिटल मीडिया की हालत बदतर है। एक तरफ वह आत्ममुग्धता को बढ़ाने का माध्यम सिद्ध हो रहा है तो दूसरी तरफ उसमें बेहद गैरजिम्मेदाराना और उच्छृंखल अभिव्यक्तियां हो रही हैं। मुझेे प्रतीत होता है कि हम पत्रकारिता याने जनसंचार माध्यमों के युग से वापिस एक हजार साल पूर्व के उस परिवेश की ओर लौट रहे हैं जिसमें मास मीडिया की कोई भूमिका ही नहीं थी! दूसरे शब्दों में व्यक्ति जैसे-जैसे समाज केन्द्रित होने से हटकर आत्मकेन्द्रित होने की ओर बढ़ रहा है उसी का प्रतिबिंब आने वाले समय में पत्रकारिता में भी दिखाई देगा। दुनिया के कुछेक बेहतरीन अखबार बंद हो चुके हैं। उनका स्थान न तो रेडियो ले पाया है और न टीवी। डिजिटल मीडिया के माध्यम से अपनी पैठ बढ़ाने की कोशिश में समाजोन्मुखी पत्रकार लगे हुए हैं। उनकी यह कोशिश कितनी सफल हो पाएगी इसका आज कोई अनुमान लगाने में मैं असमर्थ हूं। यहां मुझे एक और महत्वपूर्ण बिन्दु ध्यान आता है कि डिजिटल मीडिया के नियंत्रण सूत्र अमेरिका के सैन्य पूंजी गठबंधन में है। वे या उनके अनुगत सत्ताधीश जिस दिन चाहेंगे डिजिटल मीडिया से समाजपरक पत्रकारिता को बाहर निकाल फेकेंगे।
दरअसल विश्व समाज इस समय गहरे संकट से जूझ रहा है और वह है विचारहीनता का संकट। जिन्हें हम जनतांत्रिक समाज कहते हैं वहां पूंजी का शिकंजा कसा हुआ है। इस वातावरण में जनसंचार के जितने भी अवयव हैं उनका उपयोग ऊपरी तौर पर तो ऐसे कामों में होगा जो सामाजिक सुरक्षा के लिए आवश्यक हैं, मसलन तूफान की चेतावनी अथवा जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र बनाना आदि। मास मीडिया में मनोरंजन को मिलने वाला स्थान लगातार बढ़ते जा रहा है। इसका मतलब है कि खाओ पियो खुश रहो और किसी बात की चिंता मत करो। तो क्या भविष्य की पत्रकारिता मनुष्य की चेतना को थपकी देकर सुलाने की पत्रकारिता होगी? फिलहाल ऐसा ही लगता है। इस स्थिति को बदलने के लिए पत्रकारों को और उन विचारसम्पन्न युवाओं को आगे आना पड़ेगा जो यथास्थिति को बदलने में यकीन रखते हैं।
(डॉ. हरिसिंह गौर केंद्रीय वि.वि. सागर में 17 अप्रैल 2016 को दिए व्याख्यान का परिवर्द्धित रूप)
देशबन्धु में 21 अप्रैल 2016 को प्रकशित
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