स्मार्ट सिटी...स्मार्ट सिटी... स्मार्ट सिटी...। जहां-जहां घोषणा हुई है, जनता बेहद प्रसन्न है कि उनके शहर की तकदीर संवरने वाली है। वह गर्व के उस क्षण की प्रतीक्षा कर रही है, जब उसे 'स्मार्ट सिटी’ के नागरिक होने का खिताब मिल जाएगा। जनता से कई गुना अधिक खुशी तो उनको हो रही है जिन पर स्मार्ट सिटी योजना लागू करने की जिम्मेदारी आन पड़ी है। सड़कें चौड़ी करना है, फुटपाथ बनाना है, स्काई वॉक का अजूबा तैयार करना है, बिजली के खंभे और ट्रांसफार्मर हटाना है, भूमिगत वायरिंग करना है, वाई-फाई का प्रबंध करना है, अपशिष्ट याने कचरा हटाना है, और ऐसे तमाम काम हैं। सिर उठाने की भी फुरसत नहीं है। अखबारों की सुर्खियां चीखती हैं- अपने रायपुर में, अपने जबलपुर में, हमारे इंदौर में, हमारे भोपाल में क्या-क्या होने जा रहा है। अखबारों का शहर के प्रति ऐसा प्यार देखकर मन जुड़ा जाता है। इन्हें कितनी फिक्र है शहर की! अफसरों के चेहरों पर चमक आ गई है। नेतागण खिल-खिल पड़ रहे हैं। मुझे 'काला पत्थर’ फिल्म में नीतू सिंह का संवाद याद आता है- बाबू, मैं अंगूठी नहीं, सपने बेचती हूं। स्मार्ट सिटी नीतू सिंह की वही तिलस्मी अंगूठी है। शहर के सारे कष्टों का निवारण हो जाएगा।
लेकिन फिर ऐसा क्यों है कि स्मार्ट सिटी योजना पूरे शहर के लिए नहीं है, रायपुर हो कि इंदौर, भोपाल हो कि भुवनेश्वर। अभी तक जितने नगर इस योजना में लिए गए हैं, उनमें से प्रत्येक का दो-ढाई प्रतिशत के लगभग क्षेत्रफल ही योजना के अंतर्गत आएगा। मैंने एक-दो साल पहले लिखे अपने लेख मेें इसका उल्लेख किया था (देखिए, देशबन्धु 30 जुलाई 2015 और 4 फरवरी, 10 फरवरी 2016 )। अभी मेरे सामने इंडियन एक्सप्रेस का 14 जून 2017 का अंक है। 135 वर्ग किमी क्षेत्र वाले भुवनेश्वर में मात्र 4 वर्ग किमी क्षेत्र को स्मार्ट सिटी बनाया जाएगा, जबकि पुणे की स्थिति तो बदतर है। महानगर का क्षेत्रफल 276 किमी है, जबकि स्मार्ट सिटी के अंतर्गत सिर्फ 3.6 वर्ग किमी को लिया गया है, जो क्षेत्रफल का 1.3 प्रतिशत है। इसके आगे भी पढ़ लीजिए। भुवनेश्वर के लिए एशियाई विकास बैंक (एडीबी) से चार हजार करोड़ का ऋण इस काम हेतु लिया गया है, जबकि पुणे के लिए बाईस सौ करोड़ रुपए। इस भारी कर्ज की रकम कौन पटाएगा? जनता ने अभी तक यह सवाल नहीं उठाया है। उसे अभी अंगूठी की करामात पर विश्वास है। तिलिस्म टूटेगा, भरम टूटेगा, तब तक अंगूठी बेचने वाले कोई और नुस्खा लेकर आ जाएंगे।
समझना होगा कि स्मार्ट सिटी से हमारा आशय आखिरकार क्या है। इसकी तस्वीर ऐसी हो सकती है- शहर की बसाहट तरतीबवार हो, जैसी कि फिल्मों में विदेशों के दृश्यों में दिखाई देती है। सड़कें साफ-सुथरी, गड्ढामुक्त हों। कचरे का कहीं नामोनिशान न हो। खेल के मैदान और बाग-बगीचे हों। यातायात के साधन चौबीस घंटे सुलभता से उपलब्ध हों। दैनिक जरूरतों का सामान आस-पड़ोस में मिल जाए। सड़क पर निकलते वक्त दुर्घटना का डर न हो। मनोरंजन के लिए छविगृह और नाट्यशाला हों। स्कूल-अस्पताल पहुंचना आसान हो। बाज़ार में धक्का-मुक्की न हो। बिजली और टेलीफोन के तार टूट कर गिरने का भय न हो। रेलवे स्टेशन व बस स्टैंड सुव्यवस्थित हों। रेस्तोरां हो या चाट की दूकान-गुणवत्ता व स्वच्छता का ख्याल हो व उस पर निगरानी रखी जाए। वाहनों की पार्किंग में सुगमता हो। नालियां बदबू से बजबजाती न हों। विरासत महत्व की इमारतों का बाकायदा संरक्षण हो और नगरवासियों के साथ प्रवासी भी उन्हें देखकर आनंदित हों। इतना ही नहीं, नगर में अतिथि सत्कार की परंपरा हो, दूरदराज गांव-गांव से भी लोग आएं तो उनके साथ बदसलूकी न हो, रोजगार की तलाश जिन्हें खींचकर ले आती है, उन्हें भी आश्रय का भरोसा हो। हम जो स्मार्ट सिटी बनाने जा रहे हैं क्या उनमें इन सारी बातों की गारंटी होगी?
यह सवाल आवश्यक है और उत्तर की मांग करता है। सेमिनार देश की एक प्रतिष्ठित पत्रिका है। इसमें हर माह किसी एक विषय पर केन्द्रित विद्वतापूर्ण लेख प्रकाशित होते हैं। इस पत्रिका का जून अंक मेरे सामने है, जो बंगलुरु की दुर्दशा पर केन्द्रित है। पत्रिका ने शीर्षक में ही कटाक्ष किया है- 'बैंगलोर्स ग्रेट ट्रांसफार्मेशन’ याने 'बंगलोर का अपूर्व कायाकल्प’। ध्यान दीजिए कि सेमिनार ने सरकारी नाम बंगलुरु के बजाय जबान पर चढ़े प्रचलित नाम बंगलोर का ही प्रयोग किया है। संदेश साफ है कि नाम बदल देने से किसी स्थान की किस्मत नहीं बदल जाती। इस संदर्भ में ताजा उदाहरण गुडग़ांव का है। किसी जमाने में गुड़ की मंडी थी तब उसका नाम बदलना किसी को नहीं सूझा। कारपोरेट के चमचमाते दफ्तर खुल गए, आलीशान इमारतें खड़ी हो गईं, अभिजात कालोनियां बन गईं तो नीति-निर्माताओं को गुरु द्रोणाचार्य याद आ गए और देहाती नाम वाले गुडग़ांव का नामकरण संस्कृतनिष्ठ गुरुग्राम हो गया। हरियाणा सरकार को ध्यान नहीं रहा कि द्रोणाचार्य महाभारत में धर्मराज नहीं, कौरवों के साथ थे। जो भी हो, नाम बदलने के बाद भी गुडग़ांव स्मार्ट सिटी तो नहीं बन पाया। वहां की अव्यवस्था के किस्से आए दिन सुनने मिलते हैं।
सेमिनार के बंगलोर पर केन्द्रित अंक में भी ऐसी ही कुछ विसंगतियों पर विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है। यह सबको पता है कि बंगलौर को भारत की सिलिकॉन वैली की संज्ञा दी जाती है। विगत दो दशकों के भीतर यहां आईटी कंपनियों के बड़े-बड़े प्रतिष्ठान स्थापित हुए हैं जिनमें नौकरी करने भारी संख्या में देश भर से युवजन आते रहे हैं। यह शहर एक तरह से भारत की स्वप्न नगरी बन गया है। कहना होगा कि बंगलोर या बंगलुरु में उद्यमशीलता का वातावरण काफी पहले से था। भारत सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के अनेक महत्वपूर्ण कारखाने यहां स्थापित किए थे। आईटी कंपनियों के आने के बाद औद्योगिक विकास की यह गति कई गुना बढ़ गई, लेकिन दूसरी ओर नगरीय प्रशासन का ढांचा लगभग नेस्तनाबूद हो गया। यूं तो नया हवाई अड्डा बन गया, मेट्रो रेल आ गई, सड़कों का जाल बिछ गया, लेकिन शहर की पहचान खो गई और उसे किसी कदर मरने के लिए छोड़ दिया गया।
बंगलुरु की नगर निगम दिवालिया हो चुकी है तथा विकास के नाम पर चारों ओर अराजकता है। जिस शहर में दक्षिण भारत के सेवानिवृत्त लोग शांत स्वच्छ वातावरण में बुढ़ापा बिताने आते थे, वहां का वायु प्रदूषण आज दिल्ली से मुकाबला कर रहा है। नगर की हरियाली खत्म हो रही है और यहां की झीलों में जहरीले रसायनों से उपजा सफेद झाग सड़कों पर बहता है। विडंबना यह है कि बंगलुरु में कोई एक सरकार नहीं है। वहां नगर निगम है, विकास प्राधिकरण है, औद्योगिक क्षेत्र विकास मंडल है, अंतरराष्ट्रीय विमानतल विकास अभिकरण है, बंगलोर-मैसूर अधिसंरचना गलियारा विकास प्राधिकरण है, बंगलोर एजेंडा टॉस्क फोर्स है और है बंगलोर ब्लू प्रिंट एक्शन ग्रुप। दो-चार सरकारें और भी होंगी तो हमें आश्चर्य नहीं होगा। हां! एक बंगलोर विजन ग्रुप भी है। ये सब मिलकर या अलग-अलग क्या कर रहे हैं, यह शायद कोई नहीं जानता। बंगलौर या बंगलुरु चूंकि देश का पांचवां बड़ा महानगर है तथा नागरिक हस्तक्षेप की एक लंबी परंपरा वहां रही है इसलिए जो तमाम गड़बडिय़ां हो रही हैं उन पर सवाल उठाने वालों की कमी नहीं है। सेमिनार पत्रिका का अंक निकला है तो स्थानीय स्तर पर भी बात होती ही होगी, यह कल्पना हम कर सकते हैं।
इस मुखर विरोध का कोई असर होता तो बात समझ में आती। हमें तो ऐसा लगता है कि सरकार कहीं भी, किसी की भी हो, जनता की चिंता करना सबने छोड़ दिया है। यदि बंगलोर जैसे जागरुक शहर में नागरिकों की आवाज अनसुनी कर दी जाती है तो भोपाल, रायपुर या बिलासपुर की क्या औकात! हर जगह देखने मिलता है कि राजनीतिक प्रभु अपने विश्वस्त अधिकारियों के भरोसे नीति-निर्माण और क्रियान्वयन दोनों का काम छोड़कर निश्चिंत हो जाते हैं। जिन्हें शहर की जनता महापौर या पार्षद पद के लिए चुनती है उनकी भी कोई सुनवाई नहीं होती। उसका एक बड़ा कारण है कि हमारे तथाकथित जनप्रतिनिधि चुनाव तो जीत जाते हैं, लेकिन नगर निवेश हो या अन्य कोई नीति, उनकी समझ का दायरा बेहद सीमित होता है। ये जिस विषय को नहीं जानते, उसे सीखने की भी कोई इच्छा उनकी नहीं रहती। उनके संकीर्ण स्वार्थ की पूर्ति हो जाए, इतनेे मात्र से वे प्रसन्न रहते हैं। ऐसी स्थिति में कोई भी शहर सही अर्थों में स्मार्ट सिटी बने भी तो कैसे?
देश के जाने-माने वास्तुविद (आर्किटेक्ट) गौतम भाटिया अनेक वर्षां से कहते आए हैं कि हमारे नगरों की जो पारंपरिक बसाहट है वह देश की जलवायु के माफिक है। इसमें अनेक सुविधाएं हैं और प्रदूषण फैलने की कम से कम गुंजाइश है। दूसरे प्रसिद्ध वास्तुविद ए.जी.के. मेनन दिल्ली में पुरातत्व महत्व की इमारतों व स्थलों को बचाने में जुटे हुए हैं। वयोवृद्ध वास्तुविद बालकृष्ण दोशी ने ऐसी डिजाइनों के भवन बनाए हैं जिनमें पंखे व ए.सी. की आवश्यकता नहीं पड़ती। इंग्लैण्ड से आकर बसे स्वर्गीय लॉरी बेकर ने स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्री का उपयोग कर सस्ती कीमत पर रिहायशी मकान बनाए, लेकिन हमें शायद इन सबकी आवश्यकता नहीं है। हमें तो ऐसे कथित विशेषज्ञ चाहिए जो समुद्र की लहरों को गिनते हों और उससे प्राप्त धनराशि सही जगह तक पहुंचा सकें।
देशबंधु में 03 अगस्त 2017 प्रकाशित
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