इक्कीस साल पहले गुजरात में पोरबंदर से सोमनाथ की ओर जाते हुए बीच में माधवपुर का समुद्रतट देखा था। सड़क के साथ-साथ कई मील तक चलता हुए चांदी जैसी रेत का विस्तार। चेन्नई का प्रसिद्ध मरीना बीच भी उसकी तुलना में फीका था। उस दृश्य को देखकर मन में भाव आ रहा था कि शांति के साथ अवकाश के कुछ दिन बिताने के लिए इससे बेहतर स्थान और क्या होगा। ऐसी ही कुछ भाव रिवालसर से नैनादेवी के मंदिर जाते समय मन में आया। नौ किलोमीटर की चढ़ाई का रास्ता था, धीमी गति से एक के बाद एक मोड़ पार करते हुए गाड़ी आगे बढ़ रही थी। एक तरफ पहाड़ियां, दूसरी ओर वादियां। रास्ते में छोटे-छोटे गांव थे, घर के बगीचों में मुख्यत: नाशपाती के फल लगे हुए थे। किसी-किसी जगह से रिवालसर और नीचे बसे अन्य गांवों का मनमोहक नज़ारा दिख रहा था। जानकारी मिली थी कि इस रास्ते पर सात झीलें हैं, लेकिन तीन झीलें ही दिखाई दीं।
यहां पर्यटक अधिक नहीं आते, फिर भी गांवों में कई जगह स्थानीय निवासियों ने अपने घर के साथ होम स्टे का सरंजाम कर रखा है। थोड़ी-थोड़ी दूर पर होम स्टे के साईन बोर्ड देखने में आ रहे थे। अगर कभी अवसर मिला तो कुछ दिन के लिए यहां आकर रहूं और कुछ लिखना-पढ़ना करूं, यह विचार बार-बार मन में उठता रहा। इसी बीच कुंत भोज्य झील दिखाई दी। अनियमित आकार की काफी लंबी और बड़ी झील। इसके साथ किंवदंती जुड़ी है कि माता कुंती की प्यास बुझाने के लिए अर्जुन ने तीर मारा था जिससे यह झील निर्मित हुई। हिमाचल के पहाड़ों में ऐसी दंतकथाएं हर जगह सुनने मिलती हैं। बहरहाल इस झील को देखकर मुझे बरबस बस्तर में नारायणपुर के पास स्थित छोटे डोंगर की झील का स्मरण हो आया। वही अनियमित आकार, उसी तरह पहाड़ की गोद में लेटी, हरियाली का आवरण ओढ़े हुए।
उल्लेखनीय है कि अधिकतर पर्यटक रिवालसर की उस झील की सुंदरता का वर्णन जानकर आते हैं जो नीचे गांव में स्थित है जिसका वर्णन हम पिछली किश्त में कर आए थे। आश्चर्य हुआ कि नैनादेवी मंदिर के रास्ते में पड़ने वाली बाकी झीलों का उल्लेख क्यों नहीं होता? यदि बीती रात रिवालसर के बाजर में मिले पंडित जी ने सलाह न दी होती तो हम इस मनोरम दृश्य को देखने से वंचित हो जाते। हम सुबह तैयार होकर मनाली के लिए निकल ही रहे थे, लेकिन तभी सोचा कि इतनी दूर आए हैं, एक नया स्थान देख लेने में क्या हर्ज है। सो हमने गाड़ी का रुख विपरीत दिशा में मंदिर की ओर कर दिया। उत्तर भारत में नैनादेवी के कई मंदिर हैं। हिमाचल में ही इसी नाम से एक प्रसिद्ध मंदिर और भी हैं, किन्तु रिवालसर का यह मंदिर अल्पज्ञात है।
ऊंची पहाड़ी पर एक समतल मैदान पर मंदिर है। यहां भी बदस्तूर बाज़ार है। कोई तीस-चालीस दुकानें होंगी। अधिकतर दुकानदार रिवालसर से यहां आते हैं। उनके लिए शायद यह आमदनी का पूरक स्रोत है। नवरात्रि जैसे अवसरों पर संभव है कि भीड़ होती हो, लेकिन सामान्य दिनों में श्रद्धालुओं की संख्या भी नगण्य होती है। हम जब पहुंचे तो कोई खास हलचल नहीं थी। मंदिर का स्वरूप आधुनिक है, बल्कि कहना होगा कि इसे आधुनिक स्वरूप दे दिया गया है। ठीक वैसे ही जैसे आजकल अधिकांश उपासना स्थलों में हो रहा है। यदि प्राचीनता के कोई चिन्ह हैं तो उनका न तो सम्मान होता, न उन्हें संभाल कर रखा जाता। इस दृष्टि से नैनादेवी मंदिर में संतोष की बात थी कि प्राचीन मंदिर के कुछ भग्नावशेष गर्भगृह के बाहर हॉल में तरतीब से रखे हुए थे। यह दिलचस्प था कि श्रद्धालु इन क्षत-विक्षत पाषाण खंडों पर भी रोली-अक्षत चढ़ाकर श्रद्धा निवेदित कर रहे थे।
ज्वालामुखी की तरह नैनादेवी में भी मंदिर के प्रांगण में एक बकरा बंधे देखा। भक्तगण उस पर पानी चढ़ा रहे थे। यह व्यापार मेरी समझ में नहीं आया। मंदिर के बाहर एक दुकानदार ने बताया कि देवी के मंदिरों में विभिन्न पशुओं की बलि आज भी चढ़ाई जाती है और यह बकरा किसी शगुन संकेत के लिए बांधा हुआ है। हमारी रुचि इस विषय के विस्तार में जाने की नहीं थी। दो-तीन घंटे का समय बीत चुका था, अभी मनाली का सफर तय करना था। हम वापिस लौटे, रास्ते में दो-तीन अन्य दर्शनीय स्थल भी थे, उन्हें भी छोड़ दिया। रिवालसर लौटकर मंडी होते हुए मनाली के पथ पर वाहन चल पड़ा। मंडी हिमाचल का एक प्रमुख नगर है। हमने बायपास पकड़ा और शहर बाजू में छूट गया। अभी तक पहाड़ी झरने याने खड्ड और झीलें देखते आए थे, अब अवसर था नदी से मिलने का।
हिमसुता व्यास नदी मंडी शहर के बीच से गुजरती है। मंडी से कुल्लू और कुल्लू से मनाली तक हमने व्यास के किनारे-किनारे सफर तय किया और उसे विभिन्न मुद्राओं और भावों में देखा। व्यास नदी भाखड़ा परियोजना का अंग है। उस पर मंडी से मनाली मार्ग पर कुछ ही आगे बैराज निर्मित है। यहां मानो नदी अनमने भाव से अनुशासन में बंधी हुई है। बैराज होने के कारण नदी में जल तो था लेकिन प्रवाह नहीं। लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़े, व्यास की छटाएं देखकर लगातार मुग्ध होते रहे। कहीं पहाड़ों से झरने आकर उसमें विलीन हो रहे हैं, कहीं नदी में लहरें उठ रहीं हैं, कहीं वह चट्टानों से टकराकर आगे बढ़ रही है, कहीं उसका उद्दाम वेग देखकर भय लगता है। व्यास नदी की जो चंचलता है वह उसे न जानने वालों के लिए सांघातिक हो सकती है, इसीलिए पूरे रास्ते भर जगह-जगह चेतावनी देते हुए बोर्ड लगे हैं-नदी के पास न जाएं, जल स्तर कभी भी बढ़ सकता है।
मंडी से मनाली का रास्ता यूं भी निरापद नहीं है। एक तरफ नदी है, तो दूसरी तरफ पहाड़। जिनसे भूस्खलन की आशंका हमेशा बनी रहती है। भूगर्भ शास्त्री बताते हैं कि हिमालय अपेक्षाकृत एक युवा पर्वतमाला है और उसकी संरचना काफी नाजुक है। बरसात जैसे कारणों से कभी भी पहाड़ियां टूटने लगती हैं। कुल मिलाकर प्राकृतिक सुषमा से भरपूर इस रास्ते पर संभलकर चलने में ही भलाई है। इसीलिए मुझे तेज रफ्तार से निकलते हुए बाइकर्स के झुंड के झुंड देखकर बहुत हैरानी हुई। ये युवाहृदय बाइकर्स रोमांच के लिए मनाली के आगे रोहतांग दर्रा पार कर लद्दाख तक जाते हैं। तेज रफ्तार का रोमांच अवश्य होता होगा, लेकिन क्या उसके लिए हिमालय का यह पथ उपयुक्त है? यह सवाल मन में उठता है। उन्हें देखकर यह विचार भी उठा कि इनका सारा ध्यान तो अपनी गाड़ी की रफ्तार और ट्रैफिक पर है, इस मार्ग पर जो नैसर्गिक सौंदर्य बिखरा है उसे तो ये देख ही नहीं पाते, फिर इतनी दूर आकर पैसा और पेट्रोल खर्च करने का क्या लाभ है?
मानता हूं कि मनुष्य में खतरों से खेलने की सहजात प्रवृत्ति होती है। उत्साह और उमंग से भरे ये बाइक सवार भी शायद उसी के वशीभूत हो इस तरह देशाटन पर निकलते हैं, लेकिन क्या उनकी बाइक की गति और शोर से हिमालय की सेहत को आघात नहीं पहुंचता होगा! खैर! हम अपनी रफ्तार से मनाली की ओर बढ़ रहे थे, नए-नए दृश्यों को आंखों से पी रहे थे। एक जगह तीन किलोमीटर लंबी एक सुरंग हमने पार की। जल्दी ही कुल्लू आ गया। यहां भी हमने शहर से गुजरने के बदले बाइपास से जाना बेहतर समझा। बाइपास पर सड़क के दोनों तरफ कालीनों और दुशालों का बाजर सजा हुआ था। हिमाचल में ऊन की शॉल कई जगहों पर बनती है पर सबकी अपनी-अपनी खासियत होती है। हमारी शापिंग करने में कोई रुचि नहीं थी सो बिना रुके आगे बढ़ गए। इस बीच सेब के बगीचे नजर आने लगे थे। एक तरफ व्यास नदी और दूसरी तरफ सेबों से लदे वृक्ष। अब हम कुछ ही समय में मनाली पहुंचने वाले थे।
देशबंधु में 07 सितम्बर 2017 को प्रकाशित
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