करीब एक माह पहले खबर पढ़ी थी। उसी दिन से मन व्याकुल और चिंतातुर है। खबर यह थी कि तिरुपति देवस्थान ट्रस्ट को पिछले 4-5 साल के दौरान प्रसादी लड्डूओं की बिक्री में कोई चार सौ करोड़ का घाटा हुआ है। हाय रे देवा! यह क्या हो गया? क्या भक्त जन इतनेे स्वार्थपरायण और लोलुप हो गए हैं कि भगवान को ही नुकसान पहुंचाने लगे हैं? लेकिन ऐसा हुआ कैसे? मंदिर न्यास के अधिकारियों ने बताया कि एक प्रसादी लड्डू मात्र पच्चीस रुपए में बेचा जाता है, जबकि उसकी लागत प्रति नग साढ़े बत्तीस रुपए आती है। याने एक नग पर सीधे-सीधे साढ़े सात रुपए का घाटा। आगे बताया गया कि जो श्रद्धालु पहाड़ी पर बसे मंदिर पर किसी वाहन से न आकर पैदल चढ़ाई पूरी करते हैं, उन्हें एक लड्डू मुफ्त में दिया जाता है, जिससे उन्हें कठिन पदयात्रा की थकान दूर करने में मदद मिले। यही नहीं, देवदर्शन के लिए लंबी सर्पीली कतार में घंटों धैर्यपूर्वक अपनी बारी आने की प्रतीक्षा में आहिस्ता-आहिस्ता सरकते हुए भक्तों को भी एक अवधि बीत जाने पर लड्डू बिना कोई कीमत लिए दिया जाता है। कुल मिलाकर चारों तरफ से घाटा ही घाटा! ऐसे में बालाजी भगवान का काम कैसे चलेगा? उनके पूजा-पाठ में, सेवा पर कोई विपरीत असर तो नहीं पड़ेगा? यही सोच-सोच कर मन दुख रहा है।
इसमें दो राय नहीं कि तिरुपति बालाजी के प्रसादी लड्डू का आस्वाद अद्भुत होता है। जगन्नाथपुरी में कहा जाता है-जगन्नाथ के भात को, जगत पसारे हाथ। इसके समकक्ष बालाजी के लड्डू के लिए कोई कहावत है या नहीं, यह तो नहीं पता, किंतु जिसने एक बार भी चखा, वह बार-बार शुद्ध घी से बने, कूट-कूटकर मेवा भरे, बूंदी के इन प्रसादी लड्डुओं का स्वाद दुबारा पाने की हमेशा इच्छा रखता है, उसके लिए ललचाता है। जिह्वा भी तृप्त, मन भी तृप्त और परमात्मा से आत्मा की लौ लगने की अनुभूति- सब कुछ एक साथ। नाथद्वारा में श्रीनाथजी के मंदिर में जो ठौर नामक प्रसादी व्यंजन बनता है, वह भी इसी तरह लुभाता है। मुझे प्रसंगवश याद आ रहा है कि बरसों पहले ढेंकानाल (ओडिशा) के निकट कपिलास के शिव मंदिर में दाल-भात की जो पत्तल प्रसाद में मिली थी, उसका भी स्वाद दिव्य था। ऐसा भात शायद ही और कहीं पाया हो। क्या पता, इन सारे मंदिर में भी प्रसाद तैयार और वितरित करने में इसी तरह घाटा होता हो! उसकी भरपाई कैसे होती होगी? तिरुपति ट्रस्ट इस घाटे को कैसे बर्दाश्त कर रहा है? और उसके लिए सार्वजनिक रिपोर्ट जारी करने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी?
एक विचार तो यह आया कि मंदिर के अधिकारियों ने कहीं मोदी सरकार और खासकर उसके रेल मंत्री सुरेश प्रभु से तो प्रेरणा नहीं ली? सुरेश प्रभुजी अपने यात्रियों को जो रेल टिकिट जारी करते हैं उसमें हरेक पर बिला नागा छपा रहता है कि आपकी टिकिट का औसतन 57 प्रतिशत ही किराए से वसूल होता है, अर्थात बाकी 43 प्रतिशत का रेलवे को घाटा उठाना पड़ता है। धिक्कार है ऐसे देशवासियों पर जो इसके बाद भी रेल यात्रा करने से परहेज नहीं करते। और न सरकार को किराया बढ़ाने देते। शायद मेरी दूसरी बात गलत हो। रेल बजट तो अब आम बजट का हिस्सा बन गया है। इसमें टिकिट किराए में कब, कैसे, किस बहाने से बढ़ोतरी हो जाए कौन जानता है। कभी यह सरचार्ज, कभी वह सरचार्ज, कभी रिफंड में कटौती तो कभी और कोई दंड या लेवी। लेकिन सरकार कह रही है तो मान लीजिए कि आप याने कि रेल यात्री के कारण ही रेलवे को घाटा हो रहा है। आप यात्रा करना बंद कर दीजिए, घाटा अपने आप समाप्त हो जाएगा।
बहरहाल, बात तिरुपति के लड्डू की हो रही थी। क्या आने वाले दिनों में लड्डू के पैकेट पर लिखा होगा कि जिस लड्डू को 25 रुपए में खरीद रहे हैं, उसकी लागत साढ़े बत्तीस रुपए है? लेकिन हमें समझ नहीं आता कि मंदिर को घाटा उठाने की नौबत क्यों आई? वे 25 रुपए से बढ़ाकर कीमत सीधी 35 रुपए क्यों नहीं कर देते? जिसकी गरज होगी प्रसाद क्रय करेगा, नहीं तो घर का रास्ता लेगा। पैदल यात्रियों अथवा कतार में खड़े श्रद्धालुओं को भी नि:शुल्क प्रसाद वितरित करना भी बंद किया जा सकता है। देव दर्शन की लालसा में जुटे जन तो पानी पीकर भी काम चला लेंगे। फिर भी यदि आपको घाटे की सार्वजनिक घोषणा करना थी तो यह भी बता देते कि बालाजी भगवान को हर दिन, हर सप्ताह, हर साल कितना चढ़ावा चढ़ता है। सोने, चांदी, हीरे, जवाहरात, क्या कमी है भगवान के दरबार में। फिर जब चंद्रशेखर राव जैसे भक्त हों जो सरकारी खजाने से मंदिर में भेंट चढ़ाते हों! और ट्रस्ट के वे कौन से तो न्यासी थे, नोटबंदी के बाद चेन्नई में जिनके घर छापे से इनकम टैक्स ने करोड़ों रुपए बरामद किए! ऐसे भक्त और ऐसे ट्रस्टी के होते चिंता किस बात की?
लेकिन रुकिए। चिंता की बात किसी अन्य रूप में है और अवश्य है। हमारे रायपुर से मात्र 45 किसी की दूरी पर चंपारन अवस्थित है। पुष्टिमार्गी कृष्णभक्त वैष्णव संप्रदाय के अधिष्ठाता महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म आज से 500 वर्ष पूर्व यहीं हुआ था। यहां देश-दुनिया से धनी-धोरी श्रद्धालु दर्शनार्थ आते हैं। एक समय इस पंथ के एक गोस्वामी मथुरेश्वरजी महाराज व उनकी बहन इंदिरा बेटी जी महाराज यहां काफी आते थे। इंदिरा बेटीजी ने करीब चालीस साल पूर्व यहां एक निशुल्क नेत्र शिविर लगाया था। शायद तभी उनके सामने मंदिर में विद्युत व्यवस्था करवाने का आग्रह आया था। उनका उत्तर था- ठाकुरजी को प्रकाश की आवश्यकता नहीं। बिजली लगना है तो पहले गांव में लगेगी। आज वह चंपारन गांव एक वैभव नगरी में तब्दील हो गया है। अंबानी परिवार भी यहां अपने चार्टर्ड प्लेन से देव दर्शन के लिए आता है। अच्छी बात है, किंतु मंदिर में जनसामान्य को प्रसाद नहीं मिल सकता, यह देखकर दुख होता है। एक बड़े से बोर्ड पर लिखा है कि यहां सिर्फ बाहर से आए श्रद्धालुओं के लिए प्रसादी व्यवस्था है और जो प्रसाद पाने की अनधिकार चेष्टा करेंगे, वे नैतिक अपराध के भागी होंगे।
इस तरह का एक और कड़वा अनुभव मुझे सुदूर द्वारिका में हुआ। मंदिर में प्रसादी पत्तल के लिए भेंट देना होती है। दो काउंटर थे। एक पर मैं रसीद कटाने गया। सात-आठ साथियों के हिसाब से पत्तल लेना थी। एक हजार रुपए देना निश्चित किया। काउंटर पर बैठे सेवक ने तिरस्कारपूर्वक कहा-‘यहां हजार-दो हजार की रसीद नहीं कटती। दूसरे काउंटर पर जाओ।’ प्रसंगवश, मेरे परिवार में कई पीढिय़ों से जिसकी पूजा चली आ रही है, ये दोनों मंदिर उसी पुष्टिमार्गी संप्रदाय के हैं। इन दोनों अनुभवों से मुझे ज्ञान हुआ कि शायद ईश्वर भी ऐश्वर्य का भूखा है। जैसे रेल की जनरल बोगी में आम जनता किसी भी तरह तकलीफ उठाकर यात्रा करती है, वैसे ही अपने मंदिरों में भी उसे दूर से दर्शन करने में ही संतोष कर लेना चाहिए। जेब में रकम हो तो छक कर प्रसाद पाओ, अन्यथा सूखे वापस जाओ। इन मंदिरों में जो संपन्न भक्त आते हैं, क्या वे भी कभी नहीं सोचते कि मंदिर में सबके साथ उदार भाव से एक जैसा व्यवहार हो। अगर चंपारन में सौ-पचास स्थानीय जन अथवा गरीब लोग प्रसाद पा लेंगे तो क्या ईश्वर का वैभव घट जाएगा?
इन उदाहरणों के ठीक विपरीत अनुभव पाना है तो गुरुद्वारे चलना चाहिए। रायपुर के प्रो. वीरेंद्र चौरसिया अस्सी के दशक में अपने स्कूटर से देशाटन पर निकलते थे। वे बताते थे कि हर जगह गुरुद्वारे में ठहरते थे, वहीं लंगर में छककर प्रसाद पा लेते थे और क्षुधाशांति के बाद आगे की यात्रा पर निकल पड़ते थे। यह तथ्य भी पाठकों को पता ही होगा कि सिख धर्म के सबसे प्रमुख केंद्र हरमंदिर साहब याने स्वर्णमंदिर में कैसे दिन-रात लंगर चलता है। वहां न कोई आपकी जाति पूछता है न धर्म। लंगर में जाकर कोई भी भोजन प्राप्त कर सकता है। वहां जो कारसेवा होती है, वह अपने आप में मिसाल है। आपके जूते-चप्पल सम्हालने से लेकर परिक्रमा पथ में जगह-जगह बनी प्याऊ में मीठा जल पिलाने तक और लंगर में थाली परोसने जैसे सारे काम भक्तजन ही करते हैं। रायपुर में जब राजधानी बनी और बाहर से आए शासकीय कर्मियों के सामने भोजन की समस्या आई तो मेरे सुझाव पर सरदार मनमोहन सिंह सैलानी व उनके साथी प्रेमशंकर गोंटिया ने देखते ही देखते इन कर्मियों के लिए निशुल्क लंगर खोल दिया था। ऐसे में अपने आप ख्याल आता है कि तिरुपति हो या चंपारन या द्वारिका या ऐसे अन्य मंदिर- इनमें यह कृपणता, यह अनुदारता क्यों पनप रही है? और ये तो हमारे संपन्न देवालय हैं। इनके यहां साधनों की कोई कमी नहीं है। क्या इनके प्रबंधकों-पुजारियों को अपनी रीति-नीति पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए? मैं सोचता हूं कि तिरुपति के लड्डू का स्वाद भले ही अमृततुल्य हो, लेकिन यदि मुझे उसके खरीद-बिक्री के मूल्य का अंतर बतलाया जाएगा तो उस स्वाद में कड़ुवाहट घुल जाएगी!
देशबंधु में 23 मार्च 2017 को प्रकाशित
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