Thursday, 21 February 2019

भारत की शिक्षा नीति : अतीत, वर्तमान एवं भविष्य-1


यह मेरे लिए सम्मान की बात है कि कीर्तिशेष अर्जुन सिंह जी की स्मृति में आयोजित इस कार्यक्रम में आपने मुझे आमंत्रित किया और इस योग्य समझा कि मैं ऐसे विषय पर आपसे बातचीत करूं जो एक विरल बौद्धिक क्षमतावान, समाज सजग राजनेता के रूप में संभवत: उनका सबसे प्रिय विषय था और जिसे लेकर उनके मन में अनेकानेक कल्पनाएं थीं। मेरा यह सौभाग्य है कि अर्जुन सिंह जी को कुछ निकट से देखने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को जानने-समझने का कुछ अवसर मुझे मिला। वैसे तो मैं उनको 1963 से जानता था जब वे पंडित द्वारिकाप्रसाद मिश्र मंत्रिमंडल में शामिल किए गए थे, लेकिन उन्हें बेहतर रूप में तब जाना जब मध्यप्रदेश के शिक्षा मंत्री के रूप में उन्होंने प्रदेश के शैक्षणिक वातावरण को बेहतर बनाने के लिए गहरी सूझबूझ के साथ बहुत सारे कदम उठाए। यहां उस समय के दो प्रसंगों का उल्लेख उचित होगा। उन्होंने मध्यप्रदेश के निजी स्कूलों के शिक्षकों की समस्याओं को गहरी मानवीय संवेदना के साथ सुलझाया, दूसरी ओर 1973 में एकीकृत विश्वविद्यालय अधिनियम के द्वारा उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी ढांचाकृत परिवर्तन की पहल की।
भारत के मानव संसाधन मंत्री के रूप में काम करते हुए उनका अविस्मरणीय योगदान शिक्षा का अधिकार कानून के रूप में हमारे सामने है। उनके समय में शिक्षाजगत की बेहतरी के लिए और भी बहुत से निर्णय लिए गए। उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए मैं आज के विषय पर अपने विचार आपके साथ साझा करने की अनुमति चाहता हूं। आपने मुझे विषय दिया है- भारत की शिक्षा नीति : अतीत, वर्तमान एवं भविष्य। विषय बहुत व्यापक है और इस पर अधिकारपूर्वक विचार रखना मेरी सामर्थ्य से परे है, फिर भी किन्तु पांच दशकों से मेरा शिक्षा जगत से जो कुछ लगाव रहा है उसके आधार पर कुछ बिन्दु आपके सामने रखना चाहूंगा।
भारत की शिक्षा नीति पर अतीत के संदर्भ में चिंतन करते हुए मन में पहला प्रश्न उठता है कि अतीत में हम कितने पीछे तक जाएं। यदि हम प्राचीन इतिहास में जाते हैं तो किसी सुविचारित शिक्षा नीति के कोई अकाट्य प्रमाण हमें नहीं मिलते। आज भी जब प्राचीन का गौरवगान करते हैं तो तक्षशिला और नालंदा, ये दो नाम ही सामने आते हैं। इन शिक्षा केन्द्रों का अस्तित्व भी लंबे समय तक कायम नहीं रह पाया। इस बात के प्रमाण तो हैं कि प्राचीन समय में वास्तुशिल्प, मूर्ति शिल्प, वस्त्रकला, खगोलविज्ञान, गणित जैसे विषयों में भारत ने महारत हासिल कर ली थी, किन्तु इन विषयों की व्यवस्थित शिक्षा देने के कोई प्रबंध यदि थे तो मैं उनसे परिचित नहीं हूं। मेरा अनुमान है कि पारिवारिक परंपरा अथवा गुरु-शिष्य परंपरा में ही ज्ञानदान की प्रथा लम्बे समय तक हमारे यहां प्रचलित रही होगी। इसका अर्थ है कि शिक्षा सर्वसुलभ नहीं है।
बहरहाल यह शायद उपयुक्त होगा कि हम बहुत पीछे जाने के बजाय आधुनिक समय की स्थितियों की चर्चा करें जिसके बारे में हमारे पास पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं। हम पाते हैं कि भारत में औपचारिक शिक्षा का प्रारंभ अंग्रेजी शासनकाल में प्रारंभ होता है। देश के प्रथम तीन विश्वविद्यालय क्रमश: कलकत्ता, बंबई और मद्रास में 1857 में स्थापित किए गए थे। इसके समानांतर स्कूली शिक्षा का भी औपचारिक तंत्र विकसित किया गया। इस शुरूआती दौर में एक ओर देशी रियासतों में स्कूल खोले गए वहीं दूसरी ओर ब्रिटिश भारत में सरकारी स्कूलों की स्थापना होने लगी। आज जिसे हम पीपीपी अथवा प्रायवेट पब्लिक पार्टनरशिप कहते हैं उसका भी प्रारंभ तभी हो गया था। आज यह देखकर आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता होती है कि 1870-80 के आसपास देश में कितने ही स्थानों पर यहां तक कि दूरदराज गांवों में भी प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालय खोले गए। लड़कियों की विधिवत शिक्षा की शुरूआत भी इसी समय हुई। एक तरफ राजाओं और सामंतों ने इस दिशा में पहल की तो दूसरी तरफ उदारचेता नागरिकों ने भी महती योगदान किया। यह एक नए युग के आने की दस्तक थी।
औपनैवेशिक शासकों ने जिस शिक्षा प्रणाली की नींव रखी उसका तिरस्कार करना आज के समय में आम हो गया है। इस व्यवस्था के माध्यम से भारत को गुलाम बनाने का दोष लार्ड मैकाले पर डाल दिया जाता है, लेकिन यह पूरा सच नहीं है। गुलाम तो हम 1757 में पलासी के मैदान में हार के साथ ही बन चुके थे। लेकिन यह अंग्रेजी राज में लागू शिक्षा पद्धति ही थी, जिसका देशहित में भरपूर इस्तेमाल हमारे स्वाधीनता सेनानियों ने किया। इंग्लैंड ही नहीं, विश्व के अन्य देशों में भारत की आजादी के लिए जनमत तैयार करने में यह शिक्षा मददगार सिद्ध हुई। आचार्य जगदीशचंद्र बसु, सी.वी. रमन, एम. विश्वश्वरैया जैसी महान प्रतिभाएं भी इसी की देन है। मैं यहां बहुत अधिक विस्तार में नहीं जाना चाहता, लेकिन इतना अवश्य कहूंगा कि इस क्षण हम सब जो इस सभा में उपस्थित हैं कमोबेश उसी शिक्षा व्यवस्था के लाभार्थी रहे हैं।
यदि आप मेरी स्थापना से सहमत नहीं है तब भी अतीत के पृष्ठों पर रुके रहने के बजाय बेहतर होगा कि फिलहाल वर्तमान पर ध्यान केंद्रित किया जाए, क्योंकि भविष्य का रास्ता इसी से निकलेगा।
हम देख सकते हैं कि 1947 में आजादी हासिल करने के बाद से ही अन्य बहुत से क्षेत्रों के साथ शिक्षा जगत में भी एक नया वातावरण निर्मित करने की पहल हुई। अनेक नीतिगत निर्णय लिए गए और अनेक परियोजनाओं पर काम प्रारंभ हुआ। उद्देश्य था एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण जो देश की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के अनुकूल हो और जो वैश्विक पटल पर भी भारतीय मेधा की पहिचान कायम कर सके। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का गठन, आईआईएससी, आईआईटी, आईआईएम व अनेक नए विश्वविद्यालयों की स्थापना, कोठारी आयोग का गठन आदि इसी सोच की देन है। देश में बड़े पैमाने पर विद्यालय भी प्रारंभ किए गए जिसमें सरकारी व गैर-सरकारी दोनों क्षेत्रों ने उत्साहपूर्वक भाग लिया। यहां याद कर लेना प्रासंगिक होगा कि देश के प्रथम व द्वितीय उपराष्ट्रपति क्रमश: सर्वपल्ली राधाकृष्णन व डॉ. जाकिर हुसैन अपने समय के अत्यन्त प्रतिष्ठित शिक्षाविद थे। उन्होंने कालांतर में राष्ट्रपति पद को भी सुशोभित किया। इसमें जो राजनैतिक संदेश निहित था, वह स्पष्ट था।
ये सारे उपक्रम समयानुकूल थे। इनसे देश के भीतर एक उदार चेतना विकसित करने में सहायता मिली, लेकिन प्रारंभ में जो आशा व उत्साह का वातावरण था वह एक वक्त आने पर ठंडा पड़ने लगा। इसके दो-तीन कारण समझ में आते हैं। पहला- एक ओर जहां देश में जनतांत्रिक राजनीति का विस्तार हुआ, वहीं दूसरी ओर उसे चुनावी राजनीति का पर्याय बना दिया गया। यह दुखद स्थिति क्यों निर्मित हुई इसकी मीमांसा अलग से की जा सकती है। दूसरा- भारत अंतरराष्ट्रीय राजनीति में आए परिवर्तनों से अछूता नहीं रहा। अस्सी के दशक से जिस तरह से विश्व के अनेक देशोंं में राजनीति पर पूंजीवादी ताकतें हावी होने लगीं, वैसा ही कुछ भारत में भी हुआ। यह याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि जनता द्वारा निर्वाचित सरकारों ने ही जनहित के दो बड़े क्षेत्रों याने शिक्षा और स्वास्थ्य से धीरे-धीरे अपने हाथ खींचना शुरू कर दिया। स्थिति यहां तक आ पहुंची कि स्कूल हो या कॉलेज, पूर्णकालिक शिक्षकों की भर्ती पर पूरी तरह रोक लगा दी गई। नौकरशाही की भाषा में शिक्षक वर्ग को ''डाइंग कैडर'' घोषित कर दिया गया। वर्ल्ड बैंक के इशारे पर यह काम हुआ। यह लोकहितकारी नीति से पलायन की एक बड़ी साजिश थी।
देश की निरंतर बढ़ती हुई आबादी का इस संदर्भ में जो प्रभाव पड़ा है उसे मैं तीसरा कारण मानता हूं। यद्यपि वाम, दक्षिण, मध्यमार्गी- सभी इस सच्चाई को स्वीकार करने से कतराते हैं। किसी भी देश के पास कितने भी संसाधन क्यों न हो ,अंतत: वे सीमित होते हैं। फिर भारत तो चीन, अमेरिका, रूस, आस्ट्रेलिया, कनाडा, ब्राजील किसी से अपनी तुलना नहीं कर सकता। भारत का क्षेत्रफल इन सबकी तुलना में लगभग एक तिहाई हैं इसका अर्थ है कि उपलब्ध संसाधन भी एक तिहाई हैं जबकि चीन को छोड़कर भारत की आबादी सबसे कई-कई गुना अधिक है। ऐसे में सरकार किसी की भी हो उसके सम्मुख यह प्रश्न हमेशा मुंह बाए खड़े रहेगा कि प्राथमिकताओं का निर्धारण कैसे और संसाधनों का वितरण किस अनुपात में किया जाए?
हमने शुरूआती दौर में जो बेहतर स्थिति देखी थी उसके पीछे कहीं न कहीं गांधी- नेहरू के आदर्शों का प्रभाव था। बहुराष्ट्रीय निगमों और कारपोरेट पूंजी के दुष्चक्र के चलते एक नई मानसिकता विकसित हुई जिसमें प्राथमिकताएं बदलते गइंर्। शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर ढांचागत निवेश अर्थात भवनों का निर्माण तो हुआ किन्तु शिक्षक, डॉक्टर और इनके सहायक स्टाफ आदि की भर्ती पर रोक लगा दी गई। सम्पन्न और सुविधाभोगी वर्ग ने अपने ही वर्ग की सेवा करने के लिए महंगे-महंगे स्कूल, कॉलेज और अस्पताल खोल लिए। यहां तक कि वातानुकूलित प्राथमिक विद्यालयों का निर्माण होने लगा। छोटी-छोटी कक्षाओं में पढ़ने वाले बालक-बालिकाओं के लिए या तो सर्वसुविधा सम्पन्न आवासीय विद्यालय स्थापित हो गए या फिर उनके स्कूल जाने के लिए वातानुकूलित वाहनों का प्रबंध कर दिया गया।
यह सब जैसे एक सामान्य नियम बन गया जिसे अंग्रेजी में ''न्यू नार्मल" कहा जाता है। दूसरी ओर शासकीय शिक्षा संस्थानों की हालत बद से बदतर होती गई। शिक्षक ठेके पर रखे जाने लगे। इन अस्थायी शिक्षकों का महिमामंडन शिक्षा-मित्र इत्यादि संज्ञाओं से किया गया। यह विचार भी सामने आया कि गांव के बारहवीं पास नौजवानों को ही गांव के स्कूल में पदस्थ कर दिया जाए। कुल मिलाकर एक दयनीय स्थिति निर्मित कर दी गई। जिसका एक ही उद्देश्य था कि गरीब की संतान को पढ़ने और पढ़कर अपना जीवन संवारने के लिए बराबरी के अवसर से कैसे वंचित किया जाए।
इस बीच संवेदनशील नागरिक समूहों ने अपनी ओर से कुछ पहल की। मध्यप्रदेश में ही किशोर भारती, होशंगाबाद विज्ञान, एकलव्य के उदाहरण सामने हैं। अन्य राज्यों में भी ऐसे प्रयत्न अवश्य हुए होंगे। लेकिन ऐसे तमाम प्रयत्न सत्ता की निगाहों में हमेशा संदेहास्पद बने रहे और इन्हें असफल करने के लिए सरकार की ओर से बार-बार अड़ंगे लगाए जाते रहे। होशंगाबाद विज्ञान जो कि एक वैकल्पिक प्रयोग था उसे प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने ही बंद करवा दिया था। दूसरे शब्दों में निहित स्वार्थों को इन उपक्रमों से कष्ट पहुंच रहा था। जबकि शासन द्वारा संचालित शालाओं में न तो पर्याप्त शिक्षक नियुक्त किए गए और न उनकी अध्यापन क्षमता का आकलन किया गया और न उन्हें अध्यापन प्रवीण बनाने के लिए आवश्यक व्यवस्थाओं के बारे में ठीक से सोचा गया। उच्च शिक्षा में भी ऐसी ही स्थिति बनाई गई।(अगले सप्ताह जारी)
#देशबंधु में 22 फरवरी 2019 को प्रकाशित
अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवां द्वारा आयोजित अर्जुन सिंह व्याख्यानमाला में 15 फरवरी 2019 को मुख्य अतिथि का व्याख्यान
  
 

No comments:

Post a Comment