हिमालय की गहन कंदराओं में एक से एक पहुंचे हुए, कई सौ वर्ष आयु वाले ऋषि मुनि तपस्या में लीन रहते हैं, ऐसा लोक विश्वास फीका भले पड़ गया हो, समाप्त नहीं हुआ है। अनेक विद्वानों व लेखकों ने ऐसे तपस्वियों से प्रत्यक्ष भेंट होने के संस्मरण भी लिखे हैं। इस विश्वास में जो अतिरंजना है उसे हटा दें तब भी इतना तो सत्य है कि सांसारिक मोह-माया त्याग कर जीवन संध्या बिताने के लिए हिमालय की शरण लेने की लंबी परंपरा अपने यहां विद्यमान रही है। बांग्ला के लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार प्रबोध कुमार सान्याल ने 'महाप्रस्थान के पथ पर' तथा 'देवतात्मा हिमालय', अपनी इन दो पुस्तकों में ऐसे सन्यासियों से भेंट-वार्तालाप के उल्लेख किए हैं। मुझे स्मरण नहीं कि 1936-37 में प्रकाशित महाप्रस्थान के पथ पर में लेखक ने निकोलाई रोरिक का किया है या नहीं, लेकिन जब वे हिमालय में परिभ्रमण कर रहे थे, तब यह ऋषितुल्य रूसी नागरिक मनाली के पास एक बहुत छोटे गांव में रहते हुए एकांतिक साधना में लीन था।
अपने होटल में आसपास के रमणीक स्थलों की पूछताछ करते हुए नग्गर नामक स्थान का नाम सुना तो लगा कि यह नाम तो पहले सुना हुआ है। क्यों, किस कारण से, दिमागी घोड़े दौड़ाए तो याद आया कि इसी नग्गर में तो सुप्रसिद्ध चित्रकार निकोलस रोरिक रहते थे, जो अपना देश रूस छोड़कर भारत में ही बस गए थे और जिन्होंने हिमालय पर सैकड़ों चित्र बनाए थे। मैं उन्हें ऋषितुल्य कह रहा हूं तो महज इसलिए नहीं कि उन्होंने भारत को अपना घर बना लिया था, कि उनके बेटे स्वेतोस्लाव रोरिक भी अभिनेत्री देविका रानी से विवाह कर यहीं बस गए थे, कि उन्होंने हिमालय पर चित्रों की अनुपम श्रंृखला रची थी, बल्कि इसलिए कि उन्होंने विश्व के देशों के बीच कला व संस्कृति के आदान-प्रदान व संरक्षण के द्वारा विश्वशांति स्थापित करने का संदेश दिया था। उनके प्रयत्नों से सांस्कृतिक विरासत की रक्षा हेतु एक अंतरराष्ट्रीय संधि भी हुई, जिसे रोरिक पैक्ट के नाम से जाना गया। उल्लेखनीय है कि निकोलोई रोरिक की पत्नी इलीना या हैलेन की गहरी रुचि भारत अथवा एशिया की आध्यात्मिक परंपरा में थी। वे रामकृष्ण परमहंस व स्वामी विवेकानंद से प्रेरित थे तथा रवीन्द्रनाथ ठाकुर व जवाहरलाल नेहरू उनके मित्र थे।
नग्गर में रोरिक एस्टेट को देखना एक दुर्लभ, प्रीतिकर व शिक्षाप्रद अनुभव था। वे सौ साल पूर्व जब यहां आकर बसे, मनाली और नग्गर छोटे गांव रहे होंगे। एस्टेट का क्षेत्रफल काफी बड़ा है, लेकिन उसमें अब अनेक तरह की गतिविधियां संचालित हो रही हैं। लोककलाओं का एक संग्रहालय है, एक शिल्प प्रशिक्षण केंद्र भी शायद है, लेकिन सबसे बढ़कर आकर्षण का केंद्र है रोरिक निवास। यह काष्ठ निर्मित दुमंजिला भवन है। नीचे तीन कमरों में रोरिक द्वारा अंकित हिमालय की अनेक तस्वीरें प्रदर्शित हैं, ऊपर उनके शयन कक्ष आदि हैं। निवास स्थान से कुछ सीढ़ियां नीचे उतरकर नीले रंग के फूलों वाली क्यारियों के बीच स्वेतोस्लाव व देविका रानी का स्मृति कक्ष है, जिसमें उनके व परिवार के अनेक फोटोग्राफ हैं, देविका रानी के फिल्मी कैरियर को दर्शाते चित्र, पेस्टर आदि भी संजोए गए हैं। इस कक्ष के बाद कुछ और सीढ़ियां उतरकर निकोलाई रोरिक की समाधि है। इस पूरी संपदा का प्रबंध एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है। रोरिक एस्टेट में ही हमें भुज से आए पर्यटकों का एक दल मिल गया। वे सब कच्छ के समुद्रतट से हिमाचल में ट्रैकिंग करने आए थे। दल के सभी सदस्य वकील थे, अधिकांश महिलाएं थीं और इनमें सबसे ज्येष्ठ ट्रैकर महोदय की आयु मात्र साठ वर्ष थी।
यहां नग्गर के बारे में जानकारी देना उचित होगा कि यह कुल्लू रियासत की पुरानी राजधानी है। नग्गर में इसलिए एक किला भी है। कोई भारी-भरकम संरचना नहीं, बस एक गढ़ी समझ लीजिए। यह एक संरक्षित स्मारक है और फिलहाल यहां हिमाचल पर्यटन द्वारा होटल व रेस्तोरां का संचालन किया जाता है। पत्थर से बनी इस गढ़ी की सबसे बड़ी खासियत दो ऊंचे-पूरे दरवाजे हैं। ये विशाल द्वार देवदार के समूचे वृक्ष को काटकर बनाए गए हैं याने इनमें कही भी जोड़ नहीं हैं। इन्हें काटा-तराशा भी गया है सिर्फ कुल्हाड़ी से, अन्य किसी उपकरण का प्रयोग नहीं किया गया है। दोनों दरवाजे अनगढ़ स्वरूप में हैं, उन पर कोई नक्काशी आदि नहीं है। हां, भीतर जो झरोखे, खिड़कियां आदि हैं, उनमें कलाकारों को अपना हुनर दिखाने का मौका अवश्य मिला है। नग्गर में रोरिक एस्टेट व कैसल यही दो मुख्य दर्शनीय स्थल हैं, किंतु यहीं से एक रास्ता एक और लुभावनी जगह तक ले जाता है, जिसके बिना यह वर्णन अधूरा रहेगा।
नग्गर से लगभग ग्यारह किमी की दूरी पर एक जलप्रपात है जो नजदीकी गांव जाणा के नाम से ही प्रसिद्ध प्राप्त है। इस रास्ते पर सेव के बागीचे तो थे, गोभी के खेत भी देखने मिले। पहाड़ों में जहां कहीं भी समतल जगह मिली, वहां गोभी की खेती हो रही थी और शहर के बाजार तक ले जाने के लिए मिनी वाहन तैयार थे। अनुमान न था कि पहाड़ों पर गोभी की खेती देखने मिलेगी। मजे की बात थी कि खड्ड के पार भी खेत थे और रज्जु मार्ग याने रोपवे से ट्रॉली में भरकर गोभी व सेव इस तरफ लाए जा रहे थे। इस सड़क पर मिनी वैन ही चल सकती थीं। मार्ग की चौड़ाई इससे अधिक नहीं थी। बहरहाल, जाणा गांव से कोई डेढ़-दो किमी आगे बढ़कर हम जलप्रपात तक पहुंचे। गाड़ी रुकी नहीं कि एक अल्हड़ युवती पास आकर ड्राइवर को समझाने लगी- गाड़ी यहां मोड़कर ऐसे पार्किंग करो। फिर हमसे मुखातिब हुई- आप ऊपर जाकर वाटरफॉल देखिए। वहां से बहुत सुंदर दिखता है। मैं लड़का साथ कर देती हूं। आपको सब बता देगा। लौटकर यहीं खाना खाईए। चावल, राजमा, रोटी सब्जी सब बन जाएगा। एक सांस में वह इतना सब बोल गई। हम उसकी वाकपटुता पर विस्मित थे। उसे समझाया कि ऊपर नहीं जाएंगे, खाना भी नहीं खाएंगे, घूमकर आते हैं, चाय तुम्हारी दूकान पर ही पिएंगे।
जाणा में एक नहीं, दो जलप्रपात हैं। दोनों के बीच लगभग दो सौ मीटर का फासला होगा। यह स्थान लगभग सुनसान था। टूरिस्ट सीजन में यात्री आते होंगे। हम पगडंडी पर यूं ही घूमने निकल पड़े। पहले प्रपात पर उस अल्हड़ युवती का होटल था तो दूसरे के निकट भी एक होटल खुला हुआ था। जलप्रपात चित्ताकर्षक थे। ऊपर कोई सौ फीट से पानी गिर रहा था। संकरे चौरस भूभाग से रास्ता बनाते हुए नीचे फिर और छोटे जलप्रपात बन रहे थे। हमने थोड़ी देर प्रकृति की शोभा का आनंद लिया, चाय पी और वापिस नग्गर होते हुए मनाली की ओर चल पड़े।
हिमाचल यात्रा में मनाली के बाद हमारा आखिरी पड़ाव शिमला था। इस बार मनाली से कुल्लू तक का सफर राजमार्ग पर नहीं, बल्कि प्रीणी से नग्गर होकर चलने वाले मार्ग पर तय किया। यद्यपि सड़क प्रशस्त नहीं थी, लेकिन यातायात भी उतना सघन नहीं था। ट्रक तो नहीं के बराबर थे। करीब डेढ़ घंटे में कुल्लू पहुंच गए। उसके आगे मंडी। मंडी में व्यास नदी को अलविदा कहकर सुंदरनगर होते हुए शिमला की ओर बढ़े। जैसे-जैसे शिमला पास आते गया, ट्रैफिक का दबाव भी बढ़ते गया। शिमला पहुंचने के बाद हमें अपने होटल तक पहुंचने में एक घंटे से अधिक समय लग गया। गूगल मैप सड़कें तो ठीक दिखा रहा था, लेकिन दो-तीन बार वन वे ट्रैफिक के चलते रास्ता बदलना पड़ा। हिमाचल पर्यटन के होटल पीटरहाफ में ठहरना था, वहां तक गाड़ी ले जाना दुश्वार हो गया, क्योंकि उसी दिन उसी जगह प्रदेश भाजपा की कार्यकारिणी की बैठक वहां प्रारंभ हुई थी। नेताओं और उनके पिछलग्गुओं की गाड़ियों के कारण कदम-कदम पर रुकना पड़ रहा था। होटल के भीतर भी इतनी भीड़ कि चैक-इन कर अपने कमरे तक पहुंचना मुश्किल।
होटल पीटरहाफ इसलिए कि कभी यहां इसी नाम के ब्रिटिश गवर्नर का निवास था। पुराना भवन आग में स्वाहा हो गया था। उसकी जगह उसी आकृति में नई इमारत तामीर की गई। डबल बैडरूम के बराबर का बाथरूम और बैडरूम ऐसा जिसमें चार पलंग लग जाएं। सभा-सम्मेलन के लिए बड़े-बड़े हॉल तो समझ आते हैं, लेकिन जो राजसी भवन जलकर खाक हो चुका था, उसे नए सिरे से, यथावत बनाने में मुझे कोई बुद्धिमानी प्रतीत नहीं हुई। खैर, हमें एक दिन और दो रातें काटना थीं, इस पर ज्यादा दिमाग नहीं खपाया। हमें अच्छा यह लगा कि शिमला का सबसे प्रसिद्ध स्थान वायसरीगल लॉज, जिसमें इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज स्थापित है, होटल के बिलकुल सामने थे। बारिश न हो तो टहलते हुए चले जाओ। मेरी राय में शिमला में अगर कोई जगह देखने योग्य है तो वह यही है।
देशबंधु में 21 सितम्बर 2017 को प्रकाशित
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