11 मार्च को पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम सामने आएंगे। कौन जीतेगा, कौन हारेगा, इस बारे में सैकड़ों अनुमान लगाए जा चुके हैं और राजनैतिक पंडित अब भी भविष्यवाणी करते हुए थक नहीं रहे हैं। इस पतंगबाजी में जो मनबहलाव होता है या समय कट जाता है उस पर पिछले तीन-चार हफ्तों में मैं भी अपनी कलम चला चुका हूं। बड़ा सवाल है कि क्या आम चुनाव राजनीति का पर्याय हैं अथवा चुनावों के आगे भी राजनीति है? भारत के राजनीतिक परिदृश्य का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि फिलहाल सिर्फ एक पार्टी है जो चुनावी राजनीति तो कर ही रही है, लेकिन वह उसके लिए एक वृहत्तर लक्ष्य को पाने का माध्यम मात्र है। वह पार्टी है भारतीय जनता पार्टी। अन्य राजनीतिक दल सोचते हैं कि चुनाव जीत लिया याने मैदान मार लिया। वे इसके आगे की नहीं सोचते। क्षेत्रीय दल इस प्रवृत्ति के सबसे अधिक शिकार हैं। एक दौर था जब कांग्रेस पार्टी भी चुनावों को दूरगामी राजनीतिक लक्ष्यों के लिए एक माध्यम के रूप में देखती थी लेकिन इधर पिछले कुछ वर्षों से चुनाव लडऩा ही उसका एकमात्र लक्ष्य रह गया प्रतीत होता है। कम्युनिस्ट पार्टी भी बड़े आदर्शों और नीतियों को लेकर चलती है किन्तु वह सैद्धांतिकी में इस कदर खो जाती है कि व्यवहारिकता का उसे ध्यान ही नहीं आता।
विश्व हिन्दू परिषद, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, बजरंग दल, राष्ट्र सेविका समिति आदि की अपनी-अपनी भूमिकाएं हैं। इनके अलावा शिशु भारती, बाल भारती, किशोर भारती, विद्या भारती, विज्ञान भारती, संस्कार भारती जैसे नामों वाले संगठन भी हैं। आदिवासी क्षेत्रों में काम करने के लिए कल्याण आश्रम, शबरी आश्रम, वनवासी कल्याण परिषद इत्यादि संस्थाएं हैं। सरस्वती शिशु मंदिर पूरे देश में हजारों स्कूलों का संचालन कर रहा है। बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर, प्रणव पंड्या, सदगुरु जग्गी वासुदेव इत्यादि के तथाकथित आध्यात्मिक संगठन भी भाजपा की राजनीति से जुड़े हुए हैं। भले ही इसे वे प्रत्यक्ष में स्वीकार न करते हों। इनके अपने लेखक संघ, अधिवक्ता संघ, वाणिज्य संघ इत्यादि भी हैं। और तो और एक कोई राष्ट्रीय कवि संगम या राष्ट्रीय कविता मंच भी है जहां स्कूली बच्चों को उग्र राष्ट्रवाद की कविताएं लिखने के लिए प्रेरित, प्रोत्साहित और पुरस्कृत किया जाता है। हाल के वर्षों में हनुमान और हनुमान चालीसा का महत्व प्रतिपादन, सुंदरकांड का पाठ करना इत्यादि भी इनकी गतिविधियों का एक प्रमुख अंग बन गया है।
भारतीय जनता पार्टी का अपना राजनीतिक दर्शन है। दीनदयाल उपाध्याय उसके सर्वप्रमुख राजनीतिक भाष्यकार थे। अपने विचारों को आगे बढ़ाने के लिए भाजपा सभा-समितियां करे; लोगों के घरों तक पहुंच कर उन्हें अपने पक्ष में लाए; पर्वों, सभाओं का आयोजन करें; यह सब जनतांत्रिक तरीके से हो और संविधान की मर्यादा के भीतर हो तो इसमें कहीं भी आपत्ति की बात नहीं है। लेकिन जब भाजपा और संघ के लोग अहिंसा छोड़ हिंसा का रास्ता अपनाएं; भाषा की शालीनता छोडक़र अशोभन शब्दावली का प्रयोग करें; समाज के विभिन्न वर्गों के बीच द्वेष का वातावरण बनने लगे; विरोधियों के ऊपर शारीरिक आक्रमण हों; यहां तक कि कारगिल के शहीद की बेटी को गालियां दी जाएं तो तकलीफ होती है, चिंता होती है, आपत्ति होती है। आशंका उपजती है कि यह सब कुछ कहीं भारत के संविधान को ही बदलने की तैयारी तो नहीं है?
देश की जनता का जो बड़ा हिस्सा भाजपा की नीतियों से इत्तफाक नहीं रखता, वह एक समय कांग्रेस की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देखता था। दुख से कहना पड़ता है कि कांग्रेस ने उसे निराश ही किया है। मैंने पिछले वर्षों में कई बार कहा है कि कांग्रेस जब जीतती है तो अहंकार में डूब जाती है और जब हारती है तो यह सोच हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाती है कि एक दिन मतदाता को अपनी गलती का अहसास होगा और वह उसे वापिस जिता लाएगा। एक के बाद एक चुनाव में कांग्रेस को इसीलिए पराभव देखना पड़ रहा है। जिस पार्टी में अनेकानेक विद्वान और विदुषियां हों उस पार्टी की ऐसी हालत! अभी राहुल गांधी अपने दम-खम का परिचय दे रहे हैं, लेकिन क्या इतना पर्याप्त है? मुझे इस समय एक पी. चिदम्बरम ही नज़र आ रहे हैं जो लगातार मोदी सरकार के आर्थिक कुप्रबंधन का वस्तुपरक विश्लेषण कर रहे हैं, तथ्यों और आंकड़ों से बात कर रहे हैं, लेकिन यह काफी नहीं है।
यदि कांग्रेस को देश की सबसे पुरानी पार्टी होने का सम्मान बचाए रखना है तो उसे नए सिरे से अपनी कार्यप्रणाली का विश्लेषण करना होगा। जब भाजपा सत्तर साल की बदहाली का झूठा आरोप कांग्रेस पर लगाती है तब कांग्रेस को तर्कों के साथ आम सभाओं में इन आरोपों का जवाब देना चाहिए। स्वयं राहुल गांधी चुनावी सभाओं में ये तर्क क्यों नहीं रखते? उनके अलावा पार्टी में एक तरफ अनुभवी नेता हैं, तो दूसरी तरफ संभावनाशील युवा नेतृत्व भी है। इन्हें देश के दौरे करना चाहिए, छोटी-बड़ी जैसी भी संभव हो सभाओं में जाकर बात रखना चाहिए तथा कांग्रेस के सामान्य कार्यकर्ता को भी तर्कों से इस तरह लैस करना चाहिए कि वह अपने गांव-मुहल्ले में विश्वासपूर्वक बात रख सके। एनएसयूआई और युवा कांग्रेस के अनपढ़ अथवा कुपढ़ सदस्यों के भरोसे यह काम नहीं होगा। मैं नहीं समझ पाता कि सचिन पायलट जैसे युवा, प्रतिभाशाली, ओजस्वी नेता को कांग्रेस ने राजस्थान तक क्यों समेट दिया है? पायलट, सुरजेवाला, मीनाक्षी नटराजन जैसे युवाओं को पूरे देश में फैल जाना चाहिए था। वरिष्ठजनों में भी पार्टी के पास ऐसे लोग हैं जो जनता को आकर्षित करने की क्षमता रखते हैं। लेकिन टीवी पर जिनके चेहरे देख-देख कर थक चुके हैं, कार्यकर्ताओं के बीच भ्रष्टाचार के लिए जो बदनाम हो चुके हैं और जिनके कारण कांग्रेस बार-बार हारी है, वही अगर पार्टी का चेहरा बने रहे तो फिर कुछ कहना बाकी नहीं रह जाता।
कांग्रेस के पास एक समय नेशनल हेराल्ड, नवजीवन और कौमी आवाज जैसे अखबार थे, जिनकी स्थापना पंडित नेहरू ने की थी। इनका अवसान क्यों हुआ? क्या कांग्रेस आलाकमान ने इस बारे में गंभीरतापूर्वक विचार किया? इसके अलावा कांग्रेस ने जनता के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए और क्या किया? क्या इसका हिसाब उसने रखा है? मुंबई में सुनील दत्त की बेटी प्रिया दत्त हाशिए पर चली गईं और संजय निरूपम जैसे दलबदलू महानगर के सर्वेसर्वा बन गए यह क्यों कर हुआ? क्या पार्टी ने गांधी और नेहरू के विचारों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ किया? कांग्रेस के ऐसे कितने नेता व कार्यकर्ता हैं जिन्होंने सत्य के प्रयोग और भारत की खोज व विश्व इतिहास की झलक जैसी पुस्तकें पढ़ी हों। गांधी और नेहरू ने जितना विपुल लेखन किया उसकी सौ-सौ से अधिक किताबें छप चुकी हैं। उनके बारे में देश-दुनिया के विद्वानों ने जो लिखा उतना विश्व के किसी अन्य नेता पर नहीं लिखा गया। काश कि हरेक कांग्रेसी गांधी-नेहरू पर एक-एक किताब पढ़ लेता तो पार्टी का मजबूत कार्यकर्ता बन पाता।
पंडित नेहरू ने सत्रह साल में देश में ज्ञान और विज्ञान के प्रसार के लिए, कृषि और उद्योग को बढ़ावा देने के लिए, समुद्र से लेकर अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए कितनी तो संस्थाएं स्थापित कीं, कितनी प्रतिभाओं को अवसर दिए, उनके बारे में भी अगर कांग्रेस के लोग थोड़ा-बहुत पढ़ लेते तो अपना उद्धार करते। पर मुश्किल दूसरी है। भाजपा में कांग्रेस से अधिक ही भ्रष्टाचार है, लेकिन उसके लोग ध्येय के प्रति समर्पित हैं। कांग्रेस में चाटुकारों, अवसरवादियों और उचक्कों की बहार आई हुई है। बड़बोले वकील हैं, गालबजाऊ नेता हैं, सत्ता के दलाल हैं, लेकिन नीतियों और सिद्धांतों को समझने वाले, उन्हें आगे बढ़ाने वाले लोग दिन-ब-दिन कम हो रहे हैं या केन्द्र से परिधि पर ढकेले जा रहे हैं। कांग्रेस ने दोस्तों-दुश्मनों के बीच तमीज़ करना बंद कर दिया है। बाकी बातें अगले सप्ताह...।
देशबंधु में 02 मार्च 2017 को प्रकाशित
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