बरसात में उफनती पहाड़ी नदी, देखने में छोटी, लेकिन ऐसी वेगवती कि अपने साथ सब कुछ बहा ले जाने को आतुर। नदी के इस पार और उस पार दोनों तरफ के गांवों के बीच ऐसे समय में संपर्क बिल्कुल छिन्न-भिन्न हो जाता है। यह दृश्य तो हमने भरी बरसात में मैदानी इलाकों में भी देखा है, लेकिन बात जब पहाड़ों की हो तो यही दृश्य कई गुना भीषण रूप ले लेता है! ऐसे में क्या किया जाए? या तो बरसात खत्म होने की प्रतीक्षा में हाथ पर हाथ धर बैठे रहें या फिर कोई जुगत भिड़ाएं कि दोनों तटों के आर-पार आवागमन हो सके। आज का जमाना होता तो सांसद, विधायक, सरकार से पुल बनाने की मांग करते, पुल नहीं तो रपटा ही सही। शायद किसी शुभ घड़ी में पुल बन जाता और बीस-पच्चीस साल बाद टूट भी जाता; जब बनाने वालों की कोई जिम्मेदारी तय करना भी असंभव होता। लेकिन मेरा इरादा फिलहाल आज की चर्चा करने का नहीं है। मैं तो आपको इतिहास में कई दशक पहले ले जाना चाहता हूं और वह भी आसपास नहीं, बल्कि बहुत दूर।
वाकया कोई दो सौ साल पुराना है। सन् 1830-40 के आसपास का। मेघालय की राजधानी शिलांग से लगभग अस्सी किलोमीटर दूर रिवाई गांव के निकट एक पहाड़ी नदी पर बने पुल की ओर हम चलते हैं। यह एक अद्भुत पुल है। यह न सीमेंट से बना है और न पत्थर से, और न ही लकड़ी के तख्तों से। सीमेंट का आविष्कार तो सौ साल बाद 1938 में हुआ। यह खासी जनजाति का इलाका है। नदी के उस पार गांव के लोगों को बरसात के मौसम में चारों तरफ से संपर्क कट जाने के कारण अनेक तकलीफों का सामना करना पड़ता था। तब इस गांव के बुद्धिमानों ने एक उपाय खोजा। उन्होंने दोनों किनारों पर रबर के बहुत से पेड़ लगाए। प्रसंगवश कह दूं कि रबर पीपल की प्रजाति का ही एक वृक्ष है। ये पेड़ थोड़े बड़े हुए और इनकी जड़ें हवा में झूलने लगीं तो जड़ों को आपस में बांधकर पुल बना लिया गया। सुनने में बात बहुत सरल लगती है, लेकिन पेड़ों को लगाना, जड़़ों का बढऩा, उनको आपस में जोडऩा और ऐसी मजबूती देना कि आने-जाने में कोई भय न हो, क्या कोई आसान काम रहा होगा?
इस जड़ों से बने पुल के बारे में लगभग तीन वर्ष पूर्व बीबीसी के किसी संवाददाता ने लिखा था। तब से इसकी चर्चा होने लगी है। हम भी यह पुल देखने गए। पुल तक पहुंचने के लिए लगभग आधा किलोमीटर नीचे उतरना पड़ता है। पहाड़ को काटकर टेढ़ी-मेढ़ी सीढिय़ां बनाई गई हैं। नीचे उतरना जितना कष्टदायक है उतना ही ऊपर वापिस लौटना भी। बरसात हो रही हो तो फिर कहना ही क्या है! या तो भीगो या फिर छाता ले के आहिस्ता-आहिस्ता कदम जमाते हुए सावधानी के साथ मंजिल तय करो। जड़ों से बना यह पुल सचमुच बहुत सुंदर है। नीचे कल-कल बहती नदी, आसपास ऊंचे-ऊंचे वृक्षों और सुंदर फूलों वाली झाडिय़ों से आच्छादित पहाडिय़ां इस सुंदरता को दोगुना-चौगुना करती हैं। किन्तु मैंने जब पुल को देखा तो पहला विचार मन में यह आया कि इन खासी पुरखों के पारंपरिक ज्ञान और बुद्धिमता को प्रणाम करूं। हम जो आधुनिकता और नागर सभ्यता के दर्भ में इठलाते फिरते हैं, काश! कि अपने पूर्वजों से कुछ सीख पाते। मनुष्य और प्रकृति का सहजीवन देखना हो तो यह सेतु उसका अनुपम उदाहरण है।
सुना है कि मेघालय की खासी पहाडिय़ों में ऐसे और भी पुल हैं। इन्हें अगर सिर्फ पर्यटन स्थल मानेंगे तो भारी भूल करेंगे। यहां आकर सिर झुकाकर कुछ सीखेंगे तो बात बनेगी। इस पुल से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर मॉलीनांग नामक एक और गांव है, जिसे एशिया के स्वच्छतम गांव होने का गौरव मिला है। यूं तो राजधानी शिलांग सहित मेघालय में सभी ओर स्वच्छ वातावरण है, लेकिन इस गांव की बात निराली है। पूरा गांव हरा-भरा है। हर घर में फूलदार पेड़-पौधे सजे हैं। गंदगी का कहीं नामोनिशान नहीं। इसे देखने देश-विदेश से लोग आते हैं। यह गांव एक पर्यटन केन्द्र के रूप में विकसित हो गया है। शिलांग से दक्षिण-पूर्व में बंगलादेश की ओर जाती सडक़ पर लगभग पचास-साठ किलोमीटर बाद इन गांवों के लिए मुडऩा होता है। यहां वॉच टॉवर बने हैं जिन पर चढक़र बंगलादेश की सीमा देखी जा सकती है। इस इलाके में बेंत की खेती खूब होती है। मोड़-दर-मोड़ बेंत के लहराते हुए पौधे दूर तक दिखते हैं।
गुवाहाटी होकर शिलांग का रास्ता जाता है। लगभग सौ किलोमीटर की दूरी है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग कुछ साल पहले फोरलेन बन चुका है। इसलिए पहाड़ी रास्ते पर यात्रा का जो रोमांच होना चाहिए वह इस मार्ग पर लगभग नहीं है। यद्यपि आवागमन बहुत है। मेघालय में कोयले की खदानें हैं सो दिनभर कोयले से लदकर लौटते और कोयला लेने जाते ट्रकों की आवाजाही चलते रहती है। शिलांग से रूट्स ब्रिज याने जड़ों के सेतु वाले राजमार्ग पर एक दूसरा दृश्य देखने मिला। यहां लगातार पहाड़ तोडक़र पत्थर निकाला जाता है। पत्थर का निर्यात बंगलादेश को भवन निर्माण के लिए होता है, क्योंकि ब्रह्मपुत्र और गंगा के डेल्टा क्षेत्र वाले बंगलादेश में मिट्टी और रेत तो है, लेकिन पत्थर नहीं। आधुनिक तकनीक के मकान बनें तो कैसे बनें! एक चिंताजनक सूचना यह भी मिली कि मेघालय में वृक्षों की कटाई पर कोई पाबंदी नहीं है। परिणामस्वरूप प्रदेश में बारिश के औसत में लगातार गिरावट आ रही है।
कोई समय था जब चेरापूंजी को विश्व के सर्वाधिक वर्षा वाले स्थान के रूप में मान्यता मिली थी। यह प्रथम स्थान नजदीक के किसी दूसरे गांव को मिल गया है। चेरापूंजी में अब पहले जैसी वर्षा नहीं होती। कहने को तो वहां अनेक जलप्रपात और जलधाराएं हैं, लेकिन बरसात के चार माहों को छोडक़र उनमें पानी के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। ऊंचाई पर होने के कारण बादल बने रहते हैं और वही अब उस प्रसिद्ध स्थान का मुख्य आकर्षण है। शिलांग नगर के बिल्कुल बाहर एलीफेंट फॉल नामक एक जलप्रपात है, जहां तीन अलग-अलग स्तरों से झरने नीचे गिरते हैं। मैं सबसे ऊपर वाले प्रपात तक तो गया, उसमें पानी की क्षीणधारा देखकर नीचे उतरने का मन नहीं हुआ। दिन भर की चढ़ाई-उतराई के बाद भारी थकान भी शायद इसका एक कारण थी। जो साथी नीचे तक गए उन्हें भी कम पानी देखकर कुछ निराशा ही हुई। मुझे यह देखकर अवश्य कौतुक हुआ कि जलप्रपात जाने के मुख्य द्वार पर और फिर भीतर भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आदमकद फोटो वाले होर्डिंग लगे थे जिसमें मोदी जी कह रहे हैं कि मेघालय आए हैं तो एलीफेंट फॉल जरूर देखना चाहिए।
हमारी शिलांग यात्रा हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के वार्षिक अधिवेशन के चलते हुई थी। अधिवेशन का आयोजन पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय या नेहू (नार्थ ईस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी) के विशाल परिसर में किया गया था। इस परिसर में दो-तीन विश्वविद्यालयों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर की कुछेक अकादमिक संस्थाओं के केन्द्र भी हैं। यहां का वातावरण अत्यन्त सुरम्य है और पूरा परिसर सर्वसुविधायुक्त एक छोटे-मोटे गांव का रूप ले लेता है। जैसा कि किसी भी पर्वतीय नगर में होता है, शिलांग भी ऊंची-नीची पहाडिय़ों पर बसा है। जिनको अभ्यास नहीं हो उन्हें पहाड़ी रास्तों पर पैदल चलना कठिन ही लगेगा। यद्यपि ठंडा मौसम होने के कारण थकान अधिक नहीं होती। मेघालय में तीन पहाड़ी इलाके हैं-खासी, गारो और जयंतिया। इन तीनों की भाषाएं भी अलग हैं। हर इलाके में पर्यटकों के लिए कुछ न कुछ आकर्षण बिन्दु हैं। हम तो शिलांग और आसपास की दृश्यावली से ही संक्षिप्त परिचय पा सके।
शिलांग के एक छोर पर यदि एलीफेंट फॉल है तो दूसरे छोर पर उमियम झील या कि बड़ा पानी। बीच शहर में भी एक झील है, लेकिन उसमें कोई विशेष आकर्षण नहीं है। डॉन बॉस्को म्युजियम एक अनूठी जगह है। यहां उत्तर-पूर्व के आठों प्रांतों की जनजातियों की बेशुमार झलकियां हैं। अगर उत्तर-पूर्व को जानना है तो इस संग्रहालय को अवश्य देखना चाहिए। इस सात मंजिले म्युजियम में सबसे ऊपर कांच से ढंका हुआ स्काई वॉक है जहां से शिलांग नगर का विहंगम अवलोकन किया जा सके। उमियम झील गुवाहाटी से शिलांग आते समय मिलती है। हम यहां लौटते वक्त रुके। इसे बड़ा पानी नाम ठीक ही दिया गया है। पहाड़ों के बीच काफी बड़े विस्तार में यह झील फैली है। पानी को जहां जगह मिली वहां उसने अपना अधिकार जमा लिया। अगर शिलांग में कहीं गंदगी है तो वह इसी जगह पर, जो पर्यटकों ने फैलाई है और जिन पर सूचनाओं और चेतावनियों का कोई असर नहीं होता।
देशबंधु में 30 मार्च 2017 को प्रकाशित