Monday, 25 February 2019

नए साल में एक उपहार


जनवरी से नए साल की शुरूआत होती है। पाठकों को कोई उपहार देने के लिए यह एक बेहतर समय है। यही सोचकर आज मैं एक ऐसी पुस्तक की चर्चा करना चाहता हूं जिसका शीर्षक ही "द गिफ्ट" अर्थात उपहार है। वैसे पुस्तक का पूरा शीर्षक "द गिफ्ट ऑफ एंगर" है, किन्तु इसका भारतीय संस्करण संक्षिप्त नाम से ही छपा है। आप समझ गए होंगे कि चर्चित पुस्तक अंग्रेजी की है। मैं सामान्य तौर पर हिन्दी पुस्तकों की चर्चा करते आया हूं। गो कि समय-समय पर अन्य विषयों को भी मैंने उठाया है लेकिन 2018 में तो इस स्तंभ में सिर्फ पुस्तक चर्चा ही हुई है। मैं आपके साथ यह जानकारी भी साझा करना चाहूंगा कि करीब एक माह पूर्व दिसम्बर 2018 में मैंने जब द गिफ्ट को पढ़ा तो यह पुस्तक मुझे इतनी पसंद आई कि मैंने इसकी तीस प्रतियां खरीदीं और उपहार में परिवार के सदस्यों और मित्रों को भेंट कीं।
मुझे यदा-कदा जब कोई पुस्तक बहुत अच्छी लगती है तो मैं उसकी पांच-सात प्रतियां भेंट देने के लिए अक्सर खरीदता हूं। रूद्रांशु मुखर्जी की "नेहरू एंड बोस : टु पैरेलल लाइव्ज़" तथा नयनतारा सहगल की "नेहरू : सिविलाइजिंग अ सेवेज वर्ल्ड" दो ऐसी ही पुस्तकें थीं। साने गुरुजी की "भारतीय संस्कृति" की तो मैंने एक साथ सौ प्रतियां भेंट देने के लिए खरीदी थी। आप जानना चाहेंगे कि द गिफ्ट में ऐसा क्या खास है। सबसे पहले तो यह बता देना चाहिए कि यह पुस्तक महात्मा गांधी के जीवन दर्शन पर आधारित है। दूसरा उल्लेखनीय तथ्य है कि इसके लेखक गांधी के पौत्र अरुण गांधी हैं। दक्षिण अफ्रीका में जन्मे-बढ़े अरुण ने परिस्थितिवश कई साल भारत में गुजारे और अब वे विगत कई वर्ष से अमेरिका में रहते हैं। उनके भारतवासी पुत्र तुषार गांधी के नाम से आप परिचित ही होंगे!
कहने की आवश्यकता नहीं होना चाहिए कि महात्मा गांधी स्वयं एक महान लेखक और पत्रकार थे। उन्होंने देश और दुनिया के प्रश्नों पर जितना विपुल लेखन किया उतना उनके मानसपुत्र और राजनैतिक उत्तराधिकारी जवाहरलाल नेहरू के सिवाय शायद दुनिया के किसी और राजनेता ने नहीं किया। यही नहीं, गांधीजी पर जितनी किताबें लिखी गई हैं वह भी अपने आप में एक रिकॉर्ड है। उन पर उनके जीवनकाल में ही पुस्तकें लिखना प्रारंभ हो गया था। मुझे याद आता है कि रायपुर के विद्वान राजनेता रामदयाल तिवारी ने 1937 में गांधी मीमांसा शीर्षक से एक वृहद ग्रंथ लिखा था। यह सिलसिला अब तक चला आ रहा है। हर साल गांधीजी पर दो-चार नई किताबें आ ही जाती हैं। द गिफ्ट ऑफ एंगर 2017 में प्रकाशित हुई थी। मुझे विश्वास है कि इसके बाद भी कुछ और पुस्तकें आ गई होंगी जिन्हें मैं नहीं देख पाया हूं।
एक रोचक तथ्य की ओर ध्यान जाता है। गांधीजी के सबसे छोटे बेटे पत्रकार देवदास गांधी, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के दामाद थे। राजा जी स्वयं उद्भट विद्वान एवं लेखक थे। उनकी लिखी "दशरथनंदन श्रीराम" व "महाभारत कथा" की लाखों प्रतियां बिकी हैं। वे तमिल भाषा के एक मान्य कथाकार भी थे। उनके कहानी संकलन "कुब्जा सुंदरी" का हिन्दी रूपांतरण दशकों पहले प्रकाशित हुआ था। गांधी के पौत्र, राजाजी के नवासे और देवदास भाई के तीनों बेटों ने साहित्य जगत में अपनी पहचान कायम की। शांति निकेतन में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर रहे रामचन्द्र गांधी की पुस्तक "सीता की रसोई" काफी चर्चित हुई थी। राजमोहन गांधी ने भारत के राजनैतिक इतिहास के विभिन्न आयामों पर दर्जनों किताबें लिखीं हैं। गोपाल गांधी ने विक्रम सेठ के उपन्यास "अ सूटेबल ब्वाय" का हिन्दी में अनुवाद "कोई अच्छा सा लड़का" शीर्षक से किया था। वे अखबारों में निरंतर स्तंभ लेखन कर रहे हैं।
राजमोहन गांधी ने लगभग दस-ग्यारह वर्ष पूर्व महात्मा गांधी पर एक विशद जीवनीपरक ग्रंथ की रचना की थी जिसका सीधा-सादा शीर्षक था- "मोहनदास"। इसमें राजमोहन ने बेहद संतुलन और सावधानी के साथ अपने महान पितामह के जीवन का तटस्थ विश्लेषण किया था। गांधीजी को समझने के लिए यह एक अत्यंत उपयोगी ग्रंथ है। इस सिलसिले को बापू के दूसरे पुत्र मणिलाल के बेटे अरुण गांधी ने अपनी तरह से आगे बढ़ाया है। पुस्तक का आकार बहुत बड़ा नहीं है। लगभग तीन सौ पेज में पूरी बात कह दी गई है, लेकिन अपने आप में यह एक संपूर्ण ग्रंथ है। जिस सरलता के साथ अरुण गांधी ने द गिफ्ट में महात्मा जी के जीवन दर्शन को समझाया है वह अद्भुत व अभिनंदन योग्य है।
महात्मा गांधी 1916 में भारत लौट आए थे, लेकिन दक्षिण अफ्रीका में वे अपने पीछे बेटे मणिलाल को उनके परिवार सहित छोड़ आए थे ताकि फीनिक्स आश्रम व उनके विचारों के अनुरूप अन्य कार्य जारी रहे। अरुण गांधी की आयु 1945 में बारह वर्ष की थी जब वे माता-पिता और छोटी बहन इला के साथ भारत आए। ऐसी कुछ योजना बनी कि बारह वर्षीय अरुण दो साल बापू के साथ रहेंगे। और यहीं से पुस्तक की शुरूआत होती है। अरुण लिखते हैं- मैं बहुत क्रोधी स्वभाव का था और मेरे लिए यह शायद ठीक समझा गया कि मैं अपने विश्व प्रसिद्ध दादा याने बापू जी के साथ उनके आश्रम में रहूंगा तो मेरे स्वभाव में वांछित बदलाव आएगा। सेवाग्राम में गांधीजी के सानिध्य में रहते हुए अरुण गांधी के न सिर्फ स्वभाव में परिवर्तन आया, बल्कि उन्हें गांधी जी के विचारों, कार्यक्रमों व दर्शन को समझने का भी नायाब अवसर मिला।
वे एक रोचक किस्सा बयान करते हैं। प्रारंभ में कुछ समय छोटी बहन इला भी सेवाग्राम में साथ थी। आश्रम में स्वाभाविक ही सादा भोजन बनता था। लेकिन अरुण और इला इस बात से परेशान हुए कि सुबह, दोपहर, शाम खाने में सिर्फ कुम्हड़ा या कद्दू की सब्जी ही बनाई जाती थी। रोज-रोज एक ही सब्जी खाकर इन बच्चों को उससे अरुचि होने लगी। उन्हें यह देखकर भी आश्चर्य होता था कि सारे आश्रमवासी बिना शिकायत किए वही सब्जी खा लेते थे। छह वर्षीय इला से एक दिन जब रहा नहीं गया तो उसने बापू से शिकायत की कि हमें हर दिन एक ही साग क्यों खाना पड़ता है। इसे सुनकर स्वयं गांधी भी आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने आश्रम के प्रबंधक को बुलाकर पूछताछ की। जवाब मिला- आपने ही तो कहा था कि आश्रम की जमीन पर जो पैदावार होती है उसी का इस्तेमाल किया जाए। इस साल कद्दू की पैदावार भरपूर हुई है, उसे खपाने के लिए तीनों वक्त उसे पकाया जा रहा है। तब गांधी जी ने निर्देश दिया कि जो अतिरिक्त पैदावार है उसे पास के गांव ले जाओ और वहां किसानों से विनिमय कर दूसरी सब्जियां ले आओ।
इस प्रसंग का उल्लेख कर अरुण गांधी ने गांधीजी के जीवन के दो पहलुओं को स्पष्ट किया है। एक तरफ तो पता चलता है कि वे सादगी और मितव्ययिता में विश्वास करते थे, लेकिन दूसरी ओर उनमें व्यावहारिक समझ भी थी। अरुण इसके साथ यह भी स्पष्ट करते हैं कि आश्रम में रहने वाले और गांधीजी की भक्ति करने वाले सारे लोग एक तरह के नहीं थे। एक ओर जहां बड़े-बड़े विद्वान और विचारक उनके पास आते थे वहीं तीसों दिन कुम्हड़े की सब्जी पकाने वाले मूर्ख भी थे।
द गिफ्ट में कुल जमा तेरह अध्याय हैं जिनमें से ग्यारह अध्याय को उन्होंने पाठ की संज्ञा दी है। इन ग्यारह पाठों के शीर्षक ही एक प्रकार से गांधी दर्शन को समझने की कुंजी है। इनका नामोल्लेख करने से बात स्पष्ट हो जाएगी। पाठ-1) क्रोध का इस्तेमाल बेहतरी के लिए करो। पाठ-2) अपनी बात निर्भय होकर कहो। पाठ-3) एकांत का मूल्य समझो। पाठ-4) खुद अपनी कीमत जानो। पाठ-5) झूठ सिर्फ कबाड़ है। पाठ-6) अपव्यय हिंसक है। पाठ-7) बच्चों का लालन-पालन अहिंसात्मक हो। पाठ-8) विनम्रता में ताकत है। पाठ-9) अहिंसा के पांच स्तंभ। पाठ-10) परीक्षा देने तैयार रहो। पाठ-11) वर्तमान के लिए पाठ। इनमें से प्रत्येक पाठ को अरुण गांधी ने एक-एक अध्याय में विस्तारपूर्वक और कई जगह उद्धरण देकर समझाया है। इसमें उन्होंने यह चर्चा भी की है कि अपनी जीवन यात्रा में गांधी की ही सीख उन्हें कब, कहां, कैसे काम में आई।
पहले पाठ में ही वे एक मर्मस्पर्शी अनुभव का वर्णन करते हैं। 1955 में अरुण किसी कारणवश दक्षिण अफ्रीका से भारत आए। यहां उन्हें आकस्मिक सर्जरी के लिए अस्पताल में दाखिल होना पड़ा। अपनी नर्स सुनंदा से प्रेम कर विवाह में परिणति हुई। दक्षिण अफ्रीका की तब की रंगभेदी सरकार ने उनकी पत्नी को वीज़ा देने से इंकार कर दिया। मजबूरी में अरुण गांधी को भारत में रुकना पड़ा। रोजगार की तलाश करना पड़ी। कोई दस बरस बाद वे अपने एक मित्र को लेने जहाजघाट गए। उसी जहाज से उतरे एक गोरे यात्री ने उनका हाथ पकड़कर जानना चाहा कि वह एक सप्ताह के लिए भारत आया है और क्या वे बंबई देखने में उसकी मदद कर पाएंगे। उसने अपना परिचय दिया कि वह दक्षिण अफ्रीका का संसद सदस्य जैकी बैसन है। अरुण को उसका परिचय जानकर बहुत गुस्सा आया। सोचा कि इस गोरे को एक थप्पड़ रसीद करूं। इन्हीं लोगों के बनाए कानून के चलते मैं अपनी पत्नी के साथ दक्षिण अफ्रीका वापिस नहीं जा पा रहा हूं।
यह गुस्सा क्षणिक था। लेखक को गांधी जी की सीख याद आई। उसने सांसद बैसन से कहा कि मैं आपकी सरकार की नीतियों का विरोधी हूं। लेकिन आप मेरे शहर में अतिथि हैं सो मेरा कर्तव्य बनता है कि आपके प्रवास को सुखद बनाने में मदद करूं। अरुण और सुनंदा गांधी ने श्री एवं श्रीमती बैसन का पूरा ख्याल रखा। उन्हें बाम्बे की सैर कराई। वे जब जाने लगे तो बैसन ने अरुण से कहा कि तुमने मेरी आंखें खोल दी हैं। मेरे देश में रंगभेद की जो बुराई है उसे मैं समझ गया हूं। देश लौटने के बाद में उसका विरोध करूंगा। और ऐसा ही हुआ। सांसद बैसन ने रंगभेद के खिलाफ खुलकर बोलना शुरू किया। इससे गौरांगों के बीच उनकी निंदा होने लगी इसके चलते वे अगले चुनाव में हार गए, लेकिन उन्होंने न्याय और समता का पक्ष लेना नहीं छोड़ा।
द गिफ्ट सरल भाषा में लिखी एक ऐसी पुस्तक है जो गांधीजी के माध्यम से सार्थक जीवन जीने के सूत्र देती है। वैसे तो मैं चाहूंगा कि हर व्यक्ति इस पुस्तक को पढ़े, लेकिन युवा पीढ़ी के लिए इसका विशेष महत्व है। फर्जी साधुओं, महात्माओं और स्वयंभू भगवानों के झांसे में पडऩे के बजाय अगर हम गांधी के रास्ते पर चलें तो एक बेहतर समाज की रचना संभव करना कुछ आसान हो जाएगा।
अक्षर पर्व जनवरी 2019 अंक की प्रस्तावना
  
 

Thursday, 21 February 2019

भारत की शिक्षा नीति : अतीत, वर्तमान एवं भविष्य-1


यह मेरे लिए सम्मान की बात है कि कीर्तिशेष अर्जुन सिंह जी की स्मृति में आयोजित इस कार्यक्रम में आपने मुझे आमंत्रित किया और इस योग्य समझा कि मैं ऐसे विषय पर आपसे बातचीत करूं जो एक विरल बौद्धिक क्षमतावान, समाज सजग राजनेता के रूप में संभवत: उनका सबसे प्रिय विषय था और जिसे लेकर उनके मन में अनेकानेक कल्पनाएं थीं। मेरा यह सौभाग्य है कि अर्जुन सिंह जी को कुछ निकट से देखने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को जानने-समझने का कुछ अवसर मुझे मिला। वैसे तो मैं उनको 1963 से जानता था जब वे पंडित द्वारिकाप्रसाद मिश्र मंत्रिमंडल में शामिल किए गए थे, लेकिन उन्हें बेहतर रूप में तब जाना जब मध्यप्रदेश के शिक्षा मंत्री के रूप में उन्होंने प्रदेश के शैक्षणिक वातावरण को बेहतर बनाने के लिए गहरी सूझबूझ के साथ बहुत सारे कदम उठाए। यहां उस समय के दो प्रसंगों का उल्लेख उचित होगा। उन्होंने मध्यप्रदेश के निजी स्कूलों के शिक्षकों की समस्याओं को गहरी मानवीय संवेदना के साथ सुलझाया, दूसरी ओर 1973 में एकीकृत विश्वविद्यालय अधिनियम के द्वारा उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी ढांचाकृत परिवर्तन की पहल की।
भारत के मानव संसाधन मंत्री के रूप में काम करते हुए उनका अविस्मरणीय योगदान शिक्षा का अधिकार कानून के रूप में हमारे सामने है। उनके समय में शिक्षाजगत की बेहतरी के लिए और भी बहुत से निर्णय लिए गए। उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए मैं आज के विषय पर अपने विचार आपके साथ साझा करने की अनुमति चाहता हूं। आपने मुझे विषय दिया है- भारत की शिक्षा नीति : अतीत, वर्तमान एवं भविष्य। विषय बहुत व्यापक है और इस पर अधिकारपूर्वक विचार रखना मेरी सामर्थ्य से परे है, फिर भी किन्तु पांच दशकों से मेरा शिक्षा जगत से जो कुछ लगाव रहा है उसके आधार पर कुछ बिन्दु आपके सामने रखना चाहूंगा।
भारत की शिक्षा नीति पर अतीत के संदर्भ में चिंतन करते हुए मन में पहला प्रश्न उठता है कि अतीत में हम कितने पीछे तक जाएं। यदि हम प्राचीन इतिहास में जाते हैं तो किसी सुविचारित शिक्षा नीति के कोई अकाट्य प्रमाण हमें नहीं मिलते। आज भी जब प्राचीन का गौरवगान करते हैं तो तक्षशिला और नालंदा, ये दो नाम ही सामने आते हैं। इन शिक्षा केन्द्रों का अस्तित्व भी लंबे समय तक कायम नहीं रह पाया। इस बात के प्रमाण तो हैं कि प्राचीन समय में वास्तुशिल्प, मूर्ति शिल्प, वस्त्रकला, खगोलविज्ञान, गणित जैसे विषयों में भारत ने महारत हासिल कर ली थी, किन्तु इन विषयों की व्यवस्थित शिक्षा देने के कोई प्रबंध यदि थे तो मैं उनसे परिचित नहीं हूं। मेरा अनुमान है कि पारिवारिक परंपरा अथवा गुरु-शिष्य परंपरा में ही ज्ञानदान की प्रथा लम्बे समय तक हमारे यहां प्रचलित रही होगी। इसका अर्थ है कि शिक्षा सर्वसुलभ नहीं है।
बहरहाल यह शायद उपयुक्त होगा कि हम बहुत पीछे जाने के बजाय आधुनिक समय की स्थितियों की चर्चा करें जिसके बारे में हमारे पास पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं। हम पाते हैं कि भारत में औपचारिक शिक्षा का प्रारंभ अंग्रेजी शासनकाल में प्रारंभ होता है। देश के प्रथम तीन विश्वविद्यालय क्रमश: कलकत्ता, बंबई और मद्रास में 1857 में स्थापित किए गए थे। इसके समानांतर स्कूली शिक्षा का भी औपचारिक तंत्र विकसित किया गया। इस शुरूआती दौर में एक ओर देशी रियासतों में स्कूल खोले गए वहीं दूसरी ओर ब्रिटिश भारत में सरकारी स्कूलों की स्थापना होने लगी। आज जिसे हम पीपीपी अथवा प्रायवेट पब्लिक पार्टनरशिप कहते हैं उसका भी प्रारंभ तभी हो गया था। आज यह देखकर आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता होती है कि 1870-80 के आसपास देश में कितने ही स्थानों पर यहां तक कि दूरदराज गांवों में भी प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालय खोले गए। लड़कियों की विधिवत शिक्षा की शुरूआत भी इसी समय हुई। एक तरफ राजाओं और सामंतों ने इस दिशा में पहल की तो दूसरी तरफ उदारचेता नागरिकों ने भी महती योगदान किया। यह एक नए युग के आने की दस्तक थी।
औपनैवेशिक शासकों ने जिस शिक्षा प्रणाली की नींव रखी उसका तिरस्कार करना आज के समय में आम हो गया है। इस व्यवस्था के माध्यम से भारत को गुलाम बनाने का दोष लार्ड मैकाले पर डाल दिया जाता है, लेकिन यह पूरा सच नहीं है। गुलाम तो हम 1757 में पलासी के मैदान में हार के साथ ही बन चुके थे। लेकिन यह अंग्रेजी राज में लागू शिक्षा पद्धति ही थी, जिसका देशहित में भरपूर इस्तेमाल हमारे स्वाधीनता सेनानियों ने किया। इंग्लैंड ही नहीं, विश्व के अन्य देशों में भारत की आजादी के लिए जनमत तैयार करने में यह शिक्षा मददगार सिद्ध हुई। आचार्य जगदीशचंद्र बसु, सी.वी. रमन, एम. विश्वश्वरैया जैसी महान प्रतिभाएं भी इसी की देन है। मैं यहां बहुत अधिक विस्तार में नहीं जाना चाहता, लेकिन इतना अवश्य कहूंगा कि इस क्षण हम सब जो इस सभा में उपस्थित हैं कमोबेश उसी शिक्षा व्यवस्था के लाभार्थी रहे हैं।
यदि आप मेरी स्थापना से सहमत नहीं है तब भी अतीत के पृष्ठों पर रुके रहने के बजाय बेहतर होगा कि फिलहाल वर्तमान पर ध्यान केंद्रित किया जाए, क्योंकि भविष्य का रास्ता इसी से निकलेगा।
हम देख सकते हैं कि 1947 में आजादी हासिल करने के बाद से ही अन्य बहुत से क्षेत्रों के साथ शिक्षा जगत में भी एक नया वातावरण निर्मित करने की पहल हुई। अनेक नीतिगत निर्णय लिए गए और अनेक परियोजनाओं पर काम प्रारंभ हुआ। उद्देश्य था एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण जो देश की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के अनुकूल हो और जो वैश्विक पटल पर भी भारतीय मेधा की पहिचान कायम कर सके। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का गठन, आईआईएससी, आईआईटी, आईआईएम व अनेक नए विश्वविद्यालयों की स्थापना, कोठारी आयोग का गठन आदि इसी सोच की देन है। देश में बड़े पैमाने पर विद्यालय भी प्रारंभ किए गए जिसमें सरकारी व गैर-सरकारी दोनों क्षेत्रों ने उत्साहपूर्वक भाग लिया। यहां याद कर लेना प्रासंगिक होगा कि देश के प्रथम व द्वितीय उपराष्ट्रपति क्रमश: सर्वपल्ली राधाकृष्णन व डॉ. जाकिर हुसैन अपने समय के अत्यन्त प्रतिष्ठित शिक्षाविद थे। उन्होंने कालांतर में राष्ट्रपति पद को भी सुशोभित किया। इसमें जो राजनैतिक संदेश निहित था, वह स्पष्ट था।
ये सारे उपक्रम समयानुकूल थे। इनसे देश के भीतर एक उदार चेतना विकसित करने में सहायता मिली, लेकिन प्रारंभ में जो आशा व उत्साह का वातावरण था वह एक वक्त आने पर ठंडा पड़ने लगा। इसके दो-तीन कारण समझ में आते हैं। पहला- एक ओर जहां देश में जनतांत्रिक राजनीति का विस्तार हुआ, वहीं दूसरी ओर उसे चुनावी राजनीति का पर्याय बना दिया गया। यह दुखद स्थिति क्यों निर्मित हुई इसकी मीमांसा अलग से की जा सकती है। दूसरा- भारत अंतरराष्ट्रीय राजनीति में आए परिवर्तनों से अछूता नहीं रहा। अस्सी के दशक से जिस तरह से विश्व के अनेक देशोंं में राजनीति पर पूंजीवादी ताकतें हावी होने लगीं, वैसा ही कुछ भारत में भी हुआ। यह याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि जनता द्वारा निर्वाचित सरकारों ने ही जनहित के दो बड़े क्षेत्रों याने शिक्षा और स्वास्थ्य से धीरे-धीरे अपने हाथ खींचना शुरू कर दिया। स्थिति यहां तक आ पहुंची कि स्कूल हो या कॉलेज, पूर्णकालिक शिक्षकों की भर्ती पर पूरी तरह रोक लगा दी गई। नौकरशाही की भाषा में शिक्षक वर्ग को ''डाइंग कैडर'' घोषित कर दिया गया। वर्ल्ड बैंक के इशारे पर यह काम हुआ। यह लोकहितकारी नीति से पलायन की एक बड़ी साजिश थी।
देश की निरंतर बढ़ती हुई आबादी का इस संदर्भ में जो प्रभाव पड़ा है उसे मैं तीसरा कारण मानता हूं। यद्यपि वाम, दक्षिण, मध्यमार्गी- सभी इस सच्चाई को स्वीकार करने से कतराते हैं। किसी भी देश के पास कितने भी संसाधन क्यों न हो ,अंतत: वे सीमित होते हैं। फिर भारत तो चीन, अमेरिका, रूस, आस्ट्रेलिया, कनाडा, ब्राजील किसी से अपनी तुलना नहीं कर सकता। भारत का क्षेत्रफल इन सबकी तुलना में लगभग एक तिहाई हैं इसका अर्थ है कि उपलब्ध संसाधन भी एक तिहाई हैं जबकि चीन को छोड़कर भारत की आबादी सबसे कई-कई गुना अधिक है। ऐसे में सरकार किसी की भी हो उसके सम्मुख यह प्रश्न हमेशा मुंह बाए खड़े रहेगा कि प्राथमिकताओं का निर्धारण कैसे और संसाधनों का वितरण किस अनुपात में किया जाए?
हमने शुरूआती दौर में जो बेहतर स्थिति देखी थी उसके पीछे कहीं न कहीं गांधी- नेहरू के आदर्शों का प्रभाव था। बहुराष्ट्रीय निगमों और कारपोरेट पूंजी के दुष्चक्र के चलते एक नई मानसिकता विकसित हुई जिसमें प्राथमिकताएं बदलते गइंर्। शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर ढांचागत निवेश अर्थात भवनों का निर्माण तो हुआ किन्तु शिक्षक, डॉक्टर और इनके सहायक स्टाफ आदि की भर्ती पर रोक लगा दी गई। सम्पन्न और सुविधाभोगी वर्ग ने अपने ही वर्ग की सेवा करने के लिए महंगे-महंगे स्कूल, कॉलेज और अस्पताल खोल लिए। यहां तक कि वातानुकूलित प्राथमिक विद्यालयों का निर्माण होने लगा। छोटी-छोटी कक्षाओं में पढ़ने वाले बालक-बालिकाओं के लिए या तो सर्वसुविधा सम्पन्न आवासीय विद्यालय स्थापित हो गए या फिर उनके स्कूल जाने के लिए वातानुकूलित वाहनों का प्रबंध कर दिया गया।
यह सब जैसे एक सामान्य नियम बन गया जिसे अंग्रेजी में ''न्यू नार्मल" कहा जाता है। दूसरी ओर शासकीय शिक्षा संस्थानों की हालत बद से बदतर होती गई। शिक्षक ठेके पर रखे जाने लगे। इन अस्थायी शिक्षकों का महिमामंडन शिक्षा-मित्र इत्यादि संज्ञाओं से किया गया। यह विचार भी सामने आया कि गांव के बारहवीं पास नौजवानों को ही गांव के स्कूल में पदस्थ कर दिया जाए। कुल मिलाकर एक दयनीय स्थिति निर्मित कर दी गई। जिसका एक ही उद्देश्य था कि गरीब की संतान को पढ़ने और पढ़कर अपना जीवन संवारने के लिए बराबरी के अवसर से कैसे वंचित किया जाए।
इस बीच संवेदनशील नागरिक समूहों ने अपनी ओर से कुछ पहल की। मध्यप्रदेश में ही किशोर भारती, होशंगाबाद विज्ञान, एकलव्य के उदाहरण सामने हैं। अन्य राज्यों में भी ऐसे प्रयत्न अवश्य हुए होंगे। लेकिन ऐसे तमाम प्रयत्न सत्ता की निगाहों में हमेशा संदेहास्पद बने रहे और इन्हें असफल करने के लिए सरकार की ओर से बार-बार अड़ंगे लगाए जाते रहे। होशंगाबाद विज्ञान जो कि एक वैकल्पिक प्रयोग था उसे प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने ही बंद करवा दिया था। दूसरे शब्दों में निहित स्वार्थों को इन उपक्रमों से कष्ट पहुंच रहा था। जबकि शासन द्वारा संचालित शालाओं में न तो पर्याप्त शिक्षक नियुक्त किए गए और न उनकी अध्यापन क्षमता का आकलन किया गया और न उन्हें अध्यापन प्रवीण बनाने के लिए आवश्यक व्यवस्थाओं के बारे में ठीक से सोचा गया। उच्च शिक्षा में भी ऐसी ही स्थिति बनाई गई।(अगले सप्ताह जारी)
#देशबंधु में 22 फरवरी 2019 को प्रकाशित
अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवां द्वारा आयोजित अर्जुन सिंह व्याख्यानमाला में 15 फरवरी 2019 को मुख्य अतिथि का व्याख्यान
  
 

Tuesday, 19 February 2019

वह अफसर कहाँ है?


पैंतीस साल पहले देखी फिल्म 'सूखा' का अंतिम दृश्य याद आता है। फिल्म का युवा नायक जो किसी सूखाग्रस्त जिले का कलेक्टर है, अपने साथी से क्षोभ भरे स्वर में कहता है-''आई हेट पॉलिटिक्स''। जहां तक मुझे याद आता है, फिल्म यहां समाप्त हो जाती है। इन पैंतीस सालों के दौरान इस अंतिम संवाद में निहित भावना में यदि कोई परिवर्तन हुआ है तो यही कि राजनीति के प्रति जनता के मन में संदेह व अविश्वास की भावना कुछ और गहरी हो गई है। इसका स्वाभाविक परिणाम यह भी हुआ है कि राजनीति जिनका पेशा है याने राजनेता, उनके प्रति भी जनमानस में घृणा व अविश्वास पहले से अधिक प्रबल हुआ है। विगत बीस-पच्चीस सालों के दौरान बनी अनेक फिल्मों में इसके प्रमाण हमें मिलते हैं। मेरी राय में यह स्थिति दुखदायी व चिंताजनक है। मेरी चिंता के एकाधिक कारण हैं। पहली बात तो यही कि जनतांत्रिक समाज में राजनीति व राजनेताओं के प्रति ऐसा क्यों होना चाहिए? राजतंत्र, तानाशाही, सैन्य शासन में शासकों के प्रति जनता के मन में नफरत हो तो उसे समझना कठिन नहीं है, लेकिन जिन्हें जनता ने स्वयं चुना है, उनके प्रति असम्मान विकसित हो जाए तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
दूसरे, सत्तातंत्र में क्या सिर्फ राजनेताओं की प्रथम और अंतिम भूमिका होती है? ''मैं राजनीति से घृणा करता हूं'' कहने वाला अधिकारी स्वयं भी क्या उस तंत्र का अंग नहीं है? और अगर है तो क्या वह पूरी तरह से असहाय है या कठपुतली है? अपनी फिल्मों को देखने से तो ऐसा नहीं लगता। उनमें तो हम कई बार सरकारी अधिकारी का रोल निभा रहे नायकों, महानायकों, नायिकाओं को देखते हैं जो अकेले अपनी दम पर भ्रष्ट व्यवस्था से लड़कर बुराई का खात्मा करते हैं। फिल्म की कहानी में सत्य का अंश हो सकता है, लेकिन हम जानते हैं कि उनमें अधिकतर कल्पना की ऊंची उड़ान होती है, इसलिए फिल्म में जो कुछ वर्णित है, उसे अंतिम सत्य मानना उचित नहीं होगा। फिल्मों की विवेचना हो तो यह स्मरण रखना उतना लाजिमी है कि न तो हर राजनेता खलनायक होता है और न हर अधिकारी नायक। बहरहाल, 'सूखा' फिल्म के एक संवाद से अपने लेख का प्रारंभ करने के पीछे मेरा मकसद कुछ और ही था कि आज से तीन-चार दशक पहले जो ईमानदार अफसर सत्तातंत्र की विसंगतियों का मुकाबला करते हुए थक रहा था, निराश हो रहा था, वह आज कहां है? मैं उसे आभासी दुनिया से बाहर व्यवहारिक जगत में देखने की कोशिश कर रहा हूं। इसमें जो दृश्य सामने आता है, वह मुझे भयानक प्रतीत होता है और नई चिंता से भर देता है।
पिछले सप्ताह पश्चिम बंगाल में जो घटित हुआ, उस पर एक नज़र डालिए। सीबीआई का दस्ता कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार के आवास पर पहुंचता है। उद्देश्य है- शारदा चिटफंड घोटाले में उनसे पूछताछ। आशंका है कि उन्हें गिरफ्तार किया जाएगा। सरकारी आवास पर तैनात सुरक्षाकर्मी सीबीआई अधिकारियों को न सिर्फ रोकते हैं, बल्कि उल्टे उनको ही पुलिस थाने भेज देते हैं। घटना के विवरणों में मैं नहीं जाऊंगा। खबर सबको पता है। राज्य की मुख्यमंत्री, अनेक अधिकारी, अंतत: सर्वोच्च न्यायालय, दृश्य में एक के बाद एक प्रकट होते हैं। अदालत राजीव कुमार को गिरफ्तार न करने के आदेश देती है और राजीव कुमार को राज्य के बाहर तटस्थ स्थान याने शिलांग में सीबीआई की जांच में सहयोग करने निर्दिष्ट करती है। कुछ समय के लिए एक संवैधानिक संकट जैसी स्थिति उत्पन्न होने की आशंका बनने लगती है। कहा नहीं जा सकता कि उसमें आगे क्या होगा। यहां उल्लेखनीय है कि उस दिन सीबीआई में कोई पूर्णकालिक निदेशक न होकर एक कार्यवाहक या अस्थायी निदेशक है और वह स्वयं अनेक विवादों में घिरा हुआ है।
इस बीच छत्तीसगढ़ में पुलिस के एक आला अफसर को एक अन्य अधिकारी के साथ निलंबित कर दिया जाता है। सिर्फ दो माह पहले तक मुकेश गुप्ता को प्रदेश का सबसे ताकतवर पुलिस अफसर माना जाता था, जो सिवाय मुख्यमंत्री के अन्य किसी के प्रति जवाबदेह नहीं था। तत्कालीन मुख्यमंत्री के परम विश्वस्त अधिकारी अमन सिंह के खिलाफ भी आवाज़ें उठती हैं। उन पर तरह-तरह के आरोप लगते हैं। प्रदेश के एक होनहार व सक्षम माने-जाने वाले आईएएस अधिकारी डॉ. आलोक शुक्ला एक बड़े घोटाले में आरोपी होकर पहले से ही निलंबित हैं। लेकिन यह स्थिति पश्चिम बंगाल या छत्तीसगढ़ तक सीमित नहीं है। उत्तरप्रदेश में मुख्य सचिव रहे अखंड प्रताप सिंह और सुश्री नीरा यादव के नाम अनायास ध्यान आते हैं। याद करेंगे तो हरेक प्रांत से एक-दो प्रकरण अवश्य मिल जाएंगे। केंद्र सरकार में सचिव रहे एच.सी. गुप्ता व पी.सी. पारख का नामोल्लेख भी यहां किया जा सकता है। सवाल उठता है कि ऐसे प्रकरण घटित होने की नौबत ही क्यों आ रही है?
जिस भारतीय प्रशासनिक सेवों को सरदार पटेल ने शासन संचालन के लिए इस्पाती ढांचा निरूपित किया था, क्या उसमें समय के साथ जंग लग चुकी है? यदि उत्तर हां में है तो इस शोचनीय दशा में पहुंचने के कारणों की खोज करना और उनका निदान करने की तत्काल आवश्यकता है। हां, जब बात भारतीय प्रशासनिक सेवा की हो रही है तो विषय को समग्रता में जानने के लिए अन्य सेवाओं को उसमें शामिल मान लेना चाहिए। यह समयसिद्ध है कि किसी भी समाज या देश में प्रशासन तंत्र पूरी तरह से भ्रष्टाचार मुक्त नहीं रहा है; लेकिन आज भारत में जो स्थिति है वह कल्पनातीत है। भ्रष्टाचार से यहां हमारा आशय सिर्फ रिश्वत के लेन-देन से नहीं है, बल्कि बात उसके बहुत आगे जाती है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि हमारे देश में प्रशासन तंत्र पूरी तरह चरमरा गया है। अधिकारी और कर्मचारी जिन्हें हम लोकसेवक की संज्ञा देते हैं, वे तो प्रथम दृष्टया दोषी है ही, लेकिन उनके पीछे जो अदृश्य शक्तियां काम करती हैं, उनकी ओर से निगाह फेर लेने से काम नहीं चलेगा।
मैंने ऐसे राजनेताओं को देखा है जिन्होंने अपने अधीनस्थों पर कभी भी अनुचित दबाव नहीं डाला, बल्कि उन्हें अभय दिया कि वे लोक महत्व के किसी भी मुद्दे पर खुलकर अपनी राय व्यक्त करें, सरकारी फाइल में उसकी नोटिंग करें। दूसरे शब्दों में इन नेताओं ने अधिकारियों-कर्मचारियों को कभी बलि का बकरा नहीं बनाया और अपने निर्णयों की जिम्मेदारी खुद स्वीकार करने में आनाकानी नहीं की। वर्तमान समय में यदि यह स्थिति बदल गई है तो इसमेें नेताओं की मानसिक दुर्बलता भी प्रकट होती है। जो सामने है वह सबको दिखता है, किंतु इस तस्वीर का एक तीसरा पहलू भी है। वही सबसे अधिक भयानक और सर्वाधिक चिंताजनक है। आज दुनिया एक ऐसे मुकाम पर आकर खड़ी है, जहां वैश्विक पूंजीवाद की ताकतें सर्वग्रासी, सर्वभक्षी होते जा रही हैं। भ्रष्टाचार को संगठित, सांस्थानिक स्वरूप देने का काम इन्होंने किया है। एक तरफ इन्होंने मनुष्य के मन में असीमित इच्छाएं जागृत कर दी हैं, दूसरी ओर उन्हें हासिल करने के नए-नए रास्ते खोल दिए हैं। ये ताकतें देशों की सार्वभौमिकता का तिरस्कार करती हैं और राष्ट्रीय सरकारों की निर्णयक्षमता व न्यायबुद्धि में पलीता लगाती हैं। इसके लिए ये तरह-तरह के प्रलोभनों में नेताओं व अधिकारियों को उलझाती हैं।
यदि विश्व के मानचित्र पर निगाह डालें तो इनकी कुटिल चालों का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। वेनेजुएला में निकोलस मदूरो की निर्वाचित सरकार को अस्थिर करना ज्वलंत उदाहरण है। कभी विश्व में लोकप्रिय रहे ब्राजील के पूर्व राष्ट्रपति लुला आज जेल में हैं। ध्यान रहे कि वैश्विक पूंजी के एजेंट, समर्थक व अनुयायी हरेक देश में हैं। दुर्भाग्य यही है कि आज जो सत्तातंत्र के अंग हैं, वे इनके चक्रव्यूह में फंस जाते हैं। तीसरी दुनिया के देशों की क्या बात करें, इन्हीं ताकतों के चलते कभी विश्व की दूसरी महाशक्ति माने जाने वाले सोवियत संघ तक का विघटन हो गया। फिर येल्तसिन के शासनकाल में रूस की जो दुर्गति हुई, वह विश्व इतिहास का एक त्रासद अध्याय है।
इस दुर्दशा से बाहर निकलना असंभव नहीं है, लेकिन आसान भी नहीं है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध नारे लगाने और मोमबत्तियां जलाने से कुछ नहीं होगा। जनलोकपाल जैसी फर्जी बहसें भी कहीं नहीं ले जाएंगी। मिठलबरे साधु-सन्यासियों के प्रवचन भी किसी काम के नहीं हैं। भारत को गर्त से बाहर निकाल आगे ले जाने का काम सिर्फ वे युवजन कर सकते हैं, जो पद, धन, यश, पदवी के लोभ और हर तरह के प्रलोभनों से मुक्त हो देश के किसानों-मजदूरों याने आमजन के बीच जाकर काम कर सकें।
#देशबंधु में 14 फरवरी 2019 को प्रकाशित

Thursday, 7 February 2019

सत्ता कुसुम, रस-लोभी भ्रमर व अन्य बातें


छत्तीसगढ़ में इन दिनों कड़ाके की ठंड पड़ रही है। इसके बरक्स प्रदेश के राजनैतिक-सामाजिक वातावरण में एक आश्वस्तिकारी गर्माहट का अनुभव हो रहा है। आम जनता को लग रहा है कि सरकार सचमुच उसके पास आ गई है। मुख्यमंत्री और उनके सहयोगी इन दिनों सोलह-सोलह घंटे काम कर रहे हैं। सरकारी कामकाज भी चल रहा है और इसके बीच दूर-दराज के गांवों तक पहुंच मंत्रीगण सार्वजनिक कार्यक्रमों में हिस्सेदारी दर्ज कर रहे हैं। दिल्ली और अनेक स्थानों से फोन करके लोग मुझसे पूछते हैं कि सरकार कैसी चल रही है। मेरा एक ही उत्तर होता है कि कुल मिलाकर सरकार की दिशा और गति सही है। मैं रायपुर में बैठकर अनुमान लगाता हूं कि संभवत: मध्यप्रदेश में भी ऐसा ही खुला-खुला माहौल होगा। जिस दिन रायपुर के एक कार्यक्रम में भूपेश बघेल लट्टू घुमा रहे थे, उसी दिन ग्वालियर में ज्योतिरादित्य सिंधिया किसी मेले में समोसे में आलू भरने की दक्षता प्रदर्शित कर रहे थे। यह सब अच्छा लगता है, लेकिन मेरा मन एक चेतावनी दर्ज करना चाहता है।
सत्ता कुसुम पर रस-लोभी भौंरे मंडरा ही नहीं रहे हैं, आकर बैठ भी गए हैं। इनमें पत्रकार, मीडिया मालिक, लेखक, अध्यापक, अधिकारी, कर्मचारी, संन्यासी सभी वर्गों के लोग शामिल हैं। अधिकतर वे ही हैं जिन्होंने पिछले पंद्रह साल में रमन सरकार का रस चूसने में कोई कसर बाकी नहीं रखी और बिना समय गंवाए अपना उड़ान- पथ बदल लिया। खबरे है कि रायपुर शहर जिला कांग्रेस अध्यक्ष गिरीश दुबे ने ऐसे कुछ कर्मचारियों की सूची मुख्यमंत्री को सौंपी है। लेकिन जो ऊंचा दांव खेल रहे हैं, उनकी सूची कौन बनाएगा? यह तो हर मंत्री के निजी विवेक पर निर्भर करेगा कि वे स्वार्थ के एजेंटों से बचकर रहें।
अब सरकार के सामने यह चुनौती भी है कि जन आकांक्षाओं के अनुरूप नीतियों व कार्यक्रम कैसे बनाए जाएं व उनका निष्ठापूर्वक क्रियान्वयन कैसे हो। मैंने चुनावों के दौरान ''अपनी सरकार से अपेक्षाएं'' शीर्षक से तीन लेख लिखे थे। उसी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कुछेक बिंदु मुख्यमंत्री व संबंधित विभागीय मंत्रियों के ध्यान में लाना चाहता हूं।
टी.एस. सिंहदेव के समक्ष बड़ी चुनौती है कि प्रदेश में चिकित्सा सुविधाओं को कैसे जनसुलभ बनाया जाए। उन्होंने आयुष्मान योजना के स्थान पर राज्य की अपनी योजना प्रारंभ करने की बात कही है। इसका मैं स्वागत करता हूं। देशव्यापी जनस्वास्थ्य अभियान से भविष्य के बारे में परामर्श करना उचित होगा। यह अच्छी खबर है वे उनके संपर्क में है। क्यूबा की स्वास्थ्य सुविधाएं विश्व में सबसे उत्तम है। इंग्लैंड की नेशनल हैल्थ सर्विस का उदाहरण भी सामने है। क्या इनसे कुछ सीखा जा सकता है? प्रदेश में भी सेवाभावी डॉक्टरों की कमी नहीं है। उनके अनुभव काम में आ सकते है। आशय यह कि स्वास्थ्य सुविधाओं के क्षेत्र में नवाचार की आवश्यकता है।
सिंहदेवजी पर पंचायती राज की भी महती जिम्मेदारी है। शकुंतला साहू, द्वारिकाधीश यादव, ममता चंद्राकर, कुंवर सिंह निषाद आदि की विधानसभा में उपस्थिति प्रदेश में जनतंत्र की जड़ें मजबूत होने का संकेत देती हैं। लेकिन आवश्यक है कि पंचायती राज प्रतिनिधियों को सही ढंग से प्रशिक्षण दिया जाए। अभी तक इस दिशा में खानापूरी होते आई है। ग्राम सभाएं कागज पर हो जाती हैं। विभागीय अधिकारियों के सामने चुने हुए प्रतिनिधियों की कोई हैसियत नहीं रहती और जमीनी स्तर पर प्रणाली को पुष्ट करने में अब तक किसी की रुचि नहीं देखी गई है।
सांस्कृतिक मोर्चे पर इस सरकार ने एक पुण्य का काम किया कि राजिम पुन्नी मेला को उसकी पुरानी पहचान वापिस मिल गई और कुंभ के नाम पर हो रहा आडंबर खत्म हो गया। लेकिन ताम्रध्वज साहू से हमें अभी बहुत सी अन्य अपेक्षाएं हैं। मेरा पहला प्रस्ताव है कि प्रदेश में पृथक से पुरातत्व संचालनालय तुरंत स्थापित किया जाए। उसे संस्कृति संचालनालय से अलग करना आवश्यक है। हमारा राज्य पुरातत्व के मामले में बहुत संपन्न है, किंतु इस अनमोल खजाने का ठीक से संरक्षण नहीं हो रहा है। ए.एस.आई. के पुराविद् शिवाकांत बाजपेयी ने यहां प्रतिनियुक्ति पर रहते हुए डमरू (बलौदाबाजार) में जिस लगन से काम किया था, उसी तरह के परिश्रम और लगन से प्रदेश के अतीत-वैभव को संजोया जा सकता है।
श्री साहूू के पास पर्यटन का महकमा भी है। दुर्भाग्य है कि लंबे समय तक इस विभाग में सचिव पद पर दूसरे प्रदेशों से डेपुटेशन पर आए अफसर काम करते रहे, जिनकी कोई रुचि प्रदेश में पर्यटन के विकास में नहीं थी। चमक-दमक वाली महंगी पुस्तकें , ब्रोशर, बुकलेट, नक्शे छापे गए, जिनमें दी गई जानकारियां भी गलत थीं। लेकिन जिनके लिए बाहर की एजेंसियों को भारी भरकम भुगतान किया गया। पर्यटन मंडल ने करोड़ों की लागत से मोटल बनाए। वे अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहे हैं। आज आवश्यक है कि पर्यटन व संस्कृति पर नए सिरे से नीति व कार्यक्रमों का निर्धारण हो, ताकि प्रदेश में रोजगार व राजस्व वृद्धि का एक स्थायी स्रोत तैयार हो सके। अतीत में संस्कृति विभाग ने व्यवसायिक प्रतिष्ठानों तक को उनकी ब्रांड इक्विटी बढ़ाने के लिए अनुदान दिया। यह सब बंद होना चाहिए।
अनुभवी विधायक रवीन्द्र चौबे के पास कृषि और संबंधित विभाग हैं। इस सरकार को जनता की निगाहों में किसानों की सरकार माना गया है। यह संतोष का विषय है कि छत्तीसगढ़ की चार चिन्हारी को लेकर प्राथमिकता के आधार पर क्रियान्वयन प्रारंभ हो गया हैै। चौबेजी को इसके आगे भी देखना है। प्रदेश का कृषि विश्वविद्यालय है तो इंदिरा गांधी के नाम पर, किंतु हाल के वर्षों में यह प्रतिक्रियावादी सोच का क्रीड़ांगन बन गया है। सोचना होगा कि यहां कृषि शिक्षा का वातावरण पुन: कैसे स्थापित किया जाए। यह भी देखा जाए कि प्रदेश की औद्योगिक प्रशिक्षण शालाओं (आई.टी.आई.) में क्या कृषि तकनीकी की शिक्षा जोड़ी जा सकती है, ताकि नौजवानों को उस दिशा में रोजगार मिलने की संभावनाएं बन सकें। गोठान बनाने और पशुधन के संस्था को ध्यान में रखते हुए पशु चिकित्सा शिक्षा (वेटेरेनरी) के बारे में भी सम्यक विचार करना होगा।
डॉ. प्रेमसाय सिंह और उमेश पटेल क्रमश: स्कूली शिक्षा व उच्च शिक्षा संभाल रहे हैं। मेरी राय में तो शिक्षा का एकीकृत एक ही विभाग होना बेहतर होता; लेकिन फिलहाल जो है, उसमें क्या हो सकता है, यह गौरतलब है। शिक्षकों का प्रशिक्षण बुनियादी आवश्यकता है। फिर हमें स्कूलों में पूर्णकालिक शिक्षक चाहिए। शाला प्रबंधन समितियों को सुदृढ़ करने के उपायों पर विचार करना वांछित है। विचारणीय है कि क्या समाजसेवी संस्थाओं का सहयोग शालाओं की स्थिति सुदृढ़ करने में लेना उचित होगा। इसके लिए प्रदेश की प्रमुख सामाजिक संस्थाओं के साथ बातचीत का मंच तैयार करना उपयुक्त हो सकता है।
महाविद्यालयों में छात्रसंघ चुनाव फिर से शुरू करने का निर्णय स्वागत योग्य है। अठारह वर्ष से अधिक आयु के हर युवा को जब राजनीति में भाग लेने का अधिकार है तो उससे वंचित क्यों रखा जाए! लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि छात्रसंघ जनतांत्रिक राजनीति की सीढ़ी बने, न कि ठेकेदारी और कमीशनखोरी की। युवा उच्च शिक्षा मंत्री को तत्काल इस तरफ भी ध्यान देना चाहिए कि कॉलेज और वि.वि. में शिक्षकों के सैकड़ों पद रिक्त पड़े हैं। पहुंच वाले शिक्षकों ने अपने लिए आरामदेह प्रतिनियुक्तियां ढूंढ ली हैं। विवि में रजिस्ट्रार के पद भी खाली हैं, और हाईकोर्ट में न जाने कितने मुकदमे चल रहे हैं। याने यहां प्रशासनिक पारदर्शिता व स्वच्छता की महती आवश्यकता है। शिक्षातंत्र के बारे में मेरी राय यह भी है कि शिक्षण संस्थाओं को अधिकतम स्वायत्तता देना चाहिए। संस्था प्रमुख के पद पर कल्पनाशील, ऊर्जावान, ईमानदार व्यक्ति नियुक्त हों, यह देखना भी आवश्यक है।
आज मैंने कुछ विभागों के बारे में उपलब्ध जानकारी के आधार पर बात की है। अन्य विभागों के बारे में भी चर्चा की जा सकती है, लेकिन कॉलम का सीमित स्थान उसकी इजाजत नहीं देता। तथापि भूपेश बघेल और उनके सभी सहयोगियों से हमारी अपेक्षा है कि अधूरी पड़ी योजनाओं को जल्दी पूरा करें। जिन योजनाओं में जनधन का अपव्यय हो रहा है उन पर रोक लगाई जाए, मंत्रियों के आचरण में अभी जो सादगी दिख रही है वह बनी रहे, और प्रदेश की जनता और उनके बीच न सिक्यूरिटी के बैरियर हों और न अहंकार की दीवार ही खड़ी हो।
#देशबंधु में 07 फरवरी 2019 को प्रकाशित