Wednesday 27 September 2017

हिमाचल प्रदेश- अंतिम: स्वर्ग से वापस धरती पर


भारत पर हुकूमत करने आए अंग्रेजों ने वैसे अपनी पहली राजधानी कलकत्ता में बसाई थी, लेकिन इंग्लैंड, स्काटलैण्ड के ठंडे इलाकों से आए हुक्मरानों को यहां का मौसम रास नहीं आता था, खासकर गर्मियां बिताना दूभर हो जाता था। इसलिए 1880 में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड डफरिन की इच्छानुसार हिमालय की पहाड़ियों में स्थित शिमला में भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाई गई और बड़े लाट साहब के लिए वायसरीगल लॉज का निर्माण किया गया। आजादी के बाद इसे राष्ट्रपति निवास का नाम मिल गया, लेकिन 1962 में जब डॉक्टर राधाकृष्णन राष्ट्रपति बने तो उन्होंने इस विशाल भवन का बेहतर उपयोग करने की बात सोची। राष्ट्रपति निवास इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज याने भारतीय उच्चतर अध्ययन संस्थान नामक नवस्थापित संस्था को सौंप दिया गया। शिमला में वायसरीगल लॉज, राष्ट्रपति निवास अथवा आईआईएएस इस नगर की सबसे उत्तम पहचान है और मुझ जैसों के लिए आकर्षण का सबसे बड़ा केन्द्र भी है।

यूरोप के जैकोबियन शिल्प में निर्मित तिमंजिला भवन का एक हिस्सा ही आम जनता के लिए खुला है। बाकी में संस्थान की नियमित गतिविधियां संचालित होती हैं। यहां देश से विभिन्न अनुशासनों के ख्यातिप्राप्त विद्वान फैलोशिप पर आते हैं और शांत सुरम्य वातावरण में बैठकर चिंतन, मनन, लेखन करते हैं। ग्राउंड फ्लोर पर तीन भव्य कक्ष जनता के लिए खुले हैं और उनसे भारत के दो सौ साल के इतिहास की एक मुकम्मल तस्वीर देखने मिल जाती है। पहले कक्ष में लाट साहब की ऊंची कुर्सी है जहां उनके सामने हाजिरी बजाने गुलाम देश के बड़े-बड़े लोग आते थे। अंग्रेजी राज में क्या-क्या हुआ, इसका एक परिचय यहां चित्रों और अन्य सामग्रियों से मिलता है। दूसरे कक्ष में स्वाधीनता संग्राम की झलक मिलती है। इस कक्ष में आकर पता चलता है कि हमारे महान स्वाधीनता सेनानियों ने आज़ादी के लिए कितने कष्ट उठाए और कितनी कुर्बानियां दीं। तीसरे कक्ष में स्वतंत्र भारत ने विगत सत्तर वर्षों में जो कुछ हासिल किया है उसके साक्ष्य प्रदर्शित हैं। हमें देखकर अच्छा लगा कि हबीब तनवीर का चित्र भी इस कक्ष में प्रदर्शित था। उल्लेखनीय है कि कुछ समय पहले तक गोपालकृष्ण गांधी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष थे।
राष्ट्रपति निवास में एक प्रशस्त उद्यान है। इसके भीतर एक गुलाब वाटिका भी है, जिसमें कोई सौ किस्म के गुलाब थे। इसके बीचोंबीच मोइनजोदड़ो से प्राप्त नृत्य करती युवती की प्रतिमा की लोहे से निर्मित एक कलात्मक अनुकृति है। यह अनुकृति रेल की पांत के दो टुकड़ों के सहारे खड़ी की गई है। वह इस बात का प्रतीक है कि मोइनजोदड़ो की खोज एक रेलवे इंजीनियर ने की थी। कलाकार सुबोध केरकर ने यह कृति बनाई है। उनका कहना है कि मोइनजोदड़ो एक ओर हमें भारत उपमहाद्वीप के प्राचीन इतिहास से जोड़ता है; दूसरी ओर वह स्थान चूंकि अब सिंध और पाकिस्तान में चला गया है इसलिए बंटवारे की भी याद दिलाता है। इस बगीचे में एक वृक्ष है जिसे बाकायदा विरासत वृक्ष के रूप में नामांकित किया गया है। यह डेढ़ सौ वर्ष पुराना वृक्ष पीपल की प्रजाति का दुर्लभ यलो पॉप्लर है।
हमारे पास दिनभर का समय था। और कहां जाएं? पुराने मंदिर बहुत देख लिए थे। नए मंदिरों में कोई रुचि नहीं थी। चैल और कुफरी के नाम सुन रखे थे। चैल दूर था, सोचा कुफरी तक हो आते हैं। आना-जाना व्यर्थ हुआ, लेकिन कुछ नई बातें समझ आईं। कुफरी में एक जगह रुकने के बाद ऊपर डेढ़ किलोमीटर घोड़े से जाना होता है। ऊपर कोई मंदिर है और कुछ एडवेंचर स्पोर्ट वगैरह भी होते हैं। सैकड़ों घोड़े और साइस पर्यटकों को ऊपर ले जाने के लिए तैयार खड़े थे। बातचीत में मालूम हुआ कि घोड़े और उनके मालिक तो शिमला के नीचे के गांवों के हैं, लेकिन साइसों में बड़ी संख्या नेपालियों की है और हाल के बरसों में कश्मीरी साइस भी यहां रोजी-रोटी के लिए आने लगे हैं। शिमला और कुफरी के बीच कहीं-कहीं तंबू लगाकर बैठे हिमाचल के पहाड़ी आदिवासी भी मिले। हर तंबू में एक याक तो था ही जिसकी सवारी का आनंद लिया जा सकता था। वे अपने हाथों बुने ऊनी वस्त्र भी बेच रहे थे।
तीन दिन पहले मनाली के हिडिंबा मंदिर में जैसलमेर के जिन युवा भाई-बहनों की टोली हमें मिली थी वह कुफरी में भी मिल गई। उन्होंने ही हमें देखा। नमस्कार का आदान-प्रदान हुआ। हम गाड़ी में बैठकर चलने ही वाले थे कि उनमें से एक युवक ने आग्रह किया कि उनके साथ एक कप चाय पीकर जाएं। इस प्यार भरे आग्रह को कैसे टालते! पास की एक दूकान में चाय पीने बैठे, कुछ देर उन लोगों के साथ गपशप हुई, वे पढ़ाई पूरी कर राज्य सेवा में नौकरी पा चुके हैं,लेकिन यूपीएससी की तैयारी कर रहे हैं। थोड़ी देर के बाद हम शिमला की ओर लौट पड़े। अब हमें सिर्फ एक स्थान देखना बाकी था और वह था शिमला का माल रोड। अंग्रेजों के समय में विकसित हर हिल स्टेशन पर एक माल रोड होता था जहां सिर्फ पैदल चलने की ही अनुमति होती है। नगर की व्यवसायिक गतिविधियों का यह प्रमुख केन्द्र भी होता है। आजकल शहरों में जो माल बन रहे हैं संभव है कि उसकी व्युत्पत्ति माल रोड से ही हुई हो।
शिमला का माल रोड काफी ऊंचाई पर है और इसकी एक विशेषता यह है कि यहां पहुंचने के लिए लिफ्ट उपलब्ध है। बीस-पच्चीस बरस पहले जब शायद वीरभद्र सिंह ही मुख्यमंत्री थे तब लिफ्ट लगाई गई थी। नीचे एक स्थान पर सेंट्रल पार्किंग की व्यवस्था है। इसमें चार-पांच सौ कारें खड़ी हो सकती हैं। आधा फर्लांग चलकर लिफ्ट तक आइए। दो लिफ्टें हैं जो ऊपर एक स्तर तक जाती हैं वहां फिर सौ कदम चलकर दूसरी लिफ्ट से और ऊपर जाना होता है जो माल रोड पर खुलती है। एक बार का भाड़ा दस रुपया, लेकिन बुजुर्गों को तीस प्रतिशत की छूट है। मुझे यह देखकर कौतूहल हुआ कि स्थानीय निवासी घर से चक्के वाले सूटकेस याने स्ट्राली लेकर आते हैं। बाजार में सौदा सुलुफ कर सूटकेस में भर लेते हैं। इससे सामान का बोझ ढोने की मेहनत काफी बच जाती होगी।
माल रोड पर दूकानें ही दूकानें हैं और भीड़-भाड़ का कहना ही क्या। बारिश होने लगे तो भीड़ में थोड़ी कमी होने लगती है। इस सड़क पर अंग्रेजों के समय का गेटी थिएटर है जिसमें अब एक संग्रहालय है। जहां बाजार खत्म होता है वहां रिज रोड है, जो और ऊंचाई पर है और जहां से शिमला का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। कुल मिलाकर चलहकदमी करने के लिए अच्छी जगह है। बशर्तें आप भीड़ से परेशान न हों। हम यहां एक ठीक-ठाक दिखने वाले रेस्तरां में खाना खाने गए तो यह जानना दिलचस्प लगा कि इस होटल में भी नीचे की सड़क तक आठ मंजिल की एक लिफ्ट लगी हुई है। मॉल रोड पर घूमते हुए ही जैसलमेर की युवा टोली हमें एक बार फिर मिली। हम चाय तो साथ-साथ पी ही चुके थे। उन्होंने हमें फास्ट फूड के लिए आमंत्रित किया जिसमें हमारी रुचि नहीं थी, लेकिन इनसे तीन-तीन बार मिलना वाकई एक दिलचस्प संयोग था। 
अगली सुबह हम दिल्ली के लिए निकल पड़े। फिर सेव और आलूबुखारे के बगीचे देखे। सड़क किनारे सजी फलों की दूकानें देखीं। पहाड़ी सड़कों के मोड़ धीरे-धीरे कम होते गए। ऊंचे-ऊंचे वृक्ष पीछे छूटते चले गए। हम जैसे पिछले दस दिन से किसी सम्मोहन में बंधे हुए थे। पिंजौर (चंडीगढ़) के कुछ पहले सीधी-सपाट सड़क मिलना शुरू हुई, चारों तरफ फैला मैदान सा दृश्य देखा और सम्मोहन एकबारगी टूटा। हम स्वर्ग से वापस धरती पर आ गए। पिंजौर के बाद पंचकुला बायपास से होते हुए दिल्ली की तरफ बढ़े। रास्ते में पानीपत मिला। याद आया कि यह ख्वाजा अहमद अब्बास का जन्मस्थान है। उनकी स्मृति को नमन किया। शाम बीतते न बीतते दिल्ली पहुंच गए। मानसपटल पर इस बीच सहस्त्रों छबियां अंकित हुईं जिनमें से कुछ आपके साथ साझा कर लीं। (समाप्त)
देशबंधु में 28 सितम्बर 2017 को प्रकाशित 

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