Wednesday 31 May 2017

मोदी सरकार के तीन साल



 प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार के तीन साल 26 मई को पूरे हो गए। अब दो साल का समय बाकी है। जैसा कि ज्ञात है लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी के पास स्पष्ट बहुमत है, इसके बावजूद पार्टी ने चुनाव पूर्व किए गठबंधन को जारी रखा तथा तीन साल की अवधि में इसमें कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं हुआ। यह दिलचस्प तथ्य है कि वैचारिक दृष्टि से शिवसेना भाजपा के सबसे निकट है। इस बीच जो भी तकरार हुई है वह इन दोनों पार्टियों के बीच ही हुई है। अन्य दल मंत्रिमंडल में स्थान मिलने मात्र से संतुष्ट हैं। उनमें से किसी का भाजपा से नीतिगत विरोध है तो वे उसे बर्दाश्त कर रहे हैं। मंत्री पद की महिमा ही कुछ ऐसी है। वे इस हकीकत को भी जानते हैं कि सरकार उन पर किसी भी रूप में निर्भर नहीं है। कुल मिलाकर केन्द्र में एक स्थायी सरकार है और इससे वे लोग अवश्य ही खुश होंगे जो संसदीय व्यवस्था में बाकी सारी बातों को एक किनारे रख स्थायित्व पर बल देते हैं।

मोदी सरकार के तीन साल पर विहंगम दृष्टि डालने पर पहली बात हमें दिखाई देती है कि पार्टी और सरकार दोनों पांच साल के एक कार्यकाल मात्र के लिए सत्ता में आ जाने से संतुष्ट नहीं हैं। उनकी सतर्क निगाहें भविष्य की ओर हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो सरकार व उसके नेता निरंतर चुनाव लडऩे की मुद्रा में हैं। वे अपनी उपलब्धियों का जितना बखान करते हैं उससे कई गुना अधिक पिछली सरकारों की कथित कमजोरियों अथवा गलतियों की बुराई करते हैं। पिछले सत्तर साल में कुछ नहीं हुआ- यह हर भाषण की टेक बन गई है। प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में नरेन्द्र मोदी व उनके सहयोगियों ने बार-बार कांग्रेस मुक्त भारत की बात कही थी। इसे दोहराते हुए वे आज भी नहीं थकते। वे मानो मतदाता के दिमाग में ठूंस-ठूंसकर भर देना चाहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी ही उनका प्रथम और अंतिम विकल्प है। यह भावना जनतंत्र की सेहत पर कितना विपरीत असर डाल सकती है, इस बारे में सोचने की उनकी इच्छा तनिक भी दिखाई नहीं देती।
मोदी सरकार और भाजपा दोनों चूंकि निरंतर चुनाव के मूड में हैं इसलिए स्वाभाविक तौर पर उनका ध्यान अधिकतम प्रचार पर है। यह तो हमने चुनाव के पूर्व देख लिया था कि श्रीे मोदी प्रचार माध्यमों और प्रचार तकनीकी का इस्तेमाल करने में कितने माहिर हैं। सत्ता में आने के बाद इस कला में उन्होंने और महारत हासिल कर ली है। अमेरिका के मेडिसन स्क्वेयर गार्डन से लेकर टोक्यो के स्कूल तक इसके उदाहरण देखने मिले हैं। उन्हें यह भी पता है कि आलोचना भी प्रचार का माध्यम हो सकती है। वे जब अमेरिकी राष्ट्रपति को मिस्टर प्रेसिडेंट न कहकर बराक संबोधित करते हैं तो उसकी चर्चा होती है। वे जब सोने के तार से मढ़ा अपने नाम वाला सूट पहनते हैं तो उसकी भी चर्चा होती है। वे जब दिन में चार बार परिधान बदलते हैं तो उससे भी लोगों का ध्यान आकर्षित होता है। मूल बिन्दु यह है कि लोगों की जबान पर नाम चढऩा चाहिए। फिर सरकार है तो सरकारी तंत्र का इस्तेमाल करने की सुविधा भी है। प्रधानमंत्री भाषण देते हैं तो सौ-सौ चैनलों पर लाइव प्रसारण होता है।
इस आधार पर मान्यता बन गई है कि प्रधानमंत्री बहुत अच्छे संवादी हैं। वे माह में एक बार आकाशवाणी पर मन की बात करते हैं जिसका विस्तार देखते ही देखते दूरदर्शन, एफएम रेडियो और अनेक टीवी चैनलों तक हो चुका है। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने प्रधानमंत्री के संवाद कौशल की प्रशंसा करते हुए उनकी तुलना जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी से तक कर दी है। राष्ट्रपति जी ने इसके एक दिन पहले मीडिया को बहुत सारी नसीहतें दे डाली थीं उसे छोड़िए। मैं समझना चाहता हूं कि क्या एकालाप को संवाद कौशल माना जा सकता है। प्रधानमंत्री अपने भाषणों में हर समय उत्तेजना से भरे नज़र आते हैं। उनको आज तक किसी ने शायद मुस्कुराते हुए नहीं देखा है। वे अच्छे भाषणकर्ता तो हैं, लेकिन आम जनता के साथ उनका संवाद लगभग नहीं है। विगत तीन वर्षों में उन्होंने एक बार भी पत्रकार वार्ता का आयोजन नहीं किया। वे अपने दौरों में भी पत्रकारों को साथ नहीं ले जाते। उनका जब मन होता है तब जनसमूह में किसी से बात कर लेते हैं, लेकिन जनता मिलना चाहे तो उनसे नहीं मिल सकती। इसी बिंदु पर तो हम मनमोहन सिंह की भी आलोचना करते थे।
यह भी गौरतलब है कि जिसे तकनीकी रूप से एनडीए सरकार कहा जाता है वह प्रचलन में मोदी सरकार है। यह धारणा बन गई है कि जो कुछ हैं मोदी हैं और उनके आगे-पीछे, आजू-बाजू, दूर-दूर तक और कोई नहीं है। जब मोदी सरकार कहते हैं तो छोटे-छोटे घटक दलों की बात तो क्या, एक तरह से भारतीय जनता पार्टी भी दरकिनार हो जाती है। दूसरे शब्दों में पार्टी का अस्तित्व ही मानो उन पर निर्भर हो गया है जिसका संचालन वे अमित शाह के माध्यम से करते हैं। अब अगर विपक्ष भी नहीं और सत्ता पक्ष भी नहीं बल्कि सिर्फ एक व्यक्ति पर देश का सारा दारोमदार है तो यह स्थिति किस हद तक स्वागत योग्य और वांछनीय है यह राजनैतिक विश्लेषकों के सोचने का मामला है। यूं तो ब्रिटिश संसदीय परंपरा में प्रधानमंत्री को समकक्षों में प्रथम माना गया है। लेकिन भारतीय संदर्भ में नरेन्द्र मोदी का कोई भी समकक्ष आज दिखाई नहीं देता।
यह अच्छी बात है कि पिछली सरकारों की दिन-रात आलोचना करने के बावजूद बीते वर्षों में जो योजनाएं प्रारंभ हुई थीं उन्हें तिलांजलि नहीं दी गई बल्कि उनको पूरा करने पर ध्यान दिया जा रहा है अटल बिहारी वाजपेयी के समय में स्वर्णिम चतुर्भुज योजना प्रारंभ हुई थी। उसे मनमोहन सरकार ने आगे बढ़ाया था, वह आज भी जारी है। असम में ब्रह्मपुत्र पर देश का सबसे बड़ा पुल यूपीए-2 में शुरु हुआ था, उसे मोदी जी ने पूरा किया। इसी तरह पिछली सरकार में जम्मू- श्रीनगर सड़क पर नई सुरंग का निर्माण प्रारंभ हुआ था, वह भी पूरी हुई और मोदी जी के हाथों उसका उद्घाटन सम्पन्न हुआ। एक समय नरेन्द्र मोदी ने मनरेगा की कटु आलोचना की थी, लेकिन सत्ता में आने के बाद इस कल्याणकारी योजना को समाप्त नहीं किया गया। नरेन्द्र मोदी विशिष्ट पहचान पत्र याने आधार कार्ड के भी खिलाफ थे, लेकिन अब उनकी सरकार इस काम को दस गुने उत्साह से कर रही है। जिस जीएसटी की राह में मोदी जी ने ही रोड़े अटकाए थे उसके लागू होने में भी कुछ ही दिन बाकी हैं।
 यह कोई छुपी हुई बात नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी की राजनीति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बहुमतवादी दर्शन से अनुप्राणित है। भाजपा का शुरू से मानना है कि भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनना चाहिए। अपने इस दर्शन को अमली जामा पहनाने का अवसर उसे 2014 की चुनावी जीत के बाद मिला है। लोकसभा में बहुमत हासिल करने के बाद पार्टी ने अल्पमत की चिंता करना छोड़ दिया है। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने तो राज्यसभा तक की उपादेयता पर प्रश्नचिह्न लगा दिया थाजबकि वे स्वयं उसी उच्च सदन के सदस्य हैं। कांग्रेस को विपक्षी दल की औपचारिक मान्यता न देना, आधार के संशोधन बिल को मनी बिल के रूप में पेश करना ताकि राज्यसभा में उस पर चर्चा न हो सके, लोकपाल की नियुक्ति में विपक्षी दल का नेता न होने का हवाला देकर उसे लंबित करना जैसे कुछ उदाहरण हैं जो सत्तारूढ़ दल के अहंकार को प्रतिबिंबित करते हैं। प्रधानमंत्री होने के नाते नरेन्द्र मोदी यदि ऐसे अवसरों पर उदारता का परिचय देते तो यह उनकी अपनी छवि के लिए बेहतर होता।
 बहुमतवाद के अहंकार का अवांछित रूप कई मायनों में हमें देश की आंतरिक शांति व्यवस्था के संदर्भ में देखने मिल रहा है। इस बारे में कितने उदाहरण गिनाए जाएं- हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या, दादरी में अखलाक खान की हत्या, अलवर में पहलू खान की हत्या, झारखंड में भीड़ द्वारा सात लोगों को मार डालना, जेएनयू प्रकरण, फिल्मों की सेंसरशिप, स्वायत्त संस्थाओं में पदस्थापनाएं, ये सारी घटनाएं देश के राजनैतिक इतिहास में दर्ज हो चुकी हैं और किसी न किसी दिन इनकी समग्र विवेचना होगी। अपने पड़ोसी देशों के साथ प्रधानमंत्री की कोशिशों के बावजूद परस्पर विश्वास के संबंध नहीं बन पा रहे। काश्मीर को अब 'मिनी वार जोन’ की संज्ञा दी जाने लगी है। आने वाले दिनों में प्रधानमंत्री इन सारे प्रश्नों पर सम्यक विचार करेंगे, हम यही उम्मीद उनसे कर सकते हैं। 
देशबंधु में 01 जून 2017 को प्रकाशित 

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