Wednesday, 24 January 2018

संसदीय सचिव याने सत्ता सुख

                                      
 कल 26 जनवरी है। गणतंत्र दिवस। भारतीय संविधान को अंगीकार तथा आत्मार्पित करने का दिन। उसकी रक्षा के लिए शपथ लेने का दिन। इस अवसर पर अपने देश की राजनीतिक व्यवस्था की एक बड़ी विडंबना मुझे ध्यान आती है। एक तरफ तो हमने इंग्लैण्ड की वेस्टमिंस्टर प्रणाली याने संसदीय जनतंत्र को अपनाया; दूसरी ओर हमारा सत्ताधारी वर्ग अमेरिका की राष्ट्रपति प्रणाली की शैली के अनुसार आचरण कर रहा है। इंग्लैण्ड में संविधान की धाराओं से कहीं अधिक महत्व संसदीय परंपराओं को दिया जाता है जो पिछली कई शताब्दियों में धीरे-धीरे कर विकसित हुई है। वहां संसद सर्वोच्च है और कार्यपालिका उसके प्रति उत्तरदायी। इन परंपराओं का पालन करने में यदि कुर्सी जाती है तो चली जाए, राजनेता उसकी चिंता नहीं करते। मार्गरेट थैचर का उदाहरण सामने है। उन्हें आयरन लेडी की उपाधि मिली थी, लेकिन छोटी सी बात पर उन्होंने प्रधानमंत्री पद छोड़ दिया था। अभी हाल में डेविड कैमरून ने ब्रेक्सिट के मामले में हार होने पर तुरंत इस्तीफा दे दिया और 10 डाउनिंग स्ट्रीट से अपना सामान खुद उठाकर पीछे के दरवाजे से चलते बने।
इसके बरक्स अमेरिका में राष्ट्रपति सर्वोच्च है। वह अमेरिकी सांसद या अमेरिकी कांग्रेस के प्रति उत्तरदायी नहीं है। उसके निर्णयों पर संसद द्वारा रोक लगाने के प्रावधान अवश्य हैं, किन्तु राष्ट्रपति चाहे तो वीटो का इस्तेमाल कर संसद के निर्णय को दरकिनार कर सकता है। तथापि राष्ट्रपति पूरी तरह से निरंकुश हो जाए ऐसा भी नहीं है। अमेरिका की अदालतें कार्यपालिका से बड़ी हद तक स्वतंत्र रहकर और उसके दबाव में आए बिना फैसले करती हैं। यह तब जबकि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति में राष्ट्रपति की पसंद सर्वोपरि होती है। रिपब्लिकन राष्ट्रपति हो तो किसी रिपब्लिकन को ही जज बनाता है। इसके साथ-साथ मीडिया भी अक्सर अपनी स्वतंत्र चेतना का परिचय देता है यद्यपि मीडिया का स्वामित्व अधिकतर कार्पोरेट घरानों के हाथ में ही होता है। इंग्लैण्ड और अमेरिका की  इन स्थितियों को सामने रखकर देखें तो पता चलता है कि हमारे सत्ताधीश अमेरिकी राष्ट्रपति से बढ़कर निरंकुश रहना चाहते हैं। उन्हें किसी भी तरह की रुकावट पसंद नहीं है और संसदीय जनतंत्र को तो मानो वे बहुत मजबूरी में झेल रहे हैं।
भारत के संदर्भ में यह बात सिर्फ केन्द्रीय सत्ता पर नहीं, बल्कि राज्य सरकारों पर भी लागू होती है। इसकी शुरूआत आज हुई हो, ऐसा भी नहीं है। पंडित नेहरू के निधन के बाद से ही राजनीति में मूल्यों की गिरावट आना शुरू हो गई थी, लेकिन इधर तो स्थितियां बेहद गंभीर हो चली हैं। इनको लेकर तमाम राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते हैं, लेकिन हमें कहने में संकोच नहीं कि इस मामले में सारी पार्टियों का आचरण एक जैसा है। इनकी हम चर्चा करें उसके पहले ऐसे कुछ उदाहरणों का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा जो संसदीय परंपराओं के उज्ज्वल पक्ष को प्रस्तुत करते हैं। 1976 में जब लोकसभा का कार्यकाल एक साल बढ़ाया गया तो समाजवादी नेता मधु लिमये और शरद यादव ने यह कहकर इस्तीफा दे दिया कि वे जितनी अवधि के लिए चुने गए थे वह पूरी हो गई है और उसके आगे सांसद बने रहने का उनका हक नहीं बनता। ध्यान देने योग्य है कि शरद उपचुनाव में जीत कर आए थे। पहली बार सांसद बने थे। इसके बाद भी उन्होंने पद पर बने रहने का मोह नहीं किया।
ज्योति बसु ने जो मिसाल पेश की वह तो अविस्मरणीय और ऐतिहासिक मानी जाएगी। वे अगर चाहते तो 1996 में भारत के प्रधानमंत्री, वह भी पहले कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री, बन सकते थे। उन्हें उनकी पार्टी ने ही यह पद स्वीकार करने से रोक दिया। यह मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की ऐतिहासिक और अक्षम्य भूल थी, लेकिन ज्योति बाबू ने पार्टी को अपने ऊपर तवज्जो दी। इसके बाद 2004 में सोनिया गांधी भी चाहतीं तो प्रधानमंत्री बन सकती थीं, लेकिन उन्होंने पार्टी की सारी मनुहारों को न मान पद लेने से इंकार कर दिया। इतना ही नहीं, जब लाभ का पद मामले में उनका भी नाम आया तो बिना समय गंवाए उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया और फिर उपचुनाव में जीतकर आईं। उसी प्रकरण में जया भादुड़ी सुप्रीम कोर्ट तक गईं तथा सोमनाथ चटर्जी ने एक छोटे से पद को छोड़ने के बजाय उसे लाभ के पद से अलग करवा दिया।
इन दृष्टांतों को याद रखना आवश्यक है क्योंकि इनसे तुलना करके ही हम जान सकते हैं कि आज राजनीति का चरित्र कितना सत्तालोलुप हो गया है। दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी का आचरण इस संबंध में दृष्टव्य है। दिल्ली जीतने के बाद केजरीवाल सरकार ने जनसुविधाओं के लिए निश्चित रूप से कुछ अच्छे काम किए जैसे यातायात के लिए ऑड-ईवन प्रयोग, मोहल्ला क्लिनिक, सरकारी स्कूलों में बेहतर सुविधाएं इत्यादि। लेकिन संसदीय परंपराओं के निर्वाह में उसने जो चूकें कीं उनकी उम्मीद एक ऐसे युवा नेता से नहीं की जाती थी, जो समाजसेवा में नवाचार के लिए मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित हो चुका हो। यहां हम दिल्ली के पूर्व और वर्तमान उपराज्यपाल के साथ उनकी खींचातानी की बात नहीं कर रहे हैं। पंजाब से लेकर गोवा तक उन्होंने जिस महत्वाकांक्षा का परिचय दिया वह भी अभी हमारी चर्चा का विषय नहीं है।
आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री से हम जानना चाहते हैं कि उन्हें इक्कीस संसदीय सचिव नियुक्त करने की क्या आवश्यकता थी? आप के पास दिल्ली में ऐसा बहुमत था जो भारत में कभी किसी भी पार्टी को पहले नसीब नहीं हुआ था। इसके बाद ऐसी क्या मजबूरी थी कि इक्कीस विधायकों को संसदीय सचिव पद का झुनझुना पकड़ाना पड़ा? ये सब विधायक चुने गए थे। क्या विधायक का पद कम महत्वपूर्ण होता है? क्या वह एक सम्मानजनक पद नहीं है? सिर्फ विधायक रहकर काम करने में कौन सी परेशानी पेश आ रही थी? मान लिया कि आपने कोई अतिरिक्त वेतन-भत्ता या सुविधाएं नहीं लीं, लेकिन विधायक के रूप में जो सुविधाएं मिल रही हैं, वे ही क्या कम थीं? दो लाख रुपए प्रतिमाह से अधिक का वेतन और कहां मिलता है? और जब नियुक्त करना ही था तो इस पद को लाभ के पद की श्रेणी से अलग रखने का प्रस्ताव तीन महीने बाद क्यों पारित किया?
अपने निर्णय को उचित ठहराने के लिए अरविंद केजरीवाल भगवान का नाम लेते हैं। कहते हैं ऊपर वाला जानता था कि बीस विधायकों की सदस्यता खत्म हो जाएगी इसलिए उसने सत्तर में से सड़सठ सीटों का प्रचंड बहुमत दे दिया। यह उनकी हताशा है या नादानी, कहना मुश्किल है। हमें प्रतीत होता है कि चुनाव आयोग ने आप के विधायकों को अपात्र घोषित करने में पक्षपात का परिचय दिया है। राष्ट्रपति ने भी जिस त्वरित गति से चुनाव आयोग के फैसले पर मुहर लगाई है वह भी आश्चर्यचकित करने वाली है। रामनाथ कोविंद ने इस निर्णय के द्वारा अपना नाम फखरूद्दीन अली अहमद और ज्ञानी जैलसिंह की सूची में लिखवा लिया है। वे राजेन्द्र प्रसाद, राधाकृष्णन, जाकिर हुसैन और के.आर. नारायणन की पंक्ति के राष्ट्रपति नहीं हैं, यह स्वयं उन्होंने सिद्ध कर दिया है, लेकिन इससे अरविंद केजरीवाल ने जो किया उसका खोखलापन दूर नहीं हो जाता।
मेरा मानना है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के अनुसार सदन की कुल संख्या के पंद्रह प्रतिशत से भीतर मंत्री पद देने की सीमा जो निर्धारित है वह सर्वथा उचित है। इसका उल्लंघन किसी भी रूप में स्वीकार नहीं होना चाहिए। पंजाब और पश्चिम बंगाल उच्च न्यायालय के फैसले हमारे सामने है जिनमें संसदीय सचिवों की नियुक्तियों को अवैध ठहराया गया है। जब राष्ट्रपति ने दिल्ली के विधायकों को अपात्र घोषित कर दिया है तो उन्हें संसदीय परंपरा के अनुरूप निर्णय लेते हुए देश में जहां कहीं भी विधायक इस पद पर काबिज हैं उनकी पात्रता समाप्त करने की दिशा में तुरंत कदम उठाना चाहिए।
अरुणाचल, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, हरियाणा इत्यादि में अभी भी संसदीय सचिव के पद पर विधायक काम कर रहे हैं। उन्हें अब कोई नैतिक अधिकार या आधार नहीं है कि वे इस पद पर बने रहें। उन्होंने जो सुविधाएं उठाई हैं उसकी भी भरपाई याने रिकवरी होना चाहिए।  26 जनवरी को राष्ट्रध्वज को सलामी देने, देशभक्ति के फिल्मी गीत गाने और झूठे मन से बाबा साहेब का नाम लेने से गणतंत्र दिवस नहीं मनेगा। संविधान और संसदीय परंपराओं की रक्षा होगी तभी गणतंत्र दिवस मनाना सार्थक होगा।
देशबंधु में 25 जनवरी 2017 को प्रकाशित 

Wednesday, 17 January 2018

यात्रा वृत्तांत : आरंग से बारंग तक

                                          

 आपको यह शीर्षक अटपटा लग रहा होगा। जानना चाहते होंगे कि अ से ब की यह तुक मैंने क्यों मिलाई है! यह रहस्य कुछ देर में खुलेगा। अभी इतना जान लीजिए कि निरन्तर चलती यात्राओं के क्रम में पिछले दिनों मैं एक दिन के लिए भुवनेश्वर हो आया। वह भी साल के आखिरी दिन अर्थात 31 दिसम्बर 2017 को। सुबह पहुंचा और रात की रेल से रायपुर के लिए वापिस रवाना। कुल जमा चौदह घंटे का प्रवास। पिछले चालीस सालों में कई बार ओडिशा जाना हुआ है। उस समय से जब नक्शे पर उसका नाम उड़ीसा था। जब भी गया हूं, कुछ न कुछ नया देखने-समझने मिला है। 1977 में जब सुपर साईक्लोन आया, तब मैं सपरिवार पुरी में था। धुआंधार बारिश के बीच पुरी से भुवनेश्वर, चिलका, बरहामपुर, कोरापुट होते हुए रास्ते में दो रात बिताकर जगदलपुर किसी तरह पहुंच पाए थे। पहुंचते साथ अखबार का शीर्षक- उड़ीसा में साईक्लोन से सात हजार मृत- देखकर कलेजा कांप उठा था। रास्ते में दो रातें, पहली घने जंगल के बीच मोहाना के डाक बंगले में, दूसरी जैपुर-जगदलपुर के बीच हाईवे पर बोरीगुमा के रेस्ट हाउस में मूसलाधार वर्षा के बीच कैसे बीती थीं, याद कर आज भी रोमांच हो आता है।
बाद की लगभग सभी यात्राएं निरापद ही बीतीं। इस बार की ही तरह। रायपुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्मों पर लगीं लिफ्टें काम कर रही है। इतने व्यस्त स्टेशन पर सिर्फ छह लोगों के लिए बनी लिफ्ट पर्याप्त नहीं है, लेकिन एक नई सुविधा तो जुट ही गई है। अब जब स्टेशन पर भारवाहक मिलना दुर्लभ हो गया है, तब इस सुविधा का महत्व समझ आता है। दुर्ग से चलने वाली ट्रेन रायपुर आते-आते दस मिनिट लेट हो गई और प्लेटफार्म भी बदलना पड़ा, लेकिन इन छोटी-मोटी तकलीफों के हम अभ्यस्त हो चुके हैं। दिक्कत तब हुई जब मालूम पड़ा कि प्रसाधन कक्ष में पानी नहीं है। मैंने रेल मंत्री को ट्विटर किया लेकिन कोई उत्तर नहीं आया। वहां सिर्फ प्रायोजित ट्विटर का ही जवाब दिया जाता है, यह मैं अनुभव से जान चुका हूं। खैर, काटाभांजी स्टेशन पर पानी भर दिया गया। यह प्रसन्नता की बात थी कि डिब्बा नया नकोर था, साफ-सुथरा और कंबल, चादर, टावेल भी एकदम नए थे। कटक के पहले तक ट्रेन बिलकुल समय पर चल रही थी, लेकिन कटक-भुवनेश्वर की 20-25 किमी की दूरी तय करने में पैंतालीस मिनिट अतिरिक्त लग गए। भुवनेश्वर एक व्यस्त स्टेशन है, वहां प्लेटफॉर्म अक्सर खाली नहीं रहते और ट्रेनें इस वजह से लेट हो ही जाती हैं।
मैं भुवनेश्वर गया था एक साहित्यिक कार्यक्रम में भाग लेने। भुवनेश्वर साहित्य समाज नामक संस्था दिसंबर के अंतिम रविवार को अपना वार्षिकोत्सव मनाती है। संयोग से इस साल 31 दिसंबर को ही रविवार था। साल का आखिरी दिन, वह भी रविवार और फिर लगभग उसी समय ओडिशा साहित्य परिषद का एक वृहत् कार्यक्रम। संस्था के अध्यक्ष सुकवि सूर्य मिश्र से चर्चा करते हुए मन में आशंका हुई कि मुझे शायद लगभग खाली सभाकक्ष में ही अपना व्याख्यान देना होगा। किन्तु मेरी आशंका निर्मूल थी। सुबह साढ़़े दस बजे ओडिशा औद्योगिक विकास निगम का सुसज्जित सभाकक्ष तीन-चौथाई भर चुका था। दो सौ से अधिक की सभा में आधी नहीं तो एक तिहाई से ज्यादा महिलाओं की उपस्थिति प्रीतिकर थी। मेरे लिए अपने पुराने मित्रों कथाकार जापानी और कवि तरुण कानूगो से काफी समय के बाद भेंट होना भी प्रसन्नता का कारण था।
भुवनेश्वर साहित्य समाज के इस आयोजन में भाग लेना एक ताजगीभरा अनुभव था। मैंने अपने वक्तव्य में कहा कि जब एक पूरा साल सुख-दुख, आशा-निराशा, क्षोभ-हताशा के बीच झूलते हुए बीत गया हो, तब कम से कम साल का अंतिम दिन समानधर्मा मित्रों के साथ बीतना आश्वस्त करता है कि नया साल पूर्वापेक्षा बेहतर गुजरेगा। इस कार्यक्रम की कुछ झलकियां पाठकों के लिए रुचिकर होंगी। भुवनेश्वर के रचनाकारों की यह संस्था मुख्यत: ओडिआ भाषी लेखकों की है, लेकिन इस बीच उसने ओडिआ रचनाओं के हिंदी अनुवाद की तीन पुस्तकें प्रकाशित की हैं। एक कहानी संकलन और दो कविता संग्रह। मुझे 'तपती रेत पर हरसिंगार' शीर्षक कविता संग्रह को लोकार्पित करने का सुखद सुयोग मिला। इसमें ओडिआ के सौ कवियों की एक-एक कविता संकलित है। ये सारी कविताएं आधुनिक भावबोध की हैं और संपादक राधू मिश्र ने इन्हें नई सदी की कविताएं निरूपित किया है। कविताओं को पढ़कर ओडिआ साहित्य के प्रति मेरी समझ विकसित होने में सफलता मिली है, ऐसा कहूं तो अतिशयोक्ति न होगी। भुवनेश्वर साहित्य समाज ने इसी तरह अपने लेखकों की रचनाओं के तीन अंग्रेजा अनुवाद भी प्रकाशित किए हैं।
इसी आयोजन में मेरे सामने यह भी स्पष्ट हुआ कि ओडिआ में महिला रचनाकारों की एक समृद्ध परंपरा है। कार्यक्रम में जो देवियां उपस्थित थीं, उनमें से स्वाभाविकत: अधिकतर साहित्य-प्रेमी थीं, किंतु लेखिकाओं की संख्या कम नहीं थी। हिंदी में अनूदित कविता संग्रह में अनेक रूपांतर भी उनके ही किए हुए हैं। एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि कार्यक्रम का मुख्य पर्व लगभग एक बजे समाप्त हो गया था। उसके बाद काव्य पाठ होना था। मंच पर पांच कवि विराजमान थे और वे बारी-बारी से मंच संचालन कर रहे थे। मैं कुछ देर ठहरकर लौट आया था। बाद में मालूम पड़ा कि कविता पाठ का सिलसिला शाम पांच बजे तक चलता रहा। करीब पचास कवियों ने अपनी कविताएं पढ़ीं। इससे पता चलता है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है। कोई बिरला ही होगा, जो मंच पर जाकर कविता सुनाने का लोभ संवरण कर पाता हो। फिर भी मैंने जितना उन कवियों को समझा उससे अनुमान लगाता हूं कि वहां कविता के नाम पर जोकराई नहीं हुई होगी, चुटकुले नहीं सुनाए गए होंगे।
भुवनेश्वर मुझे हमेशा से एक उनींदा नगर प्रतीत होते रहा है। जब पहली बार गया था तो दोपहर का भोजन नसीब नहीं हुआ था। सारे होटलों के दरवाजे बंद थे। वही हाल बाजार के। दोपहर एक से चार तक भुवनेश्वर विश्राम किया करता था। अब समय बदल गया है। रविवार को सामान्यत: बाजार बंद रहता है। इस बार शायद इकतीस दिसंबर के कारण खुला हुआ था और अच्छी-खासी चहल-पहल थी। पुरी-भुवनेश्वर पर्यटन के बड़े केंद्र हैं इसलिए रेलवे स्टेशन, होटल, रेस्तोरां सब में पर्यटकों की भी आवाजाही खूब थी। विदेशी सैलानी तो इक्का-दुक्का ही दिखे, किंतु देश के विभिन्न क्षेत्रों से आए पर्यटक रेलगाड़ी में भी थे और होटल में भी। यह कहना होगा कि ओडिशा ने पर्यटन व्यवसाय को गंभीरतापूर्वक बढ़ावा दिया है। भुवनेश्वर में हर श्रेणी के होटल और रेस्तोरां हैं, हस्तशिल्प और हाथकरघे की मार्केटिंग भी भली-भांति हो रही है। 
अब बात इस लेख के शीर्षक की। भुवनेश्वर का तेजी के साथ कायाकल्प हो रहा है। एक नया शहर कटक की ओर बढ़ते जा रहा है। वर्षों पूर्व आईआरसी नगर (इंडियन रोड कांग्रेस) उस संस्था के अधिवेशन के नाम पर राष्ट्रीय राजमार्ग पर बसाया गया था, वह शहर के बीच में आ गया है। उदयगिरि, खंडगिरि और नंदनकानन भी अब महानगर का हिस्सा बन चुके हैं, उधर पुरी की दिशा में धौली भी। कटक और भुवनेश्वर के बीच एक नया रेलवे स्टेशन बन रहा है- भुवनेश्वर न्यू स्टेशन। इस पर आठ या बारह प्लेटफॉर्म होंगे तथा आधी गाड़ियां पुराने स्टेशन के बजाय यहां रुका करेंगी। पटिया नाम का एक छोटा सा गांव था, अब वहां पटिया पैसिंजर हॉल्ट स्टेशन बन गया है।
भुवनेश्वर के पुराने स्टेशन पर लिफ्ट है, जिसमें बीस लोग सवार हो सकते हैं। वहां जुडिशरी, मीडिया और पे्रस का विशेष पार्किंग स्थल भी है। मंचेश्वर नामक एक और स्टेशन विस्तार ले रहा है। अब रहस्योद्घाटन। रायपुर से रवाना हुआ तो थोड़ी देर में आरंग स्टेशन आया। भुवनेश्वर पहुंचने को हुआ तो नगर सीमा पर बारंग स्टेशन पड़ा। हिंदी से ओडिआ। छत्तीसगढ़ से ओडिशा। 'अ' से 'ब' तक का सफर यूं पूरा हुआ। रायपुर पहुंचा तो चलित सीढ़ी याने एस्केलेटर से नीचे उतरा। यह एक अतिरिक्त सुविधा देखी। लेकिन कार पार्किंग की जो दुर्दशा देखी, उससे मन खिन्न हुआ। ऐसा लगा कि स्वच्छ भारत अभियान की सफलता के लिए स्वयं नरेन्द्र मोदी को रायपुर रेलवे स्टेशन आना पड़ेगा।
देशबंधु में 18 जनवरी 2018 को प्रकाशित 

Wednesday, 10 January 2018

यात्रा वृत्तांत : मणिपुर : जहां तिरंगा फहराया था

                                    
                                  

 मणिपुर में एप्सो की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के लिए देश के लगभग बीस प्रांतों से प्रतिनिधि आए थे। हममें से अधिकतर की यह पहली मणिपुर यात्रा थी इसलिए औपचारिक बैठकों के बाद जब दो-एक दर्शनीय स्थलों के भ्रमण की सूचना मिली तो सबके सब बहुत उत्साहित हुए। हमें जाना बहुत दूर नहीं था। इम्फाल से कोई पैंतालीस किलोमीटर दूर मोइरांग और वहां से दस किलोमीटर आगे लोकटाक झील। एक दिन में इससे अधिक देख भी क्या सकते थे? शाम होते-होते तक लौटना भी था। मणिपुर पूर्व में है इसलिए हमारी घड़ी से सूर्योदय पांच बजे के पहले हो जाता है और शाम चार-साढ़े चार बजे से अंधेरा घिरने लगता है। लोग-बाग अपना काम समेटने लगते हैं और छह बजे तक सड़कें वीरान हो जाती हैं। हम लोग नौ तारीख की सुबह चलने के लिए तैयार थे किन्तु पिछली रात से बारिश होना शुरू हो गई थी और रुकने का नाम नहीं ले रही थी। लेकिन हमारे उत्साह में कोई कमी नहीं थी। छाता मिल गया तो ठीक नहीं तो भीगते-भागते बसों और अन्य गाड़ियों में बैठ गए।
मणिपुर के साथियों ने बताया कि इस समय यह बारिश असामान्य हैं, जब जाड़ा पड़ने लगता है तब यहां बारिश नहीं होती है। इस बात से यही निष्कर्ष निकाला कि बदलते मौसम के असर से कोई भी इलाका बच नहीं पा रहा है। इम्फाल शहर पार किए कुछ किलोमीटर ही हुए होंगे कि विष्णुपुर जिला प्रारंभ हो गया। यहां से ग्रामीण जीवन की छटा देखने मिली। पुरानी शैली के टीन की छत वाले मकान, अनेक घर मिट्टी के ही थे। साधन-सम्पन्न लोगों के घर अवश्य पक्के बने थे। इस रास्ते पर मोइरांग के पहले जिन गांवों से गुजरे उनमें सब जगह महिलाएं ही दुकानदारी करते दिखीं। हर गांव में पुलिस का भी ऐसा ज़बर्दस्त बंदोबस्त देखने मिला जो सामान्यत: हम अपने यहां नहीं देखते। प्राय: हरेक गांव में जलापूर्ति के लिए सरकार द्वारा निर्मित जलाशय देखने में आए। उन पर बाकायदा सूचनाफलक लगे थे कि गांव की जलप्रदाय व्यवस्था के लिए इन्हें बनाया गया है। मोइरांग पहुंचने के लगभग दस किलोमीटर पहले लोकटाक झील का एक सिरा दिखाई देने लगा था।
मोइरांग ऐतिहासिक स्थान है। इस गांव का नाम स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में होना चाहिए। 18 अप्रैल 1944 को यहां पर आजाद हिन्द फौज के मतवाले और बहादुर सैनिकों ने पहली बार भारत भूमि पर तिरंगा ध्वज फहराया था। बर्मा से पश्चिम की ओर बढ़ते हुए आजाद हिन्द फौज का दस्ता मोइरांग, फिर आगे नगालैंड के कोहिमा तक पहुंच गया था। जापान के नेतृत्व में आईएनए लड़ रही थी। नेताजी का सपना था कि इस सहयोग के द्वारा वे भारत को मुक्त करा सकेंगे। सो कुछ दिनों के लिए सही मोइरांग और उसके आगे-पीछे के इलाके में आजाद हिन्द फौज द्वारा मातृभूमि को आजाद कर लिया गया था। यह अलग बात है कि स्वतंत्रता मिलने का दिन अभी दूर था। आईएनए की इस मुहिम में देश के सभी भागों के सैनिक थे जो सिंगापुर और मलाया में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के आह्वान पर ब्रिटिश फौज छोड़कर चले आए थे।
मोइरांग की अस्त-व्यस्त नगरीय संरचना के बीच एक संकरी सड़क पर आजाद हिन्द फौज का स्मारक बना है। इस जगह पहुंच कर हमारा हृदय रोमांचित हो उठा और आजादी के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा देने वाले वीर सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए अपने आप माथा झुक गया। जिस जगह तिरंगा फहराया गया था वहां कॉटेजनुमा एक कक्ष बना हुआ है। इसके सामने एक अन्य स्मारक है। नेताजी ने सिंगापुर में 6 जुलाई 1945 को आईएनए के शहीदों के लिए एक स्मारक की बुनियाद रखी थी। श्रीमती इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद उस स्मारक की प्रतिकृति यहां स्थापित करने का निर्णय लिया, जिसकी आधारशिला 21 अक्टूबर 1968 को तत्कालीन केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री के.के. शाह के द्वारा रखी गई और 23 सितंबर 1969 को इंदिराजी ने स्वयं यहां पहुंच कर इस शहीद स्तंभ का अनावरण कर उसे देश को समर्पित किया। हम सबने यहां अपने वीर शहीदों को फूल चढ़ाकर उन्हें सलामी दी।
मुझे यह बताना चाहिए कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और आजाद हिन्द फौज दोनों की स्मृति में यहां एक विस्तृत परिसर विकसित किया गया है जिसमें ध्वाजारोहण स्थल और शहीद स्तंभ तो हैं ही, उनके अलावा कुछ और भी है। यहां एक सुसज्जित प्रेक्षागृह और साथ में एक पुस्तकालय है। इसका नाम नेताजी लाइब्रेरी है। 1968 में आजाद हिन्द फौज की रजत जयंती के अवसर पर इंदिरा सरकार के एक अन्य वरिष्ठ मंत्री और जाने-माने विद्वान डॉ. त्रिगुण सेन ने 21 अक्टूबर को ही इस लाइब्रेरी का लोकार्पण किया था। यह नोट करने योग्य है कि प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने आजाद हिन्द फौज तथा आजाद हिन्द की अस्थायी सरकार की रजत जयंती के  अवसर पर अपने दो वरिष्ठ मंत्रियों को इस ऐतिहासिक स्थान पर भेजा और एक तरह देश की आजादी की लड़ाई में नेताजी के अविस्मरणीय योगदान को न सिर्फ रेखांकित किया बल्कि देशवासियों को उसका पुनर्स्मरण कराया।
इस परिसर में आईएनए वार म्यूजियम अर्थात आजाद हिन्द फौज युद्ध संग्रहालय भी अवस्थित है। संग्रहालय में नेताजी से संबंधित बहुत सारी सामग्रियों को प्रदर्शित किया गया है। उनके विभिन्न अवसरों पर लिए गए चित्र हैं, अखबारों की कतरनें हैं, आईएनए की यूनिफार्म और हथियार आदि हैं, उनके परिवार के सदस्यों के भी बहुत से चित्र हैं। एक चित्र नेताजी की इकलौती संतान अनिता बोस का भी है। वह चित्र भी है जिसमें नेताजी सैगॉन में विमान में चढ़ रहे हैं। यह उनके पार्थिव जीवन की आखिरी स्मृति है। बहुत से चित्र मणिपुर के उन नागरिकों के भी थे जो आजाद हिन्द फौज में शामिल हुए थे और बाद में अंग्रेज सरकार के कोपभाजन बने। ये सब सामान्यजन थे, फौजी नहीं लेकिन नेताजी के आह्वान पर देश को आजाद कराने की लड़ाई में कूद पड़े थे।
एक कक्ष में मणिपुर के पुराने राजा-महाराजाओं के चित्र थे। प्रदेश के राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के भी। मेरी निगाह इस कक्ष में तीन चित्रों वाले एक पैनल पर अटक गई। ये तीनों मणिपुरी साहित्य के शलाका पुरुष थे। महाकवि हिजाम अंगंगहाल, कवि चाओबा और कवि कमल। मणिपुरी साहित्य से मेरा परिचय लगभग शून्य है, लेकिन कवियों के चित्र देखकर प्रसन्नता हुई। संग्रहालय की सीढ़ियों से हम नीचे उतरे।  नेताजी की आदमकद मूर्ति को एक बार फिर सलाम किया। बारिश थम नहीं रही थी और इस भावुक अनुभव के बावजूद हमारा उत्साह कायम था। हम अगले पड़ाव की ओर निकल पड़े। लोकटाक झील के दर्शन जिस बिन्दु से करने थे वह पन्द्रह मिनट की दूरी पर था। यहां दो फर्लांग के करीब ऊपर चढ़ना था जहां से झील अपनी पूरी भव्यता के साथ दृष्टिगोचर होती है। मुझे लगा कि जिस सड़क से हम जा रहे हैं उसे झील के एक हिस्से को पाटकर ही बनाया गया है। यद्यपि इस बारे में मुझे सही जानकारी नहीं है।
लोकटाक अपने तरह की एक अनूठी झील है। इसका विस्तार दो सौ वर्ग किलोमीटर या उससे कुछ अधिक है और जलग्रहण क्षेत्र उससे पांच गुना याने एक हजार वर्ग किलोमीटर से ज्यादा है। यह पूर्वोत्तर भारत की संभवत: एकमात्र ताजे पानी की झील है और उसके बीच में बहुत सारे तैरते हुए द्वीप हैं। हम ऊपर जिस व्यू पाइंट पर थे वहां से झील तीन तरफ दिखाई दे रही थी और कुछ नन्हे द्वीप भी। इन द्वीपों पर अधिकतर मछुआरे रहते हैं और अपना जीवनयापन करते हैं। झील में खरपतवार बहुत है जिसकी बीच-बीच में सफाई चलते रहती है। हमें एक द्वीप और जाना था जहां मणिपुर का राज्य पशु संगाई पाया जाता है। यह हिरण की प्रजाति का पशु है। खराब मौसम के कारण स्टीमर चलना बंद थे अत: हम एक अनूठे अनुभव से वंचित रह गए। झील का विस्तार और उसका नीला जल आकर्षित करता है, किन्तु मुझे लगता है कि अगर ठीक से देखभाल नहीं की गई तो इसे नष्ट होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।
इस यात्रा वृत्तांत की अंतिम बात मणिपुर के व्यंजनों के बारे में। लोकटाक झील के नीचे ही हमारे स्वागत में मणिपुर की पारंपरिक रसोई की व्यवस्था की गई थी। थाली के आकार में गोल कटे केलों के पत्तों पर जिसमें एक बहुत तीखी मिलवां सब्जी थी। स्थानीय वनस्पतियों से बनी एक बारीक सी सलाद, सफेद भात, दाल और मटर के साथ काला भात और खीर, और न जाने क्या-क्या। हां! इस शाकाहारी भोजन में मछली भी थी जिसे मणिपुर और बंगाल में शाकाहारी ही माना जाता है।
देशबंधु में 11 जनवरी 2018 को प्रकाशित 

Wednesday, 3 January 2018

यात्रा वृतांत: मणिपुर : संस्कृति के कुछ रंग

                                         
पूर्वोत्तर भारत के इतिहास, भूगोल, संस्कृति इत्यादि के साथ शेष भारत का परिचय बहुत प्रगाढ़ नहीं है। दरअसल, अपार विविधता भरे इस देश में एक-दूसरे के बारे में जान लेना कठिन व्यायाम है। हम अमेरिका में तो हैं नहीं, जहां समूचे देश में लगभग एक जैसा खानपान, एक जैसे वस्त्राभूषण, एक जैसी सड़कें और एक जैसी इमारतें हों। अमेरिका में अटलांटिक तट से लेकर प्रशांत महासागर के किनारे तक चले जाइए; प्रकृतिदत्त विविधताओं को छोड़ दें तो मनुष्य ने जो निर्मित किया है उसमें बहुत फर्क दिखाई नहीं देता। खैर! यह तुलना न जाने कैसे दिमाग में आ गई, मैं बात तो अपने देश की करना चाह रहा था। मणिपुर के बारे में एक मिथक से हम परिचित हैं कि महाभारतकाल में अर्जुन ने वहां की राजकुमारी चित्रांगदा से गंधर्व विवाह रचाया था। वर्तमान समय की बात करने पर जो पहली और संभवत: एकमात्र छवि जनसामान्य में उभरती है वह मणिपुरी नृत्य की है। कोई कला-रसिक हो या न हो, मणिपुरी भारत की नृत्य परंपरा में एक प्रमुख शैली है यह लोग सामान्यत: जानते हैं।
मणिपुर का भारत की बहुलतावादी संस्कृति के विकास में जो दूसरा महत्वपूर्ण योगदान है वह संभवत: रंगमंच के क्षेत्र में है। रतन थियम देश के जाने-माने रंगकर्मी हैं। वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय याने एन.एस.डी. के निदेशक भी रह चुके हैं। देश की पूर्वी सीमा पर बसे इस प्रदेश का मैतेई समाज कृष्ण भक्तिधारा में डूबा हुआ है। यहां के एक राजा ने रासलीला प्रारंभ करवाई जिसे वे बृजभूमि से लेकर आए इसका संकेत हम पिछले लेख में दे चुके हैं। कोलकाता से हवाई यात्रा के दौरान ही यह अनुमान लग गया था कि मणिपुर में चैतन्य महाप्रभु द्वारा स्थापित गौड़ीय सम्प्रदाय का गहरा प्रभाव है। मैंने अपने कुछ सहयात्रियों को देखकर यह अनुमान लगाया था। मणिपुर के नृत्य और अन्य ललित कलाओं में भी यही प्रभाव परिलक्षित होता है। यहां तक कि पाककला में भी इसे देखा जा सकता है।
हमारे मेजबान साथी डॉ. नारा सिंह जी ने अपने प्रदेश की सांस्कृतिक परंपरा और इतिहास दोनों से हमें परिचित कराने का प्रबंध कर रखा था। एक शाम हमने लगभग डेढ़ घंटे लंबा कार्यक्रम देखा जिसमें नृत्य और गीत के अलावा मणिपुर के मार्शल आर्ट्स का प्रदर्शन भी शामिल था। औसतन पन्द्रह मिनट की एक-एक प्रस्तुति थी जिसमें कलाकारों की चपलता हाव-भाव, गायन, वादन सब कुछ देखते ही बनता था। जो प्रदर्शन तलवारबाजी के थे उनमें कलाकारों की चपलता और शरीर की लोच, अधर में फिरकी खाना आदि देखकर हम लोग ठगे से रह गए थे। तीसरी रात एक और सांस्कृतिक प्रस्तुति देखने का अवसर मिला। डॉ. नारा सिंह ने स्वयं पर्यावरण विनाश पर मणिपुरी में कविता लिखी है जिसका शीर्षक हिन्दी में 'प्रकृति का क्रंदन' होगा। इस पर आधारित एक घंटे से अधिक अवधि के बैले अथवा नृत्य नाटिका को देखना एक अद्भुत अनुभव था। 
यह कविता डॉ. नारा सिंह ने कई साल पहले लिखी थी। इसे उन्होंने विपक्ष के नेता के रूप में मणिपुर विधानसभा में सुनाया था। यहीं से उनका कवि मन भी जागृत हुआ। कविता पर आधारित बैले में लगभग पचास अभिनेता रहे होंगे जो मनुष्य द्वारा प्रकृति पर किए जा रहे अत्याचार के विभिन्न रूपों को अपनी कला से प्रदर्शित कर रहे थे। इस बैले का दृश्यविधान तो बहुत सुंदर था ही, कलाकार भी अपनी प्रतिभा की चमक बिखेर रहे थे। कार्यक्रम समाप्त हुआ। सारे लोग कलाकारों को बधाई देने उमड़ पड़े। बैले की निदेशिका लतादेवी थाउनाउजाम (यह सरनेम उनके गांव का नाम है) को बधाई देते हुए मैंने सहज पूछ लिया कि आपके हिन्दी उच्चारण इतने साफ कैसे हैं। जवाब मिला कि उन्होंने भोपाल में नाट्य कला का अध्ययन किया है और वे अपने समय की मशहूर रंगकर्मी गुल वर्द्धन व प्रभात गांगुली की छात्रा रहीं हैं। मैंने जब बताया कि मेरा भी मध्यप्रदेश से रिश्ता है तो वे एकाएक भावुक हो गईं। बोलीं- भोपाल तो मेरा मायका है, आप मेरे मायके से आए हैं।
मैं सात दिसंबर की सुबह मणिपुर पहुंचा था। उस दिन और अगली शाम तक भी मौसम खुला हुआ था। गो कि ठंड बहुत थी। अच्छे मौसम के कारण इम्फाल शहर में घूमने का अवसर मिल गया। इससे स्थानीय जीवन की कुछ और बातें समझ में आईं। मणिपुर में प्राकृतिक सुंदरता बहुत है। इम्फाल घाटी को छोड़कर अधिकतर प्रदेश पहाड़ों से घिरा हुआ है। नगा जनजाति की अधिकतर आबादी पहाड़ों में ही बसी है। मणिपुर को शेष भारत से जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों पर कभी भी नाकाबंदी कर देते हैं और तब स्थानीय जनता को बहुत सारी तकलीफों का सामना करना पड़ता है। याने यह प्राकृतिक सुंदरता कई बार परेशानी का सबब बन जाती है। दूसरी ओर मणिपुर कुछ मामलों में पूरी तरह से अन्य प्रदेशों की बराबरी करता है। जैसे वाहनों की बढ़ती संख्या, लगातार बढ़ता प्रदूषण, सीमेंट, कांक्रीट से बनते नए घर और ऊंची इमारतें, ट्रैफिक नियमों का पालन न करना, दलबदल, जोड़-तोड़ से बनी भाजपा सरकार के बावजूद स्वच्छता का अभाव इत्यादि।
इम्फाल, विष्णुपुर, मोइरांग जैसे नगरों को देखकर लगता है कि आप अपने घर में ही हैं। कम से कम सड़कों और बाजारों का नजारा तो वही है। मुझे अल्प प्रवास में यह भी अनुमान हुआ कि प्रदेश में बेरोजगारी काफी है और गरीबी भी कम नहीं है। एक जगह मैंने छोटा सा बाजार लगते देखा कुछ लोग हाथ ठेलों पर लादकर गठरियां लाए, उनको खोला और पुराने याने उतारे हुए ऊनी कपड़ों और जूतों की दुकानें सजा दीं। देखते ही देखते वहां ग्राहक इकट्ठा होने लगे। ऐसा दृश्य किसी भी भारतीय  नगर में आम है। मणिपुर के सब्जी बाजार में और इमा मार्केट में भी इस श्रेणी भेद को देख पाना बहुत कठिन तो नहीं था।
बहरहाल मणिपुर के बाजारों में दो-तीन नई बातें भी देखने मिलीं। इमा मार्केट में कमल के फूल, वे भी नीले और सुर्ख लाल बड़ी मात्रा में बिक्री होते देखे। इनका उपयोग ठाकुर की पूजा में होता होगा। गुवाहाटी की तरह यहां भी गुवा याने कच्ची सुपारी खूब बिकती है और खूब खाई भी जाती है। कच्ची सुपारी गाल के नीचे दबा ली जाए तो उससे एक मद्धिम किस्म का सुरूर चढ़ता है, यह तो मैंने भी अनुभव किया है। पुरुष ही नहीं, स्त्रियां भी इसका सेवन करती हैं। मणिपुर में खसखस बहुतायत में मिलती है। हमारे बंगाली दोस्त इसे देखकर बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि बांग्ला भोजन में पोस्त याने खसखस का उपयोग काफी प्रचलित है। मैंने यहां काला चावल भी देखा और उसका दो रूपों में सेवन करने का अवसर भी मिला। काले चावल से बनी खीर बहुत स्वादिष्ट थी। अलग से भात की तरह खाने पर भी उसका स्वाद अच्छा था। यह भी एक रोचक संयोग था कि पश्चिमी सीमा पर फ़ाज़िल्का में जहां मैंने कुछ दिन पहले कीनू का स्वाद चखा था वहीं पूर्वी सीमा पर मणिपुर में स्थानीय संतरे का स्वाद लेने का अवसर मिला। प्रदेश में संतरे की खेती बढ़ाने के उपाय चल रहे हैं।
इन सारे स्वादों के साथ एक कड़वा स्वाद भी मिला। मणिपुर के अंग्रेजी अखबार पढ़कर यह समझ में आया कि देश के अन्य हिस्सों में जिस तरह प्रेस की स्वतंत्रता नाकाबिले बर्दाश्त हो गई है, कुछ वैसी ही परिस्थिति मणिपुर में भी बनी हुई है। मेेरे प्रवास के दौरान एक ऐसा प्रसंग आया जब सत्तारूढ़ भाजपा के प्रवक्ता ने टीवी पर प्रसारित किसी कार्यक्रम को लेकर पत्रकारों पर अवांछित टिप्पणी की जिसका विरोध स्थानीय पत्रकारों ने किया। उन्होंने बैठक आयोजित कर भाजपा प्रवक्ता के बयान की कड़ी निंदा भी की। स्वाधीनता संग्राम और मणिपुर के बारे में चर्चा तीसरी और आखिरी किश्त में होगी। 
देशबंधु में 04 जनवरी 2018 को प्रकाशित