Wednesday, 8 March 2017

चुनावों के बाद क्या?-2


 11 मार्च को विधानसभा चुनावों के नतीजे चाहे जैसे भी आएं, मेरा मानना है कि राहुल गांधी और अखिलेश यादव का गठबंधन जारी रहना चाहिए। यह युवा जोड़ी देश की सड़ांधभरी राजनीति में ताजा हवा का झोंका लेकर आई है और उम्मीद की जा सकती है कि यह ताजगी आने वाले कुछ वर्षों तक बनी रहेगी।

मेरे इस आकलन व आशावाद से बहुत लोग असहमत होंगे। उनके सामने मैं निम्नलिखित तर्क रखना चाहूंगा। अखिलेश यादव देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री पांच साल के एक पूरे कार्यकाल तक रहे हैं। उन्होंने इस अवधि में पार्टीगत सीमाओं के भीतर रहकर भी बेहतर काम करने का प्रयत्न किया है। यह किसी से छुपा नहीं है कि उन पर पिता, चाचा और अन्य वरिष्ठों का बहुत अधिक दबाव रहा, लेकिन वे उससे लगातार छुटकारा पाने में जुटे रहे, जिसकी परिणति शायद परिवार टूटने में ही होती, किंतु वैसी अप्रिय स्थिति उन्होंने उत्पन्न नहीं होने दी। इन चुनावों के दौरान पत्नी सांसद डिंपल का भी उन्हें समझदारी से भरपूर राजनीतिक सहयोग मिला। अखिलेश ने चुनाव अभियान के लंबे दौर में शालीनता, शिष्टता व धीरज कभी नहीं खोया, कभी अभद्र भाषा का प्रयोग नहीं किया, कभी ऊंची आवाज में बात नहीं की। स्वयं प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भाजपा भी ऐसा संतुलन नहीं साध सकी।

राहुल और अखिलेश दोनों पर आरोप है कि वे वंशवाद की राजनीति कर रहे हैं। इसका परीक्षण कर लिया जाए। मुलायम सिंह अपने बलबूते राजनीति में आगे बढ़े। उन्होंने अखिलेश का राजतिलक अवश्य किया, किंतु आगे की राह तो इस युवा ने स्वयं गढ़ी। मुलायम सिंह और अखिलेश की कार्यशैली में जो फर्क है, वह बिल्कुल स्पष्ट है। अखिलेश के सामने इसके आगे जो राह आएगी, वे स्वयं ही उसे बनाएंगे। वह वंशवाद की नहीं, अपनी सूझबूझ से बनाई गई होगी। राहुल के बारे में यह बात और अधिक सच है। जिस पार्टी को तमाम प्रेक्षकों ने खारिज कर दिया हो, उसमें कैसा वंशवाद? राहुल स्वयं अपनी राह बनाने में लगे हुए हैं। सच तो यह है कि संजय गांधी और राजीव गांधी ने ही विरासत में विशेषाधिकार पाए, बाकी को तो संघर्षों का सामना करके ही जीत हासिल हुई। इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री की गद्दी सेंत-मेंत में नहीं मिली, उन्हें मोरारजी देसाई और अन्य दिग्गजों से जूझना पड़ा था। पी.वी. नरसिम्हाराव ने तो सोनिया गांधी को दरकिनार कर ही दिया था। यह उनकी हिकमत थी कि उन्होंने पार्टी का अध्यक्ष पद हासिल किया और फिर लगातार दो चुनाव जीते। फिर भी न वे स्वयं प्रधानमंत्री बनीं और न राहुल गांधी ने सरकार में कोई पद लिया। आज राहुल विपक्ष से ही नहीं, पार्टी के भीतर भी कदम-कदम पर चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।

प्रसंगवश कह देना होगा कि कोई भी पार्टी वंशवाद से पूरी तरह मुक्त नहीं है। कम्युनिस्टों की बात छोड़ दीजिए। कांग्रेस में सरदार पटेल के पुत्र डायाभाई, पुत्री मनीबेन, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के बेटे मृत्युंजय प्रसाद, लाल बहादुर शास्त्री के बेटे हरिकिशन, अनिल और सुनील और अब नाती सिद्धार्थनाथ सिंह, गोविंद वल्लभ पंत के बेटे के.सी. पंत इत्यादि अनेक उदाहरण सामने हैं जो अपवाद नहीं बल्कि नियम सिद्ध करते हैं। भाजपा में वसुंधरा राजे, यशोधरा राजे, दुष्यंत सिंह, मानवेन्द्र सिंह, अनुराग सिंह, अभिषेक सिंह, पंकजा मुंडे, पूनम महाजन, अनूप मिश्रा, जयंत सिन्हा, पंकज सिंह, दीपक जोशी, सुरेन्द्र पटवा, ओमप्रकाश सकलेचा, दिनेश कश्यप, केदार कश्यप, कल्याण सिंह के पौत्र तथा और भी कितने ही नाम। क्षेत्रीय दलों का तो कहना ही क्या! हां, भाजपा को यह अवश्य बताना चाहिए कि मेनका गांधी और फिर वरुण गांधी का पार्टी में होना क्या वंशवाद नहीं है?

हम मूल विषय पर लौटते हैं। जैसा कि हमने पिछले लेख में कहा था कि कांग्रेस ने अपना वैचारिक आधार छोड़ दिया है। 11 तारीख को चुनाव परिणाम  आने के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के पास यह सोचने का समय और मानसिक अवकाश दोनों होंगे कि पार्टी की वैचारिक नींव को फिर से कैसे मजबूत किया जाए? दरअसल कांग्रेस कभी कैडर आधारित पार्टी नहीं रही, उसका स्वरूप प्रारंभ से ही एक विशाल मंच का रहा जहां लोग आते-जाते रहे। कांग्रेस को इस परंपरा में पूरी तरह न सही कुछ तो संशोधन करना ही होगा। पार्टी के पास आज की तारीख में सत्ता से बाहर रहने के कारण किसी को उपकृत करने की क्षमता नहीं है। इस वजह से पिछले दो-ढाई साल में वरिष्ठ माने जाने वाले कई नेताओं ने भी पार्टी का साथ छोड़ दिया है। इससे पार्टी के भीतर स्वस्थ वातावरण बनाने का एक नया अवसर प्राप्त हुआ है। आज कांग्रेस को सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि वह नई पीढ़ी पर ध्यान केन्द्रित करें। इसके लिए आवश्यक नहीं है कि रातों-रात छात्र संगठन और युवा संगठन में बिना देखे-परखे लोग भर्ती कर लिए जाएं।

राहुल गांधी को पूरे देश से लेकर विचारवान युवाओं की एक नई टीम बनाना होगी  जो अर्थनीति, समाजनीति, कृषिनीति, उद्योगनीति ऐसे विभिन्न मुद्दों पर साफ समझ रखते हों तथा जनता के बीच जाकर अपनी बात दृढ़ता के साथ रख सकते हों। इन युवाओं को मार्गदर्शन देने के लिए मल्लिकार्जुन खडगे जैसे वरिष्ठ नेता कांग्रेस में हैं, उनकी प्रतिभा का संसद के बाहर उपयोग क्यों नहीं किया जा सकता? यही नहीं, राहुल गांधी को स्वयं भी व्यापक धरातल पर अपने संपर्क विकसित करना होंगे। इंदिरा गांधी नाश्ते की मेज पर अक्सर विभिन्न विषयों के अधिकारी विद्वानों से मिला करती थीं। वे महादेवी वर्मा और हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर मोहन राकेश तक को निजी तौर पर जानती थीं। यूपीए-1 और 2 की सबसे बड़ी त्रासदी यही थी कि पार्टी के तीनों बड़े नेताओं का जनता के विभिन्न वर्गों खासकर बुद्धिजीवियों के साथ संवाद पूरी तरह टूट गया था। उनके इर्द-गिर्द के लोग ऐसा चाहते ही नहीं थे। अब जब कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं है तब इस सुझाव पर विचार कर लेने में क्या बुराई है?

सीपीआई और सीपीआईएम या वाममोर्चे की स्थिति और दुर्भाग्यजनक है। ए.बी. बर्धन के निधन के बाद दोनों पार्टियों के पास ऐसा कोई प्रखर नेता नहीं है जो राजनीति और राजनीति से इतर दुनिया जहान के विषयों पर जनता के साथ संवाद स्थापित कर सके। सीपीआईएम ने तीस साल तक पश्चिम बंगाल में राज किया और आज भी केरल व त्रिपुरा में उसकी सरकार है। इसके चलते पार्टी में एक श्रेष्ठताबोध विकसित हो गया है। इसमें शक नहीं कि वाममोर्चे के नेता देश और समाज की परिस्थितियों का गंभीर अध्ययन करते हैं और सिर्फ चुनाव के लिए नहीं, बल्कि वृहतर लक्ष्य की राजनीति करते हैं, किन्तु लंबे समय तक श्रमिक आंदोलन की अगुवाई करते रहने के कारण समाज के अन्य वर्गों से उनका संपर्क धीरे-धीरे कर खत्म होते गया है। यद्यपि लेखकों, कलाकारों की बड़ी संख्या उनके साथ है, तथापि वह ऐसा वर्ग है जो अपनी गोष्ठियों, कार्यक्रमों और सोशल मीडिया पर सक्रियता दिखाकर ही स्वयं को धन्य मान रहा है। उनमें मैदानी कार्यकर्ता लगभग नहीं के बराबर हैं।

यहां देश के कथित बुद्धिजीवी समाज खासकर संस्कृतिकर्मियों की भूमिका पर अनायास ध्यान चला जाता है। आज़ादी के कुछ वर्ष पूर्व बंगाल में जब भीषण अकाल पड़ा तब पीडि़तों को वाणी देने, उनके बारे में जनजागृति करने व उनकी सहायता करने के लिए भारतीय जन नाट्य संघ अर्थात इप्टा ने समयानुकूल बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आज इप्टा के नाटक सडक़ों पर नहीं, प्रेक्षागृह के भीतर हो रहे हैं। शंभु मित्रा, तृप्ति मित्रा, बलराज साहनी, दीना पाठक, चेतन आनंद, देवानंद, उत्पल दत्त और कितने ही नामी-गिरामी कलाकार इप्टा से जुड़े थे। स्वाधीनता के बाद जन आंदोलनों में भाग लेने के कारण बलराज साहनी, कृश्न चंदर, ख्वाज़ा अहमद अब्बास, कैफी आज़मी इत्यादि कलाकारों को तत्कालीन बंबई प्रदेश के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई ने जेल में डाल दिया था। ये तो कुछ उदाहरण हैं जो लिखते-लिखते याद आ रहे हैं।

आज हमारे संस्कृतिकर्मी और अन्य क्षेत्रों के बुद्धिजीवी कहां हैं? कल तक जो कांग्रेस से पद पा रहे थे वे अब मोदीराज में मजे कर रहे हैं। विश्वविद्यालयों में स्वायत्तता तो खत्म हुई ही है, विचार मंथन का भी वातावरण समाप्त हो गया है। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद पर दुनिया के  विश्वविद्यालयों में शोध कार्य हो सकते हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ के किसी कॉलेज-यूनिवर्सिटी में नहीं क्योंकि यहां अध्यापकों का पढऩे-लिखने से रिश्ता खतम ही हो गया है। अपने आपको उदारवादी समाजचिंतक होने का दावा करने वाले बहुत से प्रबुद्धजन दिल्ली, मुंबई, भोपाल, लखनऊ इत्यादि में विराजते हैं, किन्तु इन सबने अपने-अपने गुट बना लिए हैं। सब एक-दूसरे को आगे बढ़ाने में लगे रहते हैं। इनमें शायद ही ऐसा कोई हो, जो देश के नौजवानों के बीच जाकर वर्तमान की स्थितियों पर बातचीत करने का इच्छुक हो। अपने सुख नीड़ से बाहर निकलना इन्हें गवारा नहीं है। ये अधिकतर अंग्रेजी में बात करते हैं, अंग्रेजी में लिखते हैं, अंग्रेजी किताबों पर रॉयल्टी पाते हैं और फिर उम्मीद करते हैं कि देश इन्हें अपने बौद्धिक नेता माने।

इस निराशा भरे माहौल को तोडऩे के लिए राजनीति में युवा पीढ़ी को आगे आना होगा। जनतंत्र है तो राजनीति रहेगी। जिस दिन फासिज्म आ जाएगा उस दिन सब राजनीति समाप्त हो जाएगी। आज विचार का विषय यही है कि राजनीति में नया नेतृत्व कैसे आए?

देशबंधु में 09 मार्च 2017 को प्रकाशित 

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