Wednesday, 29 March 2017

यात्रा वृतांत : शिलांग : इन पुरखों को प्रणाम


बरसात में उफनती पहाड़ी नदी, देखने में छोटी, लेकिन ऐसी वेगवती कि अपने साथ सब कुछ बहा ले जाने को आतुर। नदी के इस पार और उस पार दोनों तरफ के गांवों के बीच ऐसे समय में संपर्क बिल्कुल छिन्न-भिन्न हो जाता है। यह दृश्य तो हमने भरी बरसात में मैदानी इलाकों में भी देखा है, लेकिन बात जब पहाड़ों की हो तो यही दृश्य कई गुना भीषण रूप ले लेता है! ऐसे में क्या किया जाए? या तो बरसात खत्म होने की प्रतीक्षा में हाथ पर हाथ धर बैठे रहें या फिर कोई जुगत भिड़ाएं कि दोनों तटों के आर-पार आवागमन हो सके। आज का जमाना होता तो सांसद, विधायक, सरकार से पुल बनाने की मांग करते, पुल नहीं तो रपटा ही सही। शायद किसी शुभ घड़ी में पुल बन जाता और बीस-पच्चीस साल बाद टूट भी जाता; जब बनाने वालों की कोई जिम्मेदारी तय करना भी असंभव होता। लेकिन मेरा इरादा फिलहाल आज की चर्चा करने का नहीं है। मैं तो आपको इतिहास में कई दशक पहले ले जाना चाहता हूं और वह भी आसपास नहीं, बल्कि बहुत दूर।

वाकया कोई दो सौ साल पुराना है। सन् 1830-40 के आसपास का। मेघालय की राजधानी शिलांग से लगभग अस्सी किलोमीटर दूर रिवाई गांव के निकट एक पहाड़ी नदी पर बने पुल की ओर हम चलते हैं। यह एक अद्भुत पुल है। यह न सीमेंट से बना है और न पत्थर से, और न ही लकड़ी के तख्तों से। सीमेंट का आविष्कार तो सौ साल बाद 1938 में हुआ। यह खासी जनजाति का इलाका है। नदी के उस पार गांव के लोगों को बरसात के मौसम में चारों तरफ से संपर्क कट जाने के कारण अनेक तकलीफों का सामना करना पड़ता था। तब इस गांव के बुद्धिमानों ने एक उपाय खोजा। उन्होंने दोनों किनारों पर रबर के बहुत से पेड़ लगाए। प्रसंगवश कह दूं कि रबर पीपल की प्रजाति का ही एक वृक्ष है। ये पेड़ थोड़े बड़े हुए और इनकी जड़ें हवा में झूलने लगीं तो जड़ों को आपस में बांधकर पुल बना लिया गया। सुनने में बात बहुत सरल लगती है, लेकिन पेड़ों को लगाना, जड़़ों का बढऩा, उनको आपस में जोडऩा और ऐसी मजबूती देना कि आने-जाने में कोई भय न हो, क्या कोई आसान काम रहा होगा?

इस जड़ों से बने पुल के बारे में लगभग तीन वर्ष पूर्व बीबीसी के किसी संवाददाता ने लिखा था। तब से इसकी चर्चा होने लगी है। हम भी यह पुल देखने गए। पुल तक पहुंचने के लिए लगभग आधा किलोमीटर नीचे उतरना पड़ता है। पहाड़ को काटकर टेढ़ी-मेढ़ी सीढिय़ां बनाई गई हैं। नीचे उतरना जितना कष्टदायक है उतना ही ऊपर वापिस लौटना भी। बरसात हो रही हो तो फिर कहना ही क्या है! या तो भीगो या फिर छाता ले के आहिस्ता-आहिस्ता कदम जमाते हुए सावधानी के साथ मंजिल तय करो। जड़ों से बना यह पुल सचमुच बहुत सुंदर है। नीचे  कल-कल बहती नदी, आसपास ऊंचे-ऊंचे वृक्षों और सुंदर फूलों वाली झाडिय़ों से आच्छादित पहाडिय़ां इस सुंदरता को दोगुना-चौगुना करती हैं। किन्तु मैंने जब पुल को देखा तो पहला विचार मन में यह आया कि इन खासी पुरखों के पारंपरिक ज्ञान और बुद्धिमता को प्रणाम करूं। हम जो आधुनिकता और नागर सभ्यता के दर्भ में इठलाते फिरते हैं, काश! कि अपने पूर्वजों से कुछ सीख पाते। मनुष्य और प्रकृति का सहजीवन देखना हो तो यह सेतु उसका अनुपम उदाहरण है।

सुना है कि मेघालय की खासी पहाडिय़ों में ऐसे और भी पुल हैं। इन्हें अगर सिर्फ पर्यटन स्थल मानेंगे तो भारी भूल करेंगे। यहां आकर सिर झुकाकर कुछ सीखेंगे तो बात बनेगी। इस पुल से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर मॉलीनांग नामक एक और गांव है, जिसे एशिया के स्वच्छतम गांव होने का गौरव मिला है। यूं तो राजधानी शिलांग सहित मेघालय में सभी ओर स्वच्छ वातावरण है, लेकिन इस गांव की बात निराली है। पूरा गांव हरा-भरा है। हर घर में फूलदार पेड़-पौधे सजे हैं। गंदगी का कहीं नामोनिशान नहीं। इसे देखने देश-विदेश से लोग आते हैं। यह गांव एक पर्यटन  केन्द्र के रूप में विकसित हो गया है। शिलांग से दक्षिण-पूर्व में बंगलादेश की ओर जाती सडक़ पर लगभग पचास-साठ किलोमीटर बाद इन गांवों के लिए मुडऩा होता है। यहां वॉच टॉवर बने हैं जिन पर चढक़र बंगलादेश की सीमा देखी जा सकती है। इस इलाके में बेंत की खेती खूब होती है। मोड़-दर-मोड़ बेंत के लहराते हुए पौधे दूर तक दिखते हैं।

गुवाहाटी होकर शिलांग का रास्ता जाता है। लगभग सौ किलोमीटर की दूरी है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग कुछ साल पहले फोरलेन बन चुका है। इसलिए पहाड़ी रास्ते पर यात्रा का जो रोमांच होना चाहिए वह इस मार्ग पर लगभग नहीं है। यद्यपि  आवागमन बहुत है। मेघालय में कोयले की खदानें हैं सो दिनभर कोयले से लदकर लौटते और कोयला लेने जाते ट्रकों की आवाजाही चलते रहती है। शिलांग से रूट्स ब्रिज याने जड़ों के सेतु वाले राजमार्ग पर एक दूसरा दृश्य देखने मिला। यहां लगातार पहाड़ तोडक़र पत्थर निकाला जाता है। पत्थर का निर्यात बंगलादेश को भवन निर्माण के लिए होता है, क्योंकि ब्रह्मपुत्र और गंगा के डेल्टा क्षेत्र वाले बंगलादेश में मिट्टी और रेत तो है, लेकिन पत्थर नहीं। आधुनिक तकनीक के मकान बनें तो कैसे बनें! एक चिंताजनक सूचना यह भी मिली कि मेघालय में वृक्षों की कटाई पर कोई पाबंदी नहीं है। परिणामस्वरूप प्रदेश में बारिश के औसत में लगातार गिरावट आ रही है।

कोई समय था जब चेरापूंजी को विश्व के सर्वाधिक वर्षा वाले स्थान के रूप में मान्यता मिली थी। यह प्रथम स्थान नजदीक के किसी दूसरे गांव को मिल गया है। चेरापूंजी में अब पहले जैसी वर्षा नहीं होती। कहने को तो वहां अनेक जलप्रपात और जलधाराएं हैं, लेकिन बरसात के चार माहों को छोडक़र उनमें पानी के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं।  ऊंचाई पर होने के कारण बादल बने रहते हैं और वही अब उस प्रसिद्ध स्थान का मुख्य आकर्षण है। शिलांग नगर के बिल्कुल बाहर एलीफेंट फॉल नामक एक जलप्रपात है, जहां तीन अलग-अलग स्तरों से झरने नीचे गिरते हैं। मैं सबसे ऊपर वाले प्रपात तक तो गया, उसमें पानी की क्षीणधारा देखकर नीचे उतरने का मन नहीं हुआ। दिन भर की चढ़ाई-उतराई के बाद भारी थकान भी शायद इसका एक कारण थी। जो साथी नीचे तक गए उन्हें भी कम पानी देखकर कुछ निराशा ही हुई। मुझे यह देखकर अवश्य कौतुक हुआ कि जलप्रपात जाने के मुख्य द्वार पर और फिर भीतर भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आदमकद फोटो वाले होर्डिंग लगे थे जिसमें मोदी जी कह रहे हैं कि मेघालय आए हैं तो एलीफेंट फॉल जरूर देखना चाहिए।

हमारी शिलांग यात्रा हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के वार्षिक अधिवेशन के चलते हुई थी। अधिवेशन का आयोजन पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय या नेहू (नार्थ ईस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी) के विशाल परिसर में किया गया था। इस परिसर में दो-तीन विश्वविद्यालयों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर की कुछेक अकादमिक संस्थाओं के केन्द्र भी हैं। यहां का वातावरण अत्यन्त सुरम्य है और पूरा परिसर सर्वसुविधायुक्त एक छोटे-मोटे गांव का रूप ले लेता है। जैसा कि किसी भी पर्वतीय नगर में होता है, शिलांग भी ऊंची-नीची पहाडिय़ों पर बसा है। जिनको अभ्यास नहीं हो उन्हें पहाड़ी रास्तों पर पैदल चलना कठिन ही लगेगा। यद्यपि ठंडा मौसम होने के कारण थकान अधिक नहीं होती। मेघालय में तीन पहाड़ी इलाके हैं-खासी, गारो और जयंतिया। इन तीनों की भाषाएं भी अलग हैं। हर इलाके में पर्यटकों के लिए कुछ न कुछ आकर्षण बिन्दु हैं। हम तो शिलांग और आसपास की दृश्यावली से ही संक्षिप्त परिचय पा सके।

शिलांग के एक छोर पर यदि एलीफेंट फॉल है तो दूसरे छोर पर उमियम झील या कि बड़ा पानी। बीच शहर में भी एक झील है, लेकिन उसमें कोई विशेष आकर्षण नहीं है। डॉन बॉस्को म्युजियम एक अनूठी जगह है। यहां उत्तर-पूर्व के आठों प्रांतों की जनजातियों की बेशुमार झलकियां हैं। अगर उत्तर-पूर्व को जानना है तो इस संग्रहालय को अवश्य देखना चाहिए। इस सात मंजिले म्युजियम में सबसे ऊपर कांच से ढंका हुआ स्काई वॉक है जहां से शिलांग नगर का विहंगम अवलोकन किया जा सके। उमियम  झील गुवाहाटी से शिलांग आते समय मिलती है। हम यहां लौटते वक्त रुके। इसे बड़ा पानी नाम ठीक ही दिया गया है। पहाड़ों के बीच काफी बड़े विस्तार में यह झील फैली है। पानी को जहां जगह मिली वहां उसने अपना अधिकार जमा लिया। अगर शिलांग में कहीं गंदगी है तो वह इसी जगह पर, जो पर्यटकों ने फैलाई है और जिन पर सूचनाओं और चेतावनियों का कोई असर नहीं होता।

देशबंधु में 30 मार्च 2017 को प्रकाशित 

Wednesday, 22 March 2017

तिरुपति के लड्डू

करीब एक  माह पहले खबर पढ़ी थी। उसी दिन से मन व्याकुल और चिंतातुर है। खबर यह थी कि तिरुपति देवस्थान ट्रस्ट को पिछले 4-5 साल के दौरान प्रसादी लड्डूओं की बिक्री में कोई चार सौ करोड़ का घाटा हुआ है। हाय रे देवा! यह क्या हो गया? क्या भक्त जन इतनेे स्वार्थपरायण और लोलुप हो गए हैं कि भगवान को ही नुकसान पहुंचाने लगे हैं? लेकिन ऐसा हुआ कैसे? मंदिर न्यास के अधिकारियों ने बताया कि एक प्रसादी लड्डू मात्र पच्चीस रुपए में बेचा जाता है, जबकि उसकी लागत प्रति नग साढ़े बत्तीस रुपए आती है। याने एक नग पर सीधे-सीधे साढ़े सात रुपए का घाटा। आगे बताया गया कि जो श्रद्धालु पहाड़ी पर बसे मंदिर पर किसी वाहन से न आकर पैदल चढ़ाई पूरी करते हैं, उन्हें एक लड्डू मुफ्त में दिया जाता है, जिससे उन्हें कठिन पदयात्रा की थकान दूर करने में मदद मिले। यही नहीं, देवदर्शन के लिए लंबी सर्पीली कतार में घंटों धैर्यपूर्वक अपनी बारी आने की प्रतीक्षा में आहिस्ता-आहिस्ता सरकते हुए भक्तों को भी एक अवधि बीत जाने पर लड्डू बिना कोई कीमत लिए दिया जाता है। कुल मिलाकर चारों तरफ से घाटा ही घाटा! ऐसे में बालाजी भगवान का काम कैसे चलेगा? उनके पूजा-पाठ में, सेवा पर कोई विपरीत असर तो नहीं पड़ेगा? यही सोच-सोच कर मन दुख रहा है।
इसमें दो राय नहीं कि तिरुपति बालाजी के प्रसादी लड्डू का आस्वाद अद्भुत होता है। जगन्नाथपुरी में कहा जाता है-जगन्नाथ के भात को, जगत पसारे हाथ। इसके समकक्ष बालाजी के लड्डू के लिए कोई कहावत है या नहीं, यह तो नहीं पता, किंतु जिसने एक बार भी चखा, वह बार-बार शुद्ध घी से बने, कूट-कूटकर मेवा भरे, बूंदी के इन प्रसादी लड्डुओं का स्वाद दुबारा पाने की हमेशा इच्छा रखता है, उसके लिए ललचाता है। जिह्वा भी तृप्त, मन भी तृप्त और परमात्मा से आत्मा की लौ लगने की अनुभूति- सब कुछ एक साथ। नाथद्वारा में श्रीनाथजी के मंदिर में जो ठौर नामक प्रसादी व्यंजन बनता है, वह भी इसी तरह लुभाता है। मुझे प्रसंगवश याद आ रहा है कि बरसों पहले ढेंकानाल (ओडिशा) के निकट कपिलास के शिव मंदिर में दाल-भात की जो पत्तल प्रसाद में मिली थी, उसका भी स्वाद दिव्य था। ऐसा भात शायद ही और कहीं पाया हो। क्या पता, इन सारे मंदिर में भी प्रसाद तैयार और वितरित करने में इसी तरह घाटा होता हो! उसकी भरपाई कैसे होती होगी? तिरुपति ट्रस्ट इस घाटे को कैसे बर्दाश्त कर रहा है? और उसके लिए सार्वजनिक रिपोर्ट जारी करने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी?
एक विचार तो यह आया कि मंदिर के अधिकारियों ने कहीं मोदी सरकार और खासकर उसके रेल मंत्री सुरेश प्रभु से तो प्रेरणा नहीं ली? सुरेश प्रभुजी अपने यात्रियों को जो रेल टिकिट जारी करते हैं उसमें हरेक पर बिला नागा छपा रहता है कि आपकी टिकिट का औसतन 57 प्रतिशत ही किराए से वसूल होता है, अर्थात बाकी 43 प्रतिशत का रेलवे को घाटा उठाना पड़ता है। धिक्कार है ऐसे देशवासियों पर जो इसके बाद भी रेल यात्रा करने से परहेज नहीं करते। और न सरकार को किराया बढ़ाने देते। शायद मेरी दूसरी बात गलत हो। रेल बजट तो अब आम बजट का हिस्सा बन गया है। इसमें टिकिट किराए में कब, कैसे, किस बहाने से बढ़ोतरी हो जाए कौन जानता है। कभी यह सरचार्ज, कभी वह सरचार्ज, कभी रिफंड में कटौती तो कभी और कोई दंड या लेवी। लेकिन सरकार कह रही है तो मान लीजिए कि आप याने कि रेल यात्री के कारण ही रेलवे को घाटा हो रहा है। आप यात्रा करना बंद कर दीजिए, घाटा अपने आप समाप्त हो जाएगा।

बहरहाल, बात तिरुपति के लड्डू की हो रही थी। क्या आने वाले दिनों में लड्डू के पैकेट पर लिखा होगा कि जिस लड्डू को 25 रुपए में खरीद रहे हैं, उसकी लागत साढ़े बत्तीस रुपए है? लेकिन हमें समझ नहीं आता कि मंदिर को घाटा उठाने की नौबत क्यों आई? वे 25 रुपए से बढ़ाकर कीमत सीधी 35 रुपए क्यों नहीं कर देते? जिसकी गरज होगी प्रसाद क्रय करेगा, नहीं तो घर का रास्ता लेगा। पैदल यात्रियों अथवा कतार में खड़े श्रद्धालुओं को भी नि:शुल्क प्रसाद वितरित करना भी बंद किया जा सकता है। देव दर्शन की लालसा में जुटे जन तो पानी पीकर भी काम चला लेंगे। फिर भी यदि आपको घाटे की सार्वजनिक घोषणा करना थी तो यह भी बता देते कि बालाजी भगवान को हर दिन, हर सप्ताह, हर साल कितना चढ़ावा चढ़ता है। सोने, चांदी, हीरे, जवाहरात, क्या कमी है भगवान के दरबार में। फिर जब चंद्रशेखर राव जैसे भक्त हों जो सरकारी खजाने से मंदिर में भेंट चढ़ाते हों! और ट्रस्ट के वे कौन से तो न्यासी थे, नोटबंदी के बाद चेन्नई में जिनके घर छापे से इनकम टैक्स ने करोड़ों रुपए बरामद किए! ऐसे भक्त और ऐसे ट्रस्टी के होते चिंता किस बात की?

लेकिन रुकिए। चिंता की बात किसी अन्य रूप में है और अवश्य है। हमारे रायपुर से मात्र 45 किसी की दूरी पर चंपारन अवस्थित है। पुष्टिमार्गी कृष्णभक्त वैष्णव संप्रदाय के अधिष्ठाता महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म आज से 500 वर्ष पूर्व यहीं हुआ था। यहां देश-दुनिया से धनी-धोरी श्रद्धालु दर्शनार्थ आते हैं। एक समय इस पंथ के एक गोस्वामी मथुरेश्वरजी महाराज व उनकी बहन इंदिरा बेटी जी महाराज यहां काफी आते थे। इंदिरा बेटीजी ने करीब चालीस साल पूर्व यहां एक निशुल्क नेत्र शिविर लगाया था। शायद तभी उनके सामने मंदिर में विद्युत व्यवस्था करवाने का आग्रह आया था। उनका उत्तर था- ठाकुरजी को प्रकाश की आवश्यकता नहीं। बिजली लगना है तो पहले गांव में लगेगी। आज वह चंपारन गांव एक वैभव नगरी में तब्दील हो गया है। अंबानी परिवार भी यहां अपने चार्टर्ड प्लेन से देव दर्शन के लिए आता है। अच्छी बात है, किंतु मंदिर में जनसामान्य को प्रसाद नहीं मिल सकता, यह देखकर दुख होता है। एक बड़े से बोर्ड पर लिखा है कि यहां सिर्फ बाहर से आए श्रद्धालुओं के लिए प्रसादी व्यवस्था है और जो प्रसाद पाने की अनधिकार चेष्टा करेंगे, वे नैतिक अपराध के भागी होंगे।

इस तरह का एक और कड़वा अनुभव मुझे सुदूर द्वारिका में हुआ। मंदिर में प्रसादी पत्तल के लिए भेंट देना होती है। दो काउंटर थे। एक पर मैं रसीद कटाने गया। सात-आठ साथियों के हिसाब से पत्तल लेना  थी। एक हजार रुपए देना निश्चित किया। काउंटर पर बैठे सेवक ने तिरस्कारपूर्वक कहा-‘यहां हजार-दो हजार की रसीद नहीं कटती। दूसरे काउंटर पर जाओ।’ प्रसंगवश, मेरे परिवार में कई पीढिय़ों से जिसकी पूजा चली आ रही है, ये दोनों मंदिर उसी पुष्टिमार्गी संप्रदाय के हैं। इन दोनों अनुभवों से मुझे ज्ञान हुआ कि शायद ईश्वर भी ऐश्वर्य का भूखा है। जैसे रेल की जनरल बोगी में आम जनता किसी भी तरह तकलीफ उठाकर यात्रा करती है, वैसे ही अपने मंदिरों में भी उसे दूर से दर्शन करने में ही संतोष कर लेना चाहिए। जेब में रकम हो तो छक कर प्रसाद पाओ, अन्यथा सूखे वापस जाओ। इन मंदिरों में जो संपन्न भक्त आते हैं, क्या वे भी कभी नहीं सोचते कि मंदिर में सबके साथ उदार भाव से एक जैसा व्यवहार हो। अगर चंपारन में सौ-पचास स्थानीय जन अथवा गरीब लोग प्रसाद पा लेंगे तो क्या ईश्वर का वैभव घट जाएगा?

इन उदाहरणों के ठीक विपरीत अनुभव पाना है तो गुरुद्वारे चलना चाहिए। रायपुर के प्रो. वीरेंद्र चौरसिया अस्सी के दशक में अपने स्कूटर से देशाटन पर निकलते थे। वे बताते थे कि हर जगह गुरुद्वारे में ठहरते थे, वहीं लंगर में छककर प्रसाद पा लेते थे और क्षुधाशांति के बाद आगे की यात्रा पर निकल पड़ते थे। यह तथ्य भी पाठकों को पता ही होगा कि सिख धर्म के सबसे प्रमुख केंद्र हरमंदिर साहब याने स्वर्णमंदिर में कैसे दिन-रात लंगर चलता है। वहां न कोई आपकी जाति पूछता है न धर्म। लंगर में जाकर कोई भी भोजन प्राप्त कर सकता है। वहां जो कारसेवा होती है, वह अपने आप में मिसाल है। आपके जूते-चप्पल सम्हालने से लेकर परिक्रमा पथ में जगह-जगह बनी प्याऊ में मीठा जल पिलाने तक और लंगर में थाली परोसने जैसे सारे काम भक्तजन ही करते हैं। रायपुर में जब राजधानी बनी और बाहर से आए शासकीय कर्मियों के सामने भोजन की समस्या आई तो मेरे सुझाव पर सरदार मनमोहन सिंह सैलानी व उनके साथी प्रेमशंकर गोंटिया ने देखते ही देखते इन कर्मियों के लिए निशुल्क लंगर खोल दिया था। ऐसे में अपने आप ख्याल आता है कि तिरुपति हो या चंपारन या द्वारिका या ऐसे अन्य मंदिर- इनमें यह कृपणता, यह अनुदारता क्यों पनप रही है? और ये तो हमारे संपन्न देवालय हैं। इनके यहां साधनों की कोई कमी नहीं है। क्या इनके प्रबंधकों-पुजारियों को अपनी रीति-नीति पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए? मैं सोचता हूं कि तिरुपति के लड्डू का स्वाद भले ही अमृततुल्य हो, लेकिन यदि मुझे उसके खरीद-बिक्री के मूल्य का अंतर बतलाया जाएगा तो उस स्वाद में कड़ुवाहट घुल जाएगी!
देशबंधु में 23 मार्च 2017 को प्रकाशित

Wednesday, 15 March 2017

मोदी मैजिक : मीडिया मैडनैस


 उत्तरप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी और सहयोगी दलों ने प्रचंड बहुमत हासिल किया। उन्होंने तीन-चौथाई से अधिक सीटों पर विजय दर्ज की। भाजपा ने यही प्रदर्शन समीपवर्ती राज्य उत्तराखंड में दोहराया। पंजाब में कांग्रेस ने दो-तिहाई से अधिक सीटें जीतीं। वहां उसे भी प्रचंड बहुमत प्राप्त हुआ।  गोवा एवं मणिपुर में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिलने में थोड़ी कसर रह गई किंतु उसे दोनों प्रांतों में सबसे बड़ा दल होने का श्रेय मिला। गोवा और उत्तराखंड के निवर्तमान मुख्यमंत्री चुनाव हार गए। मणिपुर में मुख्यमंत्री इबोबी सिंह व पंजाब में प्रकाश सिंह बादल जीते जबकि उ.प्र. में अखिलेश यादव ने चुनाव लड़ा ही नहीं। आम आदमी पार्टी जो पंजाब तथा गोवा में सरकार बनाने का सपना देख रही थी, वह चूर-चूर हो गया। गोवा में उसे एक भी सीट नहीं मिली और उसके मुख्यमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार को शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा। आप को इस तथ्य से संतोष मिल सकता है कि पंजाब में वह प्रमुख विपक्षी दल बनकर उभरा है। यहां अकाली-भाजपा गठबंधन तीसरे नंबर पर खिसक गया व भाजपा को मात्र तीन सीटें ही मिल पाईं। इन विधानसभा परिणामों के साथ-साथ पंजाब की अमृतसर लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुआ जिसमें कांग्रेस उम्मीदवार ने भाजपा को लगभग दो लाख वोटों के भारी अंतर से पराजित किया। ये कुछ महत्वपूर्ण तथ्य पाठकों के ध्यान में होंगे।

उत्तरप्रदेश देश का सबसे अधिक आबादी वाला प्रदेश है। यहां लोकसभा व विधानसभा की भी सर्वाधिक सीटें हैं। अभी जिन राज्यों में चुनाव हुए उनमें पंजाब, गोवा, मणिपुर, उत्तराखंड इन चारों को मिलाकर तीन सौ से कम सीटें होती हैं, जबकि अकेले उत्तर प्रदेश में विधानसभा की 403 सीटें हैं। यही नहीं, वर्तमान में देश का प्रधानमंत्री भी लोकसभा में उ.प्र. वाराणसी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है। यह भी कहा जाता है कि उ.प्र. देश की राजनीति की दिशा निर्धारित करता है। इन वजहों से उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणाम अपना अलग महत्व रखते हैं। इसीलिए मीडिया का ध्यान भी अभी-अभी संपन्न चुनावों में उ.प्र. पर ही केंद्रित रहा आया। भूले-भटके पंजाब की चर्चा भी हुई, लेकिन मणिपुर का कवरेज करने में मीडिया ने अंत-अंत तक भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। जिस इरोम शर्मिला का अनशन बरसों तक बार-बार सुर्खियों में आता रहा, जिस पर सैकड़ों लेख व संपादकीय लिखे गए, उसके चुनाव क्षेत्र तक भी शायद ही कोई पत्रकार गया हो। बहरहाल, उत्तरप्रदेश में भाजपा की जीत से पार्टी जितनी गदगद है, हमारा तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया उससे कम गदगद नहीं है।  टी.वी. पर ऐसे दृश्य भी दिखाए गए जिसमें चैनलों के स्वनामधन्य पत्रकार अपने स्टूडियो में भाजपा नेताओं के हाथ से लड्डू खा रहे हैं।

उ.प्र. में भाजपा की जीत को ‘मोदी मैजिक’ की संज्ञा दी गई। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। जिस प्रदेश में पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद का कोई घोषित उम्मीदवार न हो और स्वयं प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार में एक माह से अधिक समय तक अनथक परिश्रम कर रहे हों तो इसे उनकी जादूगरी ही मानना चाहिए। ऐसी ऐतिहासिक विजय प्राप्त होने के पीछे क्या कारण थे, इसे लेकर विश्लेषण प्रारंभ हो गया है और आगे भी चलता रहेगा, लेकिन अगर एक शब्द में बात समेटना है तो कहना होगा कि भाजपा का चुनाव प्रबंध सबसे तगड़ा था। इस बड़ी विजय के बाद नरेंद्र मोदी व भाजपा दोनों को आल्हादित होने के साथ-साथ संतुष्ट भी होना चाहिए था। स्वयं श्री मोदी ने कहा कि चुनाव बहुमत से जीते, लेकिन शासन सर्वमत से चलेगा। कहने की बात अलग। करने की बात अलग। गोवा व मणिपुर में भाजपा ने जो खेल खेला, उसने उ.प्र. की बड़ी जीत की गरिमा और चमक को धूमिल कर दिया है। हम नहीं समझ पा रहे हैं कि इन दो छोटे राज्यों में भारतीय जनता पार्टी को अपनी सरकार बनाने की हड़बड़ी क्यों थी और उसके लिए तोड़-फोड़ का सहारा उसने क्यों लिया? यह एक नैतिक प्रश्न है, जिसका उत्तर भाजपा से अपेक्षित है।

यह स्थापित परंपरा है कि स्पष्ट बहुमत न मिलने की दशा में सबसे बड़े दल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाता है और उसे बहुमत सिद्ध करने के लिए उचित समय दिया जाता है।  गोवा व मणिपुर दोनों में कांग्रेस सबसे बड़ा दल है। यही नहीं, गोवा में जहां मुख्यमंत्री और अन्य छह मंत्रियों को हार का सामना करना पड़ा है, वहीं मणिपुर में निवर्तमान मुख्यमंत्री को सर्वाधिक मतों से विजय प्राप्त हुई है। दोनों प्रदेशों में जनादेश इस तरह कांग्रेस के साथ गया है। इस वास्तविकता की भाजपा तो अनदेखी कर ही रही है, मीडिया भी भांति-भांति के तर्क भाजपा के समर्थन में दे रहा है। कारपोरेट मीडिया के स्वामियों का सत्तारूढ़ दल के साथ प्रेम होना सहज है, लेकिन पत्रकारिता की भी कुछ मर्यादाएं हैं, जिन्हें इस वक्त भुला दिया गया है। मीडिया खोज-खोज कर बता रहा है कि कांग्रेस राज में क्या-क्या होता था। अरे भाई, कांग्रेस ने जो भी गलतियां कीं, उसकी सजा उसने देर-अबेर भुगती है। आज भी कांग्रेस सत्ता से बाहर है। सवाल तो उससे पूछे जाएंगे जो सरकार चला रहा है। सुशासन देने का प्रथम और अंतिम दायित्व तो उसी पर है। क्या अपने पागलपन में मीडिया इस बुनियादी सत्य को भी भूल गया है?

यहां सवाल दो छोटे राज्यों में जोड़-तोड़ कर सत्ता प्राप्त करने तक सीमित नहीं, बल्कि उससे बहुत बड़ा है। भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का नारा राजनैतिक लाभ के लिए एक लुभावना और चुटीला कटाक्ष हो सकता है, लेकिन ठोस वैचारिक धरातल पर यह तो सोचना होगा कि क्या विपक्ष के बिना जनतंत्र चल सकता है। राहुल गांधी ने उ.प्र. विजय पर नरेंद्र मोदी को बधाई संदेश दिया था। इसका उत्तर प्रधानमंत्री ने जनतंत्र की जीत जैसी विवेकपूर्ण टिप्पणी से दिया था। प्रधानमंत्री का यह उत्तर पत्रकारों और राजनैतिक टीकाकारों ने पढ़ा होगा। फिर क्या उन्हें प्रश्न नहीं उठाना चाहिए कि गोवा व मणिपुर में संसदीय परिपाटी का उल्लंघन करने में जनतंत्र की जीत है या हार? यह ध्यान देने योग्य है कि हिंदी-भाषी प्रदेशों को छोडक़र अधिकतर अन्य प्रांतों में गैर-भाजपाई सरकारें हैं। अहिंदी भाषी गुजरात में भाजपा  है तो हिंदी-भाषी बिहार में गैर-भाजपाई गठबंधन की सरकार है। असम में अवश्य भाजपा है। इस परिदृश्य में यदि भाजपा की कांग्रेस मुक्त भारत की अवधारणा येन-केन-प्रकारेण सफल भी हो जाए तो जो क्षेत्रीय दल विभिन्न राज्यों में सत्तासीन हैं, उनका भविष्य क्या होगा? क्या भाजपा उन्हें भी निशाने पर लेगी? तब क्या भारत चीन की तरह एक पार्टी शासन वाला देश बन जाएगा?

1967 में भारतीय जनता पार्टी ने अपने पूर्ववर्ती अवतार जनसंघ के रूप में पहिली बार सत्ता का स्वाद चखा था। डॉ. लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद के नारे के फलस्वरूप सारे विपक्षी दल एकजुट हुए थे और अनेक प्रांतों में संविद याने संयुक्त विधायक दल की सरकारें बन गई थीं।  तब जनसंघ, समाजवादी और कम्युनिस्ट सब एक साथ थे। कालांतर में जनसंघ (फिर भाजपा) ने एक-एक कर सबको ग्रस लिया। अन्य दलों के पराभव की नींव पर भाजपा ने अपने सपनों का महल बनाया। अभी कुछ प्रेक्षकों ने गठबंधन सरकारों का दौर समाप्त हो जाने का ऐलान किया है। वस्तुस्थिति इसके परे है। जम्मू-कश्मीर से लेकर आंध्रप्रदेश व महाराष्ट्र तक भाजपा की गठबंधन सरकारें चल रही हैं। पंजाब में भी गठबंधन है और उत्तर प्रदेश में भी। गोवा, मणिपुर, नगालैंड में भी यही स्थिति है। कांग्रेस का भी बिहार में गठबंधन है तथा उत्तरप्रदेश में भी। पिछला अनुभव बताता है कि भाजपा अपने गठबंधन सहयोगियों को कभी भी छोड़ या तोड़ सकती है। इस परिस्थिति में गैर-भाजपाई दलों खासकर कांग्रेस, समाजवादी, साम्यवादी, रूठे कांग्रेसी- सबके सामने अच्छा मौका है कि वे एक मजबूत गठबंधन बना सकें। इसमें पहल राहुल गांधी को करना होगी। लालू प्रसाद उनकी मदद कर सकते हैं। हमें लगता है कि उ.प्र. के परिणाम आने के बाद राहुल-अखिलेश को लखनऊ में संयुक्त प्रेस वार्ता लेकर घोषणा करना चाहिए थी कि उनका गठबंधन जारी रहेगा। अगर राहुल गांधी वक्त की नज़ाकत समझते हुए उचित निर्णय लेने में असफल हुए तो उनकी जगह कोई न कोई तो आगे आएगा ही। यदि अखिलेश, कन्हैया कुमार, हार्दिक पटेल आदि मिलकर कोई संयुक्त मोर्चा बना लें तो एक नई संभावना के द्वार खुलते हैं।

अंत में इरोम शर्मिला की बात। उन्होंने मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के विरुद्ध चुनाव लड़ा और मात्र नब्बे मत पाए। इस पर सोशल मीडिया में बहुत बातें हो रही हैं। शर्मिला के त्याग, बलिदान, संघर्ष को याद किया जा रहा है। काश कि जो लोग इतनी सहानुभूति प्रदर्शित कर रहे हैं, वे मणिपुर उनके चुनाव प्रचार के लिए चले जाते। जनता को पता चलता कि देशवासी इरोम शर्मिला चानू को कितना प्यार करते हैं, कितना आदर देते हैं। मेरी राय इस बारे में भिन्न है। शर्मिला को चुनाव लडऩा ही क्यों था? यही गलती मेधा पाटकर ने की थी। महात्मा गांधी कभी चुनाव नहीं लड़े। आप तय कीजिए कि आपको सत्ता की राजनीति करना है या विचारों की। सत्ता में आना है तो उसके लिए तंत्र को समझकर पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतरना चाहिए। भावनाओं से बात नहीं बनती।

देशबंधु में 16 मार्च 2017 को प्रकाशित 

Thursday, 9 March 2017

अमेरिका: पूंजीवाद की शतरंजी चालें



डोनाल्ड ट्रंप बनाम जॉर्ज सोरोस। एक कैसिनो मालिक, दूसरा कैसिनो कैपिटल का शातिर खिलाड़ी। एक ने बहुमंजिली भड़कीली साज-सज्जा वाली इमारतों में जुआँघर खोल रखे हैं, दूसरा अपने कार्पोरेट ऑफिस में बैठकर पूंजी बाजार का सट्टा खेलते रहता है। एक के जुआँघरों में अमेरिका ही नहीं दुनिया के तमाम देशों से आए सैलानी अपनी किस्मत आजमाने पहुंचते हैं: हॉलीवुड की कई फिल्मों ने इनके ग्लैमर को लोकप्रिय बनाने का काम किया है; दूसरा दुनिया की हर बड़ी मुद्रा में उतार-चढ़ाव लाने का खेल खेलता रहता है: वह पूंजीवादी जनतंत्र वाले किसी भी देश में सरकार बनाने-बिगाडऩे की ताकत रखता है। एक का रीयल एस्टेट का कारोबार भले ही अनेक देशों में हो लेकिन वह अमेरिका के राष्ट्रीय पूंजीवाद का समर्थक और उसके द्वारा प्रायोजित है; दूसरा विश्व पूंजीवाद का प्रबल समर्थक है और अपने देश में उस नीति के अनुसार सरकार बनाने का दांव खेलता है। 

डोनाल्ड ट्रंप बनाम जार्ज सोरोस के इस द्वंद्व को समझे बिना अमेरिका के राजनीति में आए भूचाल को नहीं समझा जा सकता। हमें इसके लिए अमेरिकी इतिहास में ही कुछ बरस पहले लौटना होगा। मैं उन लोगों में से हूं जो मानते हैं कि इतिहास कभी अपने आपको दोहराता नहीं है। लेकिन क्या इतिहास में कोई यू टर्न जैसी भी चीज होती है? अमेरिका में जो हुआ है वह मुझे एक यू टर्न ही मालूम होता है। इसे शायद अपना दांव अपने ही गले पड़ जाने की उपमा भी दी जा सकती है। याद कीजिए, 1968 में रिचर्ड निक्सन रिपब्लिकन पार्टी से अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए थे। 1968 से 1972 तक तो उनका कार्यकाल न सिर्फ ठीक चला बल्कि इस अर्थ में ऐतिहासिक रहा कि अमेरिका के चीन के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित हुए। यहां हम निक्सन शासन में वियतनाम और बंगलादेश युद्ध में अमेरिका के रोल की चर्चा नहीं कर रहे हैं क्योंकि मेरा मंतव्य अभी कुछ और है और चर्चा को दूसरी दिशा में ले जाना उचित नहीं होगा। 1972 में  निक्सन दुबारा राष्ट्रपति चुने गए। लेकिन कुछ सप्ताह बीतते न बीतते वे विवादों के घेरे में आ गए। वाटरगेट कांड का खुलासा होना शुरू हुआ। निक्सन ने इस दलदल से बाहर निकलने की जितनी कोशिश की वे उतने ही भीतर धंसते गए। अमेरिकी सीनेट में राष्ट्रपति पर महाभियोग लाया जाता इसके पहले उन्होंने त्यागपत्र देकर अपनी जान बचाई। स्पिरो एग्न्यू बचे समय के लिए राष्ट्रपति बन गए। 1976 में जब आम चुनाव हुए तो जॉर्जिया के गवर्नर जिमी कार्टर ने डेमोक्रेटिक पार्टी का उम्मीदवार बनने में सफलता पाई। उन दिनों डेमोक्रेट्स में राष्ट्रीय ही नहीं वैश्विक क्षितिज पर प्रसिद्धि प्राप्त अनेक राजनेता थे, सीनेटर और गवर्नर आदि, जिनके मुकाबले कार्टर लगभग नामालूम व्यक्ति थे। उन्हें जॉर्जिया प्रांत के बाहर कोई नहीं जानता था। वे मूंगफली की खेती करने वाले सम्पन्न किसान थे। इस तथ्य को लेकर उन्हें देहाती किसान वगैरह भी कहा गया, लेकिन वे राष्ट्रपति का चुनाव जीत गए। यह उस समय की एक आश्चर्यजनक घटना थी। 

यह कैसे हुआ? विश्व राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले पाठकों को शायद पता हो कि कार्टर के चुनाव मैदान में उतरने से कुछ वर्ष पहले अमेरिका में ट्राइलेटरल कमीशन नामक एक संस्था स्थापित हुई थी। जैसा कि नाम से स्पष्ट है अपने आपको आयोग कहने वाला यह एक त्रिपक्षीय प्रतिष्ठान था। इसमें अमेरिका, उत्तरी यूरोप और जापान ये तीन पक्ष थे याने इन देशों के बहुराष्ट्रीय निगम। कमीशन की स्थापना 1973 में अमेरिका के बड़े इजारेदार जॉन डी. रॉकफेलर ने की थी और हम समझ सकते हैं कि इसका मकसद अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद को बढ़ावा देना था। दुनिया के मजदूरों एक हो का नारा तो कमजोर होने लगा था उसका स्थान एक नया नारा ले रहा था- दुनिया के पूंजीपतियों एक हो। गो कि पूंजीपति मजदूरों की तरह सड़कों पर आकर नारे नहीं लगाते। उनका नारा बोर्ड रूम की कार्रवाईयों में अनुगूंजित होता है। जिमी कार्टर इस ट्राइलेटरल कमीशन के द्वारा मैदान में उतारे गए थे। यह बात कुछ-कुछ तब स्पष्ट हुई जब हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जिबीग्न्यू ब्रज़ेज़िन्स्की प्रोफेसरी छोड़कर पहले तो कमीशन के मुख्य कार्यपालक अधिकारी बने और कार्टर के राष्ट्रपति बनते साथ उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) जैसे महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त कर दिए गए। 

जिमी कार्टर के कार्यकाल में इस विषय पर बहुत लेख छपे। हमारे यहां तो टीवी था नहीं, लेकिन जहां था वहां भी इस पर चर्चाएं होती होंगी। भारत से अमेरिका जाकर बस गए प्रखर प्रगतिशील लेखक प्रोफेसर इंदुकांत शुक्ल इत्यादि के इस विषय पर कई लेख तब मैंने पढ़े थे। दरअसल, राष्ट्रपति निक्सन वैश्विक पूंजीवाद के प्रणेता रॉकफेलर इत्यादि इन कार्पोरेट प्रभुओं के सामने झुकने के लिए तैयार नहीं थे। आखिरकार निक्सन ने राष्ट्रपति आइजनहॉवर के साथ आठ साल उपराष्ट्रपति के तौर पर काम किया था। वे एक स्थापित व वरिष्ठ राजनेता थे। जाहिर है कि अपने एजेंडे पर काम करने के लिए ट्राइलेटरल कमीशन को व्हाइट हाउस में एक कठपुतली की आवश्यकता थी। 

इतिहास की संक्षिप्त यात्रा के बाद हम वर्तमान में लौटते हैं। मैंने इतिहास के यू टर्न की बात क्यों की, वह यहां स्पष्ट हो जाएगी। आज से आठ साल पहले जब बराक ओबामा डेमोक्रेटिक पार्टी की टिकट पर राष्ट्रपति चुने गए तब उनके बारे में बहुत सी अच्छी-अच्छी बातें कही गईं। जिनमें से एक तो बिल्कुल सही है। समयानुकूल और जनतांत्रिक राजनीति की दृष्टि से रेखांकित करना सर्वथा उचित था कि बराक ओबामा अश्वेत अमेरिकन थे। यह कहना भी ठीक था कि वे अमेरिकी राजनीति के एक उभरते हुए सितारे थे। लेकिन यहां अन्य एक पक्ष पर गौर करना होगा कि ओबामा पहली बार सीनेटर बने थे और उनका छह साल का पहला कार्यकाल पूरा भी नहीं हुआ था। इस दृष्टि से वे जनता के बीच लगभग उतने ही अपरिचित थे जैसे कि अपने समय में कार्टर। ओबामा के बारे में दूसरी बात यह कही गई कि वे जनता से चंदा मांगकर चुनाव लड़ रहे हैं। खूब प्रचार किया गया कि पूरे देश के लोग उनको इंटरनेट और मनीआर्डर से पांच-पांच, दस-दस डॉलर की छोटी-छोटी रकमें चुनाव फंड के लिए भेज रहे हैं। 

यह दूसरी बात कपोल-कल्पित थी। प्रसंगवश ध्यान आता है कि मध्यप्रदेश में भाजपा के एक मंत्री ने अपने पुत्र के विवाह में भारी-भरकम राशि एकत्र की। बतलाया यह गया कि उनके क्षेत्र के लोगों ने दस-दस, बीस-बीस रुपए के मनीआर्डर भेजकर नेतापुत्र को अपने आशीर्वाद भेजे हैं। यही ओबामा के साथ हुआ। बताया जाता है कि ओबामा के चुनाव का बड़ा खर्च उन्हीं जार्ज सोरोस ने उठाया था जिनका उल्लेख हम एकदम शुरू में कर आए हैं। यहां याद रखना उचित होगा कि बराक ओबामा से पहले अश्वेत रेवेरेंड जेसी जैक्सन भी कभी डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार बनना चाहते थे, लेकिन उनके जैसा समादृत राजनेता भी वैसा आर्थिक समर्थन नहीं जुटा सका था जो ओबामा को मिला। हमारा संदेह और गहरा हो जाता है जब पाते हैं कि राष्ट्रपति बनने के एक साल के भीतर ही ओबामा को शांति के लिए नोबल पुरस्कार भी मिल जाता है। उन्होंने उस एक साल में ऐसा क्या किया था जिसके लिए उन्हें इस पुरस्कार से नवाजा जाता?

वैश्विक पूंजीवादी शक्तियों का रोल ओबामा के साथ समाप्त नहीं हुआ। उन्होंने हिलेरी क्लिंटन के रूप में एक नया प्रत्याशी चुना। हिलेरी के पक्ष में सबसे वजनदार दलील यह थी कि एक अश्वेत राष्ट्रपति के बाद वे पहली महिला राष्ट्रपति बनकर एक नया इतिहास रच सकती हैं। उन्हें इस बिना पर यथेष्ट समर्थन मिला और लोकप्रिय वोटों की गणना में वे डोनाल्ड ट्रंप से दो लाख से अधिक मतों से विजयी रहीं। यह अमेरिकी चुनाव प्रणाली की अपनी जटिल प्रक्रिया है जिसके लिए तकनीकी रूप से आवश्यक मतदाता मंडल में वे बहुमत नहीं जुटा सकीं। इस पर उन्होंने तीन राज्यों में पुनर्मतगणना की मांग की किन्तु परिणाम में कोई अंतर नहीं पड़ा। यह उल्लेखनीय है कि अमेरिकी मीडिया के एक बड़े वर्ग ने हिलेरी क्लिंटन को अपना खुला समर्थन दिया था। इसके बावजूद लोकप्रिय वोटों में वे इतनी बड़ी बढ़त नहीं बना सकीं जिससे कि मतदाता मंडल में भी उन्हें बहुमत मिल जाता। उनकी पराजय के पीछे एक कारण यह भी बताया जाता है कि डेमोक्रेटिक पार्टी से मनोनयन न मिलने के बाद वाम झुकाव के सीनेटर बर्नी सैंडर्स ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और हिलेरी क्लिंटन के वोट काट लिए। 

एक प्रश्न पूछा जा रहा है कि यदि बर्नी सैंडर्स को डेमोक्रेटिक पार्टी ने उम्मीदवार बनाया होता तो क्या वे जीत सकते थे? मुझे लगता है कि ऐसा नहीं हो पाता। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में भारी चुनावी फंड की आवश्यकता होती है जो शायद सैंडर्स अपनी वामपंथी झुकाव के कारण कभी न जुटा पाते। ट्राइलेटरल कमीशन और जार्ज सोरोस जैसे लोग ऐसे व्यक्ति पर दांव लगाते भी क्यों, जिसकी घोषित आर्थिक नीतियां उन्हें कबूल नहीं थीं। वैसे अमेरिका कहने को भले ही विश्व का सबसे प्रमुख जनतंत्र हो, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव में बहुत से घात-प्रतिघात चलते हैं जिनकी वजह से हर तरह से योग्य व बेहतर प्रत्याशी को भी या पीछे हटना पड़ता है या हार माननी पड़ती है। 1972 में सीनेटर जार्ज मैक्गवर्न की राष्ट्रपति पद की चुनाव में हार इसका प्रबल उदाहरण है। सीनेटर एडमंड मस्की और सीनेटर यूजीन मैकार्थी तो पार्टी के भीतर ही उम्मीदवारी का चुनाव नहीं जीत सके। 

बहरहाल डोनाल्ड ट्रंप की विजय के बाद अमेरिका के राष्ट्रीय जीवन में भारी उथल-पुथल मची हुई है जिसका असर शेष दुनिया पर भी पड़ रहा है। अमेरिकी मीडिया सामान्य शिष्टाचार के नाते हर नए राष्ट्रपति को तीन माह का समय देता है जिसे हन्ड्रेड डे हनीमून कहा जाता है। इस दौरान राष्ट्रपति के कार्यकलापों पर निगरानी रखी जाती है, लेकिन उसकी खुलकर आलोचना नहीं होती। डोनाल्ड ट्रंप को यह सुख प्राप्त नहीं हो सका है। इसका एक कारण तो मीडिया के प्रति उनका अपना व्यवहार है, लेकिन दूसरा कारण यह बताया गया है कि ट्रंप-विरोधी जो भी आंदोलन हो रहे हैं उनके पीछे जार्ज सोरोस का हाथ है। कहते हैं कि 20 जनवरी को शपथग्रहण के दो दिन बाद वाशिंगटन में निकले महिलाओं के अभूतपूर्व प्रदर्शन को सोरोस ने ही प्रायोजित किया था। क्या इसलिए कि जैसे निक्सन की नीतियां उस समय विश्व पूंजीवाद को नागवार गुजरी थीं वैसी ही स्थितियां आज फिर उपस्थित हो गई हैं? 

यूं रिचर्ड निक्सन और डोनाल्ड ट्रंप में कोई समानता नहीं है। निक्सन एक परिपक्व राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने भारी गलतियां कीं जबकि ट्रंप अनाड़ी राजनेता हैं जो पहले दिन से गलती पर गलती किए जा रहे हैं। सुपरिचित राजनीतिवेत्ता फ्रांसीस फुकुयामा ने ट्रंप विजय की व्याख्या कुछ इस तरह से की- ''राष्ट्रवाद के अनेक रूप हो सकते हैं, लेकिन जब उसमें अतीतराग का छौंक लग जाए तो वह बेहद प्रभावी हो जाता है।फ्रांसिस फुकुयामा एक अनुदारवादी चिंतक होने के साथ-साथ रिपब्लिकन पार्टी के समर्थक हैं। वे ट्रंप के जीतने से हैरान और असहज हो गए हैं। वे कहते हैं कि ट्रंप ने लोक-लुभावन राष्ट्रवाद का सहारा लिया, मीडिया विशेषकर सोशल मीडिया पर बार-बार झूठ बोला तथा मतदाताओं को भरमाने के लिए बराक ओबामा व हिलेरी क्लिंटन पर बदनीयत के साथ टिप्पणियां कीं। 

फुकुयामा दूसरी ओर डेमोक्रेटिक पार्टी व अमेरिका की उदारवादी राजनीति की यह कहकर आलोचना करते हैं कि उन्होंने अमेरिकी जनमानस को समझने में गलती की; उसने इस ओर दुर्लक्ष्य किया कि 2008 के वित्तीय संकट और उसके भी काफी पहले से अमेरिकी समाज में गैरबराबरी लगातार बढ़ रही थी जिसका दुष्प्रभाव कामगार वर्ग पर सबसे अधिक पड़ा। अश्वेत तो पहले से ही वंचित और कष्टों से घिरे हुए थे, लेकिन श्वेत समुदाय के सामने भी नए संकट उत्पन्न हो रहे थे। इसकी वजह यह भी है कि डेमोक्रेटिक पार्टी कहने को भले ही वंचितों व मेहनतकशों की पार्टी रही हो, उसने हाल के वर्षों में बड़ी पूंजी के साथ अपने न्यस्त स्वार्थ विकसित कर लिए थे। ऐसे में उसका पारंपरिक जनाधार सिकुडऩे लगा था जिसे ओबामा ने किसी कदर अपने दूसरे चुनाव तक बचा रखा, लेकिन हिलेरी अपने ही पारंपरिक मतदाता का विश्वास नहीं जीत पाईं। 

पॉल क्रुगमेन उदारवादी अर्थशास्त्री माने जाते हैं। वे ट्रंप की जीत से क्षुब्ध होकर कहते हैं कि अगर अमेरिका में संसदीय जनतंत्र होता तो ट्रंप के खिलाफ संसद में अब तक अविश्वास प्रस्ताव पेश हो जाता, परन्तु अब उन्हें अगले चार साल तक बर्दाश्त करना सबकी मजबूरी है। यह बात सही है। डोनाल्ड ट्रंप ने एक माह के भीतर ही स्थापित परंपराओं का ताना-बाना छिन्न-भिन्न कर दिया है। वे आने वाले दिनों में और क्या करेंगे, विश्वासपूर्वक कुछ भी कहना कठिन है। पर एक बात तय है कि फुकुयामा ने जिस लोक-लुभावन राष्ट्रवाद की बात की है वह इस वक्त उफान पर है। ट्रंप के एक अत्यंत विश्वस्त सलाहकार और सहयोगी स्टीफन बैनन का मानना है कि 2014 में भारत में नरेन्द्र मोदी की विजय के साथ आम जनता के द्वारा पूंजीवाद के खिलाफ विश्वव्यापी विद्रोह की शुरू हो गई है। स्टीफन बैनन के इस बयान में जो विरोधाभास है उसे हम देख सकते हैं पर यह सच है कि इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी आदि देशों में उग्र राष्ट्रवाद का उभार हो रहा है। ब्रेक्सिट का उदाहरण सामने है। फ्रांस और जर्मनी के आसन्न चुनाव क्या नतीजे लाएंगे इसे लेकर राजनीतिक पर्यवेक्षक चिंताकुल हैं। मैं दोहराना चाहता हूं कि यह समय है जब उदारवादी, प्रगतिशील, मध्यमार्गीय, बुद्धिजीवियों, राजनीतिज्ञों, अर्थशास्त्रियों को नए सिरे से अपनी अब तक चली आ रही नीतियों पर विचार करना होगा। उदारवादी तबके के वामपंथ के साथ बारीक मतभेद हो सकते है, लेकिन इसका विकल्प प्रतिगामी शक्तियों के साथ जाकर मिल जाने में नहीं है। वैश्विक पूंजी से पोषित विचारों पर उदारवाद का मुलम्मा चाहे जितना चढ़ा हो उसकी कलई देर-अबेर खुलकर रहेगी। लेकिन तब उन लोगों के पास पछताने के अलावा कुछ न शेष रहेगा। जर्मनी में कथित समाजवादी-उदारवादी ताकतों ने हिटलर का समर्थन व वामपंथ के उभार का विरोध किया था। नतीजा सामने है। वह गलती दुबारा नहीं होना चाहिए। 

अक्षर पर्व मार्च 2017 अंक की प्रस्तावना 
 

Wednesday, 8 March 2017

चुनावों के बाद क्या?-2


 11 मार्च को विधानसभा चुनावों के नतीजे चाहे जैसे भी आएं, मेरा मानना है कि राहुल गांधी और अखिलेश यादव का गठबंधन जारी रहना चाहिए। यह युवा जोड़ी देश की सड़ांधभरी राजनीति में ताजा हवा का झोंका लेकर आई है और उम्मीद की जा सकती है कि यह ताजगी आने वाले कुछ वर्षों तक बनी रहेगी।

मेरे इस आकलन व आशावाद से बहुत लोग असहमत होंगे। उनके सामने मैं निम्नलिखित तर्क रखना चाहूंगा। अखिलेश यादव देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री पांच साल के एक पूरे कार्यकाल तक रहे हैं। उन्होंने इस अवधि में पार्टीगत सीमाओं के भीतर रहकर भी बेहतर काम करने का प्रयत्न किया है। यह किसी से छुपा नहीं है कि उन पर पिता, चाचा और अन्य वरिष्ठों का बहुत अधिक दबाव रहा, लेकिन वे उससे लगातार छुटकारा पाने में जुटे रहे, जिसकी परिणति शायद परिवार टूटने में ही होती, किंतु वैसी अप्रिय स्थिति उन्होंने उत्पन्न नहीं होने दी। इन चुनावों के दौरान पत्नी सांसद डिंपल का भी उन्हें समझदारी से भरपूर राजनीतिक सहयोग मिला। अखिलेश ने चुनाव अभियान के लंबे दौर में शालीनता, शिष्टता व धीरज कभी नहीं खोया, कभी अभद्र भाषा का प्रयोग नहीं किया, कभी ऊंची आवाज में बात नहीं की। स्वयं प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भाजपा भी ऐसा संतुलन नहीं साध सकी।

राहुल और अखिलेश दोनों पर आरोप है कि वे वंशवाद की राजनीति कर रहे हैं। इसका परीक्षण कर लिया जाए। मुलायम सिंह अपने बलबूते राजनीति में आगे बढ़े। उन्होंने अखिलेश का राजतिलक अवश्य किया, किंतु आगे की राह तो इस युवा ने स्वयं गढ़ी। मुलायम सिंह और अखिलेश की कार्यशैली में जो फर्क है, वह बिल्कुल स्पष्ट है। अखिलेश के सामने इसके आगे जो राह आएगी, वे स्वयं ही उसे बनाएंगे। वह वंशवाद की नहीं, अपनी सूझबूझ से बनाई गई होगी। राहुल के बारे में यह बात और अधिक सच है। जिस पार्टी को तमाम प्रेक्षकों ने खारिज कर दिया हो, उसमें कैसा वंशवाद? राहुल स्वयं अपनी राह बनाने में लगे हुए हैं। सच तो यह है कि संजय गांधी और राजीव गांधी ने ही विरासत में विशेषाधिकार पाए, बाकी को तो संघर्षों का सामना करके ही जीत हासिल हुई। इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री की गद्दी सेंत-मेंत में नहीं मिली, उन्हें मोरारजी देसाई और अन्य दिग्गजों से जूझना पड़ा था। पी.वी. नरसिम्हाराव ने तो सोनिया गांधी को दरकिनार कर ही दिया था। यह उनकी हिकमत थी कि उन्होंने पार्टी का अध्यक्ष पद हासिल किया और फिर लगातार दो चुनाव जीते। फिर भी न वे स्वयं प्रधानमंत्री बनीं और न राहुल गांधी ने सरकार में कोई पद लिया। आज राहुल विपक्ष से ही नहीं, पार्टी के भीतर भी कदम-कदम पर चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।

प्रसंगवश कह देना होगा कि कोई भी पार्टी वंशवाद से पूरी तरह मुक्त नहीं है। कम्युनिस्टों की बात छोड़ दीजिए। कांग्रेस में सरदार पटेल के पुत्र डायाभाई, पुत्री मनीबेन, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के बेटे मृत्युंजय प्रसाद, लाल बहादुर शास्त्री के बेटे हरिकिशन, अनिल और सुनील और अब नाती सिद्धार्थनाथ सिंह, गोविंद वल्लभ पंत के बेटे के.सी. पंत इत्यादि अनेक उदाहरण सामने हैं जो अपवाद नहीं बल्कि नियम सिद्ध करते हैं। भाजपा में वसुंधरा राजे, यशोधरा राजे, दुष्यंत सिंह, मानवेन्द्र सिंह, अनुराग सिंह, अभिषेक सिंह, पंकजा मुंडे, पूनम महाजन, अनूप मिश्रा, जयंत सिन्हा, पंकज सिंह, दीपक जोशी, सुरेन्द्र पटवा, ओमप्रकाश सकलेचा, दिनेश कश्यप, केदार कश्यप, कल्याण सिंह के पौत्र तथा और भी कितने ही नाम। क्षेत्रीय दलों का तो कहना ही क्या! हां, भाजपा को यह अवश्य बताना चाहिए कि मेनका गांधी और फिर वरुण गांधी का पार्टी में होना क्या वंशवाद नहीं है?

हम मूल विषय पर लौटते हैं। जैसा कि हमने पिछले लेख में कहा था कि कांग्रेस ने अपना वैचारिक आधार छोड़ दिया है। 11 तारीख को चुनाव परिणाम  आने के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के पास यह सोचने का समय और मानसिक अवकाश दोनों होंगे कि पार्टी की वैचारिक नींव को फिर से कैसे मजबूत किया जाए? दरअसल कांग्रेस कभी कैडर आधारित पार्टी नहीं रही, उसका स्वरूप प्रारंभ से ही एक विशाल मंच का रहा जहां लोग आते-जाते रहे। कांग्रेस को इस परंपरा में पूरी तरह न सही कुछ तो संशोधन करना ही होगा। पार्टी के पास आज की तारीख में सत्ता से बाहर रहने के कारण किसी को उपकृत करने की क्षमता नहीं है। इस वजह से पिछले दो-ढाई साल में वरिष्ठ माने जाने वाले कई नेताओं ने भी पार्टी का साथ छोड़ दिया है। इससे पार्टी के भीतर स्वस्थ वातावरण बनाने का एक नया अवसर प्राप्त हुआ है। आज कांग्रेस को सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि वह नई पीढ़ी पर ध्यान केन्द्रित करें। इसके लिए आवश्यक नहीं है कि रातों-रात छात्र संगठन और युवा संगठन में बिना देखे-परखे लोग भर्ती कर लिए जाएं।

राहुल गांधी को पूरे देश से लेकर विचारवान युवाओं की एक नई टीम बनाना होगी  जो अर्थनीति, समाजनीति, कृषिनीति, उद्योगनीति ऐसे विभिन्न मुद्दों पर साफ समझ रखते हों तथा जनता के बीच जाकर अपनी बात दृढ़ता के साथ रख सकते हों। इन युवाओं को मार्गदर्शन देने के लिए मल्लिकार्जुन खडगे जैसे वरिष्ठ नेता कांग्रेस में हैं, उनकी प्रतिभा का संसद के बाहर उपयोग क्यों नहीं किया जा सकता? यही नहीं, राहुल गांधी को स्वयं भी व्यापक धरातल पर अपने संपर्क विकसित करना होंगे। इंदिरा गांधी नाश्ते की मेज पर अक्सर विभिन्न विषयों के अधिकारी विद्वानों से मिला करती थीं। वे महादेवी वर्मा और हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर मोहन राकेश तक को निजी तौर पर जानती थीं। यूपीए-1 और 2 की सबसे बड़ी त्रासदी यही थी कि पार्टी के तीनों बड़े नेताओं का जनता के विभिन्न वर्गों खासकर बुद्धिजीवियों के साथ संवाद पूरी तरह टूट गया था। उनके इर्द-गिर्द के लोग ऐसा चाहते ही नहीं थे। अब जब कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं है तब इस सुझाव पर विचार कर लेने में क्या बुराई है?

सीपीआई और सीपीआईएम या वाममोर्चे की स्थिति और दुर्भाग्यजनक है। ए.बी. बर्धन के निधन के बाद दोनों पार्टियों के पास ऐसा कोई प्रखर नेता नहीं है जो राजनीति और राजनीति से इतर दुनिया जहान के विषयों पर जनता के साथ संवाद स्थापित कर सके। सीपीआईएम ने तीस साल तक पश्चिम बंगाल में राज किया और आज भी केरल व त्रिपुरा में उसकी सरकार है। इसके चलते पार्टी में एक श्रेष्ठताबोध विकसित हो गया है। इसमें शक नहीं कि वाममोर्चे के नेता देश और समाज की परिस्थितियों का गंभीर अध्ययन करते हैं और सिर्फ चुनाव के लिए नहीं, बल्कि वृहतर लक्ष्य की राजनीति करते हैं, किन्तु लंबे समय तक श्रमिक आंदोलन की अगुवाई करते रहने के कारण समाज के अन्य वर्गों से उनका संपर्क धीरे-धीरे कर खत्म होते गया है। यद्यपि लेखकों, कलाकारों की बड़ी संख्या उनके साथ है, तथापि वह ऐसा वर्ग है जो अपनी गोष्ठियों, कार्यक्रमों और सोशल मीडिया पर सक्रियता दिखाकर ही स्वयं को धन्य मान रहा है। उनमें मैदानी कार्यकर्ता लगभग नहीं के बराबर हैं।

यहां देश के कथित बुद्धिजीवी समाज खासकर संस्कृतिकर्मियों की भूमिका पर अनायास ध्यान चला जाता है। आज़ादी के कुछ वर्ष पूर्व बंगाल में जब भीषण अकाल पड़ा तब पीडि़तों को वाणी देने, उनके बारे में जनजागृति करने व उनकी सहायता करने के लिए भारतीय जन नाट्य संघ अर्थात इप्टा ने समयानुकूल बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आज इप्टा के नाटक सडक़ों पर नहीं, प्रेक्षागृह के भीतर हो रहे हैं। शंभु मित्रा, तृप्ति मित्रा, बलराज साहनी, दीना पाठक, चेतन आनंद, देवानंद, उत्पल दत्त और कितने ही नामी-गिरामी कलाकार इप्टा से जुड़े थे। स्वाधीनता के बाद जन आंदोलनों में भाग लेने के कारण बलराज साहनी, कृश्न चंदर, ख्वाज़ा अहमद अब्बास, कैफी आज़मी इत्यादि कलाकारों को तत्कालीन बंबई प्रदेश के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई ने जेल में डाल दिया था। ये तो कुछ उदाहरण हैं जो लिखते-लिखते याद आ रहे हैं।

आज हमारे संस्कृतिकर्मी और अन्य क्षेत्रों के बुद्धिजीवी कहां हैं? कल तक जो कांग्रेस से पद पा रहे थे वे अब मोदीराज में मजे कर रहे हैं। विश्वविद्यालयों में स्वायत्तता तो खत्म हुई ही है, विचार मंथन का भी वातावरण समाप्त हो गया है। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद पर दुनिया के  विश्वविद्यालयों में शोध कार्य हो सकते हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ के किसी कॉलेज-यूनिवर्सिटी में नहीं क्योंकि यहां अध्यापकों का पढऩे-लिखने से रिश्ता खतम ही हो गया है। अपने आपको उदारवादी समाजचिंतक होने का दावा करने वाले बहुत से प्रबुद्धजन दिल्ली, मुंबई, भोपाल, लखनऊ इत्यादि में विराजते हैं, किन्तु इन सबने अपने-अपने गुट बना लिए हैं। सब एक-दूसरे को आगे बढ़ाने में लगे रहते हैं। इनमें शायद ही ऐसा कोई हो, जो देश के नौजवानों के बीच जाकर वर्तमान की स्थितियों पर बातचीत करने का इच्छुक हो। अपने सुख नीड़ से बाहर निकलना इन्हें गवारा नहीं है। ये अधिकतर अंग्रेजी में बात करते हैं, अंग्रेजी में लिखते हैं, अंग्रेजी किताबों पर रॉयल्टी पाते हैं और फिर उम्मीद करते हैं कि देश इन्हें अपने बौद्धिक नेता माने।

इस निराशा भरे माहौल को तोडऩे के लिए राजनीति में युवा पीढ़ी को आगे आना होगा। जनतंत्र है तो राजनीति रहेगी। जिस दिन फासिज्म आ जाएगा उस दिन सब राजनीति समाप्त हो जाएगी। आज विचार का विषय यही है कि राजनीति में नया नेतृत्व कैसे आए?

देशबंधु में 09 मार्च 2017 को प्रकाशित 

Wednesday, 1 March 2017

चुनावों के बाद क्या?


 



11 मार्च को पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम सामने आएंगे। कौन जीतेगा, कौन हारेगा, इस बारे में सैकड़ों अनुमान लगाए जा चुके हैं और राजनैतिक पंडित अब भी भविष्यवाणी करते हुए थक नहीं रहे हैं। इस पतंगबाजी में जो मनबहलाव होता है या समय कट जाता है उस पर पिछले तीन-चार हफ्तों में मैं भी अपनी कलम चला चुका हूं। बड़ा सवाल है कि क्या आम चुनाव राजनीति का पर्याय हैं अथवा चुनावों के आगे भी राजनीति है? भारत के राजनीतिक परिदृश्य का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि फिलहाल सिर्फ एक पार्टी है जो चुनावी राजनीति तो कर ही रही है, लेकिन वह उसके लिए एक वृहत्तर लक्ष्य को पाने का माध्यम मात्र है। वह पार्टी है भारतीय जनता पार्टी। अन्य राजनीतिक दल सोचते हैं कि चुनाव जीत लिया याने मैदान मार लिया। वे इसके आगे की नहीं सोचते। क्षेत्रीय दल इस प्रवृत्ति के सबसे अधिक शिकार हैं। एक दौर था जब कांग्रेस पार्टी भी चुनावों को दूरगामी राजनीतिक लक्ष्यों के लिए एक माध्यम के रूप में देखती थी लेकिन इधर पिछले कुछ वर्षों से चुनाव लडऩा ही उसका एकमात्र लक्ष्य रह गया प्रतीत होता है। कम्युनिस्ट पार्टी भी बड़े आदर्शों और नीतियों को लेकर चलती है किन्तु वह सैद्धांतिकी में इस कदर खो जाती है कि व्यवहारिकता का उसे ध्यान ही नहीं आता।

भारतीय जनता पार्टी की राजनीति किस तरह संचालित होती है, इसे अपनी सीमित जानकारी के बल पर समझने की एक कोशिश यहां है। सर्वविदित है कि भाजपा की राजनीति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिन्दुत्ववादी एजेंडे से प्रेरित और संचालित होती है। सामान्यत: लोग संघ की शाखाओं में स्वयंसेवकों को लाठी भांजते और अभी हाल तक हॉफपेंट पहनकर शहर की सडक़ों पर जुलूस निकालते देखकर उनका उपहास करते रहे हैं। लोग समझते थे कि शाखा में सिर्फ लाठी चलाना ही सिखाया जाता है। बहुत से सामान्यजन अपने बच्चों को यह सोचकर भी भेज देते थे कि वहां व्यायाम करवाया जाता है। किन्तु इसका अहसास अच्छे-अच्छे जानकारों को कुछ वर्ष पहले तक नहीं था कि यह उनकी गतिविधियों का एक बहुत छोटा हिस्सा है। अब यह बात खुलकर होने लगी है कि संघ के कोई छह सौ अनुषांगिक संगठन हैं जिनके माध्यम से एक काल्पनिक स्वर्णयुग और हिन्दुत्व की श्रेष्ठता का भाव हर श्रेणी के नागरिकों में फैलाया जा रहा है।

विश्व हिन्दू परिषद, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, बजरंग दल, राष्ट्र सेविका समिति आदि की अपनी-अपनी भूमिकाएं हैं। इनके अलावा शिशु भारती, बाल भारती, किशोर भारती, विद्या भारती, विज्ञान भारती, संस्कार भारती जैसे नामों वाले संगठन भी हैं। आदिवासी क्षेत्रों में काम करने के लिए कल्याण आश्रम, शबरी आश्रम, वनवासी कल्याण परिषद इत्यादि संस्थाएं हैं। सरस्वती शिशु मंदिर पूरे देश में हजारों स्कूलों का संचालन कर रहा है। बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर, प्रणव पंड्या, सदगुरु जग्गी वासुदेव इत्यादि के तथाकथित आध्यात्मिक संगठन भी भाजपा की राजनीति से जुड़े हुए हैं। भले ही इसे वे प्रत्यक्ष में स्वीकार न करते हों। इनके अपने लेखक संघ, अधिवक्ता संघ, वाणिज्य संघ इत्यादि भी हैं। और तो और एक कोई राष्ट्रीय कवि संगम या राष्ट्रीय कविता मंच भी है जहां स्कूली बच्चों को उग्र राष्ट्रवाद की कविताएं लिखने के लिए प्रेरित, प्रोत्साहित और पुरस्कृत किया जाता है। हाल के वर्षों में हनुमान और हनुमान चालीसा का महत्व प्रतिपादन, सुंदरकांड का पाठ करना इत्यादि भी इनकी गतिविधियों का एक प्रमुख अंग बन गया है।

भारतीय जनता पार्टी का अपना राजनीतिक दर्शन है। दीनदयाल उपाध्याय उसके सर्वप्रमुख राजनीतिक भाष्यकार थे। अपने विचारों को आगे बढ़ाने के लिए भाजपा सभा-समितियां करे; लोगों के घरों तक पहुंच कर उन्हें अपने पक्ष में लाए; पर्वों, सभाओं का आयोजन करें; यह सब जनतांत्रिक तरीके से हो और संविधान की मर्यादा के भीतर हो तो इसमें कहीं भी आपत्ति की बात नहीं है। लेकिन जब भाजपा और संघ के लोग अहिंसा छोड़ हिंसा का रास्ता अपनाएं; भाषा की शालीनता छोडक़र अशोभन शब्दावली का प्रयोग करें; समाज के विभिन्न वर्गों के बीच द्वेष का वातावरण बनने लगे; विरोधियों के ऊपर शारीरिक आक्रमण हों; यहां तक कि कारगिल के शहीद की बेटी को गालियां दी जाएं तो तकलीफ होती है, चिंता होती है, आपत्ति होती है। आशंका उपजती है कि  यह सब कुछ कहीं भारत के संविधान को ही बदलने की तैयारी तो नहीं है?

देश की जनता का जो बड़ा हिस्सा भाजपा की नीतियों से इत्तफाक नहीं रखता, वह एक समय कांग्रेस की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देखता था। दुख से कहना पड़ता है कि कांग्रेस ने उसे निराश ही किया है। मैंने पिछले वर्षों में कई बार कहा है कि कांग्रेस जब जीतती है तो अहंकार में डूब जाती है और जब हारती है तो यह सोच हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाती है कि एक दिन मतदाता को अपनी गलती का अहसास होगा और वह उसे वापिस जिता लाएगा। एक के बाद एक चुनाव में कांग्रेस को इसीलिए पराभव देखना पड़ रहा है। जिस पार्टी में अनेकानेक विद्वान और विदुषियां हों उस पार्टी की ऐसी हालत! अभी राहुल गांधी अपने दम-खम का परिचय दे रहे हैं, लेकिन क्या इतना पर्याप्त है? मुझे इस समय एक पी. चिदम्बरम ही नज़र आ रहे हैं जो लगातार मोदी सरकार के आर्थिक कुप्रबंधन का वस्तुपरक विश्लेषण कर रहे हैं, तथ्यों और आंकड़ों से बात कर रहे हैं, लेकिन यह काफी नहीं है।

यदि कांग्रेस को देश की सबसे पुरानी पार्टी होने का सम्मान बचाए रखना है तो उसे नए सिरे से अपनी कार्यप्रणाली का विश्लेषण करना होगा। जब भाजपा सत्तर साल की बदहाली का झूठा आरोप कांग्रेस पर लगाती है तब कांग्रेस को तर्कों के साथ आम सभाओं में इन आरोपों का जवाब देना चाहिए। स्वयं राहुल गांधी चुनावी सभाओं में ये तर्क क्यों नहीं रखते? उनके अलावा पार्टी में एक तरफ अनुभवी नेता हैं, तो दूसरी तरफ संभावनाशील युवा नेतृत्व भी है। इन्हें देश के दौरे करना चाहिए, छोटी-बड़ी जैसी भी संभव हो सभाओं में जाकर बात रखना चाहिए तथा कांग्रेस के सामान्य कार्यकर्ता को भी तर्कों से इस तरह लैस करना चाहिए कि वह अपने गांव-मुहल्ले में विश्वासपूर्वक बात रख सके। एनएसयूआई और युवा कांग्रेस के अनपढ़ अथवा कुपढ़ सदस्यों के भरोसे यह काम नहीं होगा। मैं नहीं समझ पाता कि सचिन पायलट जैसे युवा, प्रतिभाशाली, ओजस्वी नेता को कांग्रेस ने राजस्थान तक क्यों समेट दिया है? पायलट, सुरजेवाला, मीनाक्षी नटराजन जैसे युवाओं को पूरे देश में फैल जाना चाहिए था। वरिष्ठजनों में भी पार्टी के पास ऐसे लोग हैं जो जनता को आकर्षित करने की क्षमता रखते हैं। लेकिन टीवी पर जिनके चेहरे देख-देख कर थक चुके हैं, कार्यकर्ताओं के बीच भ्रष्टाचार के लिए जो बदनाम हो चुके हैं और जिनके कारण कांग्रेस बार-बार हारी है, वही अगर पार्टी का चेहरा बने रहे तो फिर कुछ कहना बाकी नहीं रह जाता।

कांग्रेस के पास एक समय नेशनल हेराल्ड, नवजीवन और कौमी आवाज जैसे अखबार थे, जिनकी स्थापना पंडित नेहरू ने की थी। इनका अवसान क्यों हुआ? क्या कांग्रेस आलाकमान ने इस बारे में गंभीरतापूर्वक विचार किया? इसके अलावा कांग्रेस ने जनता के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए और क्या किया? क्या इसका हिसाब उसने रखा है? मुंबई में सुनील दत्त की बेटी प्रिया दत्त हाशिए पर चली गईं और संजय निरूपम जैसे दलबदलू महानगर के सर्वेसर्वा बन गए यह क्यों कर हुआ? क्या पार्टी ने गांधी और नेहरू के विचारों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ किया? कांग्रेस के ऐसे कितने नेता व कार्यकर्ता हैं जिन्होंने सत्य के प्रयोग और भारत की खोज व विश्व इतिहास की झलक जैसी पुस्तकें पढ़ी हों। गांधी और नेहरू ने जितना विपुल लेखन किया उसकी सौ-सौ से अधिक किताबें छप चुकी हैं। उनके बारे में देश-दुनिया के विद्वानों ने जो लिखा उतना विश्व के किसी अन्य नेता पर नहीं लिखा गया। काश कि हरेक कांग्रेसी गांधी-नेहरू पर एक-एक किताब पढ़ लेता तो पार्टी का मजबूत कार्यकर्ता बन पाता।

पंडित नेहरू ने सत्रह साल में देश में ज्ञान और विज्ञान के प्रसार के लिए, कृषि और उद्योग को बढ़ावा देने के लिए, समुद्र से लेकर अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए कितनी तो संस्थाएं स्थापित कीं, कितनी प्रतिभाओं को अवसर दिए, उनके बारे में भी अगर कांग्रेस के लोग थोड़ा-बहुत पढ़ लेते तो अपना उद्धार करते। पर मुश्किल दूसरी है। भाजपा में कांग्रेस से अधिक ही भ्रष्टाचार है, लेकिन उसके लोग ध्येय के प्रति समर्पित हैं। कांग्रेस में चाटुकारों, अवसरवादियों और उचक्कों की बहार आई हुई है। बड़बोले वकील हैं, गालबजाऊ नेता हैं, सत्ता के दलाल हैं, लेकिन नीतियों और सिद्धांतों को समझने वाले, उन्हें आगे बढ़ाने वाले लोग दिन-ब-दिन कम हो रहे हैं या केन्द्र से परिधि पर ढकेले जा रहे हैं। कांग्रेस ने दोस्तों-दुश्मनों के बीच तमीज़ करना बंद कर दिया है। बाकी बातें अगले सप्ताह...।

देशबंधु में 02 मार्च 2017 को प्रकाशित