यह जनश्रुति व्यापक है कि मीरा बाई ने द्वारिका के निकट बेट द्वारिका में जलसमाधि ली थी। इसके अलावा यह जनश्रुति भी है कि मीरा अपने साथ गिरधर गोपाल की एक छोटी सी मूर्ति रखा करती थीं। वह मूर्ति कहां गई, इस बारे में कोई चर्चा अब तक सुनने नहीं मिली थी। लेकिन हिमाचल प्रदेश में जसूर के निवासी हमारे बंधु गोविंद पठानिया ने बताया कि नूरपुर के किले में स्थित बृजराज स्वामी मंदिर में काले पत्थर की जो भगवान कृष्ण की प्रतिमा है वह मीरा बाई की ही प्रतिमा है जो नूरपुर के राजा को किसी संयोग से प्राप्त हो गई थी। यह भी एक किंवदंती ही है और इसका कोई ठोस आधार शायद नहीं है, फिर भी यह एक रोचक जानकारी है जो गोविंद जी ने हमें दी। हम हिमाचल प्रदेश की दो सप्ताह की यात्रा पर थे और पहले पड़ाव में धर्मशाला पहुंचे थे। धर्मशाला से जसूर कोई पैंसठ किलोमीटर है। इंटैक की हिमाचल राज्य संयोजक बहन मालविका पठानिया का आदेश था कि हिमाचल यात्रा में हम उनके घर जरूर आएं।
पालमपुर से पठानकोट के राष्ट्रीय राजमार्ग पर जसूर के लिए चले तो नूरपुर कब गुजर गया पता ही नहीं चला। मालविका और गोविंद जी के साथ चाय पीते-पीते उक्त जानकारी मिली तो हम लोगों का मन नूरपुर किला देखने का हो आया। हम लगभग सात-आठ किलोमीटर पीछे नूरपुर आए, एक संकरे पहाड़ी मार्ग पर चढ़े, तहसील व अन्य सरकारी दफ्तरों की भीड़ से बचते हुए किले तक पहुंचे। यूं तो नूरपुर किला भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा संरक्षित है, लेकिन यह ऐतिहासिक परिसर बहुत कुछ ध्वस्त हो चुका है। मुख्य द्वार से प्रवेश करते साथ भीतर चारों ओर प्राचीन वैभव के भग्नावशेष दिखाई देते हैं। यहां शायद कभी सात तालाब थे, लेकिन अब एक ही बचा है। बायें हाथ पर एक प्राथमिक शाला के खंडहर भी हैं, जिसमें कभी सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश मेहरचंद महाजन ने पढ़ाई की थी। बहरहाल इस विस्तृत परिसर में स्थित मंदिर के प्रांगण में तीन खास बातें नोट करने लायक लगीं।
एक तो बृजराज स्वामी याने भगवान कृष्ण की मूर्ति बहुत आकर्षक और सुंदर है। मंदिर के भीतर कृष्णलीला के भित्तिचित्र भी हैं जो धुंधले पड़ चुके हैं। दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य है कि मंदिर के प्रवेश द्वार का निर्माण राजस्थान से आए एक मुसलमान चारण ने करवाया था। संगमरमर में अपना नाम लिखकर बांकाराय राजभट्ट ने द्वार पर लगा दिया था ताकि भक्तों की चरण-धूलि उनको मिलती रहे। साम्प्रदायिक सौहाद्र्र का यह एक प्रत्यक्ष उदाहरण था। तीसरी खास बात मंदिर के बाहर ही फल-फूल रहा मौलश्री का वृक्ष है जो कि कम से कम चार सौ साल पुराना है। वहां जो सूचनाफलक लगा है उससे ज्ञात होता है कि मंदिर के पहले यह भवन दरबार-ए-खास था जिसकी जगह पर राजा जगतसिंह ने मंदिर स्थापित कर दिया। इस कस्बे का नाम नूरपुर क्यों पड़ा इसकी भी एक कहानी है। बताया जाता है कि जहांगीर के साथ नूरजहां यहां आई थीं और उनके सम्मान में पुराना नाम बदलकर नूरपुर नाम रख दिया गया था। जहांगीर के आदेश पर जगतसिंह ने उस दौरान कभी कंधार की लड़ाई जीत कर अपनी वीरता का परिचय भी दिया था। नूरपुर पठानकोट से मात्र पच्चीस किलोमीटर दूर है तथा प्राचीन इतिहास में रुचि रखने वालों के लिए यह देखने योग्य स्थान है।
नूरपुर और जसूर की हमारी यह संक्षिप्त यात्रा कई कारणों से आनंददायक सिद्ध हुई। सबसे पहले तो मालविका और गोविंद जी के घर हम हिमाचली भोजन का आस्वाद ले सके। छत्तीसगढ़ में जैसे मसूर की दाल का बटकर बनाया जाता है, वैसे ही हिमाचल में राजमा अथवा काले चने का मदरा बनाया जाता है। इसमें तेल का इस्तेमाल नहीं होता बल्कि दही तपने से निकले घी में ही दाल पक जाती है। दूसरा व्यंजन है तेलियामाह जो माह की दाल को सरसों के तेल में खूब पकाने से बनता है। हिमाचल के इस पश्चिम अंचल में धान की पैदावार खूब होती है और यहां सुबह-शाम भोजन में चावल ही खाया जाता है।
रोटी या फुलके मेहमानों के आने पर ही बनाते हैं। एक दिलचस्प बात यह हुई कि गोविंदजी पचास साल पहले रायपुर के इंजीनियरिंग कॉलेज में पढऩे आए थे और पढ़ाई बीच में छोड़कर घर वापिस चले गए थे, लेकिन रायपुर की स्मृतियां उनके हृदय पर आज भी अंकित हैं। बातों-बातों में कुछ परिचितों के नाम निकले तो मैंने फोन पर गोविंद जी से उनकी बात कराई। यह एक मजेदार प्रसंग था।
जसूर में ही हमें मसरूर के मंदिर की जानकारी मिली। तापमान कम था फिर भी उमस बहुत ज्यादा थी। इस असुविधा को झेलते हुए हम कांगड़ा जिले के इस दूरस्थ गांव पहुंचे। मसरूर एक अद्भुत स्थान है। यहां एक विशालकाय पहाड़ी को काटकर आज से हजार वर्ष पूर्व शिव मंदिर का निर्माण किया गया था। एक तरह से मसरूर को एलोरा के विश्वप्रसिद्ध मंदिर की लघु प्रतिकृति कहा जा सकता है। किंतु विडंबना यह हुई कि किन्हीं कारणों से मंदिर का निर्माण अधूरा रह गया।
दूसरे सन् 1905 के भूकंप में मंदिर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया। इसलिए अब आप जो देखते हैं वे मुख्यत: टूटकर गिरे हुए शिलाखंड ही हैं जिन पर उकेरी गई आकृतियां कलाकारों की कल्पना और कौशल का परिचय देती हैं। मसरूर मंदिर एकांत में एक टीले पर अवस्थित है। यह एक पुरातात्विक धरोहर है और नोट करें कि ग्राम पंचायत का दफ्तर मंदिर परिसर में ही लगता है। इस प्राचीन धरोहर की ओर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा रहा है, यह दुख की बात है।
मसरूर से हम कुछ किलोमीटर चलकर वापिस राष्ट्रीय राजमार्ग पर कांगड़ा की ओर बढ़े। कांगड़ा हिमाचल का एक बड़ा जिला है। यहां कांगड़ा का किला, उसके भीतर स्थित जैन मंदिर तथा कांगड़ा शहर में बृजेश्वरी देवी का मंदिर मुख्यत: ये दो आकर्षण हैं। हम कांगड़ा फोर्ट पहुंचे तब तक शाम हो चुकी थी। प्रवेश टिकट लेकर भीतर तो गए, लेकिन सूनापन देखकर किले में ऊपर चढऩे का साहस नहीं जुटा पाए। यह किला एक ऊंची पहाड़ी पर स्थापित है और इसे देखकर ग्वालियर के किले की कुछ-कुछ याद आती है क्योंकि वहां भी ऐसी ही सीधी सपाट ऊंची प्राचीर है।
हम दिन भर की यात्रा में धूप और उमस से बेहाल हो चुके थे, इसलिए बृजेश्वरी देवी के मंदिर नहीं गए, लेकिन धर्मशाला लौटते हुए कांगड़ा नगर के बीच से गुजरने का मौका मिला। ऐसा अनुमान हुआ कि यहां एक ही मुख्यमार्ग है, वह भी इतना संकरा कि दो वाहन किसी तरह निकल जाएं। शहर में भारत की हर शहर की तरह खूब भीड़-भाड़ थी और हमें बाहर निकलने में ही कोई आधा घंटा लग गया होगा। आज इतना ही। धर्मशाला और आसपास की बात अगले हफ्ते...।
देशबंधु में 17 अगस्त 2017 को प्रकाशित
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