हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा क्षेत्रफल की दृष्टि से एक बड़ा जिला है। इसके अनुरूप कांगड़ा में विविधता भी बहुत है। एक ओर प्रकृति की विभिन्न छटाएं हैं, तो दूसरी ओर ऐतिहासिक स्थल भी कम नहीं हैं। दलाई लामा का विगत साठ वर्षों से निवास होने के कारण इसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति भी मिल चुकी है। यहां की बानी-बोली भी हिमाचल प्रदेश के पूर्वी भाग से कुछ अलग है, यद्यपि एक-दूसरे की बोली सब समझ लेते हैं। यहां विभिन्न धार्मिक पंथों का भी सहअस्तित्व रहा है। शाक्त, शैव, वैष्णव इन सबके उपासना स्थल तो हैं ही, कांगड़ा किले में प्राचीन जैन मंदिर है तथा धर्मशाला के आसपास बौद्ध धर्म की प्रमुखता हो गई है। स्थानीय रीति-रिवाजों में एक दिलचस्प जानकारी चंबा इलाके के बारे में मिली जहां भुट्टे में बाली आने के बाद त्यौहार मनाया जाता है। धर्मशाला के निकट चामुंडा का एक मंदिर है जिसकी मान्यता हाल के सालों में काफी बढ़ गई है। निकट ही एक पुराना शिव मंदिर भी है। समयाभाव के कारण यह सब देखना संभव नहीं था। हम तो मैक्लॉडगंज के बाजार में भी नहीं रुके जहां सैलानी जन तिब्बती दुकानों पर खरीदारी करने टूटे पड़ते हैं।
तीन दिन बाद धर्मशाला से रवाना होने लगे तो होटल के निकट स्थित एक तिब्बती संस्थान देखने अवश्य गए। नोरबुलिंका नामक यह संस्थान तकनीकी प्रशिक्षण, उत्पादन और विक्रय प्रतिष्ठान है। बहुत खूबसूरत कैम्पस है। प्रवेश द्वार से लेकर भीतर सब जगह तिब्बती स्थापत्य कला में निर्मित अनेक भवन हैं। यहां तिब्बती युवा अपने देश के विभिन्न शिल्पों का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं और फिर छोटे-छोटे बटुओं से लेकर ड्राईंग रूम के फर्नीचर तक का निर्माण यहां होता है। इन सामानों की बिक्री के लिए एक बड़ा शो रूम भी सजा हुआ है। इसमें शक नहीं कि यहां प्रशिक्षक और प्रशिक्षार्थी दोनों कुशलतापूर्वक अपना काम करते हैं और निर्मित सामग्री की सुंदरता आपको अनायास ललचाती है। दिक्कत यह कि औसत भारतीय के लिए यहां उपलब्ध सामान की कीमत काफी ज्यादा है। विदेशों से आने वाले पर्यटक ही शायद इनके बड़े ग्राहक होते हैं। वे शायद इस तरह स्वाधीनचेता तिब्बतियों की मदद भी कर रहे होते हैं!
हमारी यात्रा का अगला पड़ाव रिवालसर नामक एक अल्पज्ञात कस्बा था। धर्मशाला से वहां के लिए एक सीधा रास्ता था परंतु गूगल मैप पर देखा कि ज्वालामुखी होते हुए जाने से बीस-पच्चीस किलोमीटर का अतिरिक्त रास्ता तय करना पड़ेगा तो हमने एक बार फिर कांगड़ा का रुख किया। बायपास से गुजरते हुए ज्वालामुखी गए। पाठक इस प्रसिद्ध मंदिर से अवश्य परिचित होंगे। अनेक श्रद्धालु इसे एक चमत्कारी स्थान मानते हैं क्योंकि यहां मंदिर के गर्भगृह में निशिदिन एक ज्वाला प्रज्ज्वलित होते रहती है जिसका स्रोत अज्ञात है। भारत के अनेक धर्मस्थानों की तरह ज्वालामुखी मंदिर के लिए भी एक जनसंकुल बाजार से गुजरना होता है। एक किलोमीटर की चढ़ाई जिसके दोनों तरफ दुकानें और फिर सर्पाकार पंक्ति में सरकते हुए अपनी बारी आने की प्रतीक्षा। ऐसे भी कुछ उद्यमी थे जो रेलिंग फांदकर आगे निकल अपनी वीरता का प्रदर्शन कर रहे थे। बहरहाल हमारी बारी आई। गर्भगृह के बीचों बीच एक कुंड जिसमें अग्निशिखा प्रज्ज्वलित हो रही थी। एक कोने में आले जैसी जगह पर एक और शिखा थी जिसे हिंगलाज देवी का नाम दिया गया था।
भक्तजनों का रेला लगा हुआ था, लेकिन मेरा ध्यान समीप के एक कक्ष पर चला गया जहां दीवार पर बड़े-बड़े हर्फों में लिखा था कि शहंशाह अकबर ने देवी माता को छत्र चढ़ाया था, वह यहां है। मेरे लिए यह एक नायाब जानकारी थी। उस कक्ष में प्रवेश किया, देवी की सामान्य आकार की प्रतिमा वहां थी, सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित, मुख मंडल पर सौम्य भाव और सिर पर मुकुट; बाजू में इबारत थी शहंशाह अकबर का चढ़ाया हुआ छत्र। उसके साथ तीर का निशान था ताकि कोई शक-शुबहा न रहे। मैं यह देखकर किसी हद तक चकित था। एक दिन पहले ही तो नूरपुर के किले में मुसलमान चारण द्वारा भेंट किया गया मंदिर का प्रवेश द्वार देखा था, आज यहां शहंशाह द्वारा चढ़ाया गया मुकुट देख लिया। यात्राओं के दौरान साम्प्रदायिक सद्भाव के ऐसे उदाहरण जगह-जगह देखने मिलते हैं लेकिन जिनकी आंखों पर पट्टी चढ़ी होती है वे इन्हें देखकर भी देखने से इंकार कर देते हैं।
मंदिर में जल रही ज्योति का स्रोत अज्ञात है, किंतु संभव है कि नीचे कहीं प्राकृतिक गैस हो जो इस रूप में प्रकट होती है। बहरहाल मंदिर से निकलते-निकलते काफी समय हो गया था और हमें अभी रिवालसर का रास्ता तय करना था। ज्वालामुखी से कुछ किलोमीटर ही दूर एक ढाबा देखकर रुके। छोटा सा ढाबा लेकिन भोजनालय के संचालक का निवास वहीं था और पूरा परिवार ग्राहकों की सेवा में तत्पर था। आम होटलों से अलग सादा और ताजा भोजन मिला और हम आगे की ओर रवाना हो गए। रिवालसर पहुंचे तब तक शाम घिर आई थी। हिमाचल टूरिज़्म का यहां एक होटल है। हम वहीं ठहरेे। सामने रिवालसर की झील थी और उसके पीछे पहाड़ी पर पद्मसंभव की विशाल आवक्ष मूर्ति। ये पद्मसंभव ही थे जो रिवालसर से निकलकर तिब्बत गए थे और वहां बौद्ध धर्म का प्रचार किया था। इसीलिए तिब्बती बौद्धों के लिए यह पवित्र स्थान है। यहां तिब्बती काफी संख्या में आकर बस भी गए हैं।
होटल के कमरे में बैठे-बैठे क्या करते? हम बस्ती में घूमने निकल गए। यहां होटल रेस्तरां बस एक-दो ही हैं, बाजार भी महज आधा किलोमीटर लंबी सड़क पर बसा हुआ है। वैसी ही दुकानें जो सामान्यत: किसी भी कस्बे में देखने मिल जाती हैं। एकाएक पूजा सामग्री की एक दुकान पर नजर पड़ी, दुकानदार खाली था, सोचा इनके साथ कुछ गपशप करें। इतने में एक पंडित जी सत्यनारायण कथा की पोथी लेने आ गए। उनसे बातचीत होने लगी तो परामर्श मिला कि यहां से लगभग आठ किलोमीटर ऊंचाई पर नैनादेवी का मंदिर है, उसे देखे बिना न जाएं। उनकी सलाह ध्यान में रख ली। गांव में कुछ खास करने को था नहीं। सुबह घूमने के लिए निकल पड़ा। एक गुमटी वाली चाय दुकान पर कुछ तिब्बती महिलाएं बैठी थीं। वहां चाय पीने रुक गया, उन महिलाओं से बात होने लगी। एक ने बताया कि अमेरिका में रहती हैं, बेटे को वहीं पढ़ा रही है, घर रिवालसर में है, साल में एकाध बार आ जाती है। उनकी वाणी में हल्की सी वेदना थी, घर छूटने की वेदना। चाय पीकर मुझसे कहा कि आप हमारे अतिथि हैं, चाय का पैसा मैंने दे दिया है।
इस बीच एक तिब्बती सज्जन आ गए। उनसे कुछ देर वार्तालाप होता रहा। रिवालसर की जलवायु न बहुत ठंडी है न बहुत गरम, इसलिए यहां रहना अच्छा लगता है। कामकाज का कोई बहुत ठिकाना नहीं है। अधिकतर तिब्बती जाड़ों में ऊनी वस्त्र बेचने भारत यात्रा पर निकल पड़ते हैं। कुछ वस्त्र तो तिब्बती स्वयं बुनते हैं, लेकिन अधिकतर माल लुधियाना से खरीदते हैं। कुछ निवासी हिमालय की इन वादियों में थोड़ी बहुत खेती भी कर लेते हैं। इतने में ही एक विदेशी युवक-युवती भी वहां चाय पीने आ गए। स्कॉटलैंड निवासी ऐलेन टीवी स्टूडियो में काम करते हैं। उनकी मित्र बैथ मेडिकल छात्रा है। दोनों दिल्ली से मोटर सायकल लेकर घूमने निकले हैं। वे ब्रेक्जिट से दुखी हैं, स्कॉटलैंड की स्वतंत्रता चाहते हैं और अभी जेरेमी कोर्बिन के वोटर हैं। हमने साथ-साथ चाय पी और मैंने यह कहकर विदा ली कि चाय का पैसा मैंने दे दिया है, आप हमारे अतिथि हैं।
रिवालसर की झील पहाड़ों से घिरी हैं। कभी बहुत सुंदर रही होगी। स्वच्छ, निर्मल जल से भरी हुई। लेकिन इधर इस झील में हर तीसरे साल बड़ी संख्या में मछलियां मरने लगी हैं जिसने पर्यावरणविदों के सामने चिंता और चुनौती पेश कर दी है। अभी दस-बारह साल पहले तक लोग यहां झील में मछलियों की क्रीड़ा देखने ही आते थे, लेकिन झील के आसपास जो बहुत सारा निर्माण हुआ है वह भी कहीं न कहीं इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है। ताजा पानी लाने वाली झीलें शायद बंद हो गई हों, जल निकासी के रास्ते भी रुंध गए होंगे तथा रिहायशी क्षेत्र का अपशिष्ट कुछ न कुछ तो इसमें पड़ता ही होगा। आशंका होती है कि क्या एक और सुंदर झील इस तरह मर जाएगी?
देशबंधु में 31 जुलाई 2017 को प्रकाशित
पुनश्च: 14 सितम्बर को दो संयोग हुए। दिल्ली हवाई अड्डे से जो टैक्सी मैंने ली उसके चालक नरेश हिमाचल कई बार हो आये हैं। उसी शाम पालमपुर, काँगड़ा के ही मूल निवासी और पुराने मित्र सुधीरेन्दर शर्मा से भेंट हुई। दोनों ने यह कथा बताई कि शहंशाह अकबर ने ज्वालामुखी मंदिर की लौ को बुझाने के लिए वहां भारी मात्रा में पानी भरवाया था लेकिन लौ नहीं बुझी तब दैवीय चमत्कार के सामने नतमस्तक होकर अकबर ने दिल्ली से ज्वालामुखी तक नंगे पैर यात्रा की और छत्र चढ़ाया। छत्र सोने का था लेकिन बाद में उसका रूप कब कैसे बदला यह आज भी आश्चर्य का विषय है। पाठक तय करें कि इस किंवदंती पर कितना विश्वास किया जाए।
पुनश्च: 14 सितम्बर को दो संयोग हुए। दिल्ली हवाई अड्डे से जो टैक्सी मैंने ली उसके चालक नरेश हिमाचल कई बार हो आये हैं। उसी शाम पालमपुर, काँगड़ा के ही मूल निवासी और पुराने मित्र सुधीरेन्दर शर्मा से भेंट हुई। दोनों ने यह कथा बताई कि शहंशाह अकबर ने ज्वालामुखी मंदिर की लौ को बुझाने के लिए वहां भारी मात्रा में पानी भरवाया था लेकिन लौ नहीं बुझी तब दैवीय चमत्कार के सामने नतमस्तक होकर अकबर ने दिल्ली से ज्वालामुखी तक नंगे पैर यात्रा की और छत्र चढ़ाया। छत्र सोने का था लेकिन बाद में उसका रूप कब कैसे बदला यह आज भी आश्चर्य का विषय है। पाठक तय करें कि इस किंवदंती पर कितना विश्वास किया जाए।