देश की संसद ने 9 जनवरी को 124वां संविधान संशोधन विधेयक लगभग सर्वसम्मति से पारित कर दिया। विपक्ष में पड़े वोटों की संख्या नगण्य थी। इस संशोधन का उच्च सवर्ण हिन्दुओं व अन्य जातियों के गरीबों के लिए दस प्रतिशत का आरक्षण लागू करना है। यह प्रावधान वर्तमान में जारी पचास प्रतिशत आरक्षण के अतिरिक्त होगा। आश्चर्यजनक है कि कांग्रेस पार्टी ने भी सत्तारुढ़ भाजपा द्वारा हड़बड़ी में लाए गए इस विधेयक पर बहस में विरोध की औपचारिकता पूरी की लेकिन मतदान में सत्तापक्ष का साथ दिया। भारतीय जनता पार्टी ने विधेयक को पारित करवा आरक्षण की अवधारणा को सिर के बल खड़ा कर दिया है। संविधान में आरक्षण के प्रावधान के पीछे कौन सी भावना और क्या कारण थे, उन्हें दरकिनार कर यह बड़ा कदम उठाया गया है। एक बार फिर देश के सर्वोच्च न्यायालय से ही उम्मीद की जा सकती है कि उसके संज्ञान में लाए जाने पर वह इस भयंकर भूल को सुधारने के लिए आवश्यक निर्णय लेगा। (यद्यपि पहली सुनवाई में उसने विधेयक को स्थगित करने से इंकार कर दिया है।)
आरक्षण की अवधारणा ने कब, कैसे जन्म लिया, इसे ठीक से समझ लेना होगा। साहित्यिक साक्ष्य इसमें हमारी सहायता करते हैं। महाकवि वाल्मीकि को भारतीय परंपरा में आदिकवि होने का ओहदा प्राप्त है। उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार वाल्मीकि रामायण की रचना लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व हुई थी। रामायण के उत्तर कांड में वर्णित है कि वेदपाठी तपस्वी शंबूक नामक शुद्र की हत्या भगवान राम ने की थी। इस प्रसंग से अनुमान लगा सकते हैं कि भारतीय समाज में जातिगत भेदभाव, सवर्ण श्रेष्ठता, दलित उत्पीडऩ आदि प्रवृत्तियों को इतने लम्बे समय से मान्यता हासिल है। महाकवि भवभूति के उत्तर रामचरित में भी शंबूक वध का वर्णन है। मनुस्मृति में वर्णभेद को स्वीकृति दी गई है, जिसके अनुसार किसी अपराध के लिए एक समान दंड न देकर जातीय श्रेष्ठता या निम्नता के अनुसार दंड देने की व्यवस्था प्रस्तावित है। ऋग्वेद के दशम मंडल के अंतर्गत पुरुष सूक्त में भी विभिन्न वर्णों की उत्पत्ति का सिद्धांत इसे विभेदकारी मान्यता की पुष्टि करता है।
भारतीय संस्कृति के अनेकानेक स्वयंभू रक्षक और प्रवक्ता इन तमाम आख्यानों का औचित्य सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। उदाहरण के लिए एक कथित धर्मरक्षक कहते हैं कि हिन्दुओं में देवता के चरणों का बड़ा महत्व है और पुरुष सूक्त में जिस विराट पुरुष का उल्लेख है, वे तो साक्षात भगवान विष्णु हैं, जिनके चरण कमलों की वंदना की जाती है। इन श्रीचरणों से प्रकट हुए शूद्र भला कैसे निम्न हो सकते हैं? इस व्याख्या को मान लीजिए और अपने भाग्य को सराहिए कि आप शूद्र हैं!! कुछेक अन्य महाशय शंबूक वध को प्रक्षिप्त पाठ मानते हैं, अर्थात् उसे परवर्ती काल में वाल्मीकि रामायण में जोड़ा गया। उनका कहना है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ऐसा कर ही नहीं सकते थे। यह तो जब भारत-भूमि पर धर्म की हानि होने लगी तब इस तरह की किस्से-कहानियां कहीं से लाकर जोड़ दी गई। याने हमारे सामने दो तरह के तर्क हैं। एक में जातिगत भेदभाव का औचित्य सिद्ध करने की कोशिश है; दूसरे में वास्तविकता को जानते हुए उसे छुपाने का उपक्रम।
हमारी दृष्टि में जातिभेद सिद्धांत की हिमायत करने वाले जन मूढ़ हैं और इनके साथ बहस करना पत्थर पर सिर मारना है। जिन्हें प्रक्षिप्तता का दोष दिखाई देता है, उनसे अवश्य यह पूछा जा सकता है कि वे प्रक्षिप्त अंश कब लिखे गए, क्यों लिखे गए और उन्हें मूल पाठ में जोडऩे के पीछे उनकी मंशा क्या थी। ज़ाहिर है कि इनका उद्देश्य एक वर्चस्ववादी सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था कायम करना था। यदि समाज में एकता और समरसता होगी तो उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। इसके लिए जरूरी है कि जनता को बरगलाकर उसमें फूट डाली जाए। ईश्वरीय सत्ता, देवी-देवताओं के चमत्कार आदि के सहस्रों, मिथक गढ़कर काम साधा गया। इस दुरभिसंधि का प्रारंभ तीन हजार वर्ष पूर्व हुआ या एक हज़ार वर्ष पूर्व, यह महत्वपूर्ण नहीं है। इतना हम कह सकते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास ने जब रामचरित मानस की रचना की, अर्थात् चार सौ वर्ष पूर्व, तब तक हमारा समाज बुरी तरह बंट चुका था। उनके पहले हुए कबीरदास ने आडंबर और पाखंड पर जो तीखे आक्रमण किए, वे भी उनके समय में समाज में यह कैंसर फैलने की पुष्टि करते हैं।
लम्बे समय से विद्यमान अन्यायकारी सामाजिक व्यवस्था का विरोध करने में कबीर अकेले नहीं थे। इस परंपरा में रैदास, तुकाराम सहित अनेक मनीषियों के नाम जुड़ते हैं। किन्तु हमें किसी संगठित, सुगठित, परिमाणमूलक अभियान के साक्ष्य इस अवधि में नहीं मिलते। दूसरे शब्दों में यथास्थिति कायम रही आती है। मनुवादी आचार संहिता को औपचारिक तौर पर चुनौती मिलती है, जब भारत में औपनिवेशिक सत्ता कायम होती है। यह इतिहास की विडंबना है, लेकिन इसमें अन्तर्निहित सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता। अंग्रेजी राज के दौरान लॉर्ड मैकाले की अगुवाई में जो भारतीय दंड संहिता सन् 1860 में लागू हुई, कुछेक परिवर्तनों के बावजूद आज भी हमारी दांडिक न्याय प्रणाली उसी के आधार पर चल रही है, जो सामाजिक कोटियों को मान्यता नहीं देती। बेशक, वह 1860 के आगे-पीछे का समय था जब अनेक देशज सुधारवादी आंदोलनों ने जनमानस को बदलने में युगांतरकारी योगदान किया। राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, महादेव गोविंद रानाडे, महात्मा फुले, सावित्री बाई फुले, फातिमा शेख, प्रभृति इन आंदोलनों के प्रणेता थे जिन्होंने सती प्रथा का अंत, स्त्री शिक्षा, छुआछूत उन्मूलन जैसे विविध मिशनों पर जनता को प्रेरित किया।
सामाजिक न्याय, समानता, बंधुत्व, मानवीय गरिमा और बहुलतावाद को प्रतिष्ठित करने वाली इस परंपरा को आगे ले जाने का काम महात्मा गांधी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, रामास्वामी नायकर और बाबा साहेब आम्बेडकर ने किया, जिसकी परिणति स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माण में होती है। यदि हम साहित्य जगत से साक्ष्य लेना चाहें तो स्वामी अछूतानंद व हीरा डोम के नाम बीसवीं सदी के प्रारंभकाल में सामने आते हैं। उन पर इस बीच अनेक मित्रों ने चर्चा की है। आज हमारा अभीष्ट है कि सामाजिक-राजनैतिक ढांचे के भीतर इस उथल-पुथल का संज्ञान लेते हुए मोदी सरकार द्वारा लाए गए संविधान संशोधन विधेयक की मंशा, उसके परिणाम और भविष्य की दिशा के बारे में गौर करें।
बात साफ है। आरक्षण का बुनियादी मकसद आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना नहीं, बल्कि मनुष्य मात्र की गरिमा स्थापित करने के लिए आवश्यक नीतिगत उपाय अपनाना है। इस कटु सत्य को स्वीकार करना होगा कि सामाजिक कोटियों के निम्नतम स्तर पर जिन्हें बांधकर रखा गया था अर्थात् दलित और आदिवासी, वे ही आर्थिक दृष्टि से सबसे कमजोर थे; समान अवसर की सर्वाधिक आवश्यकता उनको ही थी; और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उनका समावेश करना एक नैतिक दायित्व था। वंचित समुदायों के लिए आरक्षण के प्रावधान का अर्थ था कि इन्हें जनसंख्या के अनुपात में प्रशासन तंत्र में प्रतिनिधित्व दिया जाए, ताकि उपरोक्त तीन कमियों को दूर करने में मदद मिल सके। आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग उठाने वालों से अपेक्षा की जाती थी कि वे निर्मल चित्त से वस्तुस्थिति को समझें। अफसोस कि वे ऐसा नहीं कर रहे हैं। उनकी जातीय स्मृतियां सत्य को समझने में बाधक बन रही हैं। वे आज भी अपनी सोच के तंग दायरे से बाहर निकलने से इंकार कर रहे हैं।
सवर्ण समाज दलितों व आदिवासियों के साथ कैसा सुलूक करता है, इसके रोज नए दृष्टांत सामने आते हैं। उन्हें अभी गिनाना आवश्यक नहीं है। यहां हम एक अन्य प्रश्न से मुखातिब होते हैं कि ओबीसी या कि अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का औचित्य क्या है। मेरी समझ में इसके दो कारण हैं। एक तो जिन्हें ओबीसी कहा जाता है, वे दरअसल कृषक और कृषि-श्रमिक हैं। अपनी विशिष्ट जीवन स्थितियों के चलते वे सत्ता केन्द्र से दूर रहे हैं। और वे भी लगातार अन्याय, शोषण और तिरस्कार का शिकार होते हैं। शिष्ट समाज ने उन्हें कभी अपने बराबर नहीं माना। दूसरे, विभिन्न कारणों से खेती के भरोसे जीवन यापन करना कठिन से कठिनतर होते जा रहा है। इस वर्ग के नौजवान जाएं तो कहां जाएं? इसीलिए हाल के बरसों में ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़ी अपेक्षाकृत संपन्न मानी जाने वाली जातियां भी आरक्षण मांगने के लिए आंदोलन की राह पर चल पड़ी हैं।
बहरहाल आज सबसे गंभीर सवाल है कि यह जो चक्रव्यूह सा बन गया है इससे बाहर निकलने का रास्ता क्या है। एक तरफ आरक्षण का बढ़ता हुआ दायरा, उसके लिए बढ़ती हुई मांग; और दूसरी ओर रोजगार के निरंतर घटते हुए अवसर। इसमें यदि शत-प्रतिशत आरक्षण भी कर दिया जाए तब भी न तो शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध होंगे और न दर-दर भटकते युवाओं को रोजगार ही मिल पाएगा। मेरा पहला सुझाव है कि भारत सरकार को तत्काल एक नए आरक्षण आयोग का गठन करना चाहिए, जो ताजा परिस्थितियों का सम्यक अध्ययन कर एक नई आरक्षण नीति प्रस्तावित करे। दूसरा सुझाव है कि निजी क्षेत्र में सर्वत्र आरक्षण लागू किया जाए। तीसरे कुटीर, लघु और मध्यम उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए। रोजगार के अवसर वहीं है। चौथे, शिक्षा के अधिकार कानून के तहत समान प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा का प्रावधान किया जाए। हर जाति, वर्ग, समुदाय, पृष्ठभूमि के बच्चे एक साथ पड़ोस के स्कूल में पढ़ाई करें। शिक्षा का अभिजात्य समाप्त करना बेहद जरूरी है। पांचवें, जनसंख्या नियंत्रण पर ध्यान दिया जाए। यह काम तार्किक विधि से हो, न कि भावनाओं की राजनीति से।
अक्षर पर्व फरवरी 2019 अंक की प्रस्तावना