Tuesday 19 February 2019

वह अफसर कहाँ है?


पैंतीस साल पहले देखी फिल्म 'सूखा' का अंतिम दृश्य याद आता है। फिल्म का युवा नायक जो किसी सूखाग्रस्त जिले का कलेक्टर है, अपने साथी से क्षोभ भरे स्वर में कहता है-''आई हेट पॉलिटिक्स''। जहां तक मुझे याद आता है, फिल्म यहां समाप्त हो जाती है। इन पैंतीस सालों के दौरान इस अंतिम संवाद में निहित भावना में यदि कोई परिवर्तन हुआ है तो यही कि राजनीति के प्रति जनता के मन में संदेह व अविश्वास की भावना कुछ और गहरी हो गई है। इसका स्वाभाविक परिणाम यह भी हुआ है कि राजनीति जिनका पेशा है याने राजनेता, उनके प्रति भी जनमानस में घृणा व अविश्वास पहले से अधिक प्रबल हुआ है। विगत बीस-पच्चीस सालों के दौरान बनी अनेक फिल्मों में इसके प्रमाण हमें मिलते हैं। मेरी राय में यह स्थिति दुखदायी व चिंताजनक है। मेरी चिंता के एकाधिक कारण हैं। पहली बात तो यही कि जनतांत्रिक समाज में राजनीति व राजनेताओं के प्रति ऐसा क्यों होना चाहिए? राजतंत्र, तानाशाही, सैन्य शासन में शासकों के प्रति जनता के मन में नफरत हो तो उसे समझना कठिन नहीं है, लेकिन जिन्हें जनता ने स्वयं चुना है, उनके प्रति असम्मान विकसित हो जाए तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
दूसरे, सत्तातंत्र में क्या सिर्फ राजनेताओं की प्रथम और अंतिम भूमिका होती है? ''मैं राजनीति से घृणा करता हूं'' कहने वाला अधिकारी स्वयं भी क्या उस तंत्र का अंग नहीं है? और अगर है तो क्या वह पूरी तरह से असहाय है या कठपुतली है? अपनी फिल्मों को देखने से तो ऐसा नहीं लगता। उनमें तो हम कई बार सरकारी अधिकारी का रोल निभा रहे नायकों, महानायकों, नायिकाओं को देखते हैं जो अकेले अपनी दम पर भ्रष्ट व्यवस्था से लड़कर बुराई का खात्मा करते हैं। फिल्म की कहानी में सत्य का अंश हो सकता है, लेकिन हम जानते हैं कि उनमें अधिकतर कल्पना की ऊंची उड़ान होती है, इसलिए फिल्म में जो कुछ वर्णित है, उसे अंतिम सत्य मानना उचित नहीं होगा। फिल्मों की विवेचना हो तो यह स्मरण रखना उतना लाजिमी है कि न तो हर राजनेता खलनायक होता है और न हर अधिकारी नायक। बहरहाल, 'सूखा' फिल्म के एक संवाद से अपने लेख का प्रारंभ करने के पीछे मेरा मकसद कुछ और ही था कि आज से तीन-चार दशक पहले जो ईमानदार अफसर सत्तातंत्र की विसंगतियों का मुकाबला करते हुए थक रहा था, निराश हो रहा था, वह आज कहां है? मैं उसे आभासी दुनिया से बाहर व्यवहारिक जगत में देखने की कोशिश कर रहा हूं। इसमें जो दृश्य सामने आता है, वह मुझे भयानक प्रतीत होता है और नई चिंता से भर देता है।
पिछले सप्ताह पश्चिम बंगाल में जो घटित हुआ, उस पर एक नज़र डालिए। सीबीआई का दस्ता कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार के आवास पर पहुंचता है। उद्देश्य है- शारदा चिटफंड घोटाले में उनसे पूछताछ। आशंका है कि उन्हें गिरफ्तार किया जाएगा। सरकारी आवास पर तैनात सुरक्षाकर्मी सीबीआई अधिकारियों को न सिर्फ रोकते हैं, बल्कि उल्टे उनको ही पुलिस थाने भेज देते हैं। घटना के विवरणों में मैं नहीं जाऊंगा। खबर सबको पता है। राज्य की मुख्यमंत्री, अनेक अधिकारी, अंतत: सर्वोच्च न्यायालय, दृश्य में एक के बाद एक प्रकट होते हैं। अदालत राजीव कुमार को गिरफ्तार न करने के आदेश देती है और राजीव कुमार को राज्य के बाहर तटस्थ स्थान याने शिलांग में सीबीआई की जांच में सहयोग करने निर्दिष्ट करती है। कुछ समय के लिए एक संवैधानिक संकट जैसी स्थिति उत्पन्न होने की आशंका बनने लगती है। कहा नहीं जा सकता कि उसमें आगे क्या होगा। यहां उल्लेखनीय है कि उस दिन सीबीआई में कोई पूर्णकालिक निदेशक न होकर एक कार्यवाहक या अस्थायी निदेशक है और वह स्वयं अनेक विवादों में घिरा हुआ है।
इस बीच छत्तीसगढ़ में पुलिस के एक आला अफसर को एक अन्य अधिकारी के साथ निलंबित कर दिया जाता है। सिर्फ दो माह पहले तक मुकेश गुप्ता को प्रदेश का सबसे ताकतवर पुलिस अफसर माना जाता था, जो सिवाय मुख्यमंत्री के अन्य किसी के प्रति जवाबदेह नहीं था। तत्कालीन मुख्यमंत्री के परम विश्वस्त अधिकारी अमन सिंह के खिलाफ भी आवाज़ें उठती हैं। उन पर तरह-तरह के आरोप लगते हैं। प्रदेश के एक होनहार व सक्षम माने-जाने वाले आईएएस अधिकारी डॉ. आलोक शुक्ला एक बड़े घोटाले में आरोपी होकर पहले से ही निलंबित हैं। लेकिन यह स्थिति पश्चिम बंगाल या छत्तीसगढ़ तक सीमित नहीं है। उत्तरप्रदेश में मुख्य सचिव रहे अखंड प्रताप सिंह और सुश्री नीरा यादव के नाम अनायास ध्यान आते हैं। याद करेंगे तो हरेक प्रांत से एक-दो प्रकरण अवश्य मिल जाएंगे। केंद्र सरकार में सचिव रहे एच.सी. गुप्ता व पी.सी. पारख का नामोल्लेख भी यहां किया जा सकता है। सवाल उठता है कि ऐसे प्रकरण घटित होने की नौबत ही क्यों आ रही है?
जिस भारतीय प्रशासनिक सेवों को सरदार पटेल ने शासन संचालन के लिए इस्पाती ढांचा निरूपित किया था, क्या उसमें समय के साथ जंग लग चुकी है? यदि उत्तर हां में है तो इस शोचनीय दशा में पहुंचने के कारणों की खोज करना और उनका निदान करने की तत्काल आवश्यकता है। हां, जब बात भारतीय प्रशासनिक सेवा की हो रही है तो विषय को समग्रता में जानने के लिए अन्य सेवाओं को उसमें शामिल मान लेना चाहिए। यह समयसिद्ध है कि किसी भी समाज या देश में प्रशासन तंत्र पूरी तरह से भ्रष्टाचार मुक्त नहीं रहा है; लेकिन आज भारत में जो स्थिति है वह कल्पनातीत है। भ्रष्टाचार से यहां हमारा आशय सिर्फ रिश्वत के लेन-देन से नहीं है, बल्कि बात उसके बहुत आगे जाती है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि हमारे देश में प्रशासन तंत्र पूरी तरह चरमरा गया है। अधिकारी और कर्मचारी जिन्हें हम लोकसेवक की संज्ञा देते हैं, वे तो प्रथम दृष्टया दोषी है ही, लेकिन उनके पीछे जो अदृश्य शक्तियां काम करती हैं, उनकी ओर से निगाह फेर लेने से काम नहीं चलेगा।
मैंने ऐसे राजनेताओं को देखा है जिन्होंने अपने अधीनस्थों पर कभी भी अनुचित दबाव नहीं डाला, बल्कि उन्हें अभय दिया कि वे लोक महत्व के किसी भी मुद्दे पर खुलकर अपनी राय व्यक्त करें, सरकारी फाइल में उसकी नोटिंग करें। दूसरे शब्दों में इन नेताओं ने अधिकारियों-कर्मचारियों को कभी बलि का बकरा नहीं बनाया और अपने निर्णयों की जिम्मेदारी खुद स्वीकार करने में आनाकानी नहीं की। वर्तमान समय में यदि यह स्थिति बदल गई है तो इसमेें नेताओं की मानसिक दुर्बलता भी प्रकट होती है। जो सामने है वह सबको दिखता है, किंतु इस तस्वीर का एक तीसरा पहलू भी है। वही सबसे अधिक भयानक और सर्वाधिक चिंताजनक है। आज दुनिया एक ऐसे मुकाम पर आकर खड़ी है, जहां वैश्विक पूंजीवाद की ताकतें सर्वग्रासी, सर्वभक्षी होते जा रही हैं। भ्रष्टाचार को संगठित, सांस्थानिक स्वरूप देने का काम इन्होंने किया है। एक तरफ इन्होंने मनुष्य के मन में असीमित इच्छाएं जागृत कर दी हैं, दूसरी ओर उन्हें हासिल करने के नए-नए रास्ते खोल दिए हैं। ये ताकतें देशों की सार्वभौमिकता का तिरस्कार करती हैं और राष्ट्रीय सरकारों की निर्णयक्षमता व न्यायबुद्धि में पलीता लगाती हैं। इसके लिए ये तरह-तरह के प्रलोभनों में नेताओं व अधिकारियों को उलझाती हैं।
यदि विश्व के मानचित्र पर निगाह डालें तो इनकी कुटिल चालों का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। वेनेजुएला में निकोलस मदूरो की निर्वाचित सरकार को अस्थिर करना ज्वलंत उदाहरण है। कभी विश्व में लोकप्रिय रहे ब्राजील के पूर्व राष्ट्रपति लुला आज जेल में हैं। ध्यान रहे कि वैश्विक पूंजी के एजेंट, समर्थक व अनुयायी हरेक देश में हैं। दुर्भाग्य यही है कि आज जो सत्तातंत्र के अंग हैं, वे इनके चक्रव्यूह में फंस जाते हैं। तीसरी दुनिया के देशों की क्या बात करें, इन्हीं ताकतों के चलते कभी विश्व की दूसरी महाशक्ति माने जाने वाले सोवियत संघ तक का विघटन हो गया। फिर येल्तसिन के शासनकाल में रूस की जो दुर्गति हुई, वह विश्व इतिहास का एक त्रासद अध्याय है।
इस दुर्दशा से बाहर निकलना असंभव नहीं है, लेकिन आसान भी नहीं है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध नारे लगाने और मोमबत्तियां जलाने से कुछ नहीं होगा। जनलोकपाल जैसी फर्जी बहसें भी कहीं नहीं ले जाएंगी। मिठलबरे साधु-सन्यासियों के प्रवचन भी किसी काम के नहीं हैं। भारत को गर्त से बाहर निकाल आगे ले जाने का काम सिर्फ वे युवजन कर सकते हैं, जो पद, धन, यश, पदवी के लोभ और हर तरह के प्रलोभनों से मुक्त हो देश के किसानों-मजदूरों याने आमजन के बीच जाकर काम कर सकें।
#देशबंधु में 14 फरवरी 2019 को प्रकाशित

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