Wednesday 24 January 2018

संसदीय सचिव याने सत्ता सुख

                                      
 कल 26 जनवरी है। गणतंत्र दिवस। भारतीय संविधान को अंगीकार तथा आत्मार्पित करने का दिन। उसकी रक्षा के लिए शपथ लेने का दिन। इस अवसर पर अपने देश की राजनीतिक व्यवस्था की एक बड़ी विडंबना मुझे ध्यान आती है। एक तरफ तो हमने इंग्लैण्ड की वेस्टमिंस्टर प्रणाली याने संसदीय जनतंत्र को अपनाया; दूसरी ओर हमारा सत्ताधारी वर्ग अमेरिका की राष्ट्रपति प्रणाली की शैली के अनुसार आचरण कर रहा है। इंग्लैण्ड में संविधान की धाराओं से कहीं अधिक महत्व संसदीय परंपराओं को दिया जाता है जो पिछली कई शताब्दियों में धीरे-धीरे कर विकसित हुई है। वहां संसद सर्वोच्च है और कार्यपालिका उसके प्रति उत्तरदायी। इन परंपराओं का पालन करने में यदि कुर्सी जाती है तो चली जाए, राजनेता उसकी चिंता नहीं करते। मार्गरेट थैचर का उदाहरण सामने है। उन्हें आयरन लेडी की उपाधि मिली थी, लेकिन छोटी सी बात पर उन्होंने प्रधानमंत्री पद छोड़ दिया था। अभी हाल में डेविड कैमरून ने ब्रेक्सिट के मामले में हार होने पर तुरंत इस्तीफा दे दिया और 10 डाउनिंग स्ट्रीट से अपना सामान खुद उठाकर पीछे के दरवाजे से चलते बने।
इसके बरक्स अमेरिका में राष्ट्रपति सर्वोच्च है। वह अमेरिकी सांसद या अमेरिकी कांग्रेस के प्रति उत्तरदायी नहीं है। उसके निर्णयों पर संसद द्वारा रोक लगाने के प्रावधान अवश्य हैं, किन्तु राष्ट्रपति चाहे तो वीटो का इस्तेमाल कर संसद के निर्णय को दरकिनार कर सकता है। तथापि राष्ट्रपति पूरी तरह से निरंकुश हो जाए ऐसा भी नहीं है। अमेरिका की अदालतें कार्यपालिका से बड़ी हद तक स्वतंत्र रहकर और उसके दबाव में आए बिना फैसले करती हैं। यह तब जबकि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति में राष्ट्रपति की पसंद सर्वोपरि होती है। रिपब्लिकन राष्ट्रपति हो तो किसी रिपब्लिकन को ही जज बनाता है। इसके साथ-साथ मीडिया भी अक्सर अपनी स्वतंत्र चेतना का परिचय देता है यद्यपि मीडिया का स्वामित्व अधिकतर कार्पोरेट घरानों के हाथ में ही होता है। इंग्लैण्ड और अमेरिका की  इन स्थितियों को सामने रखकर देखें तो पता चलता है कि हमारे सत्ताधीश अमेरिकी राष्ट्रपति से बढ़कर निरंकुश रहना चाहते हैं। उन्हें किसी भी तरह की रुकावट पसंद नहीं है और संसदीय जनतंत्र को तो मानो वे बहुत मजबूरी में झेल रहे हैं।
भारत के संदर्भ में यह बात सिर्फ केन्द्रीय सत्ता पर नहीं, बल्कि राज्य सरकारों पर भी लागू होती है। इसकी शुरूआत आज हुई हो, ऐसा भी नहीं है। पंडित नेहरू के निधन के बाद से ही राजनीति में मूल्यों की गिरावट आना शुरू हो गई थी, लेकिन इधर तो स्थितियां बेहद गंभीर हो चली हैं। इनको लेकर तमाम राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते हैं, लेकिन हमें कहने में संकोच नहीं कि इस मामले में सारी पार्टियों का आचरण एक जैसा है। इनकी हम चर्चा करें उसके पहले ऐसे कुछ उदाहरणों का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा जो संसदीय परंपराओं के उज्ज्वल पक्ष को प्रस्तुत करते हैं। 1976 में जब लोकसभा का कार्यकाल एक साल बढ़ाया गया तो समाजवादी नेता मधु लिमये और शरद यादव ने यह कहकर इस्तीफा दे दिया कि वे जितनी अवधि के लिए चुने गए थे वह पूरी हो गई है और उसके आगे सांसद बने रहने का उनका हक नहीं बनता। ध्यान देने योग्य है कि शरद उपचुनाव में जीत कर आए थे। पहली बार सांसद बने थे। इसके बाद भी उन्होंने पद पर बने रहने का मोह नहीं किया।
ज्योति बसु ने जो मिसाल पेश की वह तो अविस्मरणीय और ऐतिहासिक मानी जाएगी। वे अगर चाहते तो 1996 में भारत के प्रधानमंत्री, वह भी पहले कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री, बन सकते थे। उन्हें उनकी पार्टी ने ही यह पद स्वीकार करने से रोक दिया। यह मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की ऐतिहासिक और अक्षम्य भूल थी, लेकिन ज्योति बाबू ने पार्टी को अपने ऊपर तवज्जो दी। इसके बाद 2004 में सोनिया गांधी भी चाहतीं तो प्रधानमंत्री बन सकती थीं, लेकिन उन्होंने पार्टी की सारी मनुहारों को न मान पद लेने से इंकार कर दिया। इतना ही नहीं, जब लाभ का पद मामले में उनका भी नाम आया तो बिना समय गंवाए उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया और फिर उपचुनाव में जीतकर आईं। उसी प्रकरण में जया भादुड़ी सुप्रीम कोर्ट तक गईं तथा सोमनाथ चटर्जी ने एक छोटे से पद को छोड़ने के बजाय उसे लाभ के पद से अलग करवा दिया।
इन दृष्टांतों को याद रखना आवश्यक है क्योंकि इनसे तुलना करके ही हम जान सकते हैं कि आज राजनीति का चरित्र कितना सत्तालोलुप हो गया है। दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी का आचरण इस संबंध में दृष्टव्य है। दिल्ली जीतने के बाद केजरीवाल सरकार ने जनसुविधाओं के लिए निश्चित रूप से कुछ अच्छे काम किए जैसे यातायात के लिए ऑड-ईवन प्रयोग, मोहल्ला क्लिनिक, सरकारी स्कूलों में बेहतर सुविधाएं इत्यादि। लेकिन संसदीय परंपराओं के निर्वाह में उसने जो चूकें कीं उनकी उम्मीद एक ऐसे युवा नेता से नहीं की जाती थी, जो समाजसेवा में नवाचार के लिए मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित हो चुका हो। यहां हम दिल्ली के पूर्व और वर्तमान उपराज्यपाल के साथ उनकी खींचातानी की बात नहीं कर रहे हैं। पंजाब से लेकर गोवा तक उन्होंने जिस महत्वाकांक्षा का परिचय दिया वह भी अभी हमारी चर्चा का विषय नहीं है।
आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री से हम जानना चाहते हैं कि उन्हें इक्कीस संसदीय सचिव नियुक्त करने की क्या आवश्यकता थी? आप के पास दिल्ली में ऐसा बहुमत था जो भारत में कभी किसी भी पार्टी को पहले नसीब नहीं हुआ था। इसके बाद ऐसी क्या मजबूरी थी कि इक्कीस विधायकों को संसदीय सचिव पद का झुनझुना पकड़ाना पड़ा? ये सब विधायक चुने गए थे। क्या विधायक का पद कम महत्वपूर्ण होता है? क्या वह एक सम्मानजनक पद नहीं है? सिर्फ विधायक रहकर काम करने में कौन सी परेशानी पेश आ रही थी? मान लिया कि आपने कोई अतिरिक्त वेतन-भत्ता या सुविधाएं नहीं लीं, लेकिन विधायक के रूप में जो सुविधाएं मिल रही हैं, वे ही क्या कम थीं? दो लाख रुपए प्रतिमाह से अधिक का वेतन और कहां मिलता है? और जब नियुक्त करना ही था तो इस पद को लाभ के पद की श्रेणी से अलग रखने का प्रस्ताव तीन महीने बाद क्यों पारित किया?
अपने निर्णय को उचित ठहराने के लिए अरविंद केजरीवाल भगवान का नाम लेते हैं। कहते हैं ऊपर वाला जानता था कि बीस विधायकों की सदस्यता खत्म हो जाएगी इसलिए उसने सत्तर में से सड़सठ सीटों का प्रचंड बहुमत दे दिया। यह उनकी हताशा है या नादानी, कहना मुश्किल है। हमें प्रतीत होता है कि चुनाव आयोग ने आप के विधायकों को अपात्र घोषित करने में पक्षपात का परिचय दिया है। राष्ट्रपति ने भी जिस त्वरित गति से चुनाव आयोग के फैसले पर मुहर लगाई है वह भी आश्चर्यचकित करने वाली है। रामनाथ कोविंद ने इस निर्णय के द्वारा अपना नाम फखरूद्दीन अली अहमद और ज्ञानी जैलसिंह की सूची में लिखवा लिया है। वे राजेन्द्र प्रसाद, राधाकृष्णन, जाकिर हुसैन और के.आर. नारायणन की पंक्ति के राष्ट्रपति नहीं हैं, यह स्वयं उन्होंने सिद्ध कर दिया है, लेकिन इससे अरविंद केजरीवाल ने जो किया उसका खोखलापन दूर नहीं हो जाता।
मेरा मानना है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के अनुसार सदन की कुल संख्या के पंद्रह प्रतिशत से भीतर मंत्री पद देने की सीमा जो निर्धारित है वह सर्वथा उचित है। इसका उल्लंघन किसी भी रूप में स्वीकार नहीं होना चाहिए। पंजाब और पश्चिम बंगाल उच्च न्यायालय के फैसले हमारे सामने है जिनमें संसदीय सचिवों की नियुक्तियों को अवैध ठहराया गया है। जब राष्ट्रपति ने दिल्ली के विधायकों को अपात्र घोषित कर दिया है तो उन्हें संसदीय परंपरा के अनुरूप निर्णय लेते हुए देश में जहां कहीं भी विधायक इस पद पर काबिज हैं उनकी पात्रता समाप्त करने की दिशा में तुरंत कदम उठाना चाहिए।
अरुणाचल, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, हरियाणा इत्यादि में अभी भी संसदीय सचिव के पद पर विधायक काम कर रहे हैं। उन्हें अब कोई नैतिक अधिकार या आधार नहीं है कि वे इस पद पर बने रहें। उन्होंने जो सुविधाएं उठाई हैं उसकी भी भरपाई याने रिकवरी होना चाहिए।  26 जनवरी को राष्ट्रध्वज को सलामी देने, देशभक्ति के फिल्मी गीत गाने और झूठे मन से बाबा साहेब का नाम लेने से गणतंत्र दिवस नहीं मनेगा। संविधान और संसदीय परंपराओं की रक्षा होगी तभी गणतंत्र दिवस मनाना सार्थक होगा।
देशबंधु में 25 जनवरी 2017 को प्रकाशित 

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