22 जुलाई की दोपहर धर्मशाला में विमान उतरा। जैसे ही बाहर निकले एक सुखद ताजगी ने छू लिया। हवा में एक खनक थी और थी हल्की सी शीतलता। शहरी जीवन में नित दिन धूल और धुएं से भरी हवा पीने वाली देह के लिए यह एक स्फूर्ति भरा अहसास था। लगभग दस वर्ष पूर्व जब अंडमान-निकोबार की यात्रा पर गए थे तब भी ऐसा ही अनुभव हुआ था। हवाई अड्डे से अपने होटल की ओर बढ़े तो सड़क के बांयी ओर काफी दूर तक एक वेगवती नदी साथ चलती रही। हमारे वाहन चालक रामकुमार उर्फ बंटी ने नदी का नाम पूछने पर हमारी ज्ञान वृद्धि की कि नदी नहीं, खड्ड है। खड्ड याने पहाड़ों से उतरकर आता झरना। जिनकी आंखें बरसाती नदियों के सूखे विस्तार देखकर पथरा चुकी हों उनके लिए तो यह नदी ही थी जिसका पाट लगभग चालीस-पचास फीट चौड़ा रहा होगा।बहरहाल कोई आधा घंटा बाद हम अपने होटल पहुंचे जो कहने को तो धर्मशाला में ही था, लेकिन था शहर से कोई चार किलोमीटर दूर, शीला चौक नामक स्थान पर। मैंने बहुत जानना चाहा कि ये देवी कौन थी जिनके नाम पर इस जगह का नाम पड़ा, लेकिन उस बस्ती के लोग भी यह नहीं बता पाए।
होटल में व्यवस्थित हो जाने के बाद हमारे पास अंधेरा होने के पहले तीन-चार घंटे का समय था। होटल वालों ने बताया कि आप इस समय का सदुपयोग क्रिकेट स्टेडियम देखने में कर सकते हैं। चलो यही सही। वाहन भी था, सारथी भी। घुमावदार संकरे रास्ते से गुजरते हुए क्रिकेट स्टेडियम पहुंच गए। वहां पहुंचकर ध्यान आया कि यह तो वही स्थान है जिसके कारण भाजपा के क्रिकेट प्रेमी युवा सांसद अनुराग ठाकुर पिछले दिनों में चर्चित हुए थे। स्टेडियम के भीतर दर्शनीय कुछ भी नहीं था, लेकिन पहाड़ी पर ऊंचे बसे इस स्थान का आकर्षण यह था कि यहां से धौलाधार की पर्वत माला और उसकी छाया में बसे गांवों का विहंगम दृश्य देखा जा सकता था। एक तरफ ऊंची-ऊंची पहाड़ियां, दूसरी ओर हरे-हरे कटोरों के बीच बसे गांव। देवदार और चीड़ के गगनचुंबी वृक्ष, हिमालय की चोटियों पर पिघलती बर्फ से बने झरने, तेज गति से नीचे उतरते हुए। मन करे कि यहीं बैठे रहो। लेकिन कब तक। वहां बैठने की भी कोई व्यवस्था नहीं थी। फिर एक जगह देखा कि कार में बैठे कुछ युवक किसी नशीले द्रव्य का सेवन कर रहे थे। उन्हें भी तफरीह के लिए इससे बेहतर जगह और क्या मिलती!
यहां एक रोचक प्रसंग हुआ जिसने हमारे अगले दिन का कार्यक्रम बना दिया। मैं श्रीमती जी का फोटो लेना चाहता था, मुझे रोककर उन्होंने मेरा ही फोटो ले लिया। मुझे अपनी ही तस्वीर अच्छी लगी और मन में न जाने क्या आया कि शीर्षक के साथ फेसबुक पर साझा कर दी। थोड़े समय बाद ही संदेश आया- ललित जी, आप धर्मशाला में है, कब आए हैं, मुलाकात होना चाहिए। यह संदेश था हिन्दी के वरिष्ठ लेखक और बालगीतों के लिए विशेषकर प्रसिद्ध प्रत्यूष गुलेरी का। मुझे भी ध्यान नहीं था कि वे धर्मशाला में रहते हैं। खैर! उनके साथ फोन नंबर का आदान-प्रदान हुआ, बातचीत भी हो गई, अगली शाम उनके घर आने का न्योता भी मिल गया। उनसे ही सलाह करके तय हुआ कि दलाईलामा के निवास मैक्लॉडगंज से लौटते हुए शाम की चाय उनके साथ होगी।
हम जब धर्मशाला पहुंचे थे तब मौसम खुला हुआ था, लेकिन रात अच्छी-खासी बारिश हुई थी, सुबह भी रिमझिम हो रही थी। हम छाता-बरसाती लेकर घूमने के लिए निकल पड़े। धर्मशाला पार कर बारह-पन्द्रह किलोमीटर दूर मैक्लॉडगंज पहुंचे। वहां तिब्बती दुकानों की गहमागहमी के अलावा कोई विशेष आकर्षण प्रतीत नहीं हुआ तो तंग सड़कों से निकलते हुए दो किलोमीटर आगे भागसू नाग की तरफ बढ़ गए। वहां भी खूब भीड़ और धक्का-मुक्की। एक जगह गाड़ी रोककर पैदल चले। भागसू नाग का मंदिर प्रसिद्ध है, उसके साथ किंवदंतियां जुड़ी हुई है। मंदिर पुराना ही होगा, लेकिन बाहर से एकदम नया। संगमरमर की टाइल्स चारों तरफ, ऊपर जाने के लिए संकरी सीढ़ियां। वहां भीगते हुए जाने का मन नहीं हुआ।
कुछ और आगे चलकर भागसू जलप्रपात पर हम पहुंच गए। वह एक अत्यंत मनोहारी दृश्य था। सामान्य तौर पर जलप्रपात लगभग नब्बे डिग्री के कोण पर उतरते हैं, लेकिन भागसू प्रपात अनुपम था। बहुत ऊपर से जलराशि धीरे-धीरे तिरछे नीचे उतरती है मानो कोई आरामकुर्सी पर पैर पसार कर लेटा हो। इस कोण से उतरने पर जलप्रपात को एक लंबा आकार मिल जाता है। नीचे उतरकर वह बांयी ओर मुड़कर फिर एक खड्ड का स्वरूप ले लेता है। भागसू प्रपात को हम बहुत देर तक मुग्धभाव से निहारते रहे। मन तो बहुत था कि नीचे उतरें, लेकिन भीड़ बहुत थी। नीचे प्रपात के किनारे लोग बाकायदा पिकनिक मना रहे थे और वह हमें बहुत रुचिकर नहीं लगा। वापिस लौटे तो भागसू नाग मंदिर के सामने एक सार्वजनिक तरणताल (स्विमिंग पूल) देखा। पहाड़ से भीतर-भीतर बहकर आते झरने का हिमशीतल जल उसमें प्रवाहित हो रहा था और लोग मजे में स्नान कर रहे थे।
यहां से लौटते हुए पहुंचे दलाईलामा के मंदिर। यह दलाईलामा का स्थायी निवास है। यहां एक बौद्ध मंदिर है। प्रवेशद्वार के पास तिब्बत राष्ट्रीय शहीद स्मारक स्थापित है। उसकी पृष्ठभूमि में एक दीवाल है जिसमें तिब्बती जनता पर चीनी सत्ता द्वारा किए गए अत्याचार का एक विस्तृत फलक उत्कीर्ण है। इस स्मारक के अलावा दलाईलामा मंदिर में हमें और कोई उल्लेखनीय बात नहीं लगी।
मैक्लॉडगंज से धर्मशाला लौटते समय एक जगह एक छोटा रास्ता मुड़ता है जो नद्दी सनसेट पाइंट की ओर ले जाता है। जैसा कि नाम से पता चलता है यह जगह सूर्यास्त देखने के लिए प्रसिद्ध है, जैसे पचमढ़ी में धूपगढ़ की चोटी। तीन-चार किलोमीटर के इस रास्ते पर होटल ही होटल हैं। बारिश थम नहीं रही थी इसलिए सूर्यास्त देखने का सवाल ही नहीं था। थोड़ा समय हमने इस जगह पर बिताया और लौटते हुए बीच में डल लेक नामक स्थान पर रुके। नाम तो डल लेक है, लेकिन श्रीनगर की डल झील से इसका कोई मुकाबला नहीं है। जानकारी मिली कि यह एक प्राचीन झील है और इसका धार्मिक महत्व चला आ रहा है किन्तु हमें यहां भी कोई विशेषता नज़र नहीं आई। झील प्राकृतिक ही होगी, किन्तु इसका 'आधुनिक' सौन्दर्यीकरण कर दिया गया है। अच्छी बात यह है कि चीड़ के वृक्षों का एक घना झुरमुट झील के पीछे एक परदा सा बनाता है और डल लेक जैसे स्थिर जल का एक मंच बन जाती है।
अब बारी थी धर्मशाला में प्रत्यूष गुलेरी जी से मिलने की। हम रास्ता न भटक जाएं इसलिए वे मुख्य सड़क पर हमें लेने आ गए थे। गुलेरी जी और श्रीमती कुसुम गुलेरी ने बेहद आत्मीयता के साथ हमारा स्वागत किया। उनके साथ ढेर सारी साहित्य चर्चा हुई। वे अक्षरपर्व के नियमित पाठक हैं तो अन्य चित्रों के साथ मेरे द्वारा उन्हें अक्षरपर्व की प्रति सौंपते हुए भी एक फोटो खिंच गया। अपने घर में गुलेरी जी ने एक सुंदर सा बगीचा लगा रखा है सो उसे भी हमने बहुत रुचि के साथ देखा, लेकिन बात यहां खत्म नहीं हुई।
गुलेरी निवास में एक अचरज हमारी प्रतीक्षा में था। हमारी भेंट यहां रामबाई से हुई। रामबाई के बच्चे कुसुमजी को बड़ी मां कहकर पुकारते हैं। गुलेरी परिवार इन बच्चों को घर के बच्चों को अपने बच्चों जैसा ही दुलार देता है। रामबाई का पति धर्मशाला में कहीं मजदूरी करता है और वह स्वयं छोटे-मोटे कामों में इनका हाथ बंटा देती है। गुलेरी निवास के आऊट हाउस में ये लोग रहते हैं। रामबाई शिवरीनारायण के पास टुंड्री गांव की मूल निवासी है। अपने बच्चों का भविष्य संवारने के लिए विगत अनेक वर्षों से वे इस सुदूर प्रदेश में रह रहे हैं। रामबाई के चेहरे पर दैन्य की कोई झलक नहीं दिखती। उसे जब मालूम पड़ा कि हम लोग रायपुर से आए हैं तो वह बेहद खुश हुई।
देशबंधु में 24 अगस्त 2017 को प्रकाशित
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